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तंदुलवैचारिकप्रकीर्णक
(१३४) चर्बी, वसा, रसिका (पीव), कफ, श्लेष्म, मेद-ये सिर के भूषण है,
ये निज शरीर के स्वाधीन है । अर्थात् वह इन्हीं से निर्मित है। (१३५) (यह शरीर) भूषित होने के अयोग्य है, विष्ठा का घर है, दो पैर __ और नौ छिद्रों से युक्त है, तीव्र दुर्गन्ध से भरा हुआ है । (जिसमें)
अज्ञानी मनुष्य अत्यन्त मूर्छित और आसक्त होता है। (१३६) कामराग से रंगे हुए (तुम) गुप्त अंगों को प्रकट करके दाँतों के
चिकने मल का और शीर्ष घटिका (खोपड़ी) से निसृत काजि अर्थात्
विकृत रस को पीते हो। (१३७) हाथियों का दंत-मसलों के लिए, खरगोश और मृगों का मांस के
लिए, चमरी-गाय का बालों के लिए और चीते का चर्म और नाखून के लिए ग्रहण किया जाता है (अर्थात् सबका शरीर कुछ न कुछ काम
आता है, किन्तु मनुष्य का शरीर किसी के काम का नहीं है)। (१३८) हे मूर्ख ! यह शरीर दुर्गन्ध युक्त और मरण स्वभाव वाला है । इसमें
नित्य विश्वास करके तुम क्यों आसक्त हो रहे हो? इसका स्वभाव
तो कहो? (१३९) दाँत भी किसी कार्य के नहीं हैं, बढ़े हुए बाल भी घृणा के योग्य
हैं, चर्म भी बीभत्स है फिर कहो ! तुम किसमें राग रखते हो ? (१४०) कफ, पित्त, मूत्र, विष्ठा, वसा, दाढ़ों आदि (अपवित्र वस्तुओं में)
कहो ! किसके लिए तुम्हारे द्वारा राग किया जा रहा है । (१४१) जंघा की हड्डियों के ऊपर ऊरू स्थित है और उसके ऊपर कटि
भाग स्थित है। कटि के उपर पृष्ठ-भाग स्थित है। पृष्ठ भाग (पीठ)
में १८ हड्डियाँ होती हैं। (१४२) दो आँख की हड्डियाँ, सोलह गर्दन की हड्डियाँ जाननी चाहिए।
पीठ में बारह पसलियाँ स्थित होती हैं। ... (१४३) शिरा और स्नायुओं से बँधा कठोर हड्डियों का यह ढाँचा, मांस
और चमड़े में लिपटा हुआ है। (यह शरीर). विष्ठा का घर है । ऐसे
मल के घर में कौन राग करेगा? . (१४४) जैसे विष्ठा के कुंए के समीप कौए मँडराते रहते हैं, उसमें कृमियों
के द्वारा सुल-सुल शब्द होता रहता है. और स्रोतों से दुर्गन्ध निकलती रहती है (मृत होने पर शरीर की भी यही दशा होतो है)।
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