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तथा 5 स्वतः ही आसपास के वातावरण से प्राण ऊजां ग्रहण एवम् अवशोषण करते हैं, जिससे शरीर का ऋऊर्जन होता है। इसमें उपचारक का काम भी कम कठिन हो जाता है। आप लगभग पांच से दस मिनट तक विश्राम कीजिए और इस अन्तराल में रोगी के शरीर को
स्वयं ऊर्जन हेतु समय ले लेने दीजिए। (घ) C (1, 4, 5)/ E IR, - E 5 सावधानी से। (ङ) 6 की जांच के फलस्वरूप, यदि वह अति सक्रिय हो ओर उस पर
खालीपन हो, तो 66 VIE ev, IB ( IB इसके द्वारा संकुचन करें) तथा यदि 6 की जांच के फलस्वरूप, वह अति सक्रिय न हो, तो 06 VIE ev करें।
vो सनयं अध्याय २३ के क्रम संख्या ६ में वर्णित प्रक्रियायें अपनायें। यदि रोगी अधिक कुपित और कुंठित होता है, तो वह हिंसात्मक हो जाता है। उसका 6 तथा 3 अति सक्रिय होता है और उन्हें संकुचन करना होता है। ऐसी दशा में C3/ E IB द्वारा 3 भी संकुचित
करिए। (छ) C7 / E 7 (7b के माध्यम से) ev-- E के समय 7 का आकार
बढ़ते हुए दृश्यीकृत करिये । (ज) c (समस्त सिर का क्षेत्र- विशेषकर बाएं तथा दाएं ओर की तरफ,
11, 9, bh) eVIE ( 11, 9) ev (झ) जहां तक हो सके, रोगी द्वारा उक्त उपक्रम (४) में दिये गये पूरक स्व
प्राणशक्ति उपचार भी करवाइये। (ञ) यदि सम्भव हो सके, तो उपचार को प्रतिदिन दोहराइये। (ट) चूंकि रोगी के चक्रों में ऊर्जा की अत्यन्त कमी होती है, इसलिए इनका
ऊर्जन करते समय उपचारक के शरीर से रोगी द्वारा काफी ऊर्जा खींच ली जाती है, इसलिए जो इस उपचार की कार्य प्रणाली है, उसको सावधानी एवम् यथोचित रूप से पालन करना महत्त्वपूर्ण है। इसके
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