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(ग) संशय मिथ्यात्व- तत्त्व श्रद्धान में संशय रहना। जैसे निर्ग्रन्थ अवस्था धारण
करने से मोक्ष होता है या नहीं, अहिंसा धर्म का लक्षण है या नहीं, इस दुविधा
को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। (घ) वैनयिक मिथ्यात्व- सब देवताओं को, सभी धर्मों को तथा सभी साधुओं को
एक रन मानकर उनकी नि विनय करिना वैनयिक मिथ्यात्व है। खेद का विषय है कि अनेक श्रावकगण जो नित्य ही देव पूजनादि, स्वाध्यादि क्रियायें करते हैं, वे भी कुदेवों की मूर्ति, फोटो आदि अपने घरों, दुकानादि में रखते हैं और उनकी वीतराग प्रभु के समान ही विनय करते हैं एवम् यदाकदा पूजा भी करते हैं। वे पैतृक संस्कार, लोक लज्जा, अज्ञान अथवा/ और भयादि कारणों के वश ऐसा करते हैं। यह मिथ्यात्व होने के कारण उनके
अनन्त संसार परिभ्रमण का कारण बन जाता है। (ड.) अज्ञान मिथ्यात्व- जिसमें हित और अहित का विचार (विवेक) न हो वह
अज्ञान मिथ्यात्व है। जैसे पशु-बलि में धर्म मानना आदि। (२) अविरति- हिंसादिक पापों में तथा पांच इन्द्रियों और मन के विषयों में प्रवृत्ति करने को अविरति कहते हैं। अविरति को असंयम भी कहते हैं। अविरित के बारह भेद है- षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना, पांच इन्द्रियों और मन को वश में नहीं करना। (३) कषाय- जो आत्मा को कषे (दुःख देवे), उसे कषाय कहते हैं। इसके मूल में चार भेद हैं- क्रोध, मान. माया और लोभ । लेकिन प्रभेद करने पर अनन्तानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानवरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, संज्वलन क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अप्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण मान, संज्वलन मान, अनन्तानुबंधी माया, अप्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण माया, संज्वलन माया, अनन्तानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण लोभ और संज्वलन लोभ । ये सोलह तथा नौ नोकषाय- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरूषवेद और नपुंसक वेद। इस प्रकार ये कषाय के पच्चीस भेद होते हैं।
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