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भूमिका
स्थितियों में अथवा भूख, प्यास और कामवासना की पूर्ति में अपने जीवन को व्यर्थ गंवाते हैं अतः उन्हें चारित्र रूपी श्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहिए । (९९-१०७)
शरीर का स्वरूप-मनुष्य के शरीर में पीठ की हड्डियों में १८ संधियाँ हैं । उनमें से १२ हडिव्या मिली हुई हैं जो पसलियाँ कहलाती हैं । शेष छः सन्धियों से छः हडिड क र हृदय के दोनों तरफ छाती के नीचे रहती हैं। मनुष्य की कुक्षि चारह अंगुल परिमाण, गर्दन चार. अंगुल परिमाण, बत्तीस दाँत और सात अंगुल प्रमाण की जीभ होती है। हृदय साढ़े तीन पल का होता है। मनुष्य शरीर में दो आँतें, दो पाव, १६० संधि स्थान १०७ मर्म स्थान, ३०० अस्थियाँ, ९०० स्नायु, ७०० नसें, ५०० पेशियाँ, नौ रसहरणी नाड़ियाँ, सिराएँ, दाढ़ी-मूंछ को छोड़कर.. ९९ लाख रोमकूप तथा इन्हें मिलाकर साढ़े तीन करोड़ रोमकूप होते. हैं। मनुष्य के नाभि से उत्पन्न सात सौ शिराएं होती हैं। उनमें से १६० शिराएँ नाभि से निकल कर सिर से मिलती हैं, जिनसे नेत्र, श्रोत, घ्राण.
और जिह्वा को कार्यशक्ति प्राप्त होती है। १६० शिराएँ नाभि से निकलकर पैर के तल से मिलती हैं, जिनसे जंघा को बल प्राप्त होता है । १६० शिराएँ नाभि से निकलकर हाथ तल तक पहुँचती हैं, जिनसे बाहुबलप्राप्त होता है। १६७ शिराएँ नाभि से निकलकर गुदा में मिलती हैं, जिनसे मलमत्र का प्रस्रवण उचित रूप से होता है। मनुष्य के शरीर में कफ को धारण करने वाली २५, पित्त को धारण करने वाली २५ और वीर्य को धारण करने वाली १० शिराएँ होती हैं। पुरुष के शरीर में. नौ और स्त्री के शरीर में ग्यारह द्वार (छिद्र) होते हैं । (१०८-११३) __ शरीर का अशुचित्त्व-इस ग्रन्थ में शरीर को सर्वथा अपवित्र और अशुचिमय कहा गया है। शरीर के भीतरी दुर्गन्ध का ज्ञान नहीं होने के कारण ही पुरुष स्त्री शरीर को रागयुक्त होकर देखता है और चुम्बन आदि के द्वारा शरीर से निकलने वाले अपवित्र स्रावों का पान करता है । (१२०-१२९) इस दुर्गन्धयुक्त नित्य मरण की आशंका वाले शरीर में गृद्धः नहीं होना चाहिए । कफ, पित्त, मूत्र, बसा आदि में राग बढ़ाना उचित नहीं है। जो मल-मत्र का कूआँ है और जिसपर कृमि सुल-सुल का शब्द करते रहते हैं, उसमें क्या राग करना ? जिसके नौ अथवा ग्यारहद्वारों से अशुचि निकालती रहती है उस पर राग करने का क्या अर्थ है ? यहाँ कहते है कि तुम्हारा मुख मुखवास से सुवासित है, अंग अगर आदि के उबटन से महक रहे हैं, केश सुगन्धित द्रव्यों से सुगन्धित है, तो हे मनुष्य ! तेरी अपनी
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