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पाराशेष्ट 44
श्री आदिनाथ प्रभु से प्रार्थना रथियता- आदरणीया कवियित्री श्रीमती चन्द्रप्रभा जैन (प्रस्तुतकर्ता की बहन), अलीगढ़
राग-द्वेष को दूर करो, निर्मल कर दो मेरा मन । तेरे ही चरणों में, अर्पित कर दूं अपना तन, मन, धन ।।१।। हृदय सिंहासन पर आ जाओ,ओ मेरे नाभि के नन्दन' फिर क्या डर है मुझको.जो कर्म बना है दुश्मन ।।२।।
कर्म काटि अर्हन्त कहाए,जग प्रभु करता तुझे नमन। तीन लोक के नाथ बने तुम,शत इन्द्र करत हैं पद वन्दन ।।३।।
संसार समुन्दर पार करूं,करके तेरा प्रिय दर्शन । आत्म-जपी बन जाऊँ मैं,करके भक्ति का अवलम्बन ||४|| मन की आकुलता मिट जाये,मिट जाये मेरा जनम मरण। कर्मों का काढूँ तप करके,हो जाए मेरा मोक्ष-गमन ।।५।।
चार गती के दुःख सहे,नहीं कर सकता हूँ वर्णन। छेदा-भेदा गया नरक में,पशु गति की भारी वेदन ।।६।।
देवगति में झुरसता रहा,लख औरों का वैभव धन । आधि-व्याधि से ग्रसित रहा,जब पाया मैंने मानुष तन |७||
सम्यकदर्शन, ज्ञान, चरन, मिल गये जिसको तीन रतन । भवसागर से हुआ किनारा,मिट गया पंच परावर्तन ||८||
भक्ति-नाव पर चढ़ा जो प्राणी,कट गये कर्मों के बन्धन । सेवक की अरदास यही है, हो जाऊँ निज-निज में मगन ||६||
ॐ नमः सिद्धेभ्य। ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अहं श्री वृषभनाथ तीर्थकराय नमः ।
'अन्तिम कुलकर श्री नाभिराय के पुत्र अर्थात तीर्थकर श्री आदिनाथ
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