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आदि आहार की अवधि को, आहार संज्ञा को, सम्पूर्ण आशाओं का, कषायों का और सर्वपदार्थों में ममत्व भाव का त्याग करता हूँ। जीवित रहने की सन्देह अवस्था में एसा विचार करता है कि जब तक उपसर्ग रहेगा तब तक आहारादि का त्याग है, उपसर्ग दूर होने के पश्चात् यदि जीवित रहा तो पारणा करूंगा (मूलाधार गाथा १०६-११२)। इस प्रकार अविरत भी मृत्यु के अकस्मात् उपस्थित होने पर उपुर्युक्तरूप से सल्लेखना धारण कर लेता है तो वह व्रती ही माना जाएगा। जीवन भर किए गए समस्त रत्नत्रय पालन, स्वाध्याय और साधना का फल सल्लेखना में निहित है। जो समर्थ श्रावक है, वह समस्त परिग्रहों को छोड़ता हुआ, सबको क्षमा करके और सबसे क्षमा करवाकर, किसी आचार्यादि परमेष्ट्री के समक्ष समस्त पापों की 'दोषरहित आलोचना करे और मरणपर्यन्त रहने वाले महाव्रतों को धारण करने के लिए उनसे निवेदन करे। शास्त्रों के श्रवण से मन को प्रसन्न करे। क्रम क्रम से आहार को छोड़कर दुग्धादिक ही को ग्रहण करे और पीछे दुग्धादिक सच्चिक्कण को छोड़कर छाछ और गरम जल ले। पश्चात उष्ण जलपठन का भी त्याग करके और शक्त्यनुसार उपवास करके पंच नमस्कार मंत्र को मन में धारण करता हुआ अथवा आत्मध्यान में रत होता हुआ शरीर को छोड़े। जो श्रावक समस्त परिग्रह को छोड़ने में असमर्थ होते हैं, वे वस्त्रमात्र परिग्रह रखकर अवशिष्ट समस्त बाह्य एवं अंतरंग परिग्रहों को छोड़कर अपने ही घर में
'दोष दस प्रकार के होते हैं: (१) आकम्पित- इस भय से कि आचार्य अधिक दण्ड न देवें, विविध वचनों, दयनीय मुद्रा बनाकर अथवा क्रियाओं से उनके मन में अपने प्रति अनुकम्पा उत्पन्न कराने की चेष्टा (२) अनुमानित- गुरु की प्रसन्न मुद्रा का अनुमान लगाकर अथवा गुरु के समक्ष अपनी असमर्थता का अनुमान कराना (३) दृष्ट- जो दोष दूसरों की दृष्टि में आगये, केवल उन्हें ही कहना, अन्य अदृष्ट दोषों को गुप्त रखना (४) बादर-स्थूल दोष कहमा. किन्तु सूक्ष्म दोष छिपा जाना (५) सूक्ष्म-अधिक दण्ड के मय से केवल सूक्ष्म दोष कहना, स्थूल दोष छिपा जाना (६) प्रछन्न-अन्य साधुओं से दोषों का प्रायश्चित्त पूंछकर अथवा आचार्य से किसी दोष का प्रायश्चित्त पूँछकर तत्पश्चात् प्रायश्चित लेना (७) शब्दाकुलित- कोलाहल अथवा किसी पाठ के समय के कोलाहल में दोष इस प्रकार कहना कि गुरु भली प्रकार से अयण न कर सकें 1) बहुजनपाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के बाद जब संघ के अन्य साधु अपने दोष प्रगट कर रहे हों, उसी कोलाहल में अपने दोष कह देना (६) अव्यक्त-अव्यक्त रूप से अपराध प्रगट कर प्रायश्चित्त लेना अथवा अज्ञानी गुरु के समक्ष आलोचना करके मान लेना कि मैंने अपने सर्व दोषों की आलोचना कर ली है और (१७) तत्सेवी- अपराधों के प्रायश्चित्त लेकर, उनकी पुनरावृत्ति करना अथवा मन में यह अभिप्राय रखना कि जब स्वयं ये दोष करते हों, तब दूसरों को क्या प्रायश्चित्तं देंगे एवग! अल्प प्रायश्चित्त देंगे। ये सभी दोष आलोचना को मलिन करने वाले हैं तथा इनका त्याग करना चाहिए। आलोचना भय, मायाचारी. असत्यता अभिगान और लज्जा आदि दोषों का त्याग करते हुए विधिपूर्वक करनी चाहिए।
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