Book Title: Acharang Sutram Dwitiya Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ श्रीआचाराङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः२ // 663 // सूत्रम् 345 येन संवृतोपकरणो निर्व्याकुलत्वात्सुखेनैव जलं तरति, तांश्च धर्मदेशनयाऽनुकूलयेत्, अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि कण्ठ्यमिति / श्रुतस्कन्धः२ // 344 ॥साम्प्रतमुदके प्लवमानस्य विधिमाह चूलिका-१ तृतीयमध्ययन से भिक्खूवा० उदगंसि पवमाणे नो हत्थेण हत्थं पाएण पायंकाएण कार्य आसाइजा, से अणासायणाए अणासायमाणे तओ ईर्या, सं० उदगंसि पविज्जा ॥१॥से भिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिज्जा, मामेयं उदगं कन्नेसु वा अच्छीसुवा द्वितीयोद्देशकः नक्कंसि वा मुहंसिवा परियावजिज्जा, तओ० संजयामेव उदगंसि पविजा ॥२॥से भिक्खूवा उदगंसि पवमाणे दुब्बलियं पाउणिज्जा उदके खिप्पामेव उवहिं विगिंचिज वा विसोहिज्ज वा, नो चेवणं साइजिज्जा ॥३॥अह पु० पारए सिया उदगाओ तीरंपाउणित्तए, तओ गमनविधिः संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणधेण वा काएण उदगतीरे चिट्ठिज्जा ॥४॥से भिक्खू वा० उदउल्लं वा 2 कायंनो आमजिजा वाणो पमजिज्जा वा संलिहिज्जा वा निल्लिहिज्जा वा उव्वलिज्जा वा उव्वट्टिजावा आयाविज वा पया०॥५॥ अह पु० विगओदओ मे काए छिन्नसिणेहे काये तहप्पगारं कायं आमजिज्ज वा पयाविज वा तओ सं० गामा० दूइज्जिज्जा॥६॥सूत्रम् 345 // स भिक्षुरुदके प्लवमानो हस्तादिकं हस्तादिना नासादयेत् न संस्पृशेद्, अप्कायादिसंरक्षणार्थमिति भावः, ततस्तथा कुर्वन् संयत एवोदकंप्लवेदिति // तथा-स भिक्षुरुदकेप्लवमानो मज्जनोन्मज्जने नो विदध्यादिति (शेष) सुगममिति॥ किञ्च स भिक्षुरुदके प्लवमानः दौर्बल्यं श्रमं प्राप्नुयात् ततः क्षिप्रमेवोपधिं त्यजेत् तद्देशं वा विशोधयेत्- त्यजेदिति, नैवोपधावासक्तो भवेत् / अथ पुनरेवं जानीयात् पारए सिअत्ति समर्थोऽहमस्मि सोपधिरेवोदकपारगमनाय ततस्तस्मादुदकादुत्तीर्णः सन् संयत एवोदकाट्टैण गलद्विन्दुना कायेन सस्निग्धेन वोदकतीरे तिष्ठेत्, तत्र चेर्यापथिकां च प्रतिक्रामेत // न चैतत्कुर्यादित्याह- स्पष्टम्, नवरमत्रेयं Oमुदकं (मु०)। // 663 //
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