Book Title: Acharang Sutram Dwitiya Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 179
________________ श्रीआचाराङ्ग नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः२ // 702 // श्रुतस्कन्धः२ चूलिका-१ षष्ठमध्ययनं पात्रैषणा, द्वितीयोद्देशकः सूत्रम् 377 पात्रग्रहणधारणविधिः मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तह० पडिग्गहं तओ० सं० आमजिज वा जाव पयाविज वा // 2 // से भि० गाहा० पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा० पिंड० पविसिज्ज वा नि०, एवं बहिया वियारभूमी विहारभूमी वा गामा० दूइजिजा, तिवदेसीयाए जहा बिइयाए वत्थेसणाए नवरं इत्थ पडिग्गहे // 3 // एयं खलु तस्स० जंसबढेहिं सहिए सया जएजासि // 4 // सूत्रम् 377 // त्तिबेमि॥ पाएसणासम्मत्ता॥२-१-६-॥ स भिक्षुर्गृहपूतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पानकं याचेत, तस्य च स्यात्- कदाचित्स परो गृहस्थोऽनाभोगेन प्रत्यनीकतया वा तथाऽऽनुकम्पया विमर्षतया या गृहान्तः- मध्य एवापरस्मिन् पतद्हे स्वकीये भाजने आहृत्य शीतोदक परिभाज्य विभागीकृत्यू णीहट्टु त्ति निःसार्य दद्यात्, स- साधुस्तथाप्रकारं शीतोदकं परहस्तगतं परपात्रगतं वाऽप्रासुकमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयात्, तद् यद्यकामेन विमनस्केन वा प्रतिगृहीतं स्यात् ततः क्षिप्रमेव तस्यैव दातुरुदकभाजने प्रक्षिपेत्, अनिच्छतः कूपादौ समानजातीयोदके प्रतिष्ठापनविधिना प्रतिष्ठापनं कुर्यात्, तदभावेऽन्यत्र वा छायागर्तादौ प्रक्षिपेत्, सति चान्यस्मिन् भाजने तत् सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुश्चेदिति // तथा-स भिक्षुरुदकार्दादेः पतगृहस्यामार्जनादि न कुर्यादीषच्छुष्कस्य तु कुर्यादिति पिण्डार्थः / किञ्च-स भिक्षुः क्वचिद् गृहपतिकुलादौ गच्छन् सपतगृह एव गच्छेदित्यादि सुगमं यावदेतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति // 377 // षष्ठमध्ययनं समाप्तम् // 2-1-6 // // इति श्रीश्रुतकेवलीभद्रबाहुस्वामिसन्हब्धनियुक्तियुतं श्रीशीलाङ्काचार्यविहितविवरणसमन्वितं श्रीआचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धवृत्तौ षष्ठमध्ययनं पात्रैषणाख्यं समाप्तम् / / (c) तया, तथा (मु०)। (r) त्तद्यथाऽकामेन (मु०)। 0 ०स्य प्रमार्ज० (प्र०)। // 702 //

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