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________________ तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक गर्भस्थ जीव के मल यावत् खून नहीं होता है ? गौतम ! गर्भस्थ जीव (माता के शरीर से) जो आहार करता है, उसको श्रोतेन्द्रिय, चक्षुन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय के रूप में हड्डी, मज्जा, केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम और नखों के रूप में उपचित करता है। हे गौतम! इस कारण यह कहा जाता है कि गर्भस्थ जीव को मल यावत् खून नहीं होता है। (गर्भस्थ जीव को आहार विधि) (२१) हे भगवन् ! गर्भस्थ समर्थ जीव मुख के द्वारा कवल-आहार करने में समर्थ है ? हे गौतम! यह अर्थ योग्य नहीं है। भगवन् ! किस कारण से (आप) ऐसा कहते हैं कि गर्भस्थ जीव मुख के द्वारा कवल-आहार करने में ( सक्षम ) नहीं है? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है, सभी ओर से परिणमित करता है, सभी ओर से श्वास लेता है और छोड़ता है। निरन्तर आहार करता है और निरन्तर (उसे) परिणमित करता है, निरन्तर श्वास लेता है और छोड़ता है। (वह गर्भस्थ जीव) जल्दी-जल्दी आहार करता है और जल्दी-जल्दी ही उसे परिणमित करता है, (वह) जल्दी-जल्दी श्वास लेता है और श्वास छोड़ता है। माता के शरीर से प्रतिबद्ध पुत्र के शरीर को स्पर्शित करने वाली माता के शरीर रस की ग्राहक और पुत्र के जीवन रस की संग्राहक (एक नाड़ी होती है जिसके कारण गर्भस्थ जीव) जैसा आहार ग्रहण करता है वैसा ही उसे परिणमित करता है। पुनः पुत्र के शरीर से प्रतिबद्ध हो माता के शरीर को स्पर्श करने वाली एक अन्य नाड़ी होती है उससे जैसा चय होता है वैसा ही उपचय होता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि समर्थ गर्भस्थ जीव कवल-आहार को मुख द्वारा ग्रहण नहीं करता है।' (१) गर्भस्थ अवस्था में माता के शरीर से पुत्र के शरीर को जोड़ने वाली जो .. नाड़ियाँ होती हैं उनके माध्यम से ही गर्भस्थ जीव माता के द्वारा परिण मित और उपचित आहार को ग्रहण करता है और निस्सरित करता है इसलिए यह कहा जाता है कि गर्भस्थ जीव न तो मुख से आहार करने में सक्षम है और न उसके अपने मल, मूत्र, पित्त, कफ आदि होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001142
Book TitleAgam 28 Prakirnak 05 Tandul Vaicharik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_tandulvaicharik
File Size6 MB
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