Book Title: Adhyatma aur Pran Pooja
Author(s): Lakhpatendra Dev Jain
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 1054
________________ अधिक हो सकती है आप उसको ", नहीं कर पाएंगे और तब आपको मन-ही-मन प्रार्थना करनी होगी कि और अधिक ऊर्जा नहीं चाहिए। आप देर तक इस अनुभव का आनन्द उठाएं। इसके समापन के समय, आप पुनः पंच परमेष्ठियों को भक्ति एवम् विनयपूर्वक कृतज्ञता ज्ञापन करें एवम् उनको जिस प्रकार आप लाए थे, उसी प्रकार वापस अपने-अपने स्थानों पर प्रतिष्ठित करदें। उनको पुनः बारम्बार नमस्कार, शिरोनति एवम् आवर्त करें। फिर ev को दिव्य सिंहासन बनाने के लिए धन्यवाद दें और उससे इस प्रकार कहें कि चूंकि दिव्य सिंहासन से अभीष्ट कार्य हो चुका है, अतएव उसे अब हटादें। इसको सुनिश्चित करके, फिर वापस अपने साधारण अवस्था में आजाएं। कुछ समय तक इस अनुभव की अनुभूति का आनन्द उठायें, फिर प्रसन्नतापूर्वक आंखें खोलकर हाथ जोड़कर णमोकार मंत्र का उच्चारण करें। आप अपने को पहले से कहीं अधिक अच्छा महसूस करेंगे। अपने इस अनुभव को जीवन की एक अमूल्य निधि समझकर, इसकी अनुभूति से ही पुनः पुनः आनन्द उठायें। २. द्वितीय चरण - गंधोदक से आत्म स्नान - गंधोदक का मंत्र (लघु विद्यानुवाद से उद्धृत) मुक्तिश्रीवनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकम्। नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्रचक्रपदवीराज्याभिषेकोदकम् ।। स्यात्सज्ज्ञानचरित्रदर्शनलता संसिद्धिसम्पादकम् । कीर्ति श्रीजयसाधकं तव जिनस्नानस्य गन्धोदकम् ।।४।। अर्थ - हे जिनेन्द्र देव, आपके स्नान का यह गंधोदक कीर्ति, लक्ष्मी, जय को देने वाला एवम् सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र की लता को पुष्ट कर मोक्ष तक पहुँचाने वाला है। धरणेन्द्र पद, इन्द्र पद, चक्रवर्ती पद, राज्य पद को देने वाला, सातिशय पुण्य का बंध कराने वाला, यहाँ तक कि मुक्ति-रमा का वरण कराने वाला है ।।४।। ६.१२

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