Book Title: Adhyatma aur Pran Pooja
Author(s): Lakhpatendra Dev Jain
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 1045
________________ है तब सिद्धपद कहावै है, बहुरि जब शिक्षा दीक्षा देने वाला मुनि होय है तब आचार्य कहावै है, बहुरि पठनपाठनविर्षे तत्पर ऐसा मुनि होय है तब उपाध्याय कहावै है, अर जब रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गकू केवल साधैही तब साधु कहावै है, ऐसे पांचूं पद आत्माहीमै हैं। सो आचार्य विचार है जो या देहमैं आत्मा तिष्ठै है सो यद्यपि कर्मआच्छादित है तोऊ पांचूं पदयोग्य है, याहीकू शुद्धस्वरूप ध्याये पांचूं पदका ध्यान है तातें मेरै या आत्माहीका शरणा है ऐसी भावनां करी है, अर पंचपरमेष्ठीका ध्यानरूप अंतमंगल जानाया है ।।१०४ ।। मोक्षपाहुड अध्याय के अन्त में (पृष्ठ ३६१) निम्नवत भाष्या है : छप्पय। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवकारण जानूं ते निश्चय व्यवहाररूप नीकै लखि मानूं । सेवो निशदिन भक्तिभाव धरि निजबल सारू, जिन आज्ञा सिर धारि अन्यमत तजि अधिकारू ।। इस मानुषभवकू पायकै अन्य चारित मति धरो भविजीवनिकू उपदेश यह गहिकरि शिवपद संचरो।।१।। दोहा बंदू मंगलरूप जे अर मंगलकरतार। पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हितकार ।।२।। इहां कोई पूछ- जो ग्रंथनिमैं जहां तहां पंचणमोकारकी महिमा बहत लिखी, मंगलकार्यमैं विघ्नके मेटनेंकू यही प्रधान कह्या, अर यामैं पंचपरमेष्ठीकू नमस्कार है सो पंचपरमेष्ठीकी प्रधानता भई, पंचपरमेष्ठीकू परम गुरु कहे तहां याही मंत्रकी महिमा तथा मंगलरूपपणा अर यारौं विघ्नका निवारण अर पंचपरमेष्ठीकै प्रधानपणां अर गुरुपणां अर नमस्कार करने योग्यपणां कैसैं है ? सो कहनां। ताका समाधानरूप कछूक लिखिये है :- तहां प्रथम तौ पंचणमोकार मंत्र है, ताके पैंतीस अक्षर हैं. सो ये मंत्रके बीजाक्षर हैं तथा इनिका जोड़ सर्व मंत्रनितें प्रधान है, इनि अक्षरनिका गुरु आम्नायतें शुद्ध उच्चारण होय तथा साधन यथार्थ होय तब ये अक्षर कार्यमैं विघ्नके निवारणे• कारण हैं तातें मंगलरूप हैं। जो " मं । कहिये पाप ६.३

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