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पहले अन्याय, अनाचार, अभक्ष्य तक की पराधीनता थी, अब घटकर न्यायरूप प्रवृत्ति, हिंसारहित भक्ष्य पदार्थों तक सीमित हो जाती है। पहले व्यापार आदि में झूठ, चोरी आदि की असीमित प्रवत्ति थी अब वह प्रवृत्ति झूठ और चोरी से रहित हो जाती है। पहले परिग्रह में असीम लालसा थी, अब उसको सीमित करता है। इसी प्रकार अपनी अभिलाषा, लालसा और इच्छाओं की सीमा निर्धारित करता है।
जिस प्रकार जब कोई मोटर-गाड़ी पहाड़ पर चढ़ती है तो ब्रेक के द्वारा तो गाड़ी को नीचे की ओर जाने से रोका जाता है और एक्सीलेटर के द्वारा गाड़ी को आगे बढ़ाया जाता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञारूप त्याग के द्वारा तो साधक अपनी परिणति को नीचे की ओर जाने से रोकता है, और आत्मानुभव के द्वारा आगे बढ़ाता है । अथवा यह कहना चाहिए कि त्याग और आत्मानुभव दोनों का कार्य उसी प्रकार भिन्न-भिन्न है जिस प्रकार परहेज और दवाई का; जबकि दवाई तो रोग को मिटाती है, परहेज रोग को बढ़ने नहीं देता। नीरोगावस्था तभी प्राप्त होती है जब दवाई भी ली जाये और परहेज भी किया जाए- आत्मा का उत्थान भी तभी सम्भव है जब बहिरंग में त्याग और अन्तरंग में आत्मस्वरूप का अनुभव हो।
अब बारह व्रतों के स्वरूप पर विचार करते हैं१- अहिंसाअणुव्रत
दूसरे जीवों को अपने समान समझता है। जानता है कि जिस सुई के चुभने से मुझे जैसी पीड़ा होती है तो दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। अतः मन-वचन-काय से दूसरे के प्रति कोई ऐसा व्यवहार नहीं करता जैसा यदि दूसरा अपने प्रति करे तो अपने को कष्ट हो। जब सभी जीव अपने समान हैं तो दूसरे को दुखी करना वास्तव में अपने को ही दुःखी करना है। अहिंसा अणुव्रत में निम्नलिखित बातें गर्भित हैं:
(क) संकल्पपूर्वक किसी जीव को नहीं मारता। (ख) वचन का ऐसा प्रयोग नहीं करता जिससे दूसरे को कष्ट हो। (ग) मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचता। (घ) आत्महत्या का भाव नहीं करता। (ड.) किसी के गर्भपातादि कराने को हिंसा समझता है।
'अभक्ष्य का विस्तृत विवेचन परिशिष्ट १.०८ (क) में दिया है।
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