Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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[ २२ ]
उपनिषद में कालवाद, स्वभाववाद नियतिवाद,
छावाद आदि की चर्चा है।'
मैत्रायणी उपनिषद् में कालवाद की स्पष्ट मान्यता प्रदर्शित है । उस समय में ये विभिन्न वाद बहुत प्रचलित थे । अतः तत्कालीन सभी परम्पराओं के साहित्य में उनका उल्लेख होना स्वाभाविक है। महावीर और बुद्ध का युग सम्प्रदायों की बहुलता का युग रहा है। दीघनिकाय के ब्रह्मजालसूत्त में ६२ मतवाद वर्णित हैं । प्रस्तुत सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के बारहवें अध्ययन में चार वादों का वर्णन मिलता है'
१. क्रियावाद २. अक्रियावाद
मूल आगम में इनके भेदों का उल्लेख नहीं हैं। निर्मुक्तिकार ने इन चार वादों के ३६३ भेदों का उल्लेख किया है ।
समवाय में आए हुए सूत्रकृत के विवरण में भी इनका उल्लेख है, जो पहले बताया जा चुका है। इससे इतना स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के युग में मतवादों की बहुलता थी। वीरसेनाचार्य के अनुसार इन ३६३ मतवादों का वर्णन दृष्टिवाद का विषय है । उन्होंने घवला में लिखा है--दृष्टिवाद में ३६३ दृष्टियों का निरूपण और निग्रह किया जाता है ।"
जयवता में उन्होंने लिखा है- दृष्टिवाद के सूत्र नामक दूसरे प्रकार में नास्तिवाद कियाबाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकवाद का वर्णन है ।
३. अज्ञानवाद
४. विनयवाद
समवाय तथा नंदी में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है । नंदी की चूर्ण तथा वृत्ति में इसका कोई वर्णन नहीं है फिर भी दृष्टिवाद नाम से ही यह प्रमाणित होता है कि उसमें समस्त दृष्टियों - दर्शनों का निरूपण है । दृष्टिवाद द्रव्यानुयोग है । तत्त्वमीमांसा उसका मुख्य विषय है। इसलिए उसमें दृष्टियों का निरूपण होना स्वाभाविक है।
प्रस्तुत सूत्र में दृष्टियों का प्रतिपादन मुख्य विषय नहीं है, किन्तु आचार-स्थापना की पृष्ठभूमि में विभिन्न दर्शनों के दृष्टि कोणों को समझना आवश्यक है। इस दृष्टि से वह प्रासांगिक रूप में वर्णित है ।
भ० महावीर के युग में ३६३ मतवाद थे यह समवायगत सूत्रकृतांग के विवरण तथा सूत्रकृतांगनियुक्ति से ज्ञात होता है । किन्तु उन मतवादों तथा उनके आचार्यों के नाम वहां उल्लिखित नहीं हैं । उत्तरवर्त्ती व्याख्याकारों ने ३६३ मतवादों को गणित की प्रक्रिया से समझाया है, किन्तु वह मूलस्पर्शी नहीं लगता। ऐसा प्रतीत होता है कि ३६३ मतों की मौलिक अर्थ-परम्परा विच्छिन्न होने के पश्चात् उन्हें गणित की प्रक्रिया के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया गया है ।
श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों के साहित्य में किञ्चित् प्रकार-भेद के साथ वह प्रक्रिया मिलती है। उसके लिए आचारांग वृत्ति १|१|१|४, स्थानांगवृत्ति ४/४/३४५, प्रवचनसारोद्वार गाथा ११८८, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ७८७ ८८४-८ द्रष्टव्य हैं ।
१. श्वेताश्वतर उपनिषत् १०२; ६ । १ ।
२ मैत्रायणी उपनिषत् ६०१४, १५ ।
३ सूयगडो १।१२।२ ।
४. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति गाथा ११२, ११३ : असिवसयं किरियाणं, अक्किरियाणं च होइ चुलसीती ।
अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ||
तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वण्णिया इहऽज्भयणे । समावणिच्छत्थं समोसरणमाहु तेणं ति ॥
५.
पृ० १०८ एव दृष्टितानां त्रयाणां वित्तराणं प्ररूपणं निग्रहश्व दृष्टिवादे किय
६. कसायपाहुड, जयधवला, पृ० १३४ : जं सुत्तं णाम तं जीवो अबंधओ अकत्ता णिग्गुणो अभोत्ता सओ अणुमेत्तो णिच्चेयणो सपयासओ परप्पयासओ णत्थि जीवो त्ति य णत्यिपवादं, किरियावादं अकिरियावादं अण्णाणवादं णाणवादं वेणइयवादं अणेयपयारं गणिदं च वण्णेदि ।
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"अस किरिया अविकरियाच आपुलसीदि।" ससागीणं वेगइया बत्तीसं ॥६६॥
एटीएमहाए गितितितिसमवायं वण्णणं कुर्यादि ति मणि होदि
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