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समय चारों तरफ से ग्रहण (अपने साथ सम्बद्ध) करता है, जैसे कि आग से तपा हुआ लोहे का गोला पानी को सब ओर से अपनी तरफ खींचता हैं।
भावार्थ- जब यह शरीर सहित आत्मा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करता है तभी इसके कर्मों का बंध होता है, किन्तु मन पचन काय की मिया रोकने से कर्म बंध नहीं होता। (७) कर्मों के भेद -प्रभेद
सामान्यपने से कर्म एक ही है, उसमें भेद नहीं है। लेकिन द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा उसके दो प्रकार है। उसमें ज्ञानावरणादिरूप पुदगल द्रव्य का पिंड द्रव्य कर्म है.
और उस द्रव्य पिंड में फल देने की जो शक्ति है वह भाव कर्म है। अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उससे उत्पन्न हुए जो अज्ञानादि व क्रोधादि रूप परिणाम, वे भी भाव कर्म ही हैं। वह कर्म सामान्य से आठ प्रकार का है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातिया कर्म हैं क्योंकि जीव के अनुजीवी गुणों को वे घातते (नष्ट करते) करते हैं। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म अघातिया कर्म हैं क्योंकि इनके रहने से जीव के अनुजीवी गुणों का घात नहीं होता।
उक्त आठ कर्मों के भेद -प्रभेद निम्न प्रकार से हैं: (क) ज्ञानावरण (५) – जो ज्ञान का आवरण करता है।
(१) मतिज्ञानावरण - मतिज्ञान का आवरण करने वाला। (२) श्रुतज्ञानावरण - श्रुतज्ञान का आवरण करने वाला। (३) अवधिज्ञानावरण - अवधिज्ञान का आवरण करने वाला। (४) मनः पर्यायज्ञानावरण - मनः पर्ययज्ञान का आवरण करने वाला |
(५) केवलज्ञानावरण - केवलज्ञान का आवरण करने वाला। (ख) दर्शनावरण (६) – जो दर्शन का आवरण करता है।
(१) चक्षुर्दर्शनावरण - जा चक्षु से दर्शन नहीं होने देवे। (२) अचक्षुर्दर्शनावरण - जो अन्य चार इन्द्रियों से दर्शन
(सामान्यवलोकन) नहीं होने देवे । (३) अवधिदर्शनावरण - अवधि द्वारा दर्शन नहीं होने देवे ।
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