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दस स्थिति कल्प- आचेलक्य, औद्देशिकपिंडत्याग, शैय्याधरपिण्डत्याग, राजकीयपिंड त्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण -योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और योग (पद्य) इस प्रकार दस स्थितिकल्प हैं।
छह आवश्यक- सामायिक, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
दूसरे प्रकार से अनशनादि बारहतप, उत्तमक्षमादि दस धर्म, पांच आचार, सामायिक आदि छह आवश्यक तथा तीन गुप्ति ये आचार्य के छत्तीस मूलगुण हैं। ये साधु के अट्ठाइस मूल गुणों के अतिरिक्त हैं। उपाध्याय परमेष्ठी
जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय से युक्त हैं तथा सदा ही धर्मोपदेश देने में तत्पर रहते हैं, जो मुनिव्रत के धारक होते हैं, भव्य जीवों को सत्यमार्ग का उपदेश देते हैं, स्वयं पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैं, (संग्रह और अनुग्रह आदि गुणों को छोड़कर) भेरु के समान निश्चितता आदि रूप आचार्य के गुणों से समन्वित होते हैं, उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। शिष्यों का संग्रह करना, उन्हें दीक्षा देना, प्रायश्चित्त देना, उनका संरक्षण करना, संघ की व्यवस्था संभालना, अनुष्ठान कराना, मंत्र-तंत्र बताना आदि कार्य आचार्य के हैं जिन्हें उपाध्याय परमेष्ठी नहीं करते हैं। अथवा जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के धारी होते हैं तथा संघ में रहते हुए अन्य साधुओं को श्रुत का अध्ययन कराते हैं, उनकी जिन शासन में उपाध्याय संज्ञा है।
__ ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को आप पढ़ते हैं और अन्य को पढ़ाते हैं। ये पच्चीस गुण उपाध्याय परमेष्ठी के होते हैं।
इस कथन को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैंरयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा । णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होति ।।
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