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का मार्ग वहीं एक आत्मज्योति है, दूसरा नहीं है। उसको छोड़कर किसी दूसरे स्थान में आनन्द की भी सम्भावना नहीं है। शान्त और बर्फ के समान शीतल वही आत्मज्योति संसाररूपी भयानक धूप से निरन्तर सन्ताप को प्राप्त हुए प्राणी के लिये उपचार एवम् आनन्ददायक है। वही एक आत्मज्योति कर्मरूपी शत्रुओं को तिरस्कृत करने वाली श्रेष्ठ सेना है। वही आत्मज्योति विपुल बोध है, वहीं प्रकाशमान मंत्र है, तथा वही जन्मरूपी रोग को नष्ट करने वाली श्रेष्ठ औषधि है। वही आत्मज्योति शाश्वतिक सुखरूपी महाफलों के भार से सुशोभित ऐसे अविनश्चर मोक्षरूपी सुन्दर वृक्ष का एक उत्कृष्ट बीज है। उसी एक उत्कृष्ट आत्मज्योति को तीनों लोकरूपी गृह का नायक समझना चाहिये, जिस एक के बिना यह तीन लोकरूपी गृह निवास से सहित होकर भी उससे रहित निर्जन वन के समान प्रतीत होता है। अभिप्राय यह है कि अन्य द्रव्यों के रहने पर भी लोक की शोभा उस एक आत्मज्योति से ही है। आनन्द की स्थान भूत जो यह आत्मज्योति है वह "जो शुद्ध चैतन्य है वही मैं हूं, इसमें सन्देह नहीं है" इस कल्पना से भी रहित है। मोह के उदय से उत्पन्न हुई मोक्ष प्राप्ति की भी अभिलाषा उस मोक्ष की प्राप्ति में रुकावट डालने वाली होती है, फिर भला शान्त मोक्षाभिलाषी जन दूसरी किस वस्तु की इच्छा करते हैं ? अर्थात् किसी की भी नहीं। मैं एक चैतन्यस्वरूप ही हूँ, उससे भिन्न दूसरा कोई भी स्वरूप मेरा कभी भी नहीं हो सकता। किसी पर पदार्थ के साथ मेरा सम्बन्ध भी नहीं है, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है। ज्ञानी साधु शरीरादि बाह्य पदार्थ विषयक चिन्तासमूह के संयोग से रहित अपने चित्त को निरन्तर शुद्ध आत्मा में स्थित करके रहता है। हे आत्मन । ऐसी अवस्था के होने पर जो भी कुछ है वह रहे। यहां अन्य पदार्थों से भला क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। इस चैतन्य स्वरूप को पाकर तू शान्त और सुखी हो। बुद्धिमान पुरुष इस तत्त्व रूपी अमृत को पीकर अपरिमित जन्मपरम्परा (संसार) के मार्ग में परिभ्रमण करने से उत्पन्न हुई थकावट को दूर करें। वह आत्मज्योति अतिशय सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, एक भी है और अनेक भी है, स्वसंवेद्य भी है और अवेद्य भी है, तथा अक्षर भी है और अनक्षर भी है। वह ज्योति अनुपम, अनिर्देश्य, अप्रमेय एवं अनाकुल होकर शून्य भी कही जाती है और पूर्ण भी। नित्य भी कही जाती है और अनित्य भी। विशेषार्थवह आत्मज्योति निश्चयनयकी अपेक्षा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित होने के कारण सूक्ष्म तथा व्यवहारनय की अपेक्षा शरीराश्रित होने से स्थूल भी कही जाती है। इसी प्रकार वह शुद्ध चैतन्यरूप सामान्य स्वभाव की अपेक्षा एक तथा व्यवहारनय की
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