Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ तीर्थंकर प्रभु तीर्थ-प्रवर्तन के प्रारम्भ में आचारांग के अर्थ का प्ररूपण करते हैं और गणधर उसी क्रम से सूत्र की संरचना करते हैं। अतः अतीत काल में प्रस्तुत आगम का अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता था। आचारांग का अध्ययन किये बिना सूत्रकृतांग प्रभृति आगम साहित्य का अध्ययन नहीं किया जा सकता था।' जिनदास महत्तर ने लिखा है - आचारांग का अध्ययन करने के बाद ही धर्मकथानुयोग; गणितानुयोग, और द्रव्यानुयोग पढ़ना चाहिए। यदि कोई साधक आचारांग को बिना पढ़े अन्य आगम-साहित्य का अध्ययन करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। व्यवहारभाष्य में वर्णन है कि आचारांग के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन से नवदीक्षित श्रमण की उपस्थापना की जाती थी और उसके अध्ययन से ही श्रमण भिक्षा लाने के लिए योग्य बनता था। आचारांग का अध्ययन किये बिना कोई भी श्रमण आचार्य जैसे गौरव-गरिमायुक्त पद को प्राप्त नहीं कर सकता था। ५ गणि बनने के लिए आचारधर होना आवश्यक है, आचारांग को जैन दर्शन का वेद माना है। भद्रबाहु आदि ने आचारांग के महत्त्व के सम्बन्ध में जो अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं वे आचारांग की गौरव-गरिमा का दिग्दर्शन आचारांग की प्राथमिकता प्राचीन प्रमाणों के आधार से यह स्पष्ट है कि द्वादशांगी में आचारांग प्रथम है, पर वह रचना की दृष्टि से प्रथम है या स्थापना की दृष्टि से, इस सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। नन्दी चूर्णी में आचार्य जिनदास गणी महत्तर ने सूचित किया है कि जब तीर्थंकर भगवान् तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं उस समय वे पूर्वगत सूत्र का अर्थ सर्वप्रथम करते हैं । एतदर्थ ही वह पूर्व कहलाता है। किन्तु जब सूत्र की रचना करते हैं तो 'आचारांग-सूत्रकृतांग' आदि आगमों की रचना करते हैं और उसी तरह वे स्थापना भी करते हैं। अतः अर्थ की दृष्टि से पूर्व सर्वप्रथम हैं, किन्तु सूत्र-रचना और स्थापना की दृष्टि से आचारांग सर्वप्रथम है। इसका समर्थन आचार्य हरिभद्र " तथा आचार्य अभयदेव ने भी किया है। आचारांग चर्णी में लिखा है कि जितने भी तीर्थंकर होते हैं वे आचारांग का अर्थ सर्वप्रथम कहते हैं और उसके बाद ग्यारह अंगों का अर्थ कहते हैं और उसी क्रम से गणधर भी सूत्र की रचना कहते हैं।' ___ आचार्य शीलाङ्क का भी यही अभिमत है कि तीर्थंकर आचारांग के अर्थ का प्ररूपण ही सर्वप्रथम करते हैं और गणधर भी उसी क्रम से स्थापना करते हैं । १० समवायांगवृत्ति में आचार्य अभयदेव ने यह भी लिखा है कि आचारांग-सूत्र स्थापना की दृष्टि से प्रथम है किन्तु रचना की दृष्टि से वह बारहवाँ है। ११ निशीथ चूर्णी भाग ४ पृष्ठ २५२ २. . निशीथ चूर्णी भाग ४ पृष्ठ २५२ निशीथ १६-१ व्यवहार भाष्य ३।१७४-१७५ आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥- आचारांग नियुक्ति गाथा. १० आचारांग नियुक्ति, गाथा ८ (क) नन्दी सूत्र वृत्ति, पृष्ठ ८८ (ख) नन्दी सूत्र चूर्णी, पृष्ठ ७५ समवायांग वृत्ति, पृष्ठ १३०-१३१ सव्वे तित्थगरा वि आयारस्स अत्थं पढमं आइक्खन्ति, ततो सेसगाणं एकारसण्हं अंगाणं ताएच्चेव परिवाडीए गणहरा वि सुत्तं गंथंति । इयाणि पढममंगंति किं निमित्तं आयारो पढमं ठवियो । - आचारांग चूर्णी १०. आचारांग वृत्ति, पृष्ठ ६ ११. समवायांग वृत्ति, पृष्ठ १०१ [२२]

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 ... 430