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तंदुलर्वचारिक प्रकीर्णक
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(५६) दस वर्ष (तक) की उम्र दैहिक विकास की, बीस वर्ष तक की उम्र विद्या को ग्रहण करने की, तीस वर्ष तक की उम्र विषय सुख भोगने की और चालीस वर्ष तक की उम्र विशिष्ट ज्ञान की होती है ।
(५७) पचास वर्ष की आयु में आँख की दृष्टि क्षीण होने लगती है, साठ वर्ष की उम्र में 'बाहुबल क्षीण होने लगता है, सत्तर वर्ष की उम्र में विषय - सुख भोगने की सामर्थ्य क्षीण होने लगती है और अस्सी वर्ष की आयु में आत्म- चेतना भी क्षीण हो जाती है ।
(५८) नब्बे वर्ष की उम्र शरीर को झुका देती है। सौ वर्ष की आयु जीवन समाप्त हो जाता है (इस प्रकार ) यहाँ जीवन में कितना सुख का भाग है और कितना दुःख का भाग है (यह बतलाया गया है) ।
( दस दशाओं में सुख-दुःख का विवेक और धर्म-साधना का उपदेश)
(५९) जो सौ वर्ष सुखपूर्वक जीवित रहता है (अर्थात् जीता है) और भोगों को भोगता है, उसके लिए भी जिन-भाषित धर्म का सेवन करना श्रेयस्कर है।
(६०) ( जो मनुष्य नित्य दुःख युक्त और कष्टपूर्ण अवस्था में ही जीवन जीता हो, उसके लिए क्या श्रेयष्कर है ? उत्तर में कहा गया कि उसके लिए जिनेन्द्रों द्वारा उपदेशित श्रेष्ठतर धर्म का पालन करना ही कर्त्तव्य है ।
(६१)(सांसारिक सुख भोगता हुआ (मनुष्य यह सोचकर ) धर्म का आचरण करे कि इससे मुझे भवान्तर में श्रेष्ठ सुख प्राप्त होगा । दुःखी होता हुआ भी ( मनुष्य यह सोचकर ) धर्म का आचरण करे कि भवान्तर दुःख को प्राप्त नहीं होऊँगा ।
में
(६२), नर अथवा नारी को जाति, कूल, विद्या और सुशिक्षा भी (संसार--- समुद्र से) पार नहीं उतारते हैं, ये सभी तो शुभ कर्मों से ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं ।
(६३) शुभ कर्मों के क्षीण होने से पौरुष भी क्षीण हो जाता है और शुभ कर्मों के वृद्धि को प्राप्त होने पर पौरुष भी वृद्धि को प्राप्त होता है ।
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