Book Title: Vastupal Prashasti Sangraha
Author(s): Punyavijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जै न ग्रन्थ मा ला .... httttttttttt..[ ग्रन्थांक ] ****************** महामात्य - वस्तुपाल-कीर्तिकीर्तनस्वरूप सु कृ त की र्ति क ल्लो लि न्या दि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह ---- - -- -. .hindi CeR SRI DALCHAND J SINGH o................ .. . 2 eUEENILITY ................-51 श्री डालचहजी सिंधी " SINGHI JAIN SERIES ********************[NUMBER 5]******************** SUKRTA KIRTIKALLOLINI AND other penegyric and historical records describing the good deeds of the great minister Vastupal of Gujarat by various authors Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त ___ प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला [बैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर,-राजस्थानी आदि नाना भाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन वाजाय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि] प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंघीसत्पुत्र ख. दानशील - साहित्यरसिक -संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी CO SKI RARADUR SINGULA SAGA 1 tall AUL A RAN 19ी बार मिहनी बहादुर सिंहकी DिEOS प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर भारतीय विद्या भवन, बम्बई ऑनररी फाउंडर-डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर (राजस्थान) ऑनररी मैंबर जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर (पजाब) इत्यादि । संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई व्यवस्थापक प्रकाशक- ज. ह. दवे, ऑनररी डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, नं. ७ मुद्रक-गुलाबचन्द देवचन्द, महोदय प्रिंटींग प्रेस, भावनगर. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामात्य - वस्तुपाल - कीर्तिकीर्तनस्वरूप उदयप्रभाचार्यादि - अनेक - कविविरचित सुकृ त कीर्ति क लो लि न्या दि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह संपादन कर्ता अनेकग्रन्थभाण्डागारोद्धारक - विविधदुर्लभ्यग्रन्थसंशोधक जिनागमप्रकाशकारि - प्रतिष्ठानप्रवर्तक आगमप्रभाकर - मुनिप्रवर - श्रीपुण्यविजय सूरि । विक्रमाब्द २०१६] प्रकाशनकर्ता अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्याभवन, बम्बई ग्रन्थांक ५] て冷 dut प्रथमावृत्ति सर्वाधिकार सुरक्षित [ ख्रिस्ताब्द १९६१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मेरुतुजाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि मूल संस्कृत ग्रन्थ. २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतिह्यतथ्यपरिपूर्ण अनेक प्राचीन निबन्ध संचय. SINGHI JAIN SERIES * अद्यावधि मुद्रितग्रन्थ नामावलि 33 ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. ४ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. ८ भट्टालकदेवकृत अकलङ्कप्रन्थत्रयी. ९ प्रबन्धचिन्तामणि - हिन्दी भाषांतर. १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. १२ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. १३ हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश. १४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग. १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूर्ताख्यान. ( प्राकृत ) १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. ( प्राकृत ) १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. ( अपभ्रंश) १९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह . २० शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति. २१ कवि धाहिलरचित पउम सिरीचरिउ ( अप० ) २२ महेश्वरसूरिकृत नागपंचमीकहा. (प्रा० ) 1 2 Shri Bahadur Singh Singhi Memoirs Dr. G. H. Bühler's Life of Hemachandrāchārya. Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph. D. स्व. बाबू श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ [ भारतीयविद्या भाग ३] सन १९४५. Late Babu Shri Bahadur Singhji Singhi Memorial Volume BHARATIYA VIDYA [ Volume V] A. D. 1945. 3 Literary Circle of Mahamatya Vastupala and its Contribution to Sanskrit Literature. By Dr. Bhogilal J. Sandesara, M. A., Ph. D. (S.J.S.33.) २३ श्रीभद्रबाहु आचार्यकृत भद्रबाहु संहिता. २४ जिनेश्वरसूरिकृत कथा कोषप्रकरण. ( प्रा० ) २५ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य. २६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. ( प्रा० २७ को हलविरचित लीलावई कहा. ( प्रा० ) २८ जिनदत्ताख्यानद्वय. ( प्रा० ) २९.३०.३१ स्वयंभूविरचित पउमचरिउ. भाग १. २. ३ ( अप० ) ३२ सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन. ३३ दामोदरपण्डित कृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण. ३४ भिन्नभिन्न विद्वत्कृत कुमारपाल चरित्रसंग्रह. ३५ जिनपालोपाध्यायरचित खरतरगच्छ बृहद्गुर्वाव ३६ उयोतनसूरिकृत कुवलयमाला कहा. ( प्रा० ) ३७ गुणपालमुनिरचित अंबुचरियं. ( प्रा० ) ३८ पूर्वाचार्यविरचित जयपायड - निमित्तशास्त्र. (प्रा. ३९ भोजनृपतिरचित शृङ्गारमञ्जरी. ( संस्कृत कथा ) ४० धनसारगणीकृत - भर्तृहरिशतकत्रयटीका. ४१ कौटल्यकृत अर्थशास्त्र - सटीक ( कतिपयअंश ) ४२ विज्ञप्तिलेखसंग्रह विज्ञप्तिमहालेख - विज्ञप्ति त्रिवेण आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. ४३ महेन्द्रसूरिकृत नर्मदा सुन्दरीकथा. ( प्रा० ) ४४ हेमचन्द्राचार्यकृत-छन्दोऽनुशासन. ४५ वस्तुपालगुण वर्णनात्मक काव्यद्वय कीर्तिकौमुदी तथा सुकृतसंकीर्तन ४६ सुकृतकीर्ति कोलिनी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. 4-5 Studies in Indian Literary History. Two Volumes. By Prof. P. K. Gode, M. A. (S. J. S. No. 37-38.) १ विविधगच्छीय पट्टावलि संग्रह. २ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, भाग २. ३ जयसोमविरचित मंत्री कर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. ४ गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र (बौद्धशास्त्र ) -+90+ * संप्रति मुद्र्यमाणग्रन्थनामावलि ५ रामचन्द्रकविरचित - मल्लिकामकरन्दादिनाटकसंग्रह. ६ तरुणप्राभाचार्यकृत षडावश्यकबालावबोधवृत्ति. ७ प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण-सठीक. ८ कुवलयमाला कथा, भाग २ ९ सिंह तिलकसूरिरचित मनाराजरहस्य. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्रास्ताविक १ वस्तुपालधर्मगुरु नागेन्द्रगच्छीय श्रीउदयप्रभसूरि विरचित सुकृत कीर्ति कल्लोलिनी, पद्य सं. १७९ पृ. १-१६ " १७-२० २ उदयप्रभसूरिकृत वस्तुपालस्तुति, पद्य संख्या ३३ ३ मलधारगच्छीय श्रीनरचन्द्रसूरिकृत वस्तुपालप्रशस्ति, पद्य सं. २६ ४ मलधारगच्छीय श्रीनरेन्द्रप्रभसूरिकृत वस्तुपालप्रशस्ति, पद्य सं. १०४ ५ नरेन्द्रप्रभसूरिरचित द्वितीय प्रशस्ति, पद्य सं. ३७ ” २१-२३ "" २४-२९ ३०-३३ 99 ६ श्रीजयसिंह सूरिविरचित वस्तुपाल - तेजःपाल प्रशस्ति, पद्य सं. ७७ ७ वस्तुपालस्तुतिकाव्य, पद्य सं. १३ ” ३४–३९ 17 ४० "" ४१-४३ १८ ८ नरनारायणानन्दकाव्यप्रान्तलिखित वस्तुपालस्तुतिकाव्य, पद्य सं. उपदेशतरङ्गिणीग्रन्थगत वस्तुपालस्तुतिकाव्य, पद्य १ १० गिरनारतीर्थस्थ वस्तुपालप्रतिष्ठित नेमिनाथप्रासादप्रशस्ति क्रमांक १ ४३ ४४-४६ ११ क्रमांक २ ४६-४८ १२ ३ ४८-५० "" ४ ” ५०-५३ " ५३-५५ " ५५-५८ "" ५८ ,, ५९-७५ " ७५ ,, ७५-७६ ७६ 19 ,, ७६-१ ,, ७६-२ "" 11 " " " विषयानुक्रम १३ १४ 99 99 १५ गिरनारतीर्थस्थित अन्य प्रकीर्ण लेख ४ १६ अर्बुदाचलतीर्थस्य लूणवसहिकागत लेखसंग्रह १७ तारण दुर्गस्थ लेख १८ शत्रुंजयपाजस्थित लेख 99 "" " "" " 99 "" "1 १९ अणहिलपुरस्थित शिलालेख २० अर्बुदाचलस्थित अन्यलेख २१ स्तंभतीर्थीय शिलालेख २२ गणेशरग्रामगत शिलालेख २३ नगरग्रामगत शिलालेख २४ वस्तुपालतीर्थयात्रा लेख २५ उदयप्रभाचार्यकृत उपदेशमालाकर्णिका वृत्तिगत वस्तुपालवर्णन २६ सोमेश्वरकविकृत सुरथोत्सवकाव्यगत वस्तुपालवंशवर्णन २७ वस्तुपालविरचित नरनारायणानन्द काव्यगत प्रशस्त्यात्मक वर्णन २८ वस्तुपालविरचित आदिनाथ स्तोत्र २९ मिजिनस्तव अम्बिकादेवीस्तोत्र ३० " Dow ६ "" "" "" , ७६–३ ” ७६–४ 77 " 19 " "1 11 " ७७ ७८-८० ८१-८७ ८८-९० ९१-९२ ९३ ९४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ महामात्य वस्तुपालकृत आराधना ३२ वस्तुपाल संबन्धित ग्रन्थान्तपुष्पिकालेख ३३ विजयसेनसूरि रचित रेवंतगिरि रास ३४ पाल्हणपुत्रकृत आबूरास परिशिष्ट १ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी आदि प्रशस्ति पद्यानुक्रमणिका २ सुकृत कीर्तिकल्लोलिनी आदि रचनागत विशेषनामानुक्रमणिका पु. ९५ ९६-९८ ९९-१० "" , १०४ - १०. ܕ " 97 १११-१२१ १२७–१३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् प्रास्ताविक * प्राचीन महागुजरातके महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ( दोनों बन्धु ) के नाम बहुविश्रुत हैं । इनके जीवन वृत्तान्तके विषयमें इंग्रजी, जर्मन, गुजराती एवं हिन्दीमें बहुत कुछ लिखा गया है । इन सबमें विशेष रूप से उल्लेखयोग्य इंग्रेजी ग्रन्थ डॉ. भोगीलाल सांडेसरा, एम्. ए., पीएच्. डी. ( डायरेक्टर ओरिएण्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट, बडौदा युनिवर्सिटी ) का लिखा हुआ 'लिटरेरि सर्कल ऑव महामात्य वस्तुपाल एण्ड इटस् कोन्ट्रीब्युशन टु संस्कृत लिटरेचर' (Literary circle of Mahāmātya Vastupala and Its contribution to Sanskrit Literature) है, जिसमें इस विषय पर बहुत ही प्रमाणभूत एवं गंभीर अध्ययनपूर्ण विवेचन किया गया है। सिंघी जैन ग्रन्थमालाके ३३ वें ग्रन्थके रूपमें, कोई ९–१० वर्ष पहले हमने इसे प्रकाशित किया । इसके पूर्व ही, सन् १९४९ में, हमने इसी ग्रन्थमालाके चतुर्थ ग्रन्थके रूपमें वस्तुपालके मुख्य धर्मगुरु आचार्य उदयप्रभ सूरिका बनाया हुआ संस्कृत काव्यात्मक बडा ग्रन्थ ' धर्माभ्युदय महाकाव्य ' प्रकाशित किया, जिसका संपादन विद्ववर्य्य मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज और इनके दिवंगत गुरुवर्य्य श्री चतुरविजयजी मुनिमहाराजने किया है । इस 'धर्माभ्युदय महाकाव्य ' के प्रास्ताविक वक्तव्यमें, हमने वस्तुपाल मंत्रीके जीवनवृत्त और तत्कालीन इतिहास पर विशिष्ट प्रकाश डालनेवाली, तथा उस मंत्रीके समयमें विद्यमान एवम् उससे संबन्धित जिन विद्वानोंने काव्य, प्रबन्ध, प्रशस्ति रास आदि जो रचनाएं की हैं, उनका संक्षिप्त परिचयात्मक निर्देश किया था और साथमें यह भी सूचित किया था कि - हम भविष्यमें वस्तुपाल विषयक यह सब फुटकल ऐतिहासिक साहित्य, संकलित कर, एक या दो भागोंमें, प्रकट करना चाहते हैं । हमारे इस विचारको मुनिमहोदय श्री पुण्यविजयजी महाराजने भी बहुत पसन्द किया और इन्होंने स्वयं इसका संपादन कार्य भी सहर्ष स्वीकार किया । प्रस्तुत संग्रह उसी विचारके फल स्वरूप तैयार हुआ है । इस संग्रह में वस्तुपाल विषयक जितने भी प्रशस्त्यात्मक प्रबन्ध, शिलालेख, ग्रन्थपुष्पिकाएं एवम् रास आदि कृतियां मिल सकीं, उन सबका एकत्र समावेश कर दिया गया है । आशा है कि ऐतिहासिक तथ्योंकी खोज करने वाले अभ्यासियोंके लिये यह बहुत उपयुक्त संकलन सिद्ध होगा । इस संग्रहका संपादन कार्य तो प्रायः सन् १९५० में पूरा हो गया था । इसका मुद्रण कार्य भावनगरके एक प्रेसमें कराया गया था; पर बादमें इसके सब छपे फर्मे बंबई में भारतीय विद्या भवनम मंगवा लिये गये थे । स्थान वगैरहकी ठीक सुविधा न होनेसे अनेक वर्षों तक ये फर्मे इधर उधर घूमते-फिरते रहे और फिर हमारा भी स्थानान्तरण होता रहा । इससे, उक्त धर्माभ्युदय महाकाव्यके प्रास्ताविकमें उल्लिखित कथनानुसार हम इसे शीघ्र प्रकाशित करनेमें असमर्थ रहे । पर हर्षका विषय है कि इतने वर्षोंके बाद भी, अब यह संग्रह समुचित रूपसे प्रकाशमें आ रहा है। पूर्व पुरुषोंके गुणकीर्तनात्मक पुष्प कभी वासी नहीं होते । जब भी वे गुणग्राहकों के हाथोंमें उपस्थित होते हैं तव शिरोधार्य ही होते हैं । इसके संपादन कार्यके विषयमें मुनिमहोदय श्री पुण्यविजयजी महाराजके प्रति, उक्त धर्माभ्युदय काव्यके प्रास्ताविक वक्तव्यके अन्तमें, जो अपना हार्दिक कृतज्ञ भाव हमने प्रकट किया है वही यहां पुनरुल्लिखित करना चाहते हैं कि - " इस संग्रहका संपादन करके इस प्रन्थमाला के प्रति अपना जो विशिष्ट ममत्व भाव प्रदर्शित किया है और उसके द्वारा सौहार्दपूर्ण सहकार प्रदान कर मुझको जो उपकृत किया है, उसके लिये सौजन्यमूर्ति परमस्नेहास्पद मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराजका मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं ।” Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस संग्रह के साथ ही इसका समानविषयक एक अन्य संग्रह प्रकट हो रहा है जिसमें महाकवि सोमेश्वर विरचित कीर्ति कौमुदी तथा अरिसिंह कविकृत सुकृत संकीर्तन काव्य संकलित है। इसका संपादन कार्य भी इन्हीं मुनिवरने किया है। पहले ये दोनों संग्रह एक ही ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित किये जानेकी कल्पना रही थी, पर पीछेसे इसके साथ डॉ. ब्यूहलर आदिके लिखित उन ग्रन्थोंके संबन्धके इंग्रजी निबन्ध भी उसमें सम्मिलित करनेकी कल्पनासे उसको अब पृथक् ग्रन्थके रूपमें प्रकट किया जा रहा है। अनेकान्तविहार, अहमदाबाद. फाल्गुनी पूर्णिमा, सं. २०१७ ता. २, मार्च, १९६१. -मुनि जिन विजय -आभार प्रदर्शनप्रस्तुत वस्तुपाल प्रशस्त्यात्मक संग्रह ग्रन्थके प्रकाशन व्ययमें भारत सरकारकी ओरसे आधा हिस्सा सहायताके रूपमें मिला है, तदर्थ हम भारत सरकारके प्रति अपना साभार कृतज्ञभाव प्रदर्शित करना चाहते हैं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [वस्तुपाल प्रशस्तिसंग्रह Anuwarमसंयममानिसममानातावातावा दशमहातरि ईसिदावया घायलयमयवहार्वविकलपकमानविण्यागमन लहानमलिंगानातिनाशनारामारामादवनभमन्यासारक डारवायाहारसविधामरतिष्पकमरवियामा मामासमामि शामिकामशचिमा सहयक्तिमतमामामामानियिकिनाममवतातियवधासविंध्वास्न-पोरसमएमालवलकर निध्यययययतिवहसीमिकताक्रममावासनिवाशमायामाहालयकामासाहबश्वासाविषडक्षसगातलाया। मालकास्नग्यास्टिन भिधानाटियायशिकंपाचनरमतरमा दिक्षियस्यानाकबप्तिस्वविशिनावाचविछामिनमास्ताना Horasनिराधानावावायलाकामायामायामानिमाकारातियकावधितिजातिरिदिक्षनिस्तादयामिबिमकायमान विकासाकविकनिया दिनीयानावावजावातियार तनमानसमावारिरिताशिवानाक्यमांधाधानमममधमकृमि Teसिमामलशासायहरममायणावामा निसरीबादामरायामकृष्टोकिधीओमिnिearसासंग DANCEमारवावियनासवानवरs astiimarumaanARDSMSDRai कमतरवासादामुपायट्दयखमक्षवनिप्रतिप्रिय नामकाशन मितिनी मिस्यियावयामा 58Dasवाल खास्यमशहमरकाशमानामवहायकमकमतरता नपाएकालमेघावासका निलिमविक्षारयाविना वश्यममायामीन काधमाठमावावधापनमालामाप्रमानमिनमानमकिनाशकायमचा नितम्यकमलामविन समानतामधिम निकलनमगाबाशा गाण्याबायावसाबकरकटयारावाला नत्यनिकरमिकलश Reमनिमनिमयमयमदीदार सरसेगसम्मानिःश्रीमानिनवनिमसाधनप्रयासबाट मालायामश्मायादेशमा शिवमतिमासलगातावणिमलदिवविवानावqयामननपाल तिकतावनयापानमame-किंकलिकाला hिinargaलवामिकिकषयकिवानाधामाधानवाधिमकि सामाखनसिकमामिलामन्याकिलवार जिनसेवाभावमगिमिक शिताळमवकुम्वासस्तिकामकाजामलावरतानिनामरिमायालसियनवालावयाचकवति जयमवमव्यायामविलककोदविनायकरालकलनाकीर्ममयाने रिशन निसानवालामामालानी यादस्यिोराय लत्या प्रतिसादाय nunावस्यप्रकाशयानासावायसायनिनवासिमबलिनिसाdिiracuTINदि fasundwaniemaramanifeagnanimuanaधियावसायमामaigaaधानिमनस्यापकनविचारकिरातकालयमावयवदतताना विवाetanuarनयासारामनियावामयनयायलायसिंदबाभकामmannmaaaamandम विवार Marरकमकमालवयाranामनावमास्यविनायकार्यनmessanaleमस्यांवकारामास्वाति मयस्यानमाFrammssainmporaमामी संसाधनयवालक्रियाविनत्यतayालयकवानियमानसिमावर daadimananmanasiamanataisunnlemameeruwaवलाचदिवाधिकारमारिवायवासियतमामयनामसाय aftanarasatasanaनिसानहायावासिकोमाधवायरोwिriurmeनमिदंबिनेगावागावावयालयलयमामयमलगायाभरामनवाला aaifusharein याकामनामान्वयनयमानायवरांचा प्रवाशaamEENNIRMIRATRAINMEमस्परविवाघमाराय कारखानस्यRSmalaमिनिमावविय-पालनामनि याantappeoनयनिकमिलायसिंहासविताकारयामासयाकम naarasमोनहरममावस्या कामकाबावियाशियवितिय भयका जलाभिकानि amanGRADUNIAlRIBEORADABBयाया a adameenagriaयिकandefianuraaraaBAR 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श्रीमदुदयप्रभाचार्यैर्विरचिता -वस्तुपालान्वयप्रशस्तिरूपासुकृतकीर्तिकल्लोलिनी। - - - - पश्चजिनस्तुतिरूपं मङ्गलम् चिन्तातीतफलप्रदः स दिशतु श्रेयो युगादिप्रभु/जुर्जन्मनि यस्य कल्पतरवः सर्वेऽप्युपादानताम् । नेत्थं चेत् कथमन्यथा वसुमतीमस्मिन्नलकुर्वति, त्रैलोक्यैकगुरौ न गोचरममी जग्मुर्जगच्चक्षुषाम् ? ॥१॥ पापं पहजयन् मुदं कुमुदयन् मोहं तमःस्तोमयन् , बुद्धिं तोयधयन् नतिप्रणयिनां चन्द्राश्मयन् लोचनम् । पीयूषप्रतिमल्लनिर्मलगवीप्रक्षालितक्ष्मातलस्तापव्यापदपास्तयेऽस्तु जगतः श्रीमान् मृगाको जिनः ॥२॥ श्रीनेमिनवनीलनीरजरुचिः श्रेयांसि निःश्रेयसश्रीविश्रान्ततनुस्तनोतु कृतिनां सौभाग्यभङ्गीगुरुः । सजः कज्जलकालिमा त्रिजगतीलीलावतीनेत्रयोर्यदेहातिपानचिह्नवदसावद्यापि विद्योतते ॥३॥ परमपदपुरागद्वारभूतो विभूत्यै, स भवतु भवभाजां पार्श्वनाथो जिनेन्दुः। यदुपरि परिणाम तोरणसग्दलानां, कलयति महहेतुर्भोगिनेतुः फणाली ॥४॥ छद्मोत्सेकितनोरभीरभिनभोगर्भ सगीकृतच्छायस्य च्छविभिः सुरस्य शिरसि स्वर्णद्युतिः शैशवे । वीक्ष्यैव क्षणतः प्रदक्षिणविधिप्रहेषु वैमानिकप्राग्भारेषु सुपर्वपर्वततुलां वीरः श्रयन् वः श्रिये ॥ ५ ॥ सरस्वत्याः स्तवनम् पुण्यैकहेतू रसिनीरजन्मप्रभापटू रूपचितप्रभावैः ।। श्रीवर्द्धमानस्य जिनेश्वरस्य, वाचः क्रमौ वक्त्रमपि स्मरामि लीलासचरणं च न पुररणत्कारश्रियं च स्वयं, बोद्धं साधु निषेव्यते खगकुलोत्तंसेन हंसेन या । किझल्कासनप्रसक्तमनसस्तस्यैव हेतोः करे, कुर्वाणा कमलं सतां भवतु सा ब्राह्मी परब्रह्मणे ॥७॥ कविस्तुतिः जीयासुः कवयो नवोत्तमगुणग्रामाभिरामश्रियः, सर्वे शास्त्रतरङ्गिणीपरिवृढोल्लासैकचन्द्रोदयाः । येषां कीर्तिरुदारवैभवभवत्प्रौढप्रबन्धावलीकल्लोला भुवनेषु पञ्चमपयोराशिश्रियं गाहते ॥८॥ १ मदं मुद्रिते ॥ २ यत्यन् मुद्रिते ॥ ३ °हेतुं र मुद्रिते ॥ ४ सदा में मुद्रिते ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता चापोत्कट वंशीय राजवर्णनम् ॥ ११ ॥ राजा श्रीवनराज इत्यभिधया चापोत्कटः कोऽप्यभूद्, गोत्रेण क्रियया च कश्चन वनाद् वीरः समभ्युत्थितः । सूर्येणापि जितेन यस्य महसा चाल्येऽपि दोलातरुच्छाया नाम न नामिता दिशि दिशि क्रोधारुणं धावता ॥९॥ सूर्याचन्द्रमसौ कदाऽप्युदयतश्चेत् पश्चिमायां ततो, राज्यं स्यादिह सन्धयेति सुतया देशं समुद्राहयन् । येनास्यां दिशि वर्धमानमहसा राज्ञा च सूरेण च, प्राप्तेनाभ्युदयं महोदयपतिः पूर्णप्रतिज्ञः कृतः ॥ १० ॥ भूषा भुवोऽण हिलपाटकनामधेया, येन व्यधायि किल गूर्जरराजधानी । यत्रोदयन्नवनवाद्भुतभोगभाग्यश्रीणां नृणां बहुतृणं त्रिदशौ सोऽपि एकाऽपि प्रमदा मदालसवपुर्यत्र प्रपापालिका, बिभ्राणा करकैरवेण करकं पूर्ण जलैरुज्ज्वलैः । रत्नस्तम्भभवन्निजप्रतिकृतिप्रान्ते कृतप्राञ्जलीन्, यूनो वीक्ष्य मृदुस्मितेन तनुते लज्जाविलक्षस्थितीन् ॥ १२ ॥ अस्मिन्नुन्नतवेश्ममौलिषु भवान् भावी सखेदः सखे !, चक्रप्रस्खलनाकुली कृतरथस्तस्मादितो गम्यताम् । भिन्नान्तस्तमसः सुवर्णकलशाश्चैत्यालिचूलाजुषः, संज्ञां चक्रुरधीरकेतनकरैर्यत्रेति मित्रं प्रति ॥ १३ ॥ स्फूर्जद्गुर्जर मण्डलावनिवधूवक्त्रोपमेऽस्मिन् पुरे, चैत्यं किञ्च विशेषकं व्यरचयत् पश्चासराहं नृपः । यस्योच्चैः कलशश्चकास्ति रुचिभिः किञ्चिद्विभिन्नाम्बरश्यामत्वव्यपदेश केशपदवीसी मन्तसीमामणिः॥ १४ ॥ धात्री धुरीणभुजनिर्जितभोगिराजः, श्रीयोगराज इति भूरमणस्ततोऽभूत् । यस्य प्रतापतरणिस्तरवारिमेघमूर्त्त्यन्तरेण नवकीर्तिजलं ववर्ष आसीदीशो दोष्मदादित्यरत्नादित्यो रत्नादित्य इत्यस्य पट्टे । तीव्रं तेजोवह्निमह्नाय यस्यावर्षत् खङ्गः शत्रुसंवर्तकाब्दः जातः करीन्द्रोद्धुरवैरिसिंहः, श्रीवैरिसिंहस्तदिलाविलासी । यत्कीर्तिकुल्या स्तुतिकैतवेन, चिक्रीड लोकाननकाननेषु ।। १५ ।। श्री क्षेमराज इति तद् विरराज राजा, येनोद्धृतेऽपि भुवने कृश एव शेषः । विस्मृत्य नृत्यदुरगीभर गीयमानतत्कीर्तिपानरसिको रसनं सुधायाः ॥ १८ ॥ राजा चामुण्डराजस्तद्, भूमण्डलममण्डयत् । ससर्प विश्वे यस्याऽऽज्ञा, नरेन्द्रैरप्यलङ्घिता ॥ १९ ॥ चौलुक्य वंशीयनरपतिवर्णनम् [ प्रथमं ॥ १६॥ ॥ २० ॥ आहडस्तदजनि क्षितिनेता, यस्य बाहुरिह नूतनराहुः । एककालगिलितौ रिपुतेजः - कीर्तिसूर्य-शशिनौ न मुमोच नम्रारीन्दुमुखीमुखेन्दु विजयस्मेरक्रमाम्भोरुहः, श्रीभूमिर्भुवनैकभूषणमभूर्ते तद्भूर्विभुर्भूभटः । यत्कीर्तिर्गगनेऽपि पुष्यनिकरः स्वर्गेऽपि दुग्धोदधिः, क्ष्माखण्डेऽपि हरस्मितं विलसति श्वभ्रेऽपि चन्द्रप्रभा २१ पीनश्रीर्भुजपन्नगोऽजनि यशोवार्धिर्जजृम्भे मुहुः, कम्पं खड्गलता ततान परितो जज्वाल तेजोऽनलः । यस्य क्षुण्णविपक्षवर्गवनितानिःश्वासवातोर्मिभिर्जेतुः केतुचलाऽप्यभूदविचला चित्रं जयश्रीरसौ ॥ २२ ॥ स्वस्रीयः श्रयति स्म तस्य पदवीं चौलुक्यलक्ष्मीशिरोमाणिक्यं हिमवद्विजिष्णुमहिमा श्रीमूलराजो नृपः । रेजे यस्य तमोरिपुत्रिपुरुषप्रासादकेतुच्छलादाकाशेऽपि विकाशिकाशविशदा कीर्तिस्त्रिमार्गा नदी ॥२३॥ १ सुनया कां० ॥ २ व शूरे मुद्रिते ॥ ३ चैत्ये मुद्रिते ॥ ४ तू पहूविभु कां० ॥ ॥ १७ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिनी । स्वक्रान्तसिन्धुपति लक्ष समुद्धृतश्रीको टिर्यदीयतरवारिवारितौजाः । कीseसद् दिवि हरिं सुर दैत्य- शेषक्षुब्धैकसिन्धुकलितैकमसिश्रियं तम् ॥ २४ ॥ तेजः स्फूर्जितदीपदीपिनि सुधा शोभैर्यशोभिः शुभे, विश्वच्छद्म निवाससद्मनि वशी भूमिं भुनक्ति स्म यः । शत्रुस्त्रीनयनोदविन्दुजतॄणस्तोमेन रोमाञ्चितां, सेनाभिः परिकम्पिनीं परिवृढो वोढा नवोढामिव पाण्ड्यः पाखण्डिवेषं वहति नवहतिव्रातसम्पात भीरुः, कीरः कर्णाटवीरस्त्यजति रणभुवं व्याकुलो मालवेन्द्रः । वाच्यं किञ्चिन्न कौन्तीश्वरचरितमसावातुरः कस्तुरष्कः, क्ष्माचक्राक्रान्तिभीमे प्रसरति सततं यत्प्रतापप्रभावे ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ भेजे तेजोगगनगहने यस्य पिङ्गस्फुलिङ्गभ्रान्ति बालारुणमणिरुचं प्राप कीर्त्यङ्गनायाम् । ईशो भासामपि दिवि दिवा किञ्च खद्योतपोतच्छायामायात् प्रतिनृपघटा दुर्यशोदुर्दिनेषु युद्धोड्डामर मण्डलाग्र दलितोद्दण्डारिमुण्डोद्वै तिक्रीडाखण्डित काण्ड मण्डपसुर प्रत्यक्ष दोर्डम्बरः । चण्डांशुद्युतिचण्डिमा तदभवच्चामुण्डराजः क्षमाजानिर्यस्य विभात्यखण्डविभुतापाखण्डमाखण्डलः॥ २८ ॥ रोदःक्षीरोदनीरैरखिलदिगबलानव्यनिर्धूतचीरेदिमागस्फारहारैरमरपतिपुरक्रोडपुष्पोपहारैः । क्षोणीचन्द्राश्मशालैरपि भुजगजगञ्चन्द्रिकाचक्रवालैः, फुल्लत्काशप्रकाशैस्त्रिभुवनमभितो भाति यत्कीर्तिहासैः ॥ २९ ॥ ॥ ३२ ॥ मेरुश्चेत् परिकम्पते जलपतेर्मुञ्चन्ति चेद् वीचयो, मर्यादां द्युतिमर्यमा त्यजति चेदुर्वी दिवं याति चेत् । तद् भज्येत परैरसाविति सतां सन्धां मुधा यो व्यधात्, सत्यक्षोभ विघूर्णितावनिरजः कृते ऽपि तचादृशे ३० खेलत्खङ्गषडंड्रिवेल्लितभुजावल्लिर्भुवो वल्लभः श्रीमान् वल्लभराज इत्यजनि तद् यत्तेजसा ताडितम् । शीतं स्फीतमभूत् तमश्व जगतः प्रत्यर्थिसार्थे गतं, नेदं चेदिह कम्प- कालिमगुणौ कस्मादकस्मादिमौ ॥ ३१ ॥ श्व सिन्धुरभुमया वसुधया भूमिं भटौधैर्दिवं, सप्तिक्षिप्तरजोभरेण पिदधे सोऽयं जगज्झम्पनः । यः श्रीमालवभूपभालफलकप्रस्वेदबिन्दुच्छ लप्रत्यप्रप्रथितप्रशस्तिविकसद्दोर्विक्रमोपक्रमः तस्मान्नेत्रसुधाञ्जनं समजनि श्रीदुर्लभो मल्लिकाकुल्लोत्फुल्लयशा विशामधिपतिर्जीमूतपूतोन्नतिः । येनोच्चैस्तरवारिवारितपरक्ष्माभृत्प्रतापाग्निना, विश्वाश्वासकरेण सूरमहसामन्तर्दधे मण्डलम् ॥ ३३ ॥ राम्भोजं भेजे सततविततं यस्य कमला, प्रियारागादागादनु दनुजभेत्ता स्वयमसिः । यशः सूनुर्नूनं तदजनि तयोरग्रजकथासदर्पः कन्दर्पद्विषमपि रुषाऽधो व्यधित यः तस्माद् भस्मीकृत रिपुनृपः क्ष्मापतिः शौर्यसीमा, भीमः श्रीमानजनि यजनैर्यस्य नश्यत्तमोभिः | प्राप्तास्तृप्तिं दिवि दिविषदो नेन्दुमास्वादयन्ते, लोकः शङ्कामिति समतनोत् कीर्तिभिर्विप्रलब्धः ॥ ३५ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ २५ ॥ १ स्वक्रीतसि कां ॥ २ मुद्धत मुद्रिते ॥ ३ काञ्चीव मुद्रिते ॥ ४ द्वतिः मुद्रिते ॥ ५ पथमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ दशमपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता यत्रारिक्षत्रगोत्रक्षयकरणरणाद्वैतवैतण्डिकेऽपि, क्ष्मापालाः क्रुद्धकालादिव निरगुरसेर्यत्प्रसादेन वेगात् । तावंही नम्रदेहाः करपरिमलनैर्मानयन्तो नयन्तो, मूर्ध्नाऽप्यूर्द्ध लघीयस्त्रिदशगृहगुहागर्भगुप्ताः प्रसुप्ताः ॥ ३६ । सेवालन्ति पयः समुद्रति दिशामन्तेषु मध्येनभः, सारजन्ति शशाङ्कति भुवने दानन्ति दन्तीन्द्रति । पुष्पस्तोमति षट्पदन्त्यनुलताखण्डं सुधाकुण्डति, श्वश्रान्तर्भुजगन्ति यस्य यशसि प्रत्यर्थिदुष्कीर्तयः ॥ ३७| तत्कामश्रीरजनि जगतीकामुकः कर्णदेवः, किं वर्ण्यन्ते सुकृतसुकृता यस्य शुद्धान्तवध्वः ? । अस्वप्नीभिर्मनुजसुदृशो बह्वमन्यन्त धन्यम्मन्या ध्यानव्यसनजनितैस्वप्नयद्भोगभाजः ॥ ३८ ॥ कान्तं यं वीक्ष्य यान्तं प्रणयमयरुषा स्वप्नलब्धं प्रबुद्धास्तद्बुद्ध्या न्यस्तहस्ता लिखितरतिपतेरञ्चले चञ्चलाक्ष्यः । मूर्च्छालाश्चित्रशालाभुवि भवति विभुर्नायमित्यस्त्रहस्तस्तत्ता हन्ति स्म मूर्त्तः स्वपरिभवभवन्मानभूमिर्मनोभूः ॥ ३९ ॥ कान्ते कृष्णेऽभिभूते जगदवनपुषा बाहुना विग्रहेण, क्षिप्ते सूनावनङ्गे पितरि जलपतौ निर्जिते सैन्यपूरैः । बन्धौ दोषाकरे तु प्रथममपि मुखालोकभद्मप्रभावे, लक्ष्म्यास्तेनेह तेने हरणमुरुयशोदौत्यदत्त स्पृहायाः ॥४० मौक्तिकद्युतिजलोज्ज्वलमन्तर्मूर्ध्नि कुम्भयुगलं कलयद्भिः । योऽवरोधविधुरैर्मलिनाङ्गैर्वैरिभिः करिकुलैश्च सिषेवे [ थम ॥ ४१ ॥ अर्थव्यर्थितदुस्थदुर्विधिलिपिर्द्विट्कुम्भिकुम्भच्छिदासिंहः श्रीजयसिंहदेव नृपतिः श्रीवेश्म तस्मादभूत् । सङ्ख्यासश्यहतावनीधवनवस्वर्वासिसन्तुष्टये, चक्रे यः ऋतुचक्रवालमवनीशक्रो न शक्रश्रिये ॥ ४२ ॥ पद्मा पद्ममपास्य पङ्कजनितं यस्यारिकेशावली रोलम्बप्रविरोलदङ्गुलिदलं भेजे कराम्भोरुहम् । शेषं वायुवशं विसृज्य सबलं दोर्नागमागादसिः, कृष्णोऽपि प्रियमेलकाभिधमभूत् तत्तीर्थमेतद्भुजः ॥४३॥ न्यस्यावश्यं शिरसि विरसं क्रन्दतां पादमेषां राज्यं ग्राह्यं द्रुतमिति रणे यः प्रतिज्ञां प्रतेने । एतत्पादोपरि तु परितः स्वं परित्यस्य मौलिं प्रीतैरन्तः प्रतिनृपतिभिः प्रत्युत प्रापि लक्ष्मीः ॥ ४४ ॥ वाजश्राजितवाजिराजिचरणक्षुण्णक्षमामण्डलप्रोद्यत्क्षोदकदम्बडम्बरपरिच्छन्नाम्बरे सङ्गरे । यत्कौक्षेयकदण्डखण्डितरिपुक्ष्मापालमालावृतिव्यासक्ता न परं पुरन्दरपुरीनार्यः स्वकार्यक्षमाः ॥ ४५ ॥ शोषः सैष जवाद् यशोजलनिधौ शान्तिः प्रतापानले, शत्रूणां शिरसि च्युतेऽपि हसितं नृत्तं कबन्धेष्वपि । सत्यं सङ्गरसङ्गरस्य महिमा सोत्साहमन्त्रस्थितेर्यस्योच्चैः करवाल एव स कथं सिद्धो न सिद्धाधिपः १ ॥४६॥ बिडौजसि गते भयादनिबिडौजसि स्वर्गिरिं, तदीयदिशि यः स्फुरन्निह महो- यशः क्ष्मारुहौ । अरोपयदहो ! पयः पतितटेऽधुनाऽप्यन्वहं ततोऽभ्युदयतो नवौ रवि - निशाधवौ पल्लवौ ॥ ४७ ॥ रक्ष्यां रक्षितुमक्षमे दिशमपि श्यामे सदुःखे यमे, यद्भृत्यैरभिभूतदक्षिणककुब्भागैर्द्विषो भाविभीः । मास्म द्राक्ष्महि दुःसहैरिति नताः पाराय वारांनिधेर्भेजुः सेतुभुवं ततः कपिभयाच्चुक्षोभ रक्षोभरः ॥४८॥ १ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ अष्टमपद्यत्वेनापि वर्त्तते ॥ २ युविपिने उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ३ 'नितं स्व' कां० ॥ ४ °त्यस्तहस्तां मुद्रिते ॥ ५ 'धुरैर्मिलिताः, मुद्रिते ॥ ६ अर्थिष्य मुद्रिते || ७ विभिः मुद्रिते ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] सुकृतकीर्टिकल्लोलिनी। विलुप्ताशः पाशं निजतनुविनाशाय वरुणः, शुचा भेजे बिभ्रत्यपरहरितो यत्र विभुताम् । किमन्यचन्द्रार्काविह दिशि गतौ यस्य च यशः-प्रतापाभ्यामम्भःपतिपयसि डीनौ निपततः ॥ १९॥ यस्मिन्नुत्तरदिग्गते बलचलचूर्णावलीभिः स्थलीभूवं मेति नदीपतिर्दृतमयं मेरोः परेणागमत् । तेने किश्च निकेतनं धनपतिः कैलाशशैले सुखग्राह्यम्मन्यमना मनागपि न चामुश्चत् तटं शूलिनः ॥५०॥ तेजोवहिहुताष्टदिग्नृपसमिद्यज्ज्ञानयूपोपमैनेंदृक् कोऽपि पतिः क्षितेरिति दिशामूडिलीसन्निभैः । आलानप्रतिमैर्दिगीशकरिणां दिग्मण्डपोत्तम्भनस्तम्भस्तोमनिभैश्च यस्य विजयस्तम्भैदिगन्ता बभुः ॥५१॥ शङ्ख शार्ङ्गधरस्य शेखरमणिं शूलायुधस्य द्विपं, वज्रास्त्रस्य रदं परश्वधभृतः स्वर्लोकलीलाजये । उत्कर्षार्थितया विलुम्पतु भेटो विश्वकधामा यशो, नामा[ss]यस्य हहा ! जहार तु कुतो युग्यं जरब्रह्मणः ? ॥ ५२ ॥ अस्य विक्रमविक्रमस्य न मुदे श्लाघा जगज्जाविकी, लझ्यानामपि कष्टमष्टककुभां जेताऽयमेतावती । क्षोणीकम्पिनि धूतधूलिनि बले यस्याहि विश्वेश्वरः, शेषो नाम ननाम धाम मुमुचे भानुर्नभोभूषणम् ॥ ५३॥ क्रान्तशकबलो भमभोगिलोकः क्षितिं जयन् । येन बर्बरदैत्येन्द्रः, पुरीपरिसरे हतः ॥५४ ॥ हृष्टोऽभून्मुशलध्वजः स्वकुशलध्यानेन जिष्णुः स्मयभ्राजिष्णुर्मुदितः समुद्रशयनो रुद्रोऽपि मुद्रामुदा। उत्क्षिप्ते किल पर्वरस्य शिरसि क्रूरस्य विश्वत्रयीजेतुर्येन तदा विधुन्तुदधिया भीतस्तु शीतद्युतिः ॥ ५५॥ संजज्ञे नृपतिशतैः कृतांहिसेवः, मापालस्तदनु कुमारपालदेवः । निर्वीराविभवमुचाऽपि येन मुष्टा, निर्वीरा रिपुवसुधा नितान्तपुष्टा ॥५६ ॥ सैन्यप्रकम्पितधराविधुरात्मकेषु, पोतैरलङ्घयसलिलेषु धुनीधवेषु । श्रीजैनचैत्यरचनेन शिलोच्चयेषु, यस्याजनिष्ट चरणः शरणं रिपूणाम् ॥५७॥ यस्य सद्मनि सदा हयहेतोः, खाद्यमुद्गवलयं दलयद्भिः । सिच्यते सुचिरसञ्चितशोकैरिभिर्नयनवारिभिरेव ॥ ५८॥ दास्यवर्तिन इवाऽऽस्यसमुत्थश्वासनाशिततृणासु विपक्षाः । प्रातरश्रुसलिलेन यदीयद्वारभूमिषु रजः स्थगयन्ति अग्रे हम्मीरवीरश्चिरमजिरमहीपादपः पादपद्मक्रीडाभृङ्गः कलिङ्गः सदनवदनगो मेदपाटः कपाटः । अन्धः कर्णाट-लाटौ कुरु-मरु-मुरला वङ्ग-गौडा-ऽङ्ग-चौडाः, क्रोडस्तम्भाः सभायामिति नृपतिकुलराकुलैरावृतो यः ॥ ६०॥ कथ्यन्ते न महीभृतः कति महीयांसो महीशेखराः?, माहात्म्यं स्तुमहे तु हेतुनिगमादेतस्य चेतोहरम् । मर्यादामतिलायन् रसलसद्यद्वाहिनीवाहितोऽर्णोराजः स जगाम जाङ्गलमहीभागेषु भग्नोन्नतिः॥६॥ १. पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ सप्तमपद्यत्वेनापि वर्तते ॥ २ 'टो निस्सीमधामा उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ३ क्रीतश कां० ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता [प्रथम दर्श दर्शमसह्यदर्शनकचं कल्पान्तशिल्पान्तकप्रक्रीडद्रसनासनाभिमभितो यत्खड्गखेला युधि । वित्रस्तस्य चमूचरैः सह तथा प्राग्विश्वलक्ष्मा भुजः, प्रस्वेदाम्बु जगाल जाङ्गलभुवोऽभूवन्ननूपा यथा॥६२॥ क्षीणत्वं दाक्षिणात्या व्यरचयदमुचन्मालवी बालवीक्षा दुःखादश्रूणि हूणी शुचमधित दधौ जाङ्गली नागलीलाम् । कुब्जाऽऽसीत् कन्यकुब्जा शिरसि सुतभरात् कोकणी करणानां, ___ वृन्दं खेदाद् बिभेदावनिभृति चलिते यात्रया यत्र जैत्रे । कोदण्डं स्वकरे कुरु कुरुते सज्जं गलजङ्गलस्त्रस्तो वेत्ति नितम्बतो न वसनं कीरो न वीरोचितः । युद्धक्षोणिषु दक्षिणः क्षितिपतिर्न क्षोददक्षोदयबाहुर्मृत्युसहस्रचक्षुषि मुहुर्यस्मिन् धनुर्धन्वति ॥ ६४ ॥ जगद्धन्यम्मन्यः प्रबलजलदुर्गाऽर्जुनमडी, यदीयैरुद्यद्भिर्बलपरिवृद्वैः पौरुषद्वैः। हयोत्खातक्षोणीविततरजसा सिन्धुपरिखां, स्थलीकृत्य क्रीडासमिति शमितः कोकणपतिः ॥६५॥ पदं विजयसम्पदामजयपालदेवोऽखिलद्विषन्नृपतिमृत्युभूरथ बभूव भूवल्लभः । रराज सुरराजवजगति यस्तनूडिम्बितप्रियाचयविलोचनाम्बुजसहस्रनेत्राश्चितः ॥६६॥ यस्मिन् पश्यति वेश्मनोऽङ्गणभुवि भ्रान्तेऽपि मत्तद्विपे, नेशुर्नाऽऽशु नृपा व्यपायरुचयः सेवामयब्रीडया। शोकश्यामतमानिमानपि पुनः प्रेक्ष्य द्विषो नापिषद् , दग्धक्ष्मारुहखण्डखण्डनविधौ कुर्वनवज्ञामिव ६७ आजन्मत्रासहेतुश्रमसमदहृदः कण्टकाः कण्टकद्रुद्रोणीचीत्कृत्त्वचोऽपि स्खलदुपलशिलाभोगभुग्नांहूयोऽपि । अङ्गुष्ठं नर्तयित्वा भृतपदमभवन् यस्य सेनाभटानां, निःस्वानध्वानजैत्रत्वरतुरगभृतां पश्यतामप्यदृश्याः ॥६८॥ तमहतमहं बद्धा वध्वा समं न समानये, यदि तदवनीनेता नेति प्रणीतरणो रिपुः । किमपि न पुनः कर्तुं भर्तुः स यस्य शशाक तन्नियतममुचत् प्राज्यं राज्यं सतामचलं वचः ॥६९॥ वीरधवलवंशवर्णनम् मूलं कीर्तिलताततेः समजनि श्रीमूलराजो नृपस्तत्पट्टे करकेलिकन्दुककलक्ष्मागोलको बालकः । यस्मै दण्डमखण्डहर्षकृतये हम्मीरभूभीरुहप्रस्वेदप्रभवं समर्पितवती मातेव कौतुहलात् ॥७० ॥ सन्तापं यत्प्रतापस्य, तुरुष्करसहिष्णुभिः । आपादमस्तकं चक्रे, ध्रुवं वासोऽवगुण्ठनम् ॥७१ ॥ रिपुस्त्रीनेत्राम्भोधयरयनदीमातृकयशा, विशामीशो भीमः समभवदुदात्तस्तदनुजः ।। अलब्धार्थिस्तोमः पुरनृषु विभक्तार्थिषु फलप्रदेषु प्रद्वेषं विरचयति दानैकरसिकः ॥ ७२ ॥ संलीनानामनुतटवनं तीरविश्रान्तनीरस्त्रीतुल्यानां यदरिसुदृशां दिक्षु रेजुर्मुखानि ।। उत्कल्लोलः सह बहुविधैरेव रत्नाकरोऽयं, रात्रौ रत्नान्यतनुत बहिः सोमनामानि मन्ये ॥७३ ॥ धाम्नां धाम कुमारपालधरणीपालप्रसादास्पदं, चौलुक्यो धवलाङ्गभूर्गुरुमतिः श्रीभीमपल्लीपतिः । अर्णोराजनॅपो व्यधत्त नृपति मामेतदीयः पिता, मत्वैवं लवणप्रसादनृपतौ क्ष्माभारमेष व्यधात् ।।७४॥ १र्गार्जनमयैर्यदी मुद्रिते ॥ २ व्यवायं मुद्रिते ॥ ३ मापाल मुदिते ॥ ४ पो न्य, मुद्रिते ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत कीर्तिकल्लोलिनी । 11:04 11 यत्खदण्डयमुनाम्भसि मेदपाट चन्द्रावतीपुरपती त्रिदिवाय मग्नौ । चक्राम चक्रमवनेरथ पूर्ण मर्णोराजस्य तस्य तनयो लवणप्रसादः पोररण्यविलङ्घनैरतिघनै राणाऽप्यरीणामहो !, राजिर्वाजिविजित्वरत्वरगतिर्वित्रस्य यस्याऽऽहवे । स्वामात्यक्रम कर्ममर्मरर वा नाकर्णयन्ती गता, प्राणत्राणवनावनावपि भिया मिश्रा न विश्राम्यति ॥ ७६ ॥ कोपाग्निज्वलितास्तटस्थबलवत्फुत्कारविस्फारिता, निर्भग्नाश्चरणेन काचकुतपप्राया निकाया द्विषाम् । तदुष्कीर्तिमिषद्रवन्नवमषी चक्रेण चक्रेऽम्बरं, श्यामं यस्य यशः पयोभिरभितः प्रक्षालितं निर्मलैः ॥ ७७ ॥ किं वर्षो लवणप्रसादनृपतिः ? पाणौ कृपाणच्छलं, कालं बालमहो महोभरजितादादायै सूरादपि । यो मुष्टिग्रहलालितं प्रतिपदं कोपारुणः कम्पयन्, दिग्नेता रिपुमुण्डमोदकचयैरुच्चै रुचं नीतवान् ॥ ७८ ॥ नताशेषद्वेषिक्षितिपकृतपूजः प्रतिपदं, तनूजस्तस्याऽऽस्ते भुजगजगदीशद्युतियशाः । war धीराणां धवल कुलधौरेयधवलः, श्रियां सौधं धीमान् धवलचरितो वीरधवलः देशोऽरण्यप्रदेशो नगरमगरसा कन्दरा मन्दिराली, परिशिडम् ] तूली धूलीनिवेशस्तृणभृतकबरीधानमेवोपधानम् । कायच्छायाऽनुगस्त्री प्रतिदिनमशनं कन्दमूलं दुकूलं, वल्कं दारिद्र्यकल्कं सचिव इति शुचिर्यद्विषां राज्यलक्ष्मीः ॥ ८० ॥ न किं स हरितुल्यतास्तुतिषु लज्जते ? यज्जितैररातिनिवहैर्महागिरिगुहागृहैकस्पृहैः । विजित्य मृगवैरिणो निजपुरे नियुक्ताः स्वयं, गृहोपवनभूरुहां विरचयन्ति रक्षां किल ॥ ८१ ॥ दूरं दुर्ललितेन यस्य महसा शङ्केऽम्बरं त्याजिता, कीर्तिर्वीरमहीभृतां तव भवद्वैलक्ष्यकृष्णच्छविः ।. गूढक्ष्माधरकुञ्जपुञ्जसदनोत्सङ्गे तमश्छद्मना, चक्रे नाशविनाशमेव रुदती बाष्पोपमैर्निर्झरैः ॥ ८२ ॥ अन्तव्यम श्रवन्ती मधुरमधु विधुच्छद्मशुभ्रच्छदं दि क्पत्रं नक्षत्रलक्षच्छलजलकणिकं भानुमद्भापरागम् । भ्रान्तध्वान्तद्विरेफव्रजमजरगिरिव्याजकिञ्जल्कमेत ॥ ८३ ॥ 11 28 11 mari नीलाम्बुजस्य श्रयति वियदहो ! यद्यशस्तोयराशौ अप्राप्ततादृशगुणां युवतिं नितम्बस्तम्ब स्तनस्तबकभारभृतोऽहसन् याः । प्राप्तासु यस्य पृतनासु पुरे रिपूणां तास्त्रासकाललसिता हसितास्तयाऽपि प्रतिदिनमपि रौद्रैर्यस्य तप्तः प्रतापैरिति समिति समेतः संप्रविष्टोऽसिदण्डे । जिगमिषुररिवर्गः स्वर्गमये तडागं, हिममयमिव मेने भानुमानन्दमग्नः यस्य न्यश्चितचापचापलचलन्नाराचवीचीचयव्यस्तत्रस्तसमस्तसैनिक जनव्यालोकशोकाकुलाः । खेदस्वेदमयं पयःकणगणं भाले दधुर्भीरुषु, व्यक्तं मौक्तिकपट्टबन्धनमिव प्रत्यर्थिपृथ्वीभुजः ॥ ८६ ॥ क्रुद्धे युद्धेषु यस्मिन् रिपुनृपनिकरः केशव-व्योमकेश ॥ ८५ ॥ ब्रह्मादीनां पदाब्जैरपि मनसि धृतै रक्षितो न क्षतेभ्यः । रक्षन्नात्मानमात्मक्रमकमलयुगप्राप्तवेगप्रसादा १ धारा मुद्रिते ॥ ॥ ७९ ॥ देताभ्यो देवताभ्यः कथमिव भुवने नाधिकोऽभूत् प्रभावैः १ ॥ ८७ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता [प्रथम यत्खनक्षतकुम्भिकुम्भविगलत्कीलालकल्लोलिनीपलिय॑क्तयशोमहीरुहमहो ! निर्मूलयन्ती द्विषाम् । तेषामेव महोदवानलभरं शान्ति नयन्ती ययौ, मुक्तामण्डलमण्डिताऽम्बुधिमगात् तेनैव रत्नाकरः॥८८॥ यद्दोर्मण्डलकुण्डलीकृतधनुःप्रोड्डीनकाण्डावलिन्यासत्रासपराः परं प्रियतमा नेशुर्द्विषां वक्षसः।। तासामप्युरसो रसोत्तरलसहुःखातुराणामयं, कन्दर्पः करकोटिकुट्टनदराद् दूरेण तूर्ण ययौ ॥ ८९ ॥ प्रत्याकारच्छलगुरुदरीनिःसृतः श्यामकान्तिः, सर्पन सर्पश्रियमकलयद् यस्य पाणी कृपाणः । यं व्यालोक्य प्रसृमरयशोराशिनिर्मोकभाजं, द्वेषिक्षोणीपरिवृढमहोदीपकः प्राप शान्तिम् ॥९॥ युद्धपर्वणि कदापि न दृष्टं, यस्य पृष्ठमसुहृन्निवारुम्बैः । सप्रतिज्ञमिव वीक्षितुमुत्कैस्तैश्चिरादनुचरत्वमभाजि कुण्डलप्रतिमितस्वभुजाभ्यां, यश्चतुर्भुज इव प्रतिभाति । चारुचक्रमनुबन्धि दधानो, बाणयुद्धजितकामविपक्षः ॥ ९२॥ यत्पदाम्बुजयुगं रणधूलीधूसरं चिकुरमार्जनिकाभिः । मार्जयन्ति विनता रिपुनार्यः, श्रीनिकेतमिव हस्तधृताभिः यद्दानप्रभवप्रभूतकनकप्राग्भारसारस्फुरन्नेपथ्यप्रचयप्रकम्पितरुचः प्रेक्ष्य द्विजानां प्रियाः। विन्ध्योल्लासभयाद् घटोद्भवमुनेोग्योऽप्युपेतो न यल्लोपामुद्रिकया तिरस्कृतिगिरा तस्मादुपालभ्यते॥९४॥ यस्मिन् दाननिदानकाञ्चनचयस्मेरत्करे कर्णिकोत्तालस्तालदलं न वाञ्छति जनः प्राणप्रियाप्रीतये । तस्मान्मूलपथेऽखिले फलगलन्मैरेयसिक्तोल्लसत्तॄण्याभिस्तृणराज एष समभूत् तथ्याभिधानस्ततः ।।९५॥ भ्रूभनिप्रतिबिम्बतोरणदलं प्रौढप्रतापैच्छलप्रोद्यद्दीपमदभ्रशुभ्रयशसा लिप्तं सुधास्पार्द्धना। पद्मासद्म विभाति वीरधवलक्षोणीशखङ्गं पुरो, युद्धक्रुद्धविरोधिरोधिपरिखाविस्फारधाराजलम् ॥९॥ उपार्जि विभुताऽद्भुता वसुमती च नीता वशं, क सम्प्रति महामतौ धृतभरे भवेयं सुखी । अनेन गदितैरिति स्फुटसभाजनैर्भाजनैः, श्रियामिति सभाजनैः शुचिविचारमूचे वचः ॥९७॥ वस्तुपालवंशवर्णनम् वंशोऽयं प्रथितोन्नतिः प्रभवति प्राग्वाट इत्याहया, पुण्यः पुण्यसुधारसेन शुचिना सोदेकसेकक्रियः । दिव्यामम्बरलम्बिनीं सुचरितप्रासादमासादयन् , कीर्ति केतनकौतुकेन तनुते यः स्वधुनीस्पर्धिनीम् ॥९८॥ अच्छिद्रो यदि तत्कृतो गुरुगुणश्चेन्निर्जलस्तत् कुतस्तेजस्वी यदि धीमतां हृदि गतश्चूडामणिश्चेत् कुतः । वंशेऽस्मिन्नजनिष्ट विष्टपचमत्कारीति कीर्तिप्रभाशुम्रो मौक्तिकरत्नवन्नवनवश्रीमण्डितश्चण्डपः ॥ ९९॥ चण्डप्रसाद इति तस्य सुतस्ततोऽभूद्, यत्कीर्तिभिर्धवलितेऽम्बरभित्तिभागे। लीलां ललौ लिपिरथस्य रथाङ्गबन्धोः, क्रीडारथः प्रकटमेकरथाङ्गशोभी ॥१०० ॥ समजनि जिनसेवानित्यहेवाकवृत्तिः, प्रगुणगुणगणश्रीस्तस्य कान्ता जयश्रीः । जगति घनतमोभिः कश्मले मानसान्तः, किल विलसति यस्याः शुद्धहंसो विवेकः ॥ १०१ ॥ १ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ षष्ठपद्यतयाऽपि विद्यते ॥ २ जातिप्रियाः मुद्रिते ॥ ३ ° मुनिर्यो' का०॥४ तापोच्छलत्प्रो मुद्रिते ॥ ५°तीवनं नो वशं कां० ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम् ] सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी। | माधुर्यधुर्यमधुलोभगुणैकशोभनिष्कम्पसम्पदलिनीनलिनीवनश्रीः । रस्ततस्तनुभवोऽनुभवोपभुक्तभाग्यप्रभावविभवो नयभूर्बभूव ॥ १०२॥ श्रीमानुदयाचलोज्वलरुचिमैत्र्यं दधानो जने, शूरः क्रूरतमःसमुच्चयभिदाशूरः कथं वर्ण्यते । इन्योन्यव्यतिषङ्गसङ्गतरुचि व्योमच्छले पल्वले, तेजःकीर्तिमिषेण चक्रमिथुनं संयोजयामास यः॥१०३॥ ला वातायन इव घियां तस्य निःसीमकीर्तिस्तोमः सोमः समजनि जनालोकनीयः कनीयान् । खिव जिनपतिर्मानसे मानसेकाद् , यस्यावश्यं नृपतिषु पतिः सिद्धराजो रराज ॥१०॥ सदा गुरुरुचिर्जीमूतपूतोन्नतिः, सोमः कोऽपि पवित्रचित्रविकसद्देवेशधर्मोन्नतिः । पक्तिकुहरे यः स्वातिवृष्टिब्रजैर्मुक्तैमौक्तिकनिर्मलं शुचि यशो दिक्कामिनीभूषणम्॥१०५॥ सस्याजनि वल्लभा । सीताऽऽभूतनयाऽप्येषा, न कुशीलसन्मतिः ॥१०६॥ राज इति व्यराजयदथ माखण्डमाखण्डलक्रीडासिन्धुरपश्यतोहरयशःस्तोमेन पुत्रस्तयोः । सोमसमुद्भवो निजभवेऽम्भोधौ गिरीशान् गुरून् , सेतूकृत्य तिरोदधे स्वकुलजाहङ्कारमुष्णद्युतः ॥ १०७ ॥ मल्लोकनिर्माणकर्मालकीणो विधिरधिगतः सोऽम्बुजन्माङ्गजन्मा। जितं यो विचिन्त्येति चित्ते, भक्ति धीमानकृत जननीपादयोरादरेण ॥ १०८ ।। केऽर्थिलोके सुरसुरभिरिव भ्राजते यस्य वाणी, चेतोवृत्तिश्च चिन्तामणिरिव फलदः कल्पशाखीव पाणिः । sसौ कस्य न स्यादमरगिरिसमः सूर-सोमप्रसर्पतेजःपुञ्जामितश्रीर्लसितसितयशोदम्भजम्मारिकुम्भी ? ॥१०९ ॥ । प्रिया मुदमधत्त पिनाकपाणेर्देवी कुमारजननीव कुमारदेवी । कुर सदा रिपुरजीयत पङ्कजश्रीसर्वस्वदानमुदितेन मुखेन यस्याः ॥११० ॥ रैकवरला कल्पद्रुकल्पाङ्गजश्रेणीनन्दनभूमिरद्भुतमतिक्षीरोदचन्द्रद्युतिः। उत्परिभवाधःकारभागीरथी, या मुक्ताफलनिर्मलद्युतिगुणाभिव्यक्तिशुक्तिर्बभौ ॥ १११ ॥ हतिरसाः कंसारिदोर्विक्रमा, गोदावर्य इवोज्ज्वला दुहितरः सप्त प्रसूतास्तयोः । दीयवदनैलेंभे सुधादीधितिर्बद्धस्पर्द्ध इवाखिलार्कखरतोच्छेदाजगन्मोदयन् ॥ ११२॥ अतिव्यतिकरैः सत्याभिधानोऽभवत् , शङ्के शङ्करकोपविभ्रमभरादासीदनङ्गः स्मरः । पमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ सप्तविंशतितमपद्येऽपि दृश्यते ॥२ वृष्टिं मुहुः, कृत्वा मौक्तिकनियो दिकामिनीमण्डनम् उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ३°वलन्म मुदिते ॥ ४ यः श्रीसोम को० ॥ वयप्रभनाम्ना निर्दिष्टं पाठभेदेन प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ गत४३ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेख्ने दृश्यते । तथाहि लावण्याङ्ग इति द्युतिव्यतिकरैः सत्याभिधानोऽभवद् , भ्राता यस्य निशानिशान्तविकसञ्चन्द्रप्रकाशाननः। शङ्के शङ्करकोपसम्भ्रमभरादासीदनङ्गः स्मरः, साक्षादङ्गमयोऽयमित्यपहृतः स्वर्गाङ्गनाभिर्लघु ॥४॥ मु० २ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री उदयप्रभाचार्यविरचिता [ प्रथमं सर्वाङ्गं सुभगोऽयमित्यनिमिष स्त्रैण्येन बाल्ये हृतः, त्यक्त्वा भूवलयं सुरेन्द्रसदसि क्रीडातर्ति निर्ममे ॥ ११३ ॥ मल्लदेव इति देवताधिपश्रीरभूत् तदनुभूर्विभूतिभूः । धर्मकर्मधिषणावशो यशोराशिदासितसितद्युतिद्युतिः ॥ ११४ ॥ रक्तः सद्गतिभावभाजि चरणे स्मेरास्यपङ्केरुहप्रक्रीडत्परमेष्ठिवाहनतया प्राप्तः प्रतिष्ठां पराम् । खेलन्निर्मलमानसेन समयं कापि श्रयन् पङ्किलं विश्वे राजति राजहंस इव यः संशुद्धपक्षद्वयः ॥ ११५ ॥ आस्ते तस्य सुधारहस्यकवितानिष्ठः कनिष्ठः कृती, बन्धुर्बन्धुरबुद्धिबोधमधुरः श्रीवस्तुः ज्ञानाम्भोरुहकोटरे भ्रमरतां सारङ्गसाम्यं यशः सोमे शौरितुलां च यस्य महिमक्षीरोदधौं सं हँस्ताग्रन्यस्तसारस्वतरसरसनप्राप्तमाहात्म्यलक्ष्मी षः । स्तेजःपालस्ततोऽसौ जयति वसुभरैः पूरयन् दक्षिणाशी यद्बुद्धिः कल्पितोरुद्विपगहनपरक्षोणिभृद्वृद्धिसम्पलोपामुद्राधिर्षैश्च स्फुरति लसदिनस्फारसञ्चारहेतुः तदिमं मौलिषु मौलिं कुरुषे पुरुषेश ! सकलसचिवानाम् । क्षितिधव ! तत्तव दोष्णोर्विष्णोरिव भवति विश्रामः श्रुत्वेति मुदितहृदयः, पुण्यप्रागल्भ्यलभ्यसभ्यगिरम् । अनयोरनयोज्झितयोर्धरणिधवं व्यक्ति धरणिधवः सोऽयं प्रख्यातकीर्तिः सुजनजनमनः पद्मबोधोष्णधामा, श्री तेजः पालनामा स्फुरति मतिलतास्थान कल्पवृक्षः पाठारम्भाय लक्ष्म्या दुहितुरिव दधत् पट्टिकां वर्ण्यवर्णा, मुक्तादग्भेन गम्भीरिमगरिमगुणैर्यः पयोराशिरासीत् दिग्यात्रोत्सववीर वीरधवलक्षोणीधवाध्यासितं, प्राज्यं राज्यरथस्य भारमभितः स्कन्धे दधल्लीलया । भाति भ्रातरि दक्षिणे समगुणे श्रीवस्तुपालः कथं, न श्लाघ्यः स्वयमश्वराजतनुजः कामं स वामस्थितिः यत्कीर्तिप्रसरैः परस्परपरिस्पद्धर्द्ध वर्द्धिष्णुभिर्दूरं दारितमेतदम्बरमिह भ्रष्टं भुवो मण्ड राशीभावचरिष्णुमीन-मकराद्याकीर्णमर्णः पतिव्याजादञ्जनमञ्जुलच्छवि न कैः प्रत्यक्षमु नीता वशं विषमवारिगुणेन बाहुस्तम्भे धृता कनकशृङ्खलिकाभियोगा श्री सिन्धुरवधूरिव भूविर्षादानप्रमोदितघनोदितमार्गणालिः १ क्रीडां ततो नि कां० ॥ २ पद्यमिदमुदयप्रभनाम्ना प्राचीन लेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४१ रसत्कशिलालेखे दृश्यते । पूर्वार्ध च तत्र पाठभेदेन वर्त्तते - र - रक्तः सद्गतिभावभाजि चरणे श्रीमल्लदेवोऽपरो, यज्ञाता परमेष्ठि० ॥ ३ पद्यमिदमुदयप्रभनाम्ना प्राचीन लेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४३ तमगिरिनार सत्क शिलालेखे अष्टमपद्यतया वर्त्तते ॥ ४ 'धिपस्य स्फुर गिरिनारशिलालेखे ॥ ५ बोध्युष्ण' मुद्रिते ॥ ६ कप्लक्षवक्षाः कां० ॥ ७ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ एकादशपयतया, प्राचीन लेख संग्रह भाग २ लेख ४३ मध्ये उदयप्रभनाम्ना तृतीयपद्यतया च वर्त्तते ॥ ८ घुर्ये भ्रा उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ९ लव्याजयोगात् कां० ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्टम् ] सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी । धाग्नि स्वर्धामशैलं प्रियवचसि सुधामानने यामिनीशं, कण्ठे वैकुण्ठशङ्ख भुजशिखरयुगे जंम्भभित्कुम्भिकुम्भौ । पुण्योत्पन्नस्य यस्य स्वयमसमचमत्कारिरूपस्य पाणौ, प्रत्यक्षं कल्पवृक्षं जगति जनयतश्चातुरी भातु धातुः लावण्यद्रव कूपरूपसुभगे निःशेषचेतस्विना मन्तर्वासिनि वाग्वशंवदमधौ राजप्रसादोज्ज्वले । एतस्मिन् सुमनोमनोरमगुणैर्विश्वं च विश्वत्रयं, वश्यङ्कुर्वति सोऽपि सम्प्रति पदभ्रष्टो मनोभूरभूत् दमभाजि दुर्जनजने श्यामायमानद्युती तन्वाने भुवनेषु दुस्तमतमः स्तोमं कुकीर्तिच्छलात् । श्रमराममार्गणमुखख्यातश्रुतिद्वारत स्तूर्णं मानसमानशे सुमनसां हंसोज्ज्वलैर्यगुणैः ॥ १२६ ॥ सवं शुभप्रभं भूमिभृदम्भस्तम्भभरं नभः सुरसरिद्वयाजध्वजभ्राजिनम् । शः प्रासादमासाद्य यश्चिन्तातीतफलप्रदोऽवनिजने देवोऽस्तु सेवोन्मुखे ॥१२७॥ विन्दुरपां सुरेश्वरसरिड्डिण्डीरपिण्ड: पति र्भासां विद्रुमकन्दैलो विभु नभः श्रीवत्सलक्ष्मा किल । कास- त्रिदशेभ-शम्भु - हिमवत्प्रायास्तु मुक्ताफल ॥ १२८ ॥ स्तोमः कोमल वालुकाsस्य च यशःक्षीरोदधौ कौमुदी जति प्रौढोर्मिभिर्नृत्यति, क्षीराब्धौ कलहंसिकाकलकलैर्गङ्गाजले गायति । प्रार्श्वकयुतो विश्वत्रयीसम्मदक्रीडानाटकसूत्रधारपदवीं यत्कीर्तिपूरो ययौ ॥ १२९॥ उद्भूतप्रतिभाद्भुतस्य मतिमच्चन्द्रस्य चिद्रूपता - माहात्म्यं तुम किमस्य निखिलग्रन्थान्धिमन्थात्मनः ? | दुःस्थानां प्रतिभूभृतां च विदधे भालस्थलस्थापिता, पातैर्वितथैव येन कविता काऽपि त्रीलोकीकवेः यत्कीर्तेः स्वैरमैरावणमदसमदभ्रान्तभृङ्गालिगीत स्फूर्जद्गर्जीनिनादस्फुरदुरुमुरजोल्लासितायाः सितायाः । नित्यं नृत्तं सृजन्त्याः शिरसि सुरगिरेश्वारुचारीप्रचारस्पष्टप्रभ्रष्टहारावलिगलितमणिभ्रान्तिमायान्ति ताराः ११ ॥ १२४ ॥ ॥ १२५ ॥ ॥ १३१ ॥ जित्कु मुद्रिते ॥ २ पद्यमिदमुदयप्रभनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४३ संख्यरिनीरसत्कशिलालेखे सप्तमपद्यतयाऽपि वर्तते ॥ ३ न्दलः किल विभुः श्रीवत्सलक्ष्मा नभः गिरिनारलाखे ॥ ४ इत आरभ्य त्रीणि पद्यानि उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ क्रमशः १२ - १३ - १४ पद्यतया वर्तन्ते ॥ 'चण्डस्य उदयप्रभी वस्तुपालस्तुतौ ॥ ६ 'भृतीव विदधौ भा मुद्रिते ॥ ७ व काचन लिपिर्येन 'वेदीकवेः उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ८ 'गीतैः स्फू मुद्रिते ॥ ९ जमृदङ्गध्वनिभिरिव समुल्लासि प्रभवस्तुपालस्तुतौ ॥ १० नृत्यं सृ उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ॥ १३० ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता [ प्रथम अस्मद्गोत्रैकमित्रं त्वमसि निशि शशी क्रीडया पीडयेन्नः, शङ्के पङ्केरुहैः श्रीरिति गदितुमिव प्रीतियुक्ता नियुक्ता । तत्तप्त्या यस्य ताम्रः कुपित इव करो दानशोभी यशोभि भृत्यैश्चक्रे तथेन्दं त्रिजगति स यथा लक्ष्यते नेक्षितोऽपि ॥१३२ ॥ जाता कृष्णपदात् प्रिया जलनिधेर्दुष्कर्मभिर्निम्नगा, बढेवं परिभाव्य यत् किल दधौ झम्पां पुरा वै भवे । तन्मन्येऽस्य कराग्रसम्भृतजनिभूत्वा गुंणश्रेयसी, कीर्तिः ख्यातिमवाप्य काऽप्यभिनवा गङ्गेयमुज्जृम्भते ॥ भर्तुर्वेषमयं विधाय कितवः कोऽप्येति मामुन्मना स्तनामुं विजये ! निवारय यतो मे नीलकण्ठः प्रियः जल्पन्तीति सती यदीययशसा शुभ्रीकृते सर्वत स्त्रैलोक्येऽपि पिनाकिना सशपथं प्रत्यायिता पार्वती क्षीराब्धिलुंठति क्षितौ फणिपतिः स्फारस्फुरत्स्फूत्कृतिर्गङ्गा निम्नमुखी करोत्यलिका अन्तः सन्ततमकपङ्कमिषतश्चन्द्रोऽपि तद्रोपितम्लानिर्दानिवरस्य यस्य यशसा तूर्ण प्रतीता नीतीनामुपरि परिपाकेन रमते, मतिर्देवे सेवा सकलकरणैकान्तकरणम् । अहो ! यस्यावश्यं शठरिपुहठप्राणहरणं, रणं दीने दानं सपदि विपदेकक्षयलयः ।। कोपाटोपपरैः परैश्चलचमूरङ्गत्तुरङ्गक्षतक्षोणिक्षोदवशादशोषि जलधियः स्तम्भतीर्थ स्वेदाम्भस्तटिनीघटाघटनया श्रीवस्तुपालस्फुरत्तेजस्तिग्मगर्भस्तितप्ततनुभिस्तैरेव सम्पू यः प्रत्यर्थिक्षितिपतिकरिच्छेदमेदस्विशक्तिर्मुक्तागौरैरवनिवलयं कीर्तिपूरैरपूरि । तं वल्गन्तं युधि विधुरयामास संग्रामसिंह, निस्त्रिंशो यत्करपरिचितः कृष्णसारोऽपि राज्यातः सवामसिंहो बा, शवो वा सिन्धुराजभूः । संयुध्य भज्यमानोऽस्य, युद्धे सत्याभिधोऽभवत् भमः शङ्ख इति स्वरैर्दिविषदामाक्षिप्य लक्ष्मीमुखं, लक्ष्मीशः किल शङ्खलक्ष्मणि करे चिक्षेप चक्षुश्चलम् । कीर्त्या लुप्तमवीक्ष्य शङ्खममलं यस्य स्वयं विस्मयं, गच्छन् कश्मलसिन्धुराजतनुभूकीर्त्या कृतार्थीकृतः असौ कीर्तीः स्वका मन्त्री, कामं त्रीणि जगन्त्यनु । वस्तुपालोऽरिसामन्तयशसामन्तकोऽक्षिपत् ॥ पद्माभिरामहस्तेन, महस्तेन प्रतन्वता । रविणेव तमःस्तोमः, समस्तो महता हतः ॥ १४२ ॥ १ तत्प्राप्त्या यस्य नाम्नः मुद्रिते ॥ २ गुणिप्रेयसी कां०॥ ३ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुती नवमपद्यतयाऽपि वर्तते ॥ ४ कृते निर्भरं, त्रैलो उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ५ पद्यमिदमुदयप्रभनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४३ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे द्वितीयपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ ६ भस्तिना प्रतनु मुद्रिते ॥ ७ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ अष्टादशपद्यतया वर्त्तते ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी । ॥ १४३ ॥ संयोजितेन मणिमण्डितशातकुम्भकुम्भत्विषा शुचिनखेन करद्वयेन । मौलिस्थितेन जिननाथसनाथमध्यप्रासादवद्दिनमुखे क्षणमीक्ष्यते यः मालिन्यं मुमुचे जगत्रयशुचेरर्केन्दुमन्दाकिनी सम्पर्कादपि यत्र दुर्दमतमः सम्बन्धबन्धूकृतम् । भाकाशेन तदप्यमुच्यत चिरं यत्तीर्थयात्रारजः, स्नात्रादृश्यतदात्वनिर्मलमिलकीर्तिद्युतिद्योतिना ॥१४४॥ मा भून्मद्भुवनेऽपि दुस्तरतमःस्तोमस्तथा मास्म भून्नेत्रेऽपि सदां सदाविकसिते सम्मीलनं मर्त्यवत् । प्रत्युद्गासिरजः समुच्छ्रयभयाद् दम्भोलिपाणिर्महीमम्भोभृद्भिरसीषिचत् प्रतिदिनं यत्तीर्थयात्रोद्यमे ॥ १४५॥ यद्दिकुम्भि-कुलाद्रि- कोल-कमठ - व्यालेश्वरौः खेचराः, कष्टादेव दधुस्तलं तदवनेर्विष्णुश्चतुर्भिर्भुजैः । त् खङ्गाङ्कभुजेन वीरधवलो मुद्राङ्गुलीलीलया, तेजः पालकरस्तदेव सबलः ख्यातो बलिभ्योऽप्यसौ ऽधिरोहन्निह रैवताद्रौ, वस्त्रापथस्थानतपोधनानाम् । यदौचित्यधियाऽपि किञ्चित् कालेन नीतं करतां तदेतैः त्रापर्वणि रैवतक्षितिधरे प्राप्तोऽत्र मन्त्रीश्वर स्तेजःपाल इदं निशम्य जनतोऽथाऽऽहूय तांस्तापसान् । द्रम्म सहस्रयुग्ममुचितं दत्त्वोत्तमर्णव्रजात्, तद्रामं परिमोचयन् करममुं सन्त्याजयामासिवान् चैतेन गुणैः शशाङ्कशुचिभिः कृष्टः सुराष्ट्रापतिः, पित्रोः पुण्यकृते जिनेश्वरकरं श्री भीमसिंहोऽमुचत् । तीरक्षक हेतवे तु कृतिना देवादितो दापिता, सेयं पञ्चशती सुराष्ट्रपतये तस्मै पुराऽभ्यर्थनम् बभूव गोत्रैकगुरुर्गरीयानेषामशेषागमपारदृश्वा । नागेन्द्रगच्छे स महेन्द्रसूरिर्महेन्द्र - नागेन्द्रयशा मुनीन्द्रः कर्मसाक्षिभवतापपीडनं, क्रीडितं शमरसौघपल्लवे । क्षालिताखिलमदं स्म दन्तिवद्, यं त्यजन्ति खलु कश्मलालयः पन्था ग्रन्थाटवीनां मुनिरजनि ततः कोऽपि कल्याणवल्याः, कन्दः कन्दर्पदर्पद्रुमवनदहनभ्रान्तिः शान्तिसूरिः । प्रत्यग्रक्षुब्धदुग्धार्णवनवलहरी कल्पजल्पेन यस्मिन्, जल्पाके कोविदेशे मतिमकृत कृती को विदेशे न गन्तुम् ॥ १५२ ॥ आनन्दचन्द्रा - ऽमरचन्द्रसूरी, तत्पट्टलक्ष्मीशुचिभूषणाभौ । अन्तःस्फुरद्रत्नसपत्नभूतगुरुक्रमाम्भोजनखावभूताम् १३ ॥ १४६ ॥ ॥ १४७ ॥ ॥ १४८ ॥ युग्मम् ॥ ।। १४९ ।। ॥ १५० ॥ ॥ १५३ ॥ १ पयमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ एकोनविंशपद्यतयाऽपि वर्त्तते ॥ २ त्रेषु सदां सदाविकलितेस्वामील' उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ३ 'मुच्चय कां० मुद्रिते च ॥ ४ प्रतिपदं य उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ ५ 'रापेश्वराः कां० || ६ खड्गाङ्केन भुजेन मुद्रिते ।। ७ प्राज्ञोऽत्र मुद्रिते ॥ ॥। १५१ ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता दन्तौ धर्ममतङ्गजस्य दुरितक्षोणीरुहच्छेदने, गच्छव्योमतलस्य सोम-तरणी मोहान्धकारव्यये । सम्यक्त्वक्षितिपस्य दुर्दमरिपुभ्रंशे भुजौ शासना ॥ १५४ ॥ रण्यस्थौ प्रतिवादिकुम्भिदलने यौ व्याघ्र - सिंहौ श्रुतौ श्रीमांस्ततोऽजनि मुनिः स तदीयपट्टश्रीपट्टबन्धमुकुटो हरिभद्रसूरिः । एकत्र सोम-शतपत्रगुणौ मुखाग्रे, शश्वद्विबोधमधुरौ समवासयद् यः ॥ १५५ ।। नृणां यत्पदपद्मयोर्भुवि भवत्यौन्नत्यहेतुर्नतिर्भालन्यस्तरजोव्रजो वितनुते सर्वप्रकर्षोदयम् आधत्ते च नखेन्दुदीघितिभरः पद्माकरोल्लासनं, स्तौमि श्रीहरिभद्रसूरि सुगुरोस्तस्याद्भुतं जयति विजय सेन सूरिरूरीकृतसुकृतस्तदयं तदीयपट्टे । जितजगदपि मन्मथो न यस्य, व्यधित तनुप्रतिपन्थिनोऽपि ताप इन्दुः पत्रावलम्बं व्यधित कुवलये दुर्मदात्मा प्रपेदे : गेर्जिः पर्जन्यदन्ती व्यतनुत जगति स्तम्भभावं फणीन्द्र चिक्षेप क्षीरसिन्धुर्दिशि विदिशि तृणैः संयुतं वारिजात, यस्योद्दामप्रमाणे यशसि विसृमरे ते तु सन्तोऽप्यसन्त यस्मादभ्युदयं भजेन्ननु जनो धर्मस्य तस्याप्यसौ, दूराद् दूरतरं चरत्यनुदिनं संवर्धमानः श्रिया । दुर्दैवव्ययमानवैभवभरस्तादृक्षलक्ष्मीकृते, तस्यैवाभिमुखं हि धावति सुधाभानुर्यथा भास्वतः दोषोन्मुद्रणमुद्रितेऽपि दिवसारम्भास्मतेऽपि स्थिते, भाग्याम्भोरुहि निर्विशेषितमनः सन्तोषपोषस्थितिः । अन्तः सन्ततधर्मनिर्मलमधुस्वादैकतानाशयः, साधुर्माधुकरीं बिभर्ति विरलो वृतिं जनः कश्चन आयुर्वायुहतोर्मिवत् तरुणिमा घूर्मिभ्रमत्कम्बुवत्, कम्बुप्रस्रवदम्बुबुद्बुदकवल्लक्ष्मीलवोऽप्यन्वहम् । सद्यो बहुदबिन्दु भेदकणवत् तोषोऽपि दोषादिक क्रूरग्राहनिधौ कुकर्मजलधौ साक्षादिव प्रेक्ष्यते ईदृगूरूपगुरूपदेशविशदस्वाभाविक स्वच्छधी [ प्रथमं. स्तेजःपालनिजानुजानुचरितः श्रीवस्तुपालः कृती । शुभ्रादभ्रयशःप्रसूनसुभगश्रीवल्लिकन्दोपमां, धर्मस्थानपरम्परां रचयितुं धत्तेतमामुद्यमम् ॥ १६२ ॥ १ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ सप्तदशपद्यतयाऽपि निरीक्ष्यते ॥ २ गर्जन् प° कां० मुद्रिते ॥ ३ प्रसृमरे उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशिष्टम् ] सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी। मजन्तीमवनीमवेक्ष्य दुरिताम्भोधौ नवं भूधर प्राग्भारं रचयाञ्चकार यमसौ तीर्थेशचैत्यच्छलात् । तत्रैनःप्रतिदन्तिनाशसुभगः प्रेक्षामृदङ्गस्वनैगर्जन् विश्वजयी जयत्यनुदिनं धर्मद्विपो भूतले ॥ १६३॥ स्तम्भनपुर-रैवतगिरिदैवतचैत्ये प्रपञ्चिते येन । 'शत्रुञ्जयजिनपुरतस्तीर्थत्रयगतिफलं कुरुतः ॥ १६४॥ पञ्जये भवपयोधितरार्थतीर्थ, येनेन्द्रमण्डपमखण्डपदं व्यधायि । सादुरःकरधृताद्भुतकुम्भशक्त्या, तीर्खा तमोजलमयन्ति जना जिनाग्रे ॥१६५ ॥ अस्मिन्नाभिभुवः प्रभोस्तनुभवश्चक्री स चक्रे पुरा, चैत्यं श्रीभरतः परे तु सगरक्ष्मापालमुख्या व्यधुः । वो दाशरथिः पृथासुतपतिः प्राग्वाटभूर्जावडिः, शैलादित्यनृपः स वाग्भटमहामन्त्री च तस्योद्धृतिम् । ॥ १६६॥ मातन्वन्नमरेन्द्रमण्डपमयं श्रीरैवत-स्तम्भना लङ्कारप्रभुनेमि-पार्श्वसहितं तीर्थेऽत्र शत्रुञ्जये । मावाटान्वयवार्धिवर्धनविधुर्धात्रीशमन्त्रीशिता लाध्यः सङ्घपतिः सतां विजयते श्रीवस्तुपालोऽधुना के चित्रं यदि वत्सवत्सलतया स्वच्छाश्ममूर्तिच्छला दत्राऽऽखण्डलमण्डपे सुरपुरादभ्याययुः पूर्वजाः । एतस्य प्रतिपन्नसू नुपदवीभाजोऽपि येनाद्भुत प्रीत्या वासमिह व्यधाद् विधिपुरं त्यक्त्वाऽपि वाग्देवता ॥ १६८॥ प्रष्ठे काञ्चनपट्टिकं जिनपतेराद्यस्य भामण्डल श्रीतुल्यं पुरतोऽपि सत्यपुरभूवीरावतारं मुदा । कुम्भान् पञ्च च पञ्चपातकतमश्चण्डद्युतीन् मण्डपे, श्रीशत्रुञ्जयदन्तिदाननदवच्चक्रे तडागं च यः ॥ १६९ ॥ चक्रे च यो धवलके विमलाद्रिचैत्यं, पञ्चासरं च पुरि गूर्जरकर्णिकायाम्।। तत्केतुकैतवकरद्वयनर्तनेन, शुभ्रप्रभा नभसि नर्तयति स्म कीर्तिम् ॥१७० ॥ तिमय च मन्त्रीशस्तीर्थेशं मुनिसुव्रतम् । योऽश्वावतारतीर्थस्य, मन्दिरं विदधे कृती ॥ १७१ ॥ मे शासनदत्ते च, विदधे योऽर्कपालिते । तडागं सागराकारममात्यः प्रपया सह ॥ १७२ ॥ पाजात् पौषधशालानां, नासत्यरुचिचेष्टितः । यः पापौषधशालानां, श्रेणिं श्रीमानकारयत् ॥ १७३ ॥ १ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ एकविंशतितमपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ २ यदसौ उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ 'यी विभाति भुवने श्रीधर्मगन्धद्विपः उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रथम ॥१७४ ॥ ॥१७५ ॥ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता येन स्तम्भनकाधिदैवतजिनप्रासादमुद्धृत्य तं, तत्तेने किमपि प्रपाद्वयमपि श्वेतांशुशुभ्रप्रभम् । यत् पश्यन्ति पुरो जिनेश्वरपदानुध्यानयात्राधना, धीमन्तो निजमूर्तिकीर्तिसुकृतं चञ्चद्वया(वजा)डम्बरम् श्रीमालवेन्द्रसुभटेन सुवर्णकुम्भानुत्तारितान् पुनरपि क्षितिपालमन्त्री। श्रीवैद्यनाथसुरसमनि दर्भवत्यामेकोनविंशतिमपि प्रसभं व्यधत्त तत्रैव वीरधवलक्षितिवल्लभस्य, मूर्ति तदीयसुदृशोऽपि च जैत्रदेव्या: स्वीयानुजस्य च निजस्य च मल्लदेवमन्त्रीश्वरस्य च चकार स भूपमा नृत्यन्त्या व्योमरने क्रमकटकझणत्कारतारं घुगङ्गा रङ्गचक्राङ्गनादं सचिवकुलपतेर्वस्तुपालस्य कीर्तेः । खेदप्रस्वेदबिन्दुश्रियमियमयते पद्धतिस्तारकाणां, यावत् तावत् पताकाञ्चलचलनविधिं चैत्यमाला विधत्ता इमामकृत सद्गुरोविजयसेनसूरिप्रभोः, क्रमाम्बुजरजोमजा विमलमानसोल्लासभृत प्रशस्तिमुदयप्रभः प्रभवदद्भुतप्रातिभप्रभावभरभासुरः सुकृतकीर्तिकल्लोलिनीम् प्रसादादादिनाथस्य, यक्षस्य च कपर्दिनः । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वी ॥ समाप्ता सुकृतकीर्तिकल्लोलिनीसंज्ञकेयं प्रशस्तिः ॥ कृतिरियं पण्डितपुण्डरीकश्रीमदुदयप्रभस्य ॥ ॥ सङ्ख्या ग्रन्थाग्रं ४०० ॥ शुभं भवतु ॥ । लेखकपाठकयोश्च कल्याणमस्तु ।' -- - - १ श्रीवैद्यनाथवरवेश्मनि दर्भवत्यां, यान् दुर्मदी सुभटवर्मनृपो जार । तान् विंशतिं द्युतिमतस्तपनीयकुम्भानारोपयत् प्रमुदितो हृदि वस्तुपालः॥ ४८ ॥ नरेन्द्रप्रभीयवस्तुपालप्रशस्तौ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् नागेन्द्रगच्छमण्डनश्रीउदयप्रभसूरिविनिर्मिता वस्तुपालस्तुतिः। पीयूषादपि पेशलाः शशधरज्योत्स्नाकलापादपि, स्वच्छा नूतनचूतमञ्जरिभरादप्युल्लसत्सौरभाः। वाग्देवीमुखसामसूक्तविशदोद्गारादपि प्राञ्जलाः, केषां न प्रथयन्ति चेतसि मुदं श्रीवस्तुपालोक्तयः१ ॥१॥ चेतः केतकगर्भपत्रविशदं वाचः सुधाबन्धवः, कीर्तिः कार्तिकमासमांसलशशिज्योत्स्नावदातद्युतिः । माश्चर्य क्षितिरक्षणक्षणविधौ श्रीवस्तुपालस्य यत् , कृष्णत्वं चरितैरपास्तदुरितैलॊकेषु भेजे भुजः॥२॥ श्रीवस्तुपालमन्त्रीन्दोबूंमः किं गुणगौरवम् ? । यस्य निष्प्रतिमानस्य, तुलनायाः कथा वृथा ॥ ३ ॥ सूरो रणेषु चरणप्रणतेषु सोमो, वक्रोऽतिवक्रचरितेषु बुधोऽर्थबोधे । नीतौ गुरुः कृतिजने कविरक्रियासु, मन्दोऽपि च ग्रहमयो नहि वस्तुपालः ॥ ४ ॥ मसूणघुसृणपकैर्भालपट्टेषु लब्धा, विधिविहितकुवर्णश्रेणिकी याचकानाम् । विरचयति सुवर्णश्रेणिभूषाममीषां, ध्रुवमिति नववेधा वस्तुपालः सुमेधाः युद्धपर्वणि कदाऽपि न दृष्टं, यस्य पृष्ठमसुहृन्निकुरम्बैः । सप्रतिज्ञमिव वीक्षितुमुत्कैस्तैश्चिरादनुचरत्वमभाजि ॥६॥ शङ्ख शार्ङ्गधरस्य शेखरमणि शूलायुधस्य द्विपं, वज्रास्त्रस्य रदं परश्वधभृतः स्वर्लोकलीलाजये। उत्कर्षार्थितया विलुम्पतु भटो निःसीमधामा यशो, नामाऽऽयस्य हहा ! जहार तु कुतो युग्यं जरब्रह्मणः ? ॥७॥ सेलिन्ति पयःसमुद्रति दिशामन्तेषु मध्येनभः, सारङ्गन्ति शशाङ्कति थुविपिने दानन्ति दन्तीन्द्रति । पुष्पस्तोमति षट्पदन्त्यनुलताखण्डं सुधाकुण्डति, श्वभ्रान्तर्भुजगन्ति यस्य यशसि प्रत्यार्थिदुष्कीर्तयः ॥ ८ ॥ भर्तुर्वेषमयं विधाय कितवः कोऽप्येति मामुन्मना स्तेनामुं विजये ! निवारय यतो मे नीलकण्ठः प्रियः । १ पद्यमिदं धर्माभ्युदयदशमसर्गप्रान्ते, प्रबन्धकोशगतवस्तुपालप्रबन्धे षट्षष्टितमं च “ एवं स्तुतः केनापि कविना" इत्युल्लेखेन निर्दिष्टं वर्तते ॥ २ पद्यमिदं प्रबन्धकोशे वस्तुपालप्रबन्धे अष्टापञ्चाशत्तमं “कश्चित्" इत्युल्लेखेनोलिखितं वर्तते ।। ३ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां ९१ तमम ॥४ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां ५२ तमम् ।। ५ °टो विश्वैकधामा सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्याम् ॥ ६ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां ३७ तमम् ॥ ७ शुभुवने सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्याम् ॥ ८ पद्यमिदं सुकृतकोर्तिकल्लोलिन्यां १३४ तमम् ॥ व०३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री उदयप्रभाचार्यविरचिता जल्पन्तीति सती यदीययशसा शुभ्रीकृते निर्भरं, त्रैलोक्येऽपि पिनाकिना सशपथं प्रत्यायिता पार्वती कराम्भोज भेजे सततविततं यस्य कमला, प्रियारागादागादनु दनुजभेत्ता स्वयमसिः । यशः सूनुर्नूनं तदजनि तयोरप्रजकथा सदर्पः कन्दर्पद्विषमपि रुषाऽधो व्यधित यः दिग्यात्रोत्सववीरवीरधवलक्षोणीधवाध्यासितं, प्राज्यं राज्यरथस्य भारमभितः स्कन्धे दधल्लीलया । धुर्ये भ्रातरि दक्षिणे समगुणे श्रीवस्तुपालः कथं, न श्लाघ्यः स्वयमश्वराजतनुजः कामं स वामस्थितिः गर्जेन्निर्जरकुञ्जरे मुरजति प्रौढोर्मिभिर्नृत्यति, क्षीराब्धौ कलहंसिकाकलकलैर्गङ्गाजले गायति । श्यामाकामुकपारिपार्श्वकयुतो विश्वत्रयीसम्मद क्रीडानाटकसूत्रधारपदवीं यत्कीर्तिपूरो ययौ उद्भूतप्रतिभाद्भुतस्य मतिमचंण्डस्य चिद्रूपता - माहात्म्यं तुम किमस्य निखिलग्रन्थाब्धिमन्थात्मनः ? | दुःस्थानां प्रतिभूभृतां च विदधे भालस्थलस्थापिता, पातैर्वितथैव काचन लिपिर्येन त्रिवेदीकवेः यत्कीर्तेः स्वैरमैरावणमदसमदभ्रान्तभृङ्गालिगीत स्फूर्जद्द्वजमृदङ्गध्वनिभिरिव समुल्लासितायाः सितायाः । नित्यं नृत्यं सृजन्त्याः शिरसि सुरगिरेश्चारुचारीप्रचार स्पष्टप्रभ्रष्टहारावलिगलितमणिभ्रान्तिमायान्ति ताराः यैर्नद्धाऽतिचलाऽबलाऽपि कमला गम्भीरिमाद्यैर्गुणै स्तैरेषाऽपि न नह्यते किमु दृढैः कीर्त्तिर्जगज्जाङ्घिकी ? | सञ्चिन्त्येति यथा यथा गमयति प्रौढिं परां यो गुणा द्दामैव तथा तथाऽभि[स]रति स्वैरं दिगन्तानसौ 'श्रीवासाम्बुजमाननं परिणतं पञ्चाङ्गुलिच्छतो, जग्मुर्दक्षिणपञ्चशाखमयतां पञ्चापि देवद्रुमाः । | द्वितीयं ॥९॥ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ १ कृते सर्वतत्रैलो' सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां ॥ २ पद्यमिदं सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां ३४ तमम् ॥ ३ पद्यमिदं सुकृतकीकिल्लोलियां १२१ तमम्, तथा उदयप्रभनाम्नैव निर्दिष्टं प्राचीन लेखसंग्रह भाग २ लेख ४३ मध्ये तृतीयम् ॥ ४ भाति भ्रा सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ च ॥ ५ इत आरभ्य त्रीणि पद्यानि सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां क्रमशः १२९१३० - १३१ तमानि ॥ ६ चन्द्रस्य सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां ॥ ७°व येन कविता काऽपि त्रिलोकीकवेः सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां ॥ ८° जनिनादस्फुरदुरुमुरजोल्लासि° सुकृत कीर्ति कल्लोलियां ॥ ९ नृत्तं सृ सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां ॥ १० पद्यमिदं धर्माभ्युदयसप्तम सर्गान्ते प्रबन्ध कोशगतवस्तुपालप्रबन्धे षष्टितमं च “ इतरस्तु " इत्युलेखनो लिखितं वर्त्तते ॥ ।। १५ ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालस्तुतिः । वाञ्छापूरणकारणं प्रणयिनां जिव चिन्तामणि र्जाता यस्य किमस्य शस्यमपरं श्रीवस्तुपालस्य येत् ? इन्दुः पत्रावलम्बं व्यधित कुवलये दुर्मदात्मा प्रपेदे, गर्जि पर्जन्यदन्ती व्यतनुत जगति स्तम्भभावं फणीन्द्रः । चिक्षेप क्षीरसिन्धुर्दिशि विदिशि तृणैः संयुतं वारिजातं, यस्योद्दामप्रमाणे यशसि प्रसृमरे ते तु सन्तोऽप्यसन्तः १९ ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ पद्माभिरामहस्तेन, महस्तेन वितन्वता । रविणेव तमः स्तोमः समस्तो महता हतः सा भून्मद्भुवनेऽपि दुस्तमतमःस्तोमस्तथा मास्म भून्नेत्रेषु द्युसदां सदाविकसितेप्वामीलनं मर्त्यवत् । इत्युद्गामिरजःसमुच्छ्रयभयाद् दम्भोलिपाणिर्महीमम्भोभृद्भिर सीषिचत् प्रतिपदं यत्तीर्थयात्रोत्सवे ॥ १९ ॥ अन्तः कज्जलमञ्जुलश्रि यदिदं शीतद्युतेर्द्यातते, तन्मूढाः कवयन्ति लक्ष्म न वयं सूक्ष्मेक्षिकाकाङ्क्षिणः । यद्यात्रोत्सवमद्भुतं रचयता श्रीवस्तुपाल ! त्वया, शीतांशौ लिखितं स्वनाम तदिदं प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते ॥२०॥ मैज्जन्तीमवनीमवेक्ष्य दुरिताम्भोधौ नवं भूधरप्राग्भारं रचयाञ्चकार दसौ तीर्थेश चैत्यच्छलात् । तन्नैनःप्रतिदन्तिनाशसुभगः प्रेक्षामृदङ्गस्वनैर्गर्जन् विश्वर्जेयी विभाति भुवने श्रीधर्मगन्धद्विपः ॥ २१ ॥ श्रीवस्तुपाल ! कलिकालविलक्षणस्त्वं, संलक्ष्यसे जगति चित्रचरित्रपात्रम् | यद्दानसौरभवता भवता वितेने, नानेकपेन मदमेदुरिता सुखश्रीः यः कस्यापि नायं प्रथयति न परप्रार्थनादैन्यमन्य ॥ २२ ॥ ॥ १६ ॥ स्तुच्छामिच्छां विधत्ते तनुहृदयतया कोऽपि निष्पुण्यपण्यः । इत्थं कल्पद्रुमेऽस्मिन् व्यसनपरवशं लोकमालोक्य सृष्टः, ॥ २३ ॥ स्पष्टं श्रीवस्तुपालः कथमपि विधिना नूतनः कल्पवृक्षः 'श्रीवस्तुपालसचिवस्य परे कवीन्द्राः, कामं यशांसि कवयन्तु वयं तु नैव । येनेन्द्रमण्डपकृतोऽस्य यशः प्रशस्तिरस्त्येव शक्रहृदि शैलशिलाविशाले शङ्के शारदपर्वगर्वितशशिज्योत्स्नासपत्नं तव, ॥ २४ ॥ त्रैलोक्ये गुणजालकं विलसति श्रीवस्तुपालाद्भुतम् । यत्तादृग्दृढपाशवैशसकृतातङ्काभिशङ्काः स्फुटं, नैवान्यस्य भवन्ति कीर्तिवरलाः खेलासु हेलास्पदम् ॥ २५ ॥ आशाभ्यो नवपुष्पपेशलयशः सौरभ्यसम्भावनासंहृतैः सततं पतद्भिरभितो लाभार्थिभिः सेवितः । रङ्गत्पत्रपवित्रया घनलसत्पुण्यामृतैः सिक्तया, श्लिष्टः श्रीलतया महीरुह इव श्रीवस्तुपालः बभौ ॥२६॥ १ तत् धर्माभ्युदयमहाकाव्ये ॥ २ पद्यमिदं सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां १५८ तमम् ॥ ३ विसृ सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्याम् ॥ ४ पद्यमिदं सुकृत कीर्त्तिकल्लोलिन्यां १४२ तमम् ॥ ५ पद्यमिदं सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्यां १४५ तमम् ॥ ६ ऽपि सदा सदाविकसिते सम्मील' सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्याम् ॥ ७ प्रतिदिनं य सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्याम् ॥ ८ पद्यमिदं धर्माभ्युदयाष्टमसर्गान्ते वर्त्तते ॥ ९ पद्यमिदं सुकृत कीर्त्तिकल्लोलिन्यां १६३ तमम् ॥ १० यमसौ सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्याम् || ११ यी जयत्यनुदिनं धर्मद्विपो भूतले सुकृतकीर्त्तिकल्लोलिन्याम् ॥ १२ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यैकादशसर्गान्ते विद्यते ॥ १३ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यपश्चमसर्गान्त वर्तते ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउदयप्रभाचार्यविरचिता [द्वितीयं परिशिष्टम् नेत्राणाममृताञ्जनं कथमिव श्रीवस्तुपालः कृती, सोऽयं नास्तु घनोदयः परिलसद्वृत्रारिधर्मस्थितिः । चक्रे मार्गणपाणिशुक्तिकुहरे यः स्वातिवृष्टिं मुहुः, कृत्वा मौक्तिकनिर्मलं निजयशो दिकामिनीमण्डनम् ॥ २७ ॥ श्रीवस्तुपाल ! क्षितिपालमुद्रां, भूमण्डलान्तः कति नैव दधुः ? । दोषस्य दुष्टप्रभवस्य मन्त्रिन् !, प्रभुभवानेव तु निग्रहाय ॥ २८॥ या प्रार्थना याचकवक्त्रवासादासादयद दुर्भगतामतीव । दानाय सैवार्थिषु वस्तुपाल !, स्थिता तवाऽऽस्ये सुभगीबभूव ॥ २९॥ अत्यद्भुता सचिवपुङ्गव वस्तुपाल !, कौतस्कुती स्फुरति धर्मकला तवेयम् । यत् कर्हि चिद् विमुखतामुपनीय पृष्टा, पीठामि (नि?) पश्यसि न मार्गणमण्डलस्य ॥३०॥ त्रिजगति यशसस्ते तस्य विस्तारभाजः, कथमिव महिमानं ब्रूमहे वस्तुपाल !। सपदि यदनुभावस्फारितस्फीतमूर्तिर्विधुरगिलदरातिं राहुमाहुस्तमङ्कम् ॥ ३१ ॥ बाणे गीर्वाणगोष्ठी भजति भगवति ब्रह्मभूयं प्रपन्ने, ___ व्यासे विद्यानिवासे कलयति च कलां कैंशकी कालिदासे । माघे मोघां मघोनः सफलयति ईशं वोऽद्य वाग्देवतायाः, सोऽयं धात्रा धरित्र्यां निवसनसदनं प्रस्तुतो वस्तुपालः ॥ ३२ ॥ वर्षीयान् परिलुप्तदर्शनपथः प्राप्तः परं तानवं, रोहन्मोहतया तया हृतपरिस्पन्दोऽतिमन्दोद्यमः । श्रीमन्त्रीश्वर वस्तुपाल! भवतो हस्तावलम्बं चिराद्, धर्मः प्राप्य महीं विहर्तुमधुना धत्ते पुनः पाटवम् ॥३३॥ ॥ इति नागेन्द्रगच्छीयश्रीउदयप्रभसूरिकृता वस्तुपालस्तुतिः ॥ HALLAHR १ पद्यस्यास्योत्तरार्धमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां १०५ तमश्लोके ॥ २ वृष्टिव्रजैर्मुक्तैौक्तिकनिर्मलं शुचि यशो दिक्कामिनीभूषणम् सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्याम् ॥ ३ पद्यमिदं धर्माभ्युदयचतुर्थसर्गप्रान्ते वर्तते ॥ ४ पद्यमिदं पुरातनप्रबन्धसंग्रहगतवस्तुपालप्रबन्धे २४८ तमं सोमेश्वरदेवोक्तितयोल्लिखितं वर्तते ॥ ५ मघवति पुरातनप्रबन्धसंग्रहे ॥६शवीं का पुरातनप्रबन्धसंगहे ॥ ७ दृशं चाद्य पुरातनप्रबन्धसंग्रहे ॥ ८ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यप्रथमसर्गप्रान्ते वर्तते ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिसूत्रिता वस्तुपालप्रशस्तिः। स वः श्रेयः शत्रुञ्जयशिखरशीर्षकमुकुटः, प्रदोषान्तध्वान्तव्यतिकरनिकाराम्बरमणिः । भवभ्रान्तिश्रान्तिव्यपनयनदीष्णामृतसरःसनाभिः श्रीनाभिप्रभवजिननाथः प्रथयतु श्रीप्राग्वाटकुलेऽत्र चण्डपसुताच्चण्डप्रसादादभूत् , पुत्रः सोम इति प्रसिद्धमहिमा तस्याश्वराजोऽङ्गजः । तस्माल्लूणिग-मल्लदेवसचिवौ श्रीवस्तुपालस्तथा, तेजःपाल इति श्रुतास्तनुभुवश्चत्वार एतेऽभवन् चेतः किं कलिकाल ! सालसमहो ! किं मोह ! नो हस्यते ?, तृष्णे! कृष्णमुखाऽसि किं ? कथय किं विघ्नौघ ! मोघो भवान् । ब्रूमः किं नु सखे ! न खेलति किमप्यस्माकमुज्जम्भितं, सैन्यं यत् किल वस्तुपालकृतिना धर्मस्य संवर्मितम् दैर्गः स्वर्गगिरिः स कल्पतरुभिभेंजे न चक्षुष्पथे, तस्थौ कामगवी जगाम जलधेरन्तः स चिन्तामणिः । कालेऽस्मिन्नवलोक्य याचकचमू तिष्ठेत कोऽन्यस्ततः, _ स्तुत्यः सोऽस्तु न वस्तुपालसुकृती दानैकवीरः कथम् ? स श्रीजिनाधिपतिधर्मधराधुरीणः, श्लाघ्यास्पदं कथमिवास्तु न वस्तुपालः । श्री-शारदा-सुकृतकीर्तिमयत्रिवेण्याः, पुण्यः परिस्फुरति जङ्गमसङ्गमो यः स्वच्छन्दं हरिशङ्करः स भगवान् यत्कीर्तिविस्फूर्तिभि बिभ्रद् भस्मकृताङ्गरागमिव तद् भूतेशभूतं वपुः । सर्वाङ्गं घटितां गिरीश्वरसुतां दुग्धाब्धिपुत्री जवाद्, व्यावृत्तां च सहस्ततालहसितैर्वैलक्ष्यमध्यापयत् दायादा कुमुदावलिर्विचकिलश्रेणी सहाध्यायिनी, सध्रीची सुरसिन्धुवीचिवितति.........की चन्द्रिका । ॥ ४ ॥ १ पद्यमिदं नरचन्द्रसूरिनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ३९ संख्यगिरिनारशिलालेखे प्रथमपद्यतया वर्तते ॥२ पद्यमिदं नरचन्द्रनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४२ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे पञ्चमपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ ३ क्य यस्य करुणं तिष्ठेत कोऽन्यः स्वतः पुण्यः सोऽस्तु गिरिनारशिलालेखे ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिविरचिता [तृतीयं शीतांशुः सहपांशुखेलनसुहृत् सब्रह्मचारी हरः, प्रालेयाद्रितटी च कौतुकनटी यत्कीर्तिवामभुवः ॥ ७ ॥ प्रतापस्याद्वैतं रिपुनृपतिलक्ष्म्याः क्षणिकता, विभुं नित्यां सष्णां (?) गिरिशगिरिगौरस्य यशसः । क्रुधोऽनेकान्तत्वं महिम निजबुद्धेश्च दधता, वितेने येनाऽऽत्मा किल सकलसद्दर्शनमयः ॥८॥ प्रेयस्यपि न्यायविदाऽप्यनेन, दोषं विनाऽहं निहिताऽस्मि दूरे! इतीव दोषाद् गुणरत्नकोशं, यस्यारिभिहियते स्म कीर्तिः प्रतापतपनो यस्य, प्रतपन्नवनीतले । विपक्षवाहिनीखगधारानीराण्यशोषयत् ॥१०॥ येनारिनारीनेत्राम्भःसम्भारोद्गारसंभृतम् । विश्वसौरभ्यकृच्चक्रे, यशःकुसुमपादपम् ॥११॥ भ्रमन्ती भृशमन्यायतपनोत्तापिताऽधुना । न्यायलक्ष्मीर्विशश्राम, यद्धजादण्डमण्डपे ॥१२ ॥ स वैकुण्ठः कुण्ठः कलुषधिषणः सोऽपि धिषणः, क्षतारम्भः शम्भुन तिमिरहरः सोऽपि मिहिरः । धराभारोद्धारे वचनरचनायां परपुरस्थितिप्लोषे दोषोदयविदलने चास्य पुरतः ॥ १३ ॥ रणे वितरणे चात्र, शस्त्रैर्वस्त्रैश्च वर्षति । अमित्र-मित्रयोः सद्यो, भिद्यते हृदयावनिः ॥१४॥ इमां समयवैषम्याद् , भ्रश्यन्तीं गूर्जरक्षितिम् । दोर्दण्डेनोद्धरन् वीरः, सैष शेषं व्यशोषयत् ॥१५॥ एतस्मिन् वसुधासुधाजलधरे श्रीवस्तुपाले जग ज्जीवातौ सिचयोच्चयैर्नवनवैर्नक्तन्दिवं वर्षति । आस्तामन्यजनो धनोज्झितशशिज्योत्स्नाच्छवल्गद्गुणो द्भूतैरद्य दिगम्बराद्यपि यशोवासोभिराच्छादितम् विश्वस्मिन्नपि वस्तुपाल ! जगति त्वत्कीर्ति विस्फूर्तिभिः, श्वेतद्वीपति कालिकाकलयति स्वर्मालिकानां मुखम् । यत्तैस्तावककीर्तिसौरभमदान्मन्दारमन्दादरे, ___ वर्गे स्वर्गसदा सदा च्युतनिजव्यापारदुःस्थैः स्थितम् ॥१७॥ भाग्यभूः किमसावस्तु, वस्तुपालः स्तुतेः पदम् । येनार्थ-कामावप्येतो, धर्मकर्मकृतौ कृतौ ॥ १८ ॥ तमःसर्वान्नीने प्र[म]दलहरीनर्तितभुजं, भुजङ्गीभिर्गीते जितसितकरे यस्य यशसि । शिरःक्रोडक्रीडद्धरणिभरभुनोऽपि भजते, भुजङ्गेशः क्लेशव्ययमुदयदानन्दमुदितः ॥१९॥ यद्यात्रा तुरङ्गनिष्ठुरखुरैः क्षोणीतलं ताडितं, कम्पः सम्पदमाससाद हृदये किन्तु प्रतिक्ष्माभृताम् । उद्भूतानि रजांसि मांसलतमान्याकाशमाशिश्रियु स्तेषामेव मुखावनौ पुनरहो ! मालिन्यमुन्मीलितम् ॥ २०॥ काले यत्खनदण्डे रिपुकरटिशिरःस्यन्दसिन्दूरपूरैः, सन्ध्याबन्धं दधाने विरचितमुचितं मौक्तिकैस्तारकत्वम् । १ संसारोगारसम्भृतः प्रतौ ॥ २ पद्यमिदं नरचन्द्रनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४३ संख्य गिरिनारसत्कशिलालेखे सप्तमपद्यतयाऽपि वर्तते ।। ३ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यत्रयोदर्शसर्गप्रान्ते वर्तते ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ परिशिष्टम् ] वस्तुपालप्रशस्तिः । २३ शीतज्योतिःप्रकाशं तदनु समुदितं तद्यशो येन तेने, शश्वद्विस्तारिराकारजनिमहमहो ! विश्वतो विश्वमेतत् ॥२१॥ चण्डांशोरपि चण्डतामगमयद् यस्य प्रतापोदयः, शीतांशोरपि शीतमानमभजद् यस्य प्रसादोत्सवः । ब्रह्मास्वादनतोऽपि तोषमपुषद् यस्यावदातं यश स्तल्लोकोत्तरमस्य कस्य वचसां पात्रं चरित्राद्भुतम् ? ॥२२॥ यस्मिन् धर्म पुरस्कृत्य, विपद्भयो रक्षति क्षितिम् । जने जन्यमजन्यं च, द्वयमप्राप्यतां गतम् ॥ २३ ॥ तस्मिन् काञ्चनकोटिभिः प्रणयिनां दारिद्यमुद्राद्रुहि, व्यक्तं काञ्चनशैलखण्डनविधावाखण्डलः शङ्कितः । भ्राम्यत्येव निदेशतोऽस्य तदयं राज्ञा ससूरः सदा, नक्षत्रैः परिवारितश्च परितोऽप्यद्याप्यमुं रक्षति ॥२४॥ नभस्ये निर्दृष्टाः शरदि नहि वर्षन्ति जलदाः, फलवातरात्तैर्न खलु फलवृक्षाश्च फलिनः । प्रदुग्धा वा गावः पुनरपि न दुग्धानि ददते, कदाऽप्येतस्योच्चैनं तु वितरणे श्राम्यति मतिः ॥२५॥ वीपः स्फूर्जति सज्जकज्जलमलः स्नेहं मुहुः संहरन्निन्दुमण्डलवृत्तखण्डनपरः प्रद्वेष्टि मित्रोदयम् । सूरः क्रूरकरः परस्य सहते तेजो न तेजस्विनस्तत् केन प्रतिमं ब्रुवीमहि महः श्रीवस्तुपालाभिधम् ॥२६॥ ॥ इति मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिकृता श्रीवस्तुपालप्रशस्तिः ॥ १ पद्यमिदं नरचन्द्रनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ३९ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे चतुर्थपद्यतया, पुरातनप्रबन्धसंग्रहगतवस्तुपालप्रबन्धे २३९ तमं सोमेश्वरदेवोक्तितयोल्लिखितं च वर्तते ॥ २ करतरः गिरिनारशिलालेखे पुरातनप्रबन्धसंग्रहे च ॥ ३ बवीमि सचिवं श्री गिरिनारशिलालेखे ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं परिशिष्टम् मलधारिश्रीनरेन्द्रप्रभसूरिनिर्मिता वस्तुपालप्रशस्तिः । ॥ ३ ॥ ॥ ४ । स मङ्गलं वो वृषभध्वजः क्रियाज्जटावलीसंवलितांसमण्डलः । यदीयमङ्गं किल सर्वमङ्गलाश्रितं प्रमोदाय न कस्य जायते ? समूलमुन्मूलयितुं सुरद्रुहः, सन्ध्यासमाधौ चुलुकीकृतेऽम्भसि । स्वयम्भुवा यः ससृजे भटाग्रणीः, समग्रशक्तिः स चुलुक्य [इ] त्यभूत् तदन्वयाम्भोधिविधुर्विधूतविरोधिमूलोऽजनि मूलराजः । न कापि दोषोक्तिरभूत्तु यस्य, यशःप्रकाशैर्विशदेऽपि विश्वे य(त)स्यात्मभूः समभवद् भुजदण्डचण्डश्चामुण्डराज इति राजकमौलिरत्नम् । भूवल्लभस्तदनु वल्लभराजदेवस्तन्नन्दनो मुदमुदश्चितवान् प्रजानाम् तस्यानुजन्मा समभूत् परस्त्रीसुदुर्लभो दुर्लभराजदेवः । बभूव भीमो रणभूमिभीमस्ततोऽपि सीमा जगतीपतीनाम् तदात्मजः संयति लब्धवर्णः, कर्णोऽभवत् कर्णसमप्रतापः । श्रीसङ्गमाद् वीररसोऽपि यस्य, बभार शृङ्गारमयत्वमेव सूनुस्तदीयोऽजनि वैरिवीरद्विपेन्द्रसिंहो जयसिंहदेवः । नवेन्दुकुन्दद्युतिभिर्धरित्रीं, यः कीर्तिमुक्ताभिरलञ्चकार अयं हि कविलासकौतुकी, रिपुस्तदस्यास्तु विपर्ययोऽधुना । इतीव यो मालवमेदिनीश्वरं, चकार काराविनिवेशदुःस्थितम् ततोऽभवत् कीर्त्तितालवाल:, कुमारपाल: क्षितिपालभास्वान् । यस्य प्रतापः शिशिरेऽप्यरीणां, स्वेदोदबिन्दूनधिकांश्चकार उदग्रतेजः सुकृतैकमन्दिरं, धराधरेन्द्रः स गिरामगोचरः । व्यधत्त यः शत्रुकलत्रमण्डलीं, महीमशेषों च विहारभूषणाम् तस्मादभूदजयपाल इति क्षितीशः, प्रत्यर्थिपार्थिवकुलप्रलयाश्रयाशः । श्रीमूलराज इति वैरिसमासराजन्निर्व्याजविक्रमनयस्तनयस्तदीयः बन्धुः कनीयान् विजयी तदीयः, श्री भीमदेवोऽस्ति महीमहेन्द्रः । प्रवास दायिन्यपि वैरिवर्गो, बभूव यस्मिन्न वनाभिलाषी ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ १ दूरम्भवा यः... सृजे प्रतौ ॥ २ शेषाववि प्रतौ ॥ ॥ १ ॥ २ । ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ ॥ ९ ॥ ॥ १२ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालप्रशस्तिः । भियं चौलुक्यानां प्रकृतिमतिभेदेन विवशां, वशीकृत्याऽमुष्मिन्नसमविनिवेशा[म]कृत यः । स नेताऽर्णोराजः समभवदिहैवान्वयवरे, वरेण्यश्रीशाखां............णिरद्वैतसुभटः ॥ १३ ॥ भूयांस एव प्रथितप्रतापा, यशस्विनस्तस्य सुता बभूवुः । प्रदीप्यते तेषु जयी विनिद्ररुद्रप्रसादो लवणप्रसादः ॥ १४ ॥ अपास्य शौण्डीर्यमदं परेषां, यद्विक्रमो मानसमध्युवास । तदनानां च दृशो विकृष्य, बलान् विलासान् विदधेऽश्रुवारि तन्नन्दनः कुमुदकुन्दनिभैर्यशोभिर्विश्वानि वीरधवलो धवलीकरोति । यद्विक्रमः क्रमनिरस्तसमस्तशत्रुमन्येऽद्य ताम्यतितमामहितानपश्यन् ॥१६॥ चित्रं विवल्गन्नपि यत्प्रतापः, प्रचण्डमार्तण्डमहोमहीयान् । विरोधिवर्गस्य निसर्गसिद्धं, भुजामहोष्माणमपाकरोति ॥ १७॥ ॥१५॥ .............. प्राग्वाटवंशध्वजकल्पकीर्तिः, श्रीचण्डपः खण्डितचण्डिमाऽभूत् । उवास यस्मिन् गुणवारिराशौ, चिराय लक्ष्मीप्रभुरेव धर्मः ॥ १८॥ गुणौघहंसालिसरोजषण्डश्चण्डप्रसादोऽस्य सुतो बभूव । यत्कीर्तिसौरभ्यतरङ्गितानि, जगन्मुदेऽद्यापि दिगन्तराणि ॥ १९॥ पत्युर्नदीनामिव विश्वनन्दनो, बभूव सोमोऽस्य सुतः कलानिधिः । एकाऽपि. ............... • ॥२०॥ आशाराजः शस्यधीस्तस्य सूनुर्जज्ञे विज्ञश्रेणिसीमन्तरत्नम् । येनाऽऽतेने [न] क्वचिद् बालसङ्गश्चित्रं चक्रे नाप्यलीकप्रसक्तिः ॥ २१ ॥ तस्याऽभवन्निर्मलकर्मकारिणी, कुमारदेवीति सधर्मचारिणी । असूत सा नीतिरिवातिवाञ्छितप्रदानुपायांश्चतुरस्तनूरुहान् ॥ २२ ॥ लूणिगः प्रथमस्तेषु, मल्लदेवस्ततोऽपरः । वस्तुपालः सुधीरस्मात् , तेजःपालोऽथ धीनिधिः॥ २३ ॥ वंशश्रीमौलिधम्मिल्लं, मल्लदेवं कथं स्तुवे ? । यस्य धर्मधुरीणस्य, विवेकः सारथीयते ॥ २४ ॥ सरस्वतीकेलिकलामरालः, स वस्तुपालः किमु नाभिनन्धः । जिताः पदन्यासमनन्यतुल्यं, वितन्वता के कवयो न येन ? ॥२५॥ दानं दुर्गतवर्गसर्गललितव्यत्यासवैहासिकं, शौण्डीय भुजदण्डचण्डिमकथासर्वकषं विद्विषाम् ? ॥ बुद्धिर्यस्य दिगन्तभूतलभुवामाकृष्टिविद्या श्रियां, कस्यासौ न जगत्यमात्यतिलकः श्रीवस्तुपालो मुदे।।२६।। तेजःपाल: सचिवतिलको नन्दताद् भाग्यभूमियस्मिन्नासीद गुणविटपिनामव्यपोहः [ प्ररोहः ] । यच्छायासु त्रिभुवनवनप्रेक्षणीषु प्रगल्भं, प्रक्रीडन्ति प्रसृमरमुदः कीर्तयः श्रीसहायाः ॥२७॥ धन्यः स वीरधवलः क्षितिकैटभारिय॑स्येदमद्भतमहो महिमप्ररोहम् । दीपोष्णदीधिति-सुधाकिरणप्रवीणं, मन्त्रिद्वयं किल विलोचनतामुपैति ॥ २८॥ प्रेक्ष्यास्थैर्य प्रभुप्रीति-विभूति-वपुरा-ऽऽयुषाम् । वस्तुपालः स्थिरे धर्मकर्मण्येव धियं दधौ ॥२९॥ व. ४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मलधारिश्रीनरेन्द्रप्रभसूरिविरचिता अगण्यपुण्योदयसस्यकाश्यपी मघौघनिर्घातनकर्मकर्मठाम् । सहैव सङ्घेन नमस्यकर्मणा, यस्तीर्थयात्रा मकरोन्महामतिः अभ्यर्च्य देवान् पथि साधुमण्डलीमाराध्य शुद्धाशन-पानकादिभिः । उद्धृत्य दीनानुपकृत्य धार्मिकान्, यो यात्रया प्राप पवित्रतां पराम् उद्धृत्य पश्चासरजैनवेश्म, यस्तत्र संस्थाप्य च पार्श्वनाथम् । ॥ ३२ ॥ चकार चौलुक्यपुरे स्वकीर्तिसखीत्वसुस्थां वनराजकीर्तिम् श्रीयुगादिप्रभोर्वेश्मन्यर्बुदाचलमूर्ध्नि यः । श्रेयसे मल्लदेवस्य, मल्लिदेवमतिष्ठिपत् ॥ ३३ ॥ बिभ्राणं परितो जिनेन्द्रभवनान्युच्चैश्चतुर्विंशतिं, तापोत्तीर्णसुवर्णदण्डकलशालङ्कारतारश्रियम् । यः शत्रुञ्जय देवसेवनमनाः शत्रुञ्जयाख्यं जिनप्रासादं धवलक्कनामनि पुरे निर्मापयामासिवान् ॥ ३४॥ गोग्रहप्रोज्झितासूनां देवभूयमुपेयुषाम् । राणभट्टारकाणां यस्तत्रागारमकारयत् ।। ३५ ।। वार्षं तस्य परः स्मेरपद्मां पीयूषबान्धवीम् । प्रपां चाप्रतिमां विश्वप्रीतिदां यो व्यधापयत् ॥ ३६ ॥ पौषधशालाद्वितयं, यस्याssस्ते तत्र मुनिभटाकीर्णम् । कलिशत्रुभीतिभङ्गुरधर्मधराधीशदुर्गनिभम् पुरोत्तमे स्तम्भनकाभिधाने, निवेशने पार्श्वजिनेश्वरस्य । योsकारयत् काञ्चनकुम्भदण्डमखण्डधर्मा शिखरं गरीयः ॥ ३८ ॥ नाभेयं नेमिनाथं च तदीये गूढमण्डपे । सरस्वतीं जगत्यां च स्थापयामास यः कृती ॥ ३९ ॥ अकारयन्नगाकारं, प्राकारं परितोऽत्र यः । निदाघदमनक्रीडाप्रवृत्तं च प्रपाद्वयम् ॥ ४० ॥ यश्चकार नवोद्धारधारि...द्भुतवैभवाम् । सुधासहचरीं तत्र, वापीं व्याकोशपङ्कजाम् ॥ ४१ ॥ भृगुन गरमौलिमण्डनमुनिसुव्रततीर्थनाथभवने यः । देवकुलिकासु विंशतिमितासु हैमानकारयद् दण्डान् [ चतुर्थ 11 30 11 ॥ ३१ ॥ ॥ ४२ ॥ || 80 || तस्य गर्भगृहोत्सङ्गे, यस्त्रैलोक्यदिवाकरौ । पार्श्वनाथ- महावीरौ, क्षान्तिधीरो न्यवीविशत् ॥ ४३ ॥ नगराख्ये महास्थाने, चैत्यमाद्यजिनेशितुः । येनोद्धृत्य समुद्दधे, कीर्तिर्भरतचक्रिणः ॥ ४४ ॥ व्याघ्ररोल्य (पल्ल्य) भिधे ग्रामे, पूर्वजैः कारितं पुरा । येन तत्पुण्यवृद्ध्यर्थमुद्धृतं जिनमन्दिरम् ॥ ४५ ॥ निरीन्द्रग्रामे वोडाख्यवालीनाथस्य मन्दिरम् । विघ्नसङ्घातघाताय, प्रजानामुद्दधार यः ॥ ४६ ॥ स्थापयन् सींहुलग्राममण्डने जिनवेशनि । यः श्रीवीरजिनं विश्वप्रमोदमदजीवयत् श्रीवैद्यनाथवरवेश्मनि दर्भवत्यां यान् दुर्मदी सुभटवर्मनृपो जहार । तान् विंशतिं द्युतिमतस्तपनीय कुम्भानारोपयत् प्रमुदितो हृदि वस्तुपालः ॥ ४८ ॥ श्री वीरधवल मूर्तिर्जयतलदेव्याश्च मूर्त्तिरसमश्रीः | श्री मल्लदेवमूर्तिः, स्वमूर्तिरनुजस्य मूर्तिश्च ॥ ४९ ॥ श्रीवैद्यनाथगर्भद्वारबहिर्भित्तिसम्भवे लिये । अन्तर्भक्तिनिमीलितकरकमलाः कारिता येन ॥ ३७ ॥ ॥ ५० ॥ १ श्रीमालवेन्द्रसुभटेन सुवर्णकुम्भानुत्तारितान् पुनरपि क्षितिपालमन्त्री । श्रीवैद्यनाथवरवेश्मनि दर्भवत्यामेकोनविंशतिमपि प्रसभं व्यधत्त ॥ १७५ ॥ उदयप्रभीयायां सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्याम् ॥ युग्मम् ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालप्रशस्तिः स्वविरोधिनीं शुचिर्ध्रुवमुमारशय्ये च बदरकूपे च । यस्य प्रपां प्रपश्यन्, कलयत्यधिकाधिकं तापम् ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ 1 ।। ५५ ।। उद्दधारानुजो यस्य, तीर्थे कासहदाभिधे । नाभेयभवनं तुझं, स्वयमम्बालयं पुनः स्तम्भतीर्थे नगोतुझे, धानि भीमेश्वरस्य यः । शातकुम्भमयं कुम्भं, केतने चाध्यरोपयत् ॥ ५३ ॥ तत्र लोलाकृति दोलाकालां धोतीं च मेखलाम् । यो वृषं च तुषारांशुकान्तिकल्पमकल्पयत् ॥ ५४ ॥ यः स्फुरन्मेदुरामोदे, तस्य गर्भगृहोदरे । मूर्ती न्यवेशयद् धीमानात्मनश्चानुजस्य च तस्य जगत्यां प्रीत्यै, ललितादेव्याः स्ववल्लभाया यः । सूत्रयति स्म पवित्रां, वटसावित्रीसदनसहिताम् किं च कारयता तत्र, तक्रविक्रयवेदिकाम् । स्वस्य प्रकटिता येन, कृत्या - Sकृत्यविवेकिता ॥ ५७ ॥ ॥ ५८ ॥ 1 ॥ ६० ॥ उद्धृत्य वैद्यनाथस्य, वेश्म योऽत्रैव मण्डपे । मूर्तिं श्रीमल्लदेवस्य शस्य कीर्तिरतिष्ठिपत् पुण्यं प्रतापसिंहस्य यः स्वपौत्रस्य वर्धयन् । तत्रैव रचयामास, ध्वस्तग्रीष्मातपां प्रपाम् ॥ ५९ ॥ प्रभूतभूतराजस्य, यशोराजस्य मन्दिरम् । रम्यं निर्मापयामास, कीर्तीनां वासवेश्म यः असौ भुवनपालस्य, शिवाय शिवमन्दिरम् । अस्थापयत् समं रम्यैर्दशभिर्देवतालयैः तज्जगत्यां च यः काम्यं, चण्डिकायतनं नवम् । वेश्म रत्नाकरस्यापि, निस्सपत्नमसूत्रयत् ॥ ६२ ॥ पञ्च पौषधशालाश्च तत्र येन वितन्वता । पञ्चोत्तरविमानश्रीपात्रमात्मा व्यतन्यत ॥ ६३ ॥ ॥ ६१ ॥ २७ पुण्यायाsजय सिंहस्य, रोहडी जिनधानि यः । नाभेयप्रतिमां तस्य, मूर्ति च निरमापयत् इहैवाष्टापदोद्धारं, श्रीशालिगजिनालये । लक्ष्मीधर [स्य ] पुण्यार्थमुपकारी चकार यः तत्रैकं राणक श्रीमदम्बस्य तथाऽपरम् । पुण्यार्थं वैरिसिंहस्य, यस्तीर्थेशं न्यवीविशत् श्रीकुमारविहारेऽत्र, वृत्रारातिनतक्रमौ । पार्श्वनाथ - महावीरौ प्रीत्या यः प्रत्यतिष्ठिपत् ॥ ६७ ॥ पालितानि जिनेश्वरस्य, वीरस्य मन्दिरमुदारमकारि येन । ॥ ६६ ॥ , ॥ ५६ ॥ भूतेशवेश्म च मनोहरमध्वनीना, संजीविनी तपनतापरिपुः प्रपा च येनात्रैव वियच्चु म्बिवीचिवाचालकूलभूः । कासारः कारयाञ्चक्रे, क्षीरनीरधिबान्धवः मन्येऽस्मिन्नमृताम्बुदेन ववृषे पीयूषवर्षैर्मुहुः, केनाप्येतदवश्यमम्बरसरित्पङ्केरुहैः पूरितम् । व्यक्तं ब्रह्मसुतामरालकुलजैः कीर्णं मरालैरिदं, तेनैतस्य न वस्तुपालसरसः स्तोतुं गुणानीमहे ॥७०॥ वलभ्यां पुण्यलभ्यश्रीः, प्रासादो वृषभप्रभोः । येनोद मुदा मल्लदेवस्य सुकृतश्रिये ॥ ७१ ॥ ललितादेव्याः पत्न्याः, सुकृताय जिनेन्द्रभवनभासि तटम् । तत्र नवकमलललितं, ललितसरः कारितं येन ॥ ७२ ॥ 11 13 11 शत्रुञ्जयनगोत्सने, श्रीयुगादिजिनेशितुः । कार्तस्वरमयं रम्यं, पृष्ठपट्टमतिष्ठिपत् तस्यैवाऽऽद्यवि भोश्चैत्यप्रवेशे येन वामतः । सुव्रतस्वामिनं न्यस्य, भृगुकच्छविभूषणम् ॥ ७४ ॥ वीरं दक्षिणतः सत्य पुराधीशं निवेश्य च । तदन्ते भारती देवी, विश्वाराध्या न्यधीयत तत्रैवाकारयद्धानि, काञ्चनान् मण्डपत्रये । पौत्रप्रतापसिंहस्य, श्रेयसे कलशानसौ ॥ ६४ ॥ 11 4 11 ॥ ६८ ॥ ॥ ६९ ॥ ॥ ७५ ॥ युग्मम् ॥ ॥ ७६ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ मलधारिश्रीनरेन्द्रप्रभसूरिविरचिता [ चतुर्थ स्तोतुं नाभिनरेन्द्रनन्दनगुणान् गोत्रं च कीर्त्तिं समं, व्याहारं सचिवारविन्दतरणेरेतस्य दानाम्बुधः । यत्रोवास विकस्वरोभयमुखी प्रीत्यैव देवीन्दिरा, तद् येनास्य विभोरकार्यत पुरो दृक्पारणं तोरणम् ||७७|| अत्रैव शैले रचयाञ्चकार, मनोज्ञमाखण्डलमण्डपं यः । प्रयान्ति वैलक्ष्यमवेक्ष्य यस्य, लक्ष्मीं सहस्राक्षदृशोऽप्यवश्यम् तत्र रैवतकाधीशः, प्रभुश्च स्तम्भनेश्वरः । वस्तुपाले विधृत्येव, प्रीतिमागत्य तस्थतुः श्रीवस्तुपालस्य कयाऽतिभक्त्या, नेमिः समाकृष्यत : कौतुकं नः । इतीव तस्मिन्नवलोकना - ऽम्बा- प्रद्युम्न - शाम्बाः सममभ्युपेयुः तत्राऽऽत्मस्वामिनो वीरधवलस्य धरापतेः । स्वर्द्विपाभद्विपारूढां, मूर्ति स्थापयति स्म यः ॥ ८१ ॥ अत्रैव शत्रुञ्जयशैलमौलौ, नन्दीश्वरद्वीपगतान् जिनेन्द्रान् । ॥ ८० ॥ ॥ ८२ ॥ तस्यानुजः स्थापयति स्म तेजःपालाभिधानो यशसां निधानम् धर्मस्थानमिदं विलोक्य जगतामानन्दकन्दोदयप्रावृट्कल्पमनल्पसम्भ्रमभरान्नन्दीश्वराख्यं जनः । तेजःपालयशांसि मांसलरसं गायन् मुहुर्गायते, मन्ये नूतनवस्तुसंस्तववशोद्भूतां प्रभूतां मुदम् ॥ ८३ ॥ अनुपमदेव्यास्तेन, स्वप्रेयस्याः प्रभूतसुकृताय । आदिजिनेश्वरपुरतो, विदधेऽनुपमासरश्च नवम् । विशेष के रैवतकस्य भूभृतः, श्रीनेमिचैत्ये जिनवेश्मसु त्रिषु । ।। ८५ ।। ॥ ८६ ॥ श्रीवस्तुपालः प्रथमं जिनेश्वरं, पार्श्व च वीरं च मुदा न्यवीविशत् तदन्तिके च निःशेषसुरा - ऽसुरनिषेविताम् । कारयामास यः काव्यकामधेनुं स्वरस्वतीम् येनाऽऽत्मनः स्वपत्न्याश्च, स्वस्य भ्रातुः कनीयसः । तद्भार्यायाश्च शैवेय चैत्येऽकार्यन्त मूर्तयः ॥ ८७ ॥ अम्बिका भवने येन, मूर्त्तिः स्वस्यानुजस्य च । जगन्नेत्रसुधावृष्टिः, कारिता चारिमास्पदम् ॥ ८८ ॥ तदीये शिखरे नेमिं, चण्डपश्रेयसे च यः । मूर्ति रम्यां तदीयां च, मल्लदेवस्य च व्यधात् ॥ ८९ ॥ चण्डप्रसादपुण्यं वर्द्धयितुं योऽवलोकनाशिखरे । स्थापितवान् नेमिजिनं, तन्मूर्ति स्वस्य मूर्ति च ७८ ॥ ॥ ७९ ॥ ॥ ९० ॥ प्रद्युम्नशिखरे सोमश्रेयसे नेमिनं जिनम् । सोममूर्ति तथा तेजःपालमूर्ति च योऽतनोत् ॥ ९१ ॥ यः शाम्बशिखरे नेमिजिनेन्द्र श्रेयसे पितुः तन्मूर्ति च कारयामास भक्तितः वस्त्रापथे जगत्यां भवनाम्नः शूलिनो भवनमतुलम् । उद्धरति स्म विवेकी, तेजःपालस्तदनुजन्मा || 28 || ॥ ९३ ॥ पुरतः कालमेघस्य, क्षेत्रपालस्य कारितः । अश्विनोर्मण्डपस्तत्र, तेनैव मतिशालिना ॥ ९४ ॥ 'प्रीतो वस्त्रापथभुवि पुरा यद् ददौ तापसानां, सङ्घः किञ्चित् तदिदमधुना प्रापितं तैः करत्वम् । ग्रामोद्धारादखिलमपि तन्मोचयामास तेभ्यस्तेजःपालः सुकृतकृतधीर्वस्तुपालानुजन्मा ॥ ९५ ॥ स्ववंश्यमूर्तिभिः श्रीमन्नेमिनाथेन चान्वितः । मुखोद्घाटन कस्तम्भे, वस्तुपालेन निर्ममे ॥ ९६ ॥ अशाराजस्य पितुः, पितामहस्यापि सोमराजस्य । मूर्त्तियुगमत्र मन्त्री, व्यधापयत् तुरग पृष्ठस्थम् ॥ ९७ ॥ १ पीठो व प्रतौ ॥ ॥ ९२ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालप्रशस्तिः । द्वारे यत् किल दक्षिणामनुगतं यच्च प्रतीच्यां स्थितं, यत् कौबेरदिगाश्रितं च सदनं श्रीनेमिनाथप्रभोः । कामं मण्डयति स्म तानि सचिवोत्तंसः स यैस्तोरण ईष्टिस्तद्विभवं विभाव्य जगतो नान्यत्र विश्राम्यति गुरुः कुलेऽस्य नागेन्द्रगच्छव्योमार्यमाऽभवत् । श्रीमहेन्द्रप्रमः श्रीमान् , शान्तिमरिस्ततः श्रुतः॥१९॥ आनन्दा-ऽमरसूरी, तदीयगच्छाब्धिकौस्तुभप्रतिमौ । तदनु हरिभद्रसूरिः, शमरत्नमहोदधिः समभूत्। ॥१० ॥ तत्पदे विजयसेनसूरयः, पूरयन्ति कृतिनां मनोरथान् । वस्तुपालजिनविम्बपद्धतिजृम्भते जगति यत्प्रतिष्ठिता अत्यद्भुतैः कृत्यशतैरजसं, योऽसाधयद्धर्ममतुल्यकर्म । श्रीवस्तुपालः सचिवावतंसः, प्रकल्पतां कल्पशतायुरेषः ॥१०२ ॥ यो विद्वद्भिरप्येवं स्तूयते त्यागाराधिनि राधेयेऽप्येककर्णैव भूरभूत् । उदिते वस्तुपाले तु, द्विकर्णा वर्ण्यतेऽधुना जज्ञे हर्षपुरीयगच्छतिलकः श्रीमन्मुनीन्दुप्रभु देवानन्दगुरुस्ततस्तदपरः सूरिश्च देवप्रभः। तच्छिण्यैर्नरचन्द्रसूरिगुरुभिर्दत्तप्रतिष्ठोदय स्तामेतामतनोत् प्रशस्तिमतुलां सूरिनरेन्द्रप्रभः ॥ १०४॥ ॥ इति मन्त्रीश्वरवस्तुपालप्रशस्तिः श्रीनरेन्द्रप्रभसूरिविरचिता ॥ ... . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमं परिशिष्टम् । मलधारिश्रीनरेन्द्रप्रभसूरिविनिर्मिता वस्तुपालप्रशस्तिः । स्वस्ति श्रीवल्लिसालाय, वस्तुपालाय मन्त्रिणे । यद्यशः शशिनः शत्रुदुष्कीर्त्या शर्वरीयितम् ॥ १ ॥ शौण्डीरोऽपि विवेकवानपि जगत्राताऽपि दाताऽपि वा, सर्वः कोऽपि पथीह मन्थरगतिः श्रीवस्तुपालाश्रिते । स्वज्योतिर्दहनाहुतीकृततमः स्तोमस्य तिग्मतेः, कः शीतांशुपुरःसरोऽपि पदवीमन्वेतुमुत्कन्धरः ? श्रीवस्तुपालसचिवस्य यशः प्रकाशे, विश्वं तिरोदधति धूर्जटिहासभासि । मन्ये समीपगतमप्यविभाव्य हंसं देवः स [प] द्मवसतिश्चलितः समाधेः वास्तवं वस्तुपालस्य, वेत्ति कश्चरिताद्भुतम् । यस्य दानमविश्रान्तमर्थिष्वपि रिपुष्वपि शून्येषु द्विषतां पुरेषु विपुलज्वालाकरालोदयाः, खेलन्ति स्म दवानलच्छलभृतो यस्य प्रतापाद्मयः । जृम्भन्ते स्म च पर्वगर्वितसितज्योतिः समुत्सेकिते, ज्योत्स्ना कन्दलकोमलाः शरवणव्याजेन यत्कीर्तयः कुन्दं मन्दप्रतापं गिरिशगिरिरपाहङ्कृतिः साश्रुबिन्दुः, पूर्णेन्दुः सिद्ध. विधुरिमा पाञ्चजन्यः समन्युः । शेषाहिर्निर्विशेषः कुमुदमपमदं कौमुदी निष्प्रमोदा, क्षीरोदः सापनोदः क्षतमहिम हिमं यस्य कीर्तेः पुरस्तात् यस्योर्वीतिलकस्य किन्नरगणोद्गीतैर्यशोभिर्मुहुः, स्मेरद्विस्मयलोलमौलिविगलच्चन्द्रामृतोज्जीविनाम् । सृष्टिर्नाभवदीदृशी मम न मेऽप्यवाप्येति गां, मुण्डयरिणद्वधातृशिरसां शम्भुः परं पिप्रिये (?) राकाताण्डवितेन्दुमण्डलमहः सन्दोहसंवादिभिर्यत्कीर्त्तिप्रकरैर्जगत्रयतिरस्कारैकहेवाकिभिः । अन्योन्यानवलोकनाकुलितयोः शैलात्मजा- शूलिनोः, त्वं त्वमिति प्रगल्भरभसं वाचो विचेरुर्मिथः ॥ २॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ ॥ ८ ॥ १ पद्यमिदं नरेन्द्रसूरिनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४१ संख्यगिरिनारसत्कशिळा लेखे चतुर्थपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ ॥ ७ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिवम् ] वस्तुपालप्रशस्तिः । बाढं प्रौढयति प्रतापशिखिनं कामं यशःकौमुदी, सामोदां तनुते सतां विकचयत्यास्यारबिन्दाकरान् । शत्रुस्त्रीकुचपत्रवल्लिविपिनं निःशेषतः शोषयत्यन्यः कोऽप्युदितो रणाम्बरतले यस्यासिधाराधरः ॥९॥ तत्सत्यं कृतिभिर्यदेष भवनोद्धारैकधौरेयतां, बिभ्राणो भृशमच्युतस्थितिरिति प्रेमोत्तरं गीयते । यत्र प्रेम निरर्गलं कमलया सर्वाङ्गमालिजिते, केषां नाम न जज्ञिरे सुमनसामौर्जित्यवत्यो मुदः ॥१०॥ न यस्य लक्ष्मीपतिरप्युपैति, जनार्दनत्वात् समतां मुकुन्दः । वृषप्रियोऽप्युग्र इति प्रसिद्धि, दधत्रिनेत्रोऽपि न चास्य तुल्यः ॥११॥ स्वस्ति श्रीबलये नमोऽस्तु नितरां कर्णाय दाने ययो रस्पष्टेऽपि दिशां यशः कियदिदं वन्द्यास्तदेताः प्रजाः । दृष्टे सम्प्रति वस्तुपालसचिवत्यागे करिष्यन्ति ताः, कीर्ति काञ्चन या पुनः स्फुटमियं विश्वेऽपि नो मास्यति यस्मिन् विश्वजनीनवैभवभरे विश्वम्भरां निर्भरश्रीसम्भारविभाव्यमानपरमप्रेमोत्तरां तन्वति। प्राणिप्रत्ययकारि केवलमभूदेहीति संकीर्तन, लोकानां न कदापि दानविषयं नाप्रार्थनागोचरम् ॥१३॥ दृश्यन्ते मणि-मौक्तिकस्तबकिता यद्विद्वदेणीदृशो, यजीवन्त्यनुजीविनोऽपि जगतश्चिन्ताश्मविस्मारिणः । यच्च ध्यानमुचः स्मरन्ति गुरवोऽप्यश्रान्तमाशीर्गिरः, प्रादुष्षन्त्यमला यशःपरिमला श्रीवस्तुपालस्य ते ॥ १४ ॥ कोटीरैः कटका-ऽङ्गुलीय-तिलकैः केयूर-हारादिभिः, कौशेयैश्च विभूष्यमाणवपुषो यत्पाणिविश्राणितैः । विद्वांसो गृहमागताः प्रणयिनीरप्रत्यभिज्ञाभृतस्तैस्तैः स्वं शपथैः कथं कथमपि प्रत्याययाञ्चक्रिरे ॥१५॥ तैस्तैर्येन जनाय काञ्चनचौरश्रान्तविश्राणितैरानिन्ये भुवनं तदेतदभितोऽप्यैश्वर्यकाष्टां तथा। दानकव्यसनी स एव समभूदत्यन्तमन्तर्यथा, कामं दुर्धतिधामयाचकच भूयोऽप्यसम्भावयन् ॥१६॥ आगो यद्वसुवारिवारितजगद्दारिद्यदावानलश्चेतः कण्टककुट्टनैकरसिकं वर्णाश्रमेष्वन्वहम् । सङ्घामश्च समग्रवैरिविपदामद्वैतवैतण्डिकस्तन्मध्ये वसति त्रिधाऽपि सचिवोसेऽत्र वीरो रसः ॥१७॥ आश्चर्य वसुवृष्टिभिः कृतमनःकौतूहलाकृष्टिभिर्यस्मिन् दानघनाघने तत इतो वर्षत्यपि प्रत्यहम् । दूरे दुर्दिनसंकथाऽपि सुदिनं तत्किञ्चिदासीत् पुनर्येनोर्वीवलयेऽत्र कोऽपि कमलोल्लासः परं निर्मितः ॥१८॥ साक्षाद ब्रह्म परं धरागतमिव श्रेयोविवर्तेः सतां, तेजःपाल इति प्रतीतमहिमा तस्यानुजन्मा जयी। यो धत्ते न दशां कदापि कलितावद्यामविद्यामयीं, यं चोपास्य परिस्पृशन्ति कृतिनः सद्यः परां निर्वृतिम् १ पद्यमिदं नरेन्द्रसरिनाम्रा प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४१ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे प्रथमपद्यतया वर्तते ॥ २ पद्यमिदं नरेन्दसूरिनाम्ना प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ गत ४१ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे द्वितीयपद्यतयाऽपि विद्यते ॥ ३ पद्यमिदं नरेन्द्रसूरिनाम्ना प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४१ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे द्वादशपद्यतयाऽपि वत्तते ॥४ प्रसिद्धम गिरिनारशिलालेखे ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मलधारिश्रीनरेन्द्रप्रभसूरिविरचिता सङ्ग्रामः क्रतुभूमिरत्र सततोद्दीप्रः प्रतापोऽनलः, श्रूयन्ते स्म समन्ततः श्रुतिसुखोद्द्वारा वि[धी]नां गिरः । मन्त्रीशोऽयमशेषकर्मनिपुणः कर्मोपदेष्टा द्विषो, होतव्याः फलवांस्तु वीरधवलो यज्वा यशोराशिभिः यः स वीरधवलः क्षितिपावतंसः, कैर्नाम : विक्रम - नयाविव मूर्तिमन्तौ । श्रीवस्तुपाल इति धीरललामतेजःपालश्च बुद्धिनिलयः सचिवौ यदीयौ अनन्तप्रागरुभ्यः स जयति बली वीरधवलः, सरौलां साम्भोधिं भुवमनिशमुद्धर्तुमनसः । इमौ मन्त्रिष्ठौ कमठपति - कोलाधिपकलामदभ्रां बिभ्राणौ मुदमुदयिनीं यस्य तनुतः युद्धं वारिधिरेष वीरधवलः क्ष्माशक्रदोर्विक्रमः, पोतस्तत्र महान् यशः शतपटाटोपो न पीनद्युतिः । सोऽयं सारमरुद्भिरञ्चतु परं पारं कथं न क्षणाद्, यत्राश्रान्तमरित्रतां कलयतः स्वावेव मन्त्रीश्वरौ स्वैरं भ्राम्यतु नाम वीरधवलक्षोणीन्दुकीर्तिर्दिवं, पातालं च महीतलं च जलधेरन्तश्च नक्तन्दिवम् । घीसिद्धाननिर्मलं विजयते श्रीवस्तुपालाख्यया, तेजःपालसमाह्वया च तदिदं यस्या द्वयं नेत्रयोः श्रीमन्त्रीश्वरवस्तुपालयशसामुच्चावचैवचिभिः, सर्वस्मिन्नपि लम्भिते धवलतां कल्लोलिनीमण्डले । वेयमिति प्रतीतिविकलास्ताम्यन्ति कामं भुवि, भ्राम्यन्तस्तनुसाद मन्दितमुदो मन्दाकिनीधार्मिकाः हो रोहण ! रोहति त्वयि मुहुः किं पीनतेयं ? शृणु, भ्रातः ! सम्प्रति वस्तुपालसचिवत्यागैर्जगत् प्रीयते । तन्नास्त्येव ममार्थिकुट्टनकथा प्रीतिदरी किन्नरी --- गीतैस्तस्य यशोऽमृतैश्च तदियं मेदस्विता मेऽधिकम् देव स्वर्नाथ ! कष्टं, ननु क इव भवान् ? नन्दनोद्यानपालः, खेदस्तत् कोऽद्य ? केनाप्यहह ! हृत इतः काननात् कल्पवृक्षः । हुमा वास्तदेतत् किमपि करुणया मानवानां मयैव, प्रीत्याऽऽदिष्टोऽयमुर्व्यास्तिलकयति तलं वस्तुपालच्छलेन [ पा ॥ २० ॥ ॥ २१ ॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ ॥ २५ ॥ ॥ २७ ॥ १ पद्यमिदं नरेन्द्रसूरिनाम्ना निर्दिष्ट प्राचीनलेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४१ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे दशमपद्यतयाऽपि विद्यते ॥ २ 'नीयात्रिका: गिरिनारशिलालेखे ॥ ३ पद्यमिदं नरेन्द्रसूरिनाम्ना निर्दिष्टं प्राचीन लेखसंग्रह भाग २ मध्ये ४१ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे नवमपद्यतया, पुरातनप्रबन्ध संग्रहगत वस्तुपालप्रबन्धे माणिक्यसूरिउतिया २५६ तमं च वर्तते ॥ ॥ २६ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालप्रशस्तिः । ३३ कर्णायास्तु नमो नमोsस्तु बलये त्यागैकहेवाकिनौ, यौ द्वावप्युपमानसम्पदमियत्कालं गतौ त्यागिनाम् । भाम्याम्भोधिरतः परं पुनरयं श्रीवस्तुपालश्विरं मन्ये धास्यति दानकर्मणि परामौपम्यधौरेयताम् ॥२८॥ व्योमोत्सङ्गरुधः सुधाधवलिताः कक्षागवाक्षाङ्किताः, स्तम्भश्रेणिविजृम्भमाणमणयो मुक्तावचूलोज्ज्वलाः दिव्याः कल्पमृगीदृशश्च विदुषां यत्त्यागलीलायितं, व्याकुर्वन्ति गृहाः स कस्य न मुदे श्रीवस्तुपालः कृती ? यद् दूरीक्रियते स्म नीतिरतिना श्रीवस्तुपालेन तत्, काञ्चित् संवननौषधीमिव वशीकाराय तस्येक्षितुम् । कीर्त्तिः कौञ्जनिकुञ्जमञ्जनगिरिं प्राक्छैलमस्ताचलं, विन्ध्योर्वीधर - शर्वपर्वत - महामेरूनपि भ्राम्यति देवः पङ्कजभूर्विभाव्य भुवनं श्रीवस्तुपालोद्भवैः, शुभ्रांशुद्युतिभिर्यशोभिरभितोऽलक्ष्यैर्वलक्षीकृतम् । कल्पान्तोद्भुतदुग्धनीरधिपयः सन्तापशङ्काकुलः, शङ्के वत्सर-मास-वासरगणैः संख्याति सर्गस्थितेः चित्रं चित्रं समुद्रात् किमपि [ नि] रगमद् वस्तुपालस्य पाणेर्यो दानाम्बुप्रवाहः स खलु समभवत् कीर्तिसिद्धस्रवन्ती । साऽपि स्वच्छन्दमारोहति गगनतलं खेलति क्ष्माधराणां, शृङ्गोत्सङ्गेषु रङ्गत्यमरभुवि मुहुर्गाहते खेचरोवम् स एष निःशेषविपक्षकालः, श्रीवस्तुपालः पदमद्भुतानाम् । यः शङ्करोऽपि प्रणयित्रजस्य, विभाति लक्ष्मीपरिरम्भयोग्यः ॥ ३२ ॥ पुण्यारामः सकलसुमनःसंस्तुतो वस्तुपालः, तत्र स्मेरा गुणगणमयी केतकी गुल्मपतिः । तस्यामासीत् किमपि तदिदं सौरभ कीर्तिदम्भाद्, येन प्रौढप्रसरसुहृदा वासि [ता] दिग्विभागाः ||३३|| सेचं सेचं स खलु विपुलैर्वासनावारिपूरैः, स्फीतां स्फातिं [वि]तरणतरुर्वस्तुपालेन नीतः । तच्छायायां भुवनमखिलं हन्त ! विश्रान्तमेतद्, दोलाकेलिं श्रयति परितः कीर्तिकन्या च तस्मिन् ॥ ३४ ॥ श्रीवस्तुपालयशसा विशदेन दूरादन्योन्य दर्शनदरिद्रदृशि त्रिलोक्याम् । नाभौ स्वयम्भुवि विशत्यपि निर्विशङ्क, शके स चुम्बति हरिः कमलामुखेन्दुम् व० ५ ॥ २९ ॥ BJ ॥ ३० ॥ ॥ ३६ ॥ चीत्कारैः शकटव्रजस्य विकटैरवीयहेषारवैरारावै रवणोत्करस्य बहलैर्बन्दीन्द्र कोलाहलैः । नारीणामथ चच्चरीभिरशुभप्रेतस्य वित्रस्तये, मन्त्रोच्चारमिवाचचार चतुरो यस्तीर्थया [त्रा ] महम् ॥ ३७ ॥ ॥ इति मलधारिश्रीनरेन्द्रप्रभसूरिकृता वस्तुपालप्रशस्तिः ॥ ॥ ३१ ॥ ॥ ३५ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् श्रीजयसिंहसूरिविरचिता वस्तुपालतेजःपालप्रशस्तिः। श्रेयः श्रीमुनिसुव्रतः स तनुतां यो मन्दरागस्तले, तन्वानः कमठाधिनाथममृतोद्धारकैधौरेयकः । निर्मथ्यैनमधर्मकर्मलहरीपूरैरपारं भवाकूमारं पुरुषोत्तमाय न तमां दत्ते स्म कस्मै श्रियम् ? ॥१॥ यस्मै रश्मिभरो गभीरिमगुणकान्तेन कल्लोलिनी कान्तेनाञ्जनपुञ्जमञ्जिमजयी शङ्के स्वकीयोऽर्पितः। यस्येव क्रमसेवनाय च मुदा मुक्तोऽङ्गभूः कच्छपो, लेभे लाञ्छनतां स यच्छतु सतां श्रीसुव्रतो निर्वृतिम् ॥ २॥ आनन्दाय सुदर्शनाऽस्तु जगतां यस्या मुखेनाग्रतो, नम्राया मुनिसुव्रतक्रमनखादर्शप्रतिच्छन्दिना। आत्मद्वादशतां वहन्नहरहर्देवो हिमांशुमहाकल्पानल्पपतङ्गपाटवतिरस्कारे चकारोद्यमम् ॥३॥ रक्षादक्षो दिवि दिविषदां कोऽपि सन्ध्यासमाधि, ध्यातुर्धातुश्वुलुकजलतः शौर्यराशिः पुराऽऽसीत् । प्रेसत्खड्गप्रतिमितितया सम्मुखीनो बभूव, भूसंरम्भत्रसदसुहृदो यस्य युद्धे य एव ॥ ४ ॥ 'वंशो विश्वत्रितयविदितः पर्वणां वेश्म तस्माचौलुक्याख्यः समजनि समुन्मीलदौन्नत्यलीलः । तच्चूलाग्रस्मितसितयशश्चेलतानातिरेकादेकच्छत्रामतनुत महीं मूलराजो महीन्दुः ॥५॥ कृत्वाऽधः कच्छपं सिन्धुराजप्रक्षोभशोभितः । अमन्दरोचितभुजोऽप्यभवद् यः श्रियः प्रियः ॥६॥ कीर्तिस्तोमसुधाभृतानि वसुधाखण्डानि रेजुः सुधा कुण्डानीव नवत्रिविष्टपसदां स्वाद्यानि यस्मिन् विभौ । रक्षानागचतुष्किका इव सदा सेवासमायातषट् त्रिंशद्राजकुलीयदक्षिणभुजव्याजेन येषां बभुः तस्मादकश्मलमिलन्निजकीर्तिभूतिशुभ्रीकृतां निजमहोदहनाक्षिदीप्ताम् । मूर्ति हरस्य धरणी रिपुराजमुण्डैश्चामुण्डराज इति राजयति स्म राजा १ वंशे गा० ॥२ यस्मै गा० ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालतेजःपालप्रशस्तिः। यत्खनवल्ली हरसिद्धिसिद्धप्रपेव रेजे समराटवीषु । मृत्युन्मुखैः साहसिभिर्यशोम्भः, क्रीतं निजाङ्गक्षतजेन यस्याम् भूवल्लभस्तदनु वल्लभराजदेवः, ख्यातः क्षितौ समिति यः सितविभ्रमाभिः । हग्धामदामभिरपूजि सुराङ्गनाभिः, शृङ्गारदैवतमिवेप्सितकान्तदाता ॥१०॥ स्वयं विनम्रेषु परेषु युद्धसिद्धैकचिन्ताचयचान्तनिद्रः । यः स्वप्नसङ्ख्यरपि बाहुदण्डकण्डूतिनिर्भेदमुदं न भेजे ॥ ११ ॥ तस्मादभूद् भूवलयस्य भूषा, भीदुर्लभो दुर्लभराजदेवः। यस्यासिसिन्धौ वितताभिरेत्य, मग्नं महीभृत्कुलवाहिनीभिः ॥ १२ ॥ सुरस्त्रीणां नेत्रं सृजति निजरूपादनिमिषं, ध्रुवं तस्मिन् भस्मीकृतरिपुरभूद् मीमनृपतिः। यदुत्पाते जाते द्रुतवृतभियो भोजनृपतेरुरः श्रीरास्यं गीः करमसिलता युक्तंममुचत् ॥१३ ॥ यहानोदकजातसिन्धुपटलैः कीर्तिप्रभापाण्डुभिः, शत्रुस्त्रीजनसाञ्जनाश्रुसलिलस्रोतस्विनीभिः समम् । सम्भिद्यैव पदे पदे तनुमतामन्तः समन्तान्मुदं, तन्वद्भिर्जितगा-यामुनजलैर्धात्री पवित्रीकृता ॥ १४ ॥ कामन्ति स्म यथा यथाऽम्बरपथान् यात्रासु यात्रावनीजैत्रे सर्पति दर्पतारतुरगक्षुण्णा रजोराजयः। पश्यन्तीव तथा तथा त्रिपथगातोयेऽपि विच्छायतां, शक्के कीर्तिरगादधौतधवला दूरेऽतिदूरादपि॥ १५ ॥ तस्माद् विस्मारितरतिपतिः कामिनामधाम्ना, नाना कर्णः समजनि भुजाशालिनां मौलिरत्नम् । निन्धं बन्दिग्रहमपि निजं बहमन्यन्त मन्ये, धन्यम्मन्या रिपुयुवतयो यस्य रूपं निरूप्य ॥ १६ ॥ यदघटनोत्सृष्टैः, परमाणुगणैरिव । विधिविधाय कन्दर्प, सदा द्यामपि व्यधात् ॥१७॥ सप्ततन्तुप्रपञ्चेन, यस्तां कीर्तिपटीं व्यधात् । चतुर्दशापि विश्वानि, च्छादयाञ्चक्रिरे यया ॥ १८ ॥ व्यजयत जयसिंहदेवभूपस्तदनु 'दिशंस्त्रिदशप्रभुप्रभावः । यशसि यदसिधेनुदुग्धमुग्धैः, श्रितमुडुभिर्दिवि दोहफेनसाम्यम् ॥१९॥ तत् त्रैलोक्यनिभत्रिभूमिकगृहक्रोडस्फुरन्मालवक्ष्माभृत्कीर्तिनितम्बिनीमुखपरिक्षेपाय पांसूत्करम् । लीलालुप्तजगवयं खरखुरोत्खातक्षमामण्डलच्छिद्रौघैरुरगालयेऽपि तुरगा यस्य क्षणाञ्चिक्षिपुः ।। २० ॥ विश्वस्योपकृतिव्रतव्यतिकरैस्तैर्यद्यशस्तेजसोः, सामान्यप्रतिपत्तिमप्यसुलभां लब्ध्वेन्दु-तीव्रद्युती। कान्तौ चिरनन्दितामिव तयोरायुःप्रवृद्ध्यौषधीं, द्रष्टुं काश्चन काञ्चनक्षितिधरोपान्तेऽपि तौ भ्राम्यतः ॥ २१ ॥ तत्कालं कलहे निहत्य किमपि प्रत्यायिताः शत्रवः, स्वर्गस्त्रीपरिरम्भणेऽपि न मनःस्वास्थ्यं समासेदिरे । यं कल्पान्तकृतान्तवक्त्रकुहराकारस्फुरत्कार्मुकं, पश्यन्तः प्रसरन्तमद्भुतभयावेशेन मीलदृशः ॥२२॥ अवश्चयन्नाशु कृपाणपातं, विरोधिवीरा नमन क्रियाभिः । यस्याभिपकेरुहबद्धवासां, लक्ष्मी च दक्षा रभसादगृहन् ॥ २३ ॥ १ दिशस्त्रि' गा० ॥ २ दसिषे नु दु° गा०॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजयसिंहसूरिविरचिता [ षष्ठं स्वैरेव प्रहतैर्द्विषद्भिरमरीभूतैः सुरीभिः समं, गीतं प्रीतिरसैः स्वमेव हृषिते तस्मिन् यशः शृण्वति । क्ष्मां पाति स्म कुमारपालनृपतिर्यत् कीर्तिकालुष्यदं, __ तद् बाप्पाजनकश्मलं न रुदतीवितं सवित्तोऽग्रहीत् ॥ २४ ॥ जैनं धर्ममुरीचकार सहसाऽर्णोराजमत्रासयद् , बाणैः कुङ्कणमग्रहीदपि गुरूचक्रे स्मरध्वंसिनम् । इत्थं यस्य परिक्षतक्षितिभृतो हंसावलीनिर्मलै, रामस्येव निरन्तरं नवयशःपूरैर्दिशः पूरिताः ॥ २५ ॥ ताहग्दानपरम्पराभिरभितो निष्काश्य कालं कलिं, त्रेता-द्वापरयोरहम्प्रथमिकाबद्धस्पृहं पश्यतोः । श्रेयश्चन्दनतो विशेषकविधिं कृत्वा यशोजाह्नवी पाथोभिः कृतिना स्वयं कृतयुगो येनाभिषिक्तः क्षितौ ॥ २६ ॥ अजयदजयपालभूमिपालः, क्षितिमथ मन्मथमञ्जुलेन येन । त्रिपुररिपुरपि प्रसूनबाणैरिव पिहितः सहसा यशःसमूहैः ॥ २७ ॥ अन्तर्यत्कीर्तिकासारं, कृतस्नानस्य सर्वतः । लग्नफेनलवायन्ते, तारा गगनदन्तिनः ॥ २८ ॥ बालः श्रीमूलराजोऽथ, विक्रीडन् समराङ्गणे। द्विपल्लताप्रतानानि, समूलमुदमूलयत् ॥ २९ ॥ आपपे प्रसूतिसम्भ्रमेण यत्तेजसा रिपुयशःसुधारसः । तेन निर्गलितबिन्दुवृन्दवद, द्योतते वियति तारकाततिः ॥ ३० ॥ भूमीभारमथो बभार भुजयोः श्रीमीमदेवो विभुर्दानारम्भविजृम्भमाणविभवप्रागल्भ्यगर्जद्यशाः । गीतो यत्तुलया विरोचनसुतः पातालवैतालिकैरर्थोत्तालमनोभिरन्वहमहङ्कारं चकार स्मितः ॥ ३१ ॥ यदाननसरोजेन, नित्यस्मेरेण निर्जितः । सज्जलज्ज इवामज्जद्, यद्यशोजलधौ विधुः ॥३२॥ अर्णोराजानजातं कलकलहमहासाहसिक्यं चुलुक्यं, श्रीलावण्यप्रसादं व्यतनुत स निजश्रीसमुद्धारधुर्यम् । यस्य प्रत्येकधाराद्वयफलितभुजायुग्मशाली रिपूणां, कीलालैः पीतवासा इव समिति चतुर्बाहुतामेति खगः ॥ ३३ ॥ तादृक्कम्पव्यतिकरभृतां सर्वतः पर्वतानां, व्यातन्वद्भिः क्षयसममरुत्पूरशङ्कातिरेकम् । यत्प्रत्यर्थिक्षितिधववधूवर्गनिःश्वासवातव्रातोत्पातैरिव दिवि सदा भ्रेमुरर्केन्दु-ताराः ॥ ३४ ॥ भूभारोद्धृतिधुर्यदुर्द्धरभुजस्तस्याङ्गजन्मा स्फुर कीर्तिः श्रीधवलोऽस्ति वीरधवलोऽहङ्कारलङ्केश्वरः । यस्मिन् निघ्नति मार्गणै रिपुगणं हृष्यन्ति तस्याङ्गनाः, कामोऽयं कुरुते मदेकवशगं चित्तेशमित्याशया विक्रीडतो यस्य नवप्रताप-यशःकुमारौ जगदङ्गणान्तः । प्रभावभाजौ लसतस्तदङ्गरक्षासु दक्षाविव सूर-राजौ ॥३६॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालतेजःपालप्रशस्तिः । पाताले बलिराजराज्यविशदे विश्वम्भरामण्डले, यल्लीलायितमञ्जुले सुरपुरे कल्पद्रुमुद्राजुषि । दारिद्येन भयद्रुतेन सहसा यद्वैरिवीराश्रयादश्रान्तप्रसरेण शैलशिखरक्रोडेषु विक्रीडितम् ॥ ३७ ॥ यस्यासिरम्भोदसहोदरश्रीः, शौर्यं द्विपस्येव मदप्रवाहः । सर्पन् सदर्पारिनरेन्द्रकीर्तिकासारपूरं कलुषीचकार ॥ ३८ ॥ सचिवप्रवरं कञ्चित्, प्रार्थितस्तेन पार्थिवः । श्रीमान् भीमो मुदा वाचमुवाच श्रवणामृतम् ॥ ३९ ॥ वाग्देवताचरणकाञ्चननूपुरश्रीः, श्रीचण्डपः सचिवचक्रशिरोऽवतंसः । प्राग्वाटवंशतिलकः किल कर्णपूरलीलायितान्यधित गुर्जर राजधान्याः || 80 || ॥ ४१ ॥ मतिकल्पलता यस्य, मनःस्थानकरोपिता । फलं गूर्जर भूपानां, सङ्कल्पितमकल्पयत् वाग्देवीप्रसादः (?), सूनुश्चण्ड प्रसाद इति तस्य । निजकीर्तिवैजयन्त्या, अनयत गगनाङ्गणे गङ्गाम् ॥४२॥ पातालमूले पिहितांशुभासः, पृथ्वीविभागेऽपि हराट्टहासः । स्वर्गेऽपि दुग्धाब्धिपयोविलासः, कीर्तिर्यदीया त्रिजगत्युवास कीर्तिकश्मलित पार्वणसोमः, सोम इत्यजनि तस्य तनूजः । सिद्धराजगुणभूषणभाजः, संसदो विशददर्पणकल्पः ३७ ॥ ४४ ॥ उत्कर्षप्रगुणां गुणा-गुणपरिज्ञानौचितीं मन्महे, तस्य प्रीतिरसादनन्यमनसा येनान्वहं सेविताः । देवस्तीर्थकृदेव केवलनिधिर्विद्यानिधानं गुरुः, सूरिः श्रीहरिभद्र एव गुणधीः सिद्धेश एवाधिपः ॥ ४५ ॥ सीताकुक्षिसरोवरैकवरलाकान्तोऽश्वराजाख्यया, तस्याभूत् तनुभूः सदाऽपि जननीभक्तौ च यः पावनः । स्फूर्जद्धूर्जटिजूटकोटर पदन्यासोत्थपापच्छिदे, स्वर्नद्याऽपि समाश्रितः सितलसत्कीर्तिच्छविच्छद्मना ॥४६ सप्तलोकचरी सप्ततीर्थयात्रासमुद्भवा । गङ्गां जिगाय यत्कीर्तिर्विश्वत्रितयविस्तृताम् ॥ ४७ ॥ ॥ ४३ ॥ भैमीव नैषधमहीरमणस्य तस्य, कान्ता सती समजनिष्ट कुमारदेवी । यन्मानसे जिनपदाम्बुजभाजि शुद्धपक्षद्वयः पतिरराजत राजहंसः श्रीमल्लदेव इति तत्तनुभूर्बभूव, यत्कीर्तिपूरशशिनोर्गगनाङ्कपीठे । स्पर्धेद्धुरं प्रसृतयोरिव साम्यदण्डं, स्वर्दण्डमेव विधिरन्तरधत्त हृष्टः विद्येते हृद्यविद्यौ तदनु तदनुजौ धीनिधी वस्तुपाल- स्तेजःपालश्च तेजस्तरणितरुणिमस्फूर्तिरोचिष्णुमूर्ती | श्रीमन्नेतौ निजश्रीकरणपदकृतव्यापृती प्रीतियोगात्, ॥ ५० ॥ तुभ्यं दास्यामि विश्वं जयतु नवनवं धाम तन्मन्त्रमित्रम् इत्युक्त्वा प्रीतिपूर्णाय, श्रीवीरधवलाय तौ । श्रीभीमभूभुजा दत्तौ, वित्तमाप्तमिवाऽऽत्मनः ॥ ५१ ॥ अन्ये केचन रोचमानमतयो मन्त्रीश्वरा भास्करा, लप्स्यन्ते बत ! वस्तुपालसचिवाधीशेन साम्यं कुतः ? | सार्धं यल्लघुबन्धुनाऽपि दिविषद्वृन्दैकमान्यः स्वयं, सामान्यप्रतिपत्तिगौरवपदं वाचस्पतिर्वाञ्छति 11 82 11 ॥ ४९ ॥ ॥ ५२ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जयसिंहसूरिविरचिता [ षष्ठं वीरश्रीवरधानि वीरधवले सिंहारवान् मारवान् , जेतुं यातवति प्ररूढपुलकैर क्रूरयन् पौरुषम् । यस्तीर्खा यदुसिंहसिंहणबलाम्भोधिं भुजक्रीडया, गर्जन्नर्जितवान् यशस्त्रिजगतीमुक्तालतामण्डनम् ॥५३॥ सम्पूर्णे भुवने घनेन रजसा श्रीतीर्थयात्रापरिस्यन्दिस्यन्दनवृन्दतारतुरगनातक्रमोत्पातिना । यत्कीर्तेः सह पांशुकेलिसुहृदो नन्दन्ति मन्दाकिनी-दुग्धाम्भोधि-विभावरीविभु-ककुप्कुम्भीन्द्र-रुद्रादयः५४ येनाऽकारि तमोनिकारिकलशालङ्कारि शत्रुञ्जयक्ष्माभृन्मण्डनमिन्द्रमण्डपमहो! नामेयभर्तुः पुरः । तेनैकां युधुनीं दधद्धिमगिरिः पार्श्वस्थपार्श्वप्रभु-श्रीमन्नेमिनिकेतकेतनयुगाभोगेन निर्भर्त्सतः ॥५५॥ यः शत्रुञ्जयशेखरं जिनगृहश्रीतारहारं स्खलत्ताराधोरणि तोरणं यदसृजत् तन्मूर्ध्नि लक्ष्मीः स्थिता। शद्धेऽभूदुदितद्विपक्षवदना नन्तुं समागच्छतो, नाभेयं प्रणिपत्य च प्रचलतो यस्याऽऽस्यवीक्षाशया॥५६॥ श्रीशत्रुञ्जयशृङ्गसीनि सरसि प्राप्याम्बु यत्कारिते, नीचत्वाय सुधाकराय विबुधाः कुर्वन्ति नोपक्रमम् । इत्यूहं कृतिनोन्वहं विदधते कुन्दावदातधुता, भास्वच्छाश्वतराकया जगति यत्कीर्त्यापरीतेऽभितः ५७ येन व्यधाप्यत विधुद्युतिहारिवारी, श्रीपादलिप्तनगरीमुकुरस्तडागः । यद्यस्त्यगस्तिरिह कोऽपि तदेतु तन्याद् , दोःस्फालनं मुहुरितीव महोर्मिभिर्यः ॥५८ ॥ अर्कपालितकामे, तेन तेनेऽद्भुतं सरः । यस्य निस्यन्दलेखेव, पार्थे वहति वाहिनी ॥ ५९ ।। येनोजयन्तगिरिमण्डननेमिचैत्ये, नाभेय-पार्श्वजिनसद्मयुगं व्यधायि । अन्तः स्वयंघटितनाभिज-नेमिनाथ-श्रीस्तम्भनेशगृहमप्युदधारि हारि ॥६० ॥ स्वर्ग यद्गुरुचैत्यतोरणशिरःपद्यापदैः प्राप यद्वापी-कूप-तडागमार्गचलनैः पातालमूलं ययौ। सा यत्पौषध-मन्दिरोदर-वराऽऽरामप्रपामध्यभूविश्रामश्रयणेन भूमिमपि यत्कीर्तिर्मुहुर्गाहते ॥६१ ॥ यन्निर्मापितदेवमन्दिरशिरःकल्याणकुम्भप्रभाषाग्भारैर्विदधे सदा सुदिवसं सर्वत्र धात्रीतले । दृश्यः शाश्वतिकस्तथा प्रसृमरश्यामच्छविच्छद्मना, यत्खड्गक्षतवैरिवामनयनावक्त्रेषु रात्रिक्षणः ॥६२॥ अस्थापयत् स्थिरमतिः शकुनीविहारे, संसारतारिलसदम्बडधर्मपुजे। श्रीपार्श्व-वीरजिनपुङ्गवयुग्मदम्भाद् , यो यामिकद्वयमिवाग्रिमधर्मबन्धुः ॥६३ ॥ तमेकदा करारोपभर्सितस्वर्णशेखरः । श्रीतेजःपालमन्त्रीशो, मुदा ज्येष्ठं व्यजीज्ञपत् ॥६ ॥ सुव्रतक्रमनमस्कृतिहेतोर्यातवान् भृगुपरं प्रति सोऽहम् । काव्यमुज्वलनयो जयसिंहमूरिरित्यपठदत्र मदने ॥६५॥ तेजःपाल ! कृपालधुर्य ! विमलप्राग्वाटवंशध्वज !, श्रीमन्नम्बडकीर्तिरद्य वदति त्वत्सम्मुखं मन्मुखात् । १. °चत्थाय गा० ॥ २. पद्यमिदं पुरातनप्रबन्धसंग्रहान्तर्गतवस्तुपालतेजःपालप्रबन्धे-" एकदा मन्त्री तेजःपालो भृगुपुरमायातः । तत्र श्रीमुनिसुव्रतचैत्याचार्यैः श्रीरासिल्लसूरिभिरुक्तम्-मन्त्रिन् ! सन्देशकमेकं शृणु । [ मन्त्रिणोक्तम्-आदिश्यताम् । अद्य पाश्चात्ययामिन्यां वृद्धा युवत्येका समेत्य प्राह" इत्युल्लेखानन्तरं निष्टङ्कितं वर्तते । पत्रम् ६२ । तथा उपदेशतरङ्गिण्यां ७४ तमपत्रेऽप्येवंरूपेणैव वर्तते । केवलं तत्र " श्रीमुनिसुबतचैत्यार्चकैराचार्यैरुक्तम्" इति वर्त्तते, न तत्र रासिल्लसूरेरन्यस्य वा कस्याप्याचार्यस्य नामोल्लेखो वर्त्तते इति । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपाल तेजः पालप्रशस्तिः । आजन्मावधि वंशयष्टिकलिता भ्रान्ताऽहमेकाकिनी, वृद्धा सम्प्रति पुण्यपूर्ण ! भवतः सौवर्णयष्टिस्पृहा इत्युक्त्वा मम पञ्चविंशतिमितास्तेन स्वयं दर्शिता ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ स्तस्मिन् सुव्रतधानि देवकुलिकाः कल्याणकुम्भस्पृशः । ताः सौन्दर्यभृतोऽपि कान्तिनिधिभिः कल्याणदण्डैर्विना, सीमन्तैरिव सुभ्रुवो विदधते नान्तः सतां सम्मदम् आदेशं देव ! यद्येवं, दत्से स्वच्छेन चेतसा । हेमदण्डानिमानत्र, तदहं कारये रयात् इत्यन्तःस्मितवस्तुपालसचिवादेशाल्लसत्तेजसस्तेजःपालमहामतिर्व्यरचयत् कल्याणदण्डानिमान् । प्रत्येकं हरहासहारिमहसो येषां शिखासु स्थिता, नृत्यन्ति प्रतिवासरं परिचलत्के तुच्छलात् कीर्तयः ६९ जुह्वन् पातकपादपैकदहने तीर्थेशधर्मे निजां, कर्मालीं न कति क्रतूनकृत स श्रीवस्तुपालानुजः ? । दण्डा यूपवदुच्च सुव्रतगृहक्ष्माभृद्भवायाममी, तत्तेनाऽम्बडमण्डलेश्वरयशः सिन्धौ समारोपिताः ॥ ७० ॥ दत्ते चेतसि सम्मदं सुकृतिनां तेनेयमुत्तम्भिता, चञ्चच्चारुमरीचिवीचिकलिता कल्याणदण्डावलिः । पूर्वोर्वीधरकुञ्जतः प्रसरता प्रातर्वियत्कानने, यत्राऽऽगत्य भियेव गोपतिगवीवृन्देन मन्दायते ॥ ७१ ॥ यावच्चण्डपगोत्रमण्डनमणेः कीर्तिर्वियद्वाहिनीहस्ता दिग्गजगर्जिवाद्यविभवैर्व्यामाङ्गणे नृत्यति । दण्डास्तावदमी सुवर्णघटनाविभ्राजिनः केतनक्रीडत्किङ्किणिकारवव्यतिकरैः कुर्वन्तु गीतक्रमम् ॥ ७२ ॥ तेजःपालयशोविलासविशदश्रीणां दिशां कौतुकक्रीडामण्डपडम्बरं महदहो ! यावद् दधात्यम्बरम् ।. तावन्नूतनजातरूपजनितः सोऽयं समुत्तम्भनस्तम्भस्तोमसमानतां वितनुतामुद्दण्डदण्डव्रजः ॥ ७३ ॥ स्वस्तिश्रीव्योमदेशादुदयनतनुभूकीर्तिरुर्बीतले श्री तेजःपालं प्रसन्ना वदति मतिमतां वन्द्य ! नन्धा मदायुः । येन त्वत्कुप्तहेमध्वजविततभुजा दुःषमादाहदूनां, लिम्पन्तां ता मुहुर्मामिह जिनगृहिकास्त्वद्यशश्चन्दनेन मोहो द्रोहधियाऽधिरोहति रसं श्रीपुञ्जहृत्पञ्जरे, क्षिप्तो यः कलिकालकेलिविधुरो दक्ष ! त्वया रक्षितः । श्री सोमान्वयवार्धिवर्धन कलासोम ! स्वयं निर्मलो, धर्मः प्रत्युपकारकर्मठतया स त्वां क्षितौ रक्षतु ॥७५॥ श्रीवस्तुपाल ! तव चित्तवनप्ररूढः, सत्त्वोपकारमतिसारणिसिच्यमानः । सत्पत्र- पुण्यकुसुमः फलदोऽस्तु तुभ्यमव्याजविश्वसुहृदे जिनधर्मवृक्षः श्री सुव्रतपदाम्भोजमधुत्रात मधुव्रतः । एतां प्रशस्तिमस्ताघां, जयसिंहः कविर्व्यधात् ॥ श्रीजय सिंह सूरिविरचिता वस्तुपालतेजःपालप्रशस्तिः ॥ >>>OFOrt ३९ ॥ ६६ ॥ 11 68 11 ॥ ७६ ॥ ॥ ७७ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं परिशिष्टम् वस्तुपालस्तुतिकाव्यानि। स्वस्ति श्रीवस्तुपालाय, बभौ यहुद्धिसुभ्रवः । क्रोडीकृताम्बरं रौप्याञ्जनभाजनवद् यशः ॥ १ ॥ अन्तःक्षारं रिपूणां घनमपि कवलीकृत्य तृष्णातुरेव, ___त्वत्कीर्तिर्नाऽऽप तृप्तिं भुवि सचिव ! जवात् क्षीरनीराकरेऽपि । तस्मादाकाश-नाकोरगनगरचरस्वधुनीपानहेतोः, सर्वत्रापि त्रिलोकीहितचरित ! चिरं सम्भ्रमाद् बम्भ्रमीति ॥२॥ भवद्भुजभुजङ्गोऽसौ, वस्तुपाल ! द्विषां भये । असिं दधाति फूत्कारविषोद्गारसहोदराम् ॥३॥ औषधीशसखः सत्यं, वस्तुपालयशोभरः । येन प्रसर्पता पश्य, विश्वं मुक्तामयं कृतम् ॥४॥ शेषद्वेषविधायिनीमपि भवत्कीर्ति सुधासोदरां, श्रीमन्त्रीश ! मुखस्फुरद्विषभिदे गायन्ति नागागनाः । शम्भुः स्वाङ्गविरोधिनीमपि पुनर्नित्योपरोधादिमां, देवीर्गापयते विषाकुलगलश्यामत्वसंलुप्तये ॥५॥ कल्पद्रुप्रसवावतंसमधुपीझङ्कारलब्धोपमाः, कामं कामगवीनवीनपयसां पानेन तारस्वराः । ताश्चिन्तामणिरश्मिभस्मिततमःस्तोमे सुमेरोगुहागर्भे चण्डपगोत्रमण्डन! भवद्दानानि देव्यो जगुः ॥६॥ देव! त्वत्प्रतिपन्थिपार्थिवपुरीसौधाग्रभागादिव, प्राप्य व्योमविहारदुर्लभमपि प्रौढप्ररुढप्रभः । श्रीमञ्चण्डपगोत्रमण्डन! भवत्कीर्त्या जितो यामिनीजीवेशस्तनुते तृणं निजमुखे लक्ष्मच्छविच्छद्मना ॥७॥ गुणग्रामे रामे जितसितकरे सत्यपि निजे, स्वयं गृह्णासि त्वं परगुणमताहक्षमपि यत् । अयं लोभक्षोभश्चतुर! चतुराम्भोधिरसनावनीशिक्षादक्ष ! स्फुरति किमु ते मन्त्रिमुकुट !? ॥८॥ भोगीन्द्रस्त्वद्भुजेन त्रिपुररिपुरपि त्वत्प्रभुत्वप्रभावैः, शीतांशुस्त्वन्मुखेन त्रिदशसरिदपि त्वचरित्रप्रपञ्चैः । शक्रेभस्त्वद्गतेन प्रसभमशुभतां लम्भिताः सज्जलज्जं, निर्मज्जन्ति स्म तस्मिन् सचिव ! तव यशस्तोयधौ वस्तुपाल! ॥९॥ भर्ता भोगभृतां बिभर्ति वसुधामेव प्रभावाद्भुतां, दिग्दन्तीन्द्रकरस्तु हन्ति च रिपून् धत्ते च धात्रीमिमाम् । श्रीमन्त्रीश! भवद्भुजस्तु कृतिनां दत्ते च वित्तव्र, भिन्ते च द्विषतो दधाति च धरामेषां क साम्यं मिथः ? ॥१०॥ इन्दुर्निन्दति कौमुदीसमुदयं मुक्तामणीनां ततिर्मुक्तालङ्कतिरस्तचण्डिमहिमं दी न साधिपः ।। गर्व शर्वधराधरो न कुरुते न स्वर्धनी स्पर्धिनी, श्रीमन्त्रीश्वरवस्तुपालयशसि त्रैलोक्यमाक्रामति ॥११॥ बलि-कर्ण-दधीचिकीर्तयः, कलिपङ्कार्पितमत्यजन् मलम् । तव दानपयोनदीकृतस्नपनश्चण्डपगोत्रमण्डन ! ॥ १२ ॥ शके पङ्कजिनीपतिः क्रतुभुजां साथैः स्वयं प्रार्थितः, कर्ष कर्षमिलातलादनुदिनं त्वदानतोयच्छटाः। श्रीमञ्चण्डपवंश्य ! सिञ्चति शचीचित्तेशलीलावन, नैवं चेत् कथमन्यथा विटपिनामप्यत्र दानक्रिया ? ॥१३ ॥ वस्तुपालस्तुतिकाव्यानि ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमं परिशिष्टम् वस्तुपालस्तुतिकाव्यानि । [महामात्यश्रीवस्तुपालविनिर्मितनरनारायणानन्दमहाकाव्यप्रतिसर्गप्रान्त गतानि अन्यान्यकविविरचितानि वस्तुपालस्तुतिकाव्यानि । ] सद्धामसिंहपृतनारुधिरारुणानि, श्रीवस्तुपालकरवालविजृम्भितानि । कीनाशकासरकटाक्षसहोदराणि, को नाम वीक्षितुमपि क्षमते विपक्षः प्रथमसर्गप्रान्ते ॥ दृश्यः कस्यापि नायं प्रथयति न परप्रार्थनादैन्यमन्य स्तुच्छामिच्छां विधत्ते तनुहृदयतया कोऽपि निष्पुण्यपण्यः । इत्थं कल्पद्रुमेऽस्मिन् व्यसनपरवशं लोकमालोक्य सृष्टः, स्पष्टं श्रीवस्तुपालः कथमपि विधिना नूतनः कल्पवृक्षः ? ॥२॥ द्वितीयसर्गप्रान्ते ॥ श्रीवस्तुपाल ! कलिकालविलक्षणस्त्वं, संलक्ष्यसे जगति चित्रचरित्रपात्रम् । यद् दानसौरभवता भवता वितेने, नानेकपेन मदमेदुरिता मुखश्रीः ॥ ३ ॥ तृतीयसर्गप्रान्ते ॥ गृहासि नाम परतोऽपि नवान् गुणांस्त्वं, त्यागो गुणस्तव नवस्तु न वस्तुपाल !। लोकोत्तरस्तदपरस्य नरस्य स स्याद् , यत् तादृशो नहि दृशोः पथि मादृशानाम् ॥ ४ ॥ ___चतुर्थसर्गप्रान्ते ॥ कैरसरसिरुहं ते वासवेश्म श्रियोऽभूदजनि वदनपद्मं सद्म वाग्देवतायाः । इह जगति समस्ते वस्तुपाल! स्तुमः कं ! , सचिवतिलक ! धन्यं तद् वदाऽन्यं वदान्यम् ॥५॥ पञ्चमसर्गप्रान्ते ॥ १ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यैकादशसर्गप्रान्ते वर्त्तते, उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ २३तमं वर्तते, जिनहर्षीयवस्तुपालचरिते “कृपालवालं श्रीवस्तुपालं स्तौति स्म कश्चन ।" इत्युल्लेखेन निर्दिष्टं चापि वर्तते ॥ २ पद्यमिदमुदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ २२तमं वर्तते ॥ ३ पद्यमिदं नरनारायणानन्द महाकाव्यनवमसर्गप्रान्तेऽपि वर्तते ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अन्यान्यकविविरचितानि [अष्टम इतरगुणकथायाः काथिकत्वस्पृहायामिह वहति सहास्यं कस्य नो लास्यमास्यम् । तव तु विततकीर्तेः कीर्तनं कर्तुकामः, सुरगुरुरपि शके वस्तुपाल ! त्रपालुः ॥ ६ ॥ षष्ठसर्गप्रान्ते ॥ जनव्यामोहवल्लीयमिन्दिरा मन्दिरे स्थिता । मन्त्रिणा वस्तुपालेन, कल्पवल्ली विनिर्मिता ॥ ७ ॥ सप्तमसर्गप्रान्ते ॥ श्रीवस्तुपालसचिवस्य परे कवीन्द्राः, कामं यशांसि कवयन्तु वयं तु नैव । येनेन्द्रमण्डपकृतोऽस्य यशःप्रशस्ति-रस्त्येव शक्रहृदि शैलशिलाविशाले ॥८॥ अष्टमसर्गप्रान्ते ॥ कैरसरसिरुहं ते वासवेश्म श्रियोऽभूदजनि वदनपद्मं सद्म वाग्देवतायाः । इह जगति समस्ते वस्तुपाल! स्तुमः कं ?, सचिवतिलक ! धन्यं तद् वदाऽन्यं वदान्यम् ॥९॥ नवमसर्गप्रान्ते ॥ या श्रीः स्वयं जिनपतेः पदपद्मसद्मा, भालस्थले सपदि सङ्गमिते समेता। श्रीवस्तुपाल! तव भालनिभालनेन, सा सेवकेषु सुखमुन्मुखतामुपैति ॥१०॥ दशमसर्गप्रान्ते ॥ त्वत्कीर्तिज्योत्स्नया जाते, तीरे नीरेशितुः सिते । नेक्ष्यन्ते पक्षिभिर्वस्तुं, वस्तुपाल! वनालयः ॥११॥ मुकुलितकमलोदयः कवीन्दुः, क इव न काव्यसुधानिधिर्बभूव ? । स्फुरदुरुविभवस्तु वस्तुपालः, कविसविता कविताप्रभाभिरामः ॥ १२ ॥ एकादशसर्गप्रान्ते ॥ शूरो रणेषु चरणप्रणतेषु सोमो, वक्रोऽतिवक्रचरितेषु बुधोऽर्थबोधे । नीतो गुरुः कृतिजने कविरक्रियासु, मन्दोऽपि च ग्रहमयो नहि वस्तुपालः ॥ १३ ॥ द्वादशसर्गप्रान्ते ॥ श्रीवस्तुपाल! जितबालमृणालगर्ने, शुनं वितन्वति जगत् तव कीर्तिपूरे । मन्यामहे कुवल-कज्जल-कोकिला-लि-काकोल-कोलसदृशामभिधा मुधाऽभूत् ॥ १४ ॥ त्रयोदशसर्गप्रान्ते ॥ लक्ष्म्यामाकृष्टिमुच्चाटनमनयवति स्तम्भमुजम्भिदम्भे, दोषे विद्वेषमभ्यन्तररिपुषु मृति वश्यतां चित्तवृत्तौ । १ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यपञ्चमसर्गप्रान्ते, उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ च २४तमं वर्तते ॥ २ पद्यमिदं नरनारायणानन्दमहाकाव्यपञ्चमसर्गप्रान्तेऽपि वर्तते ॥ ३ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यतृतीयसर्गप्रान्तेऽपि वर्तते ॥ ४ पद्यमिदं उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ चतुर्थ वर्तते, प्रबन्धकोशे "अपरस्तु" इत्युल्लखेनोल्लिखितं वर्तते, उपदेशतरङ्गिण्यां कविवृन्दमध्यात् कस्यचिदुक्तितयोल्लिखितं च वर्तते, जिनहर्षीयवस्तुपालचरिते पुनः हरिहरोक्तितया निष्टङ्कितं दृश्यते ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] वस्तुपालस्तुतिकाव्यानि । कर्तुं यद् वस्तुपाल ! प्रभवसि सकले मण्डले तत् तवैव, श्रीमन्मत्रीश ! मन्त्रे स्फुरति निरवधिः काऽपि षट्कर्मसिद्धिः ॥ १५ ॥ चतुर्दशसर्गप्रान्ते ॥ भवति हि विभवो भवः परेषां, तव विभवोऽभिनवस्तु वस्तुपाल! । इह महिममहो यशः प्रसूते, यदयममुत्र परत्र पुण्यलक्ष्मीम् ॥ १६॥ पञ्चदशसर्गप्रान्ते ॥ अचिन्त्यदातारमजातशत्रु, श्रीवस्तुपालं कति नाश्रयन्ति ? । चिन्तामणिः सोऽपि युधिष्ठिरश्च, नान्वर्थसामर्थ्यपदं यदने ॥ १७ ॥ शके शारदपर्वगर्वितशशिज्योत्स्नासपलं तव, त्रैलोक्ये गुणजालकं विलसति श्रीवस्तुपालाद्भुतम् । यत् तादृग्दृढपाशवैशसकृतातकाभिशङ्काः स्फुटं, नैवान्यस्य भवन्ति कीर्तिवरलाः खेलासु हेलास्पदम् षोडशसर्गप्रान्ते ॥ वस्तुपालस्तुतिकाव्यम् । श्रीवस्तुपालमन्त्रिणा सौवर्णमषीमयाक्षरा एका सिद्धान्तप्रतिलेखिता । अपरास्तु श्रीताडकागदपत्रेषु मषीवर्णाञ्चिताः ६ प्रतयः । एवं सप्तकोटिद्रव्यव्ययेन सप्त सरस्वतीकोशा लेखिताः । तदनु श्रीउदयप्रभसूरिभिराशीर्वादः प्रदत्तः । तद्यथा जम्बूद्वीपो जलधिपरिखाभूषितो यावदास्ते, ज्योतिश्चक्रं सुरगिरितटीं पर्यटत्येव यावत् । यावत् कूर्मो वहति वसुधां त्वद्यशःपुञ्जसाधू, जीयाज्जैनं मुखमिव परं पुस्तकं वस्तुपाल ! ॥ उपदेशतरङ्गिणी पत्रम् १४२ ॥ १ पद्यमिदं जिनहर्षीयवस्तुपालचरिते “ कृपालवालं श्रीवस्तुपालं स्तौति स्म कश्चन ।" इत्युल्लेखेनोल्लिखितं वर्तते ।। २ पद्यमिदमुदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ २५तमं वर्तते ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं परिशिष्टम् श्रीगिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । गूर्जरेश्वरमहामात्यश्रीवस्तुपाल-तेजःपालकारितश्रीनेमिनाथप्रासाद गताः षड् बृहत्प्रशस्तयः । (३८-१) नमः सर्वज्ञाय । पायान्नेमिजिनः स यस्य कथितः स्वामीकृतागस्थिता व रूपदिदृक्षया स्थितवते प्रीते सुराणां प्रभौ । काये भागवते वनेवक...द्विपोलावने शंसतामिदशा(?)....मपि.......वनाजवे ..... ॥१ ॥ स्वस्ति श्रीविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे फागुण शुदि १० बुधे श्रीमदणहिलपुर(*)वास्तव्यप्राग्वाटान्वयप्रसूत ठ० श्रीचंडपात्मज ठ० श्रीचंडप्रसादांगज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशाराजनंदनस्य ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसंभूतस्य ठ० श्रीलुणिग महं० श्रीमालदेवयोरनुजस्य महं० श्रीतेजःपालाग्रजन्मनो महामात्यश्रीवस्तुपालस्यात्मजे महं० श्रीललितादेवीकुक्षिसरो(*)वरराजहंसायमाने महं० श्रीजयतसिंहे सं० ७९ वर्षपूर्व स्तंभतीर्थमुद्राव्यापारान् व्यापृण्वति सति सं० ७७ वर्षे श्रीशत्रुजयोजयंतप्रभृतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रभावाविर्भूतश्रीमद्देवाधिदेवप्रसादासादितसंघाधिपत्येन चौलुक्यकुलनभस्तलप्रकाशनैकमार्तडमहाराजाधिराजश्रीलवणप्रसाददेवसु(*)तमहाराजश्रीवीरधवलदेवप्रीतिप्रतिपन्नराज्यसर्वेश्वर्येण श्री-शारदाप्रतिपन्नापत्येन महामात्यश्रीवस्तुपालेन तथा अनुजेन सं० ७६ वर्षपूर्वं गूर्जरमंडले धवलक्ककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वता महं० श्रीतेजःपालेन च श्रीशवजया-ऽर्बुदाचलप्रभृतिमहातीर्थेषु श्रीमदणहिलपुर-भृगुपुर-(*)स्तंभनकपुरस्तंभतीर्थ-दर्भवती-धवलककप्रमुखनगरेषु तथा अन्यसमस्तस्थानेष्वपि कोटिशोऽभिनवधर्मस्थानानि प्रभूतजीर्णोद्धाराश्च कारिताः ॥ तथा सचिवेश्वरवस्तुपालेन इह स्वयंनिर्मापितश्रीशचुंजयमहातीर्थावतारश्रीमदादितीर्थंकरश्रीऋषभदेव-स्तंभनकपुरावतारश्रीपार्श्वनाथदेव-सत्यपु(*)रावतारश्रीमहावीरदेवप्रशस्तिसहित-कश्मीरावतारश्रीसरस्वतीमूर्तिदेवकुलिकाचतुष्टय-जिनयुगल-अम्बाऽवलोकना-शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरेषु श्रीनेमिनाथदेवालंकृतदेवकुलिकाचतुष्टय-तुरगाधिरूढस्वपितामह महं० ठ० श्रीसोम-निजपितृ ठ० श्रीआशाराजमूर्तिद्वितय-चारुतोरणत्रय-श्रीनेमिनाथ (*) देव-आत्मीयपूर्वजा-ऽग्रजा-ऽनुज-पुत्रादिमूर्तिसमन्वितमुखोद्धाटनकस्तंभश्रीअष्टापदमहातीर्थप्रभृतिअने १ परिशिष्टेऽस्मिन् (*) सकोष्टमं फुल्लिचिदं सर्वत्र शिलालेखपतिसमाप्तिद्योतकमवसातव्यम् ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । ककीर्तनपरम्पराविराजिते श्रीनेमिनाथदेवाधिदेवविभूषितश्रीमदुञ्जयंतमहातीर्थे आत्मनस्तथा स्वधर्मचारिण्याः प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीकान्हडपुत्र्याः ठ० राणुकुक्षिसंभूताया महं० श्रीललितादेव्याः (*) पुण्याभिवृद्धये श्रीनागेंद्रगच्छे भट्टारकश्रीमहेंद्रसूरिसंताने शिष्यश्रीशांतिसूरिशिष्यश्रीआणंदररि-श्रीअमरमरिपट्टे भट्टारकश्रीहरिभद्रसरिपट्टालंकरणप्रभुश्रीविजयसेनमरिप्रतिष्ठितश्रीअजितनाथदेवादिविंशतितीर्थकरालंकृतोऽयमभिनवः समंडपः श्रीसम्मेतमहातीर्थावतारप्रासादः कारितः ॥ (*) पीयूषपूरस्य च वस्तुपालमन्त्रीशितुश्चायमियान् विमेदः । एकः पुनर्जीवयति प्रमीतं, प्रमीयमाणं तु भुवि द्वितीयः ॥१॥ श्रीद-श्रीदयितेश्वरप्रभृतयः संतु क्वचित् तेऽपि ये, प्रीणंति प्रभविष्णवोऽपि विभवै किंचनं कंचन । सोऽयं सिंचति कांचनैः प्रतिदिनं दारिद्रयदावानल प्रम्लानां पृथिवीं नवीनजलदः श्रीवस्तुपालः (*) पुनः ॥२॥ प्रातः ! पातकिनां किमत्र कथया दुर्मत्रिणामेतया ?, येषां चेतसि नास्ति किंचिदपरं लोकोपकारं विना । नन्वस्यैव गुणान् गृणीहि गणशः श्रीवस्तुपालस्य य स्तद्विश्वोपकृतिव्रतं चरति यत् कर्णेन चीर्णं पुरा भित्त्वा भानुं भोजराजे प्रयाते, श्रीमुंजेऽपि स्वर्गसाम्राज्यभाजि । एकः संप्रत्यर्थिनां वस्तुपालस्तिष्ठत्यश्रु (*) स्यंदनिष्कंदनाय ॥४ ॥ चौलुक्यक्षितिपालमौलिसचिव ! त्वत्कीर्तिकोलाहल___स्त्रैलोक्येऽपि विलोक्यमानपुलकानंदाश्रुभिः श्रूयते । किं चैषा कलिदूषिताऽपि भवता प्रासाद-वापी-प्रपा कूपा-ऽऽराम-सरोवरप्रभृतिभिर्धात्री पवित्रीकृता से श्रीतेजःपालः, सचिवश्चिरकालमस्तु तेजस्वी । येन वयं निश्चिताश्चिंतामणिने(*)व नंदामः । लवणप्रसादपुत्रश्रीकरणे लवणसिंहजनकोऽसौ । मंत्रित्वमत्र कुरुतां, कल्पशतं कल्पतरुकल्पः पुरापादेन दैत्यारे वनोपरिवर्तिना । अधुना वस्तुपालस्य, हस्तेनाधःकृतो बलिः ॥८॥ दैयिता ललितादेवी, तनयमवीतनयमाप सचिवेंद्रात् ।। नाम्ना जयंतसिंह, जयंतमिन्द्रात् पुलोमपुत्रीव [एते] श्रीगूर्जरेश्वरपुरोहित ठ० श्रीसोमेश्वरदेवस्य ।। १ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे ६४ संख्य १०१ संख्यार्बुदाचलसत्कशिलालेखयोः क्रमशः ४७तम प्रथमं च सोमेश्वरदेवकृतिरूपेणैव वर्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे ६४ संख्यार्बुदाचलसत्कशिलालेखे ४४तम सोमेश्वरदेवकृतिरूपेणैव वर्तते ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । तीर्थेऽत्र कायस्थ वंशे वाजडनंदनः । प्रशस्तिमेताम लिखत्, जैत्रसिंह ध्रुवः सुधीः वाइडस्य तनूजेन, सूत्रधारेण धीमता । एषा कुमारसिंहेन, समुत्कीर्णा प्रयत्नतः श्रीनेमेत्रिजगद्भर्तुरम्बायाश्च प्रसादतः । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनी ( गिरनार इन्स्क्रिप्शन्स् नं. २ । २१ - २३ ) ( ३९-२ ) .यः पु .... तयदुकुलक्षीरार्णवेन्दुर्जिनो, यत्पादाब्जपवित्रमौलिरसमश्रीरुज्जयन्तोऽप्ययम् । धत्ते मूर्ध्नि निजप्रभुप्रसृमरोद्दामप्रभामण्डलो, विश्वक्षोणिभृदाधिपत्यपदवीं नीलातपत्रोज्ज्वलाम् ॥ १ ॥ स्वस्ति श्रीविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे फागुण शुदि १० बुधे श्रीमदणहिल (*) पुरवास्तव्यप्राग्वाटान्वयप्रसूत ठ० श्रीचण्डपालात्मज ठ० श्रीचण्डप्रसादाङ्गज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशाराजनन्दनस्य ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसंभूतस्य ठ० श्रीलुणिग महं० ठ० श्रीमालदेवयोरनुजस्य महं० ठ० श्रीतेजःपालाग्रजन्मनो महामात्य श्रीवस्तुपालस्यात्मजे महं० ठ० श्रीललितादेवी (*) कुक्षिसरोवरराजहंसायमाने महं० श्रीजयन्तसिंहे सं० ७९ वर्षपूर्वं मुद्राव्यापारं व्यापृण्वति सति सं० ७७ वर्षे श्रीशत्रुंजयोजयन्तप्रभृतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रभावाविर्भूतश्रीमद्देवाधिदेवप्रसादासादितसंघाधिपत्येन चौलुक्य कुलनभस्तलप्रकाशनैकमार्तण्डमहाराजाधिराजश्री लवण (*) प्रसाददेवसुतमहाराजश्रीवीरधवलदेवप्रीतिप्रतिपन्न राज्य सर्वैश्वर्येण श्री शारदाप्रतिपन्नापत्येन महामात्यश्रीवस्तुपालेन तथाऽनुजेन सं० ७६ वर्षपूर्वं गूर्जरमण्डले धवलककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वता महं० श्रीतेजःपालेन च श्रीशत्रुंजया-ऽर्बुदाचलप्रभृतिमहातीर्थेषु (*) श्रीमदणहिलपुर-भृगुपुर-स्तम्भनकपुरस्तम्भतीर्थ-दर्भवती-धवलक्ककप्रमुखनगरेषु तथाऽन्यसमस्तस्थानेष्वपि कोटिशो ऽभिनवधर्मस्थानानि प्रभूतजीर्णोद्धाराश्च कारिताः । तथा सचिवेश्वर श्रीवस्तुपालेनेह स्वयंनिर्मापित श्रीशत्रुंजय महातीर्थावतारश्रीमदादितीर्थंकर श्रीऋषभदेव (*) स्तम्भनकपुरावतार श्री पार्श्वदेव सत्य पुरावतार श्रीमहावीरदेवप्रशस्तिसहित - कश्मीरावतार श्रीसरस्वतीमूर्तिदेवकुलिका चतुष्टय - जिनद्वयाऽम्बा-ऽवलोकना-शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरेषु श्रीनेमिनाथदेवालंकृतदेवकुलिकाचतुष्टय-तुरगाधिरूढ निजपितामह ठ० श्रीसोमनिजपितृ ठ० श्री आशाराज (*) मूर्तिद्वितय-चारुतोरणत्रय - श्रीनेमिनाथदेव - आत्मीयपूर्वजा ऽग्रजाऽनुज - पुत्रादिमूर्तिसमन्वितमुखोद्घाटन कस्तम्भ - श्री अष्टापद महातीर्थप्रभृति अनेक कीर्तनपरम्पराविराजिते श्रीनेमिनाथदेवाधिदेवविभूषित श्रीमदुञ्जयन्तमहातीर्थे आत्मनस्तथा स्वभार्यायाः प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीकान्हडपुत्र्याः ठ० (*) राणुकुक्षिसंभूताया महं० श्रीसोखुकायाः पुण्याभिवृद्धये श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारक श्री महेन्द्रसूरि सन्ताने शिष्य श्री शान्तिसूरिशिष्य श्री आनन्दसूरि - श्री अमररिपट्टे भट्टा ४६ [ नवर्य १ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागे ४१-४२-४३ संख्यगिरिनारसत्कप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्त्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागे ४२-४३ संख्यगिरिनार सत्कप्रशस्त्योः प्रान्तभागेऽपि वर्त्तते ॥ ३ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागे ३९-४०-४२-४३ संख्यगिरिनार सत्कप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्त्तते ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनार पर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । रकश्रीहरिभद्रसूरिपट्टालंकरण श्रीविजय सेन सूरिप्रतिष्ठित श्रीऋषभदेवप्रमुख चतुर्विंशतितीर्थं करालंकृतोऽयमभिनवः समण्ड(*) पः श्रीसंमेतमहातीर्थावतारप्रधानप्रासादः कारितः ॥ चेतः किं कलिकाल ! सालसमहो ! किं मोह ! नो हस्यते ?, तृष्णे ! कृष्णमुखाऽसि किं ? कथय किं विघ्नौघ ! मोघो भवान् ? । : किं नु सखे ! ? न खेलति किमप्यस्माकमुज्जृम्भितं, ब्रूमः सैन्यं यत् किल वस्तुपालकृतिना धर्मस्य संवर्मितम् यं विधुं बन्धवः सिद्धमर्थिनः शत्र ( * ). . पश्यन्ति, वर्ण्यतां किमयं मया ? 1 ॥ २ ॥ वैरं विभूति - भारत्योः, प्रभुत्व - प्रणिपातयोः । तेजस्विता - प्रशमयोः, शमितं येन मन्त्रिणा ॥ ३॥ ........ दीपेः स्फूर्जति सज्जकज्जलमलः स्नेहं मुहुः संहरन्निन्दुर्मण्डलवृत्तखण्डनपरः प्रद्वेष्टि मित्रोदयम् । सूरः क्रूरतरः परस्य सहते तेजो न तेजस्विन स्तत् केन प्रतिमं ब्र (*) वीमि सचिवं श्रीवस्तुपालाभिधम् ? याताः कति नैव यान्ति कति नो यास्यन्ति नो वा कति, स्थानस्थाननिवासिनो भवपथे पान्थीभवन्तो जनाः ? । अस्मिन् विस्मयनीयबुद्धिजलधिर्विध्वस्य दस्यून् करे, कुर्वन् पुण्यनिधिं धिनोति वसुधां श्रीवस्तुपालः परम् दधेऽस्य वीरधवलक्षितिपस्य राज्यभारे धुरंधरधुरा (*) श्रीतेजपालसचिवे दधति स्वबन्धुभारोद्धृतावविधुरैकधुरीणभावम् इह तेजपालसचिवो, विमलितविमलाचलेन्द्रममृतभृतम् । कृत्वाऽनुपमसरोवरममरगणं प्रीणयांचक्रे 1 G ॥ १ ॥ || 8 || ॥ ५॥ ॥ ६॥ ते श्रीमलधारिश्रीनरचन्द्रसूरीणाम् ॥ ह वालिगसुतसहजिगपुत्राऽऽनकतनुजवा जडवनूजः । अलि (*) खदिमां कायस्थः, स्तम्भपुरीयध्रुवो जयतसिंहः ॥ १ ॥ हैरिमण्डप - नन्दीश्वर शिल्पीश्वरसोमदेवपौत्रेण । बकुलस्वामिसुतेनोत्कीर्णा पुरुषोत्तमेनेयम् ॥ २ ॥ श्रीनेमेस्स्रिजगद्भर्तुरम्बायाश्च प्रसादतः । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनी ॥ ३ ॥ ॥ ७ ॥ १ पद्यमिदं नरचन्द्रसूरिकृतवस्तुपालप्रशस्तौ तृतीयपद्यतयाऽपि वर्तते ॥ २ पद्यमिदं नरचन्द्रसूरिकृतवस्तुपालप्रशस्तौ २६ पद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ ३ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्य नवमसर्गप्रान्तेऽपि दृश्यते ॥ ४ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागे ४० संख्यगिरिनारसत्कप्रशस्तावपि प्रान्तभागे वर्त्तते ॥ ५ पथमिदं प्राचीनमैनलेखसंग्रह २ भागे ४०-४१ संख्यगिरिनारप्रशस्त्योरपि प्रान्तभागे दृश्यते । ६ पद्यमिदं संग्रह १ भागे ३८-४०-४२-४३ संख्यगिरिनारप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ प्राचीन जैन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनार पर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । [ नवमं महामात्यश्रीवस्तुपालस्य प्रशस्तिरियं ६०३ महामात्यश्रीवस्तुपालभार्या महं० श्रीसोखुकाया धर्मस्थानमिदम् ॥ કેટ ( गिरनार इन्स्क्रिप्शन्स् नं० २ । २३-२४ ) (४०-३) ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ प्रणमदमरप्रेङ्खन्मौलिस्फुरन्मणिधोरणी तरुण किरण श्रेणीशोणीकृताखिलविग्रहः । सुरपतिरकरोन्मुक्तैः स्नात्रोदकैर्षुसृणारुण लुततनुरिवापायात् पायाज्जगन्ति शिवाङ्गजः ॥ १ ॥ स्वस्ति श्रीविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे फागुण शुदि १० बुधे श्रीमदणहिलपुरवास्तव्यप्रा (*)ग्वाटान्वयप्रसूत ठ० श्रीचण्ड पालात्मज ठ० श्रीचण्डप्रसादावज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशाराजनन्दनस्य ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसंभूतस्य ठ० श्रीलुणिग महं० श्रीमालदेवयोरनुजस्य महं० श्री तेजःपालाग्रजन्मनो महामात्य श्रीवस्तुपालस्यात्मजे महं० श्रीललितादेवीकुक्षिसरोवरराजहंसायमाने (*) महं० श्रीजयन्तसिंहे सं० ७९ वर्षपूर्वं स्तम्भनकतीर्थमुद्राव्यापारं व्यापृण्वति सति सं० ७७ वर्षे श्रीशत्रुंज योजयन्तप्रभृतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रभावाविर्भूतश्रीमद्देवाधिदेवप्रसादासादितसंघाधिपत्येन चौलुक्य कुलनभस्तलप्रकाशनैकमार्तण्डमहाराजाधिराजश्रीलवणप्रसाद देवसुतमहाराजश्रीवीरधव (*)लदेवप्रीतिप्रतिपन्न राज्यसर्वैश्वर्येण श्री - शारदाप्रतिपन्नापत्येन महामात्य श्री वस्तुपालेन तथाऽनुजेन सं० ७६ वर्षपूर्वं गूर्जरमण्डले धवलक्ककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वता महं० श्रीतेजःपालेन च शत्रुंजया -ऽर्बुदाचलप्रभृतिमहातीर्थेषु श्रीमदणहिलपुर-भृगुपुर-स्तम्भनकपुरस्तम्भतीर्थ-दर्भवती-धव (*)लक्ककप्रमुखनगरेषु तथाऽन्यसमस्तस्थानेष्वपि कोटिशोऽभिनवधर्मस्थानानि प्रभूतजीर्णोद्धाराश्च कारिताः । तथा सचिवेश्वरश्रीवस्तुपालेनेह स्वयंनिर्मापित श्रीशत्रुंजय महातीर्थावतारश्रीमदादितीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्तम्भनकपुरावतार श्रीपार्श्वनाथदेव- श्रीसत्य पुरावतार श्रीमहावीरदेव(*) प्रशस्तिसहित-कश्मीरावतार श्री सरस्वती मूर्तिदेवकुलिकाचतुष्टय - जिनयुगला - ऽम्बा-वलोकनाशाम्ब-प्रद्युम्नशिखरेषु श्रीनेमिनाथदेवालंकृत देवकुलिकाचतुष्टय-तुरगाधिरूढनिजपितामह ठ० श्रीसोम - स्वपितृ ठ० श्री आशाराजमूर्तिद्वितय - कुंजराधिरूढ महामात्यश्रीवस्तुपालानुज महं० श्रीतेज:पालमूर्तिद्वय - चारुतोरणत्रय - श्रीनेमिनाथदेव - आत्मीयपूर्वजा-5 -Sप्रजाऽनुज-पुत्रादिमूर्तिसमन्वितसुखोद्घाटनकस्तम्भश्रीसंमेतमहातीर्थप्रभृतिअनेकतीर्थ परम्पराविराजिते श्रीनेमिनाथदेवाधिदेवविभूषितश्रीमदुजयन्तमहातीर्थे आत्मनस्तथा स्वभार्यायाश्च प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीकान्हडपुत्र्याः ठ० (*) राणुकुक्षिसंभूताया महं० श्रीसोखुकायाः पुण्याभिवृद्धये श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारक श्री महेन्द्रसूरि संताने शिष्य श्री शान्तिसूरिशिष्य श्री आनन्द सूरि - श्री अमरसूरिपट्टे भट्टारकश्रीहरिभद्रसूरिपट्टालंकरणप्रभुश्री Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । ४९ विजयसेनसरिप्रतिष्ठितऋषभदेवालंकृतोऽयमभिनवः समण्डपः श्रीअष्टापदमहातीर्थावतारनिरुपमप्रधानप्रासादः कारितः ॥ प्रासादैर्गगनाङ्गणप्रणयिभिः पातालमूलंकषैः, कासारैश्च सितैः सिताम्बरगृहैनर्जीलैश्च लीलावनैः । येनेयं नयनिर्जितेन्द्रसचिवेनालंकृताऽलं क्षितिः, क्षेमैकायतनां चिरायुरुदयी श्रीवस्तुपालोऽस्तु सः संदिष्टं तव वस्तुपाल! बलिना विश्वत्रयीयात्रिका न्मत्वा ना(*)रदतश्चरित्रमिति ते हृष्टोऽमि नन्द्याश्चिरम् । नार्थिभ्यः क्रुधमर्थितः प्रथयसि स्वल्पं न दत्से न च, ___ स्वश्लाघां बहु मन्यसे किमपरं ? न श्रीमदान्मुह्यसि ॥ २ ॥ अरिबलदलनश्रीवीरनामाऽयमुस, सुरपतिरवतीर्णस्तर्कयामस्तदस्य । निवसति सुरशाखी वस्तुपालाभिधानः, सुरगुरुरपि तेजःपालसंज्ञः समीपे ॥३॥ उदारः शूरो वा(*)रुचिरवचनो वाऽस्ति नहि वा, भवत्तुल्यः कोऽपि क्वचिदिति चुलुक्येन्द्रसचिव ! । समुद्भूतभ्रान्तिर्नियतमवगन्तुं तव यश स्ततिर्गेहे गेहे पुरि पुरि च याता दिशि दिशि सा कुत्रापि युगत्रयी बत! गता सृष्टा च सृष्टिः सतां, सीदत्साधुरसंचरत्सुचरितः खेलत्खलोऽभूत् कलिः । तद्विश्वार्तिनिवर्तनैकमनसा प्रत्तोऽधुना शं(*)भुना, प्रस्तावस्तव वस्तुपाल! भवते यद् रोचते तत् कुरु के निधाय वसुधातले धनं, वस्तुपाल! न यमालयं गताः? । त्वं तु नन्दसि निवेशयन्निदं, दिक्षु धावति जने क्षुधावति पौत्रेण धारय वराहपते! धरित्री, सूर्य! प्रकाशय सदा जलदाभिषिञ्च । विश्राणितेन परिपालय वस्तुपाल!, भारं भवत्सु यदिमं निदधे विधा(*)ता ॥७॥ आत्मा त्वं जगतः सदागतिरिय कीर्तिर्मुखं पुष्करं, मैत्री मन्त्रिवरः स्थिरा घनरसः श्लोकस्तमोघः शमः । नोक्तः केन करस्तवामृतकरः कायश्च भास्वानिति, स्पष्टं धूर्जेटिमूर्तयः कृतपदाः श्रीवस्तुपाल! त्वयि विद्या यद्यपि वैदिकी न लभते सौभाग्यमेषा कचि न्न सात कुरुते च कश्चन वचः कर्णद्वये य(*)द्यपि । राजानः कृपणाश्च यद्यपि गृहे यद्यप्ययं च व्यय श्चिन्ता काऽपि तथापि तिष्ठति न मे श्रीवस्तुपाले सति १ पद्यमिदमुपदेशतरंगिण्यां ७५तमपत्रे सोमेश्वरदेवनाम्नैव वर्तते ॥ गि०७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० गिरिनारपर्व तस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । कर्णे खलप्रलपितं न करोषि रोषं, नाविष्करोषि न करोष्यपदे च लोभम् । तेनोपरि त्वमवनेरपि वर्तमानः, श्रीवस्तुपाल ! कलिकालमधः करोषि सर्वत्र भ्रान्तिमती, सर्वविदस्त्वदभवत् कथं कीर्तिः । (*) श्रीवस्तुपाल ! पैतृकमनुहरते सन्ततिः प्रायः सोऽपि बलेरवलेपः, स्वल्पतरोऽभूत् तथैव कल्पतरोः । श्रीवस्तुपालसचिवे, सिञ्चति दानामृतैर्जगत नियोगिनागेषु नरेश्वराणां, भद्रस्वभावः खलु वस्तुपालः ! । उद्दामदानप्रसरस्य यस्य, विभाव्यते क्वापि न मत्तभावः विबुधैः पयोधिमध्यादेको बहु ( * )भिः करीन्दुरुपलब्धः । बहवस्तु वस्तुपाल ! प्राप्ता विबुध ! त्वयैकेन " प्रथमं धनप्रवाहैर्वाहैरथ नाथमात्मनः सचिवः । अधुना तु सुकृतसिन्धुः, सिन्धुरवृन्दैः प्रमोदयति श्रीवस्तुपाल ! भवता, जलधेर्गम्भीरता किलाssकलिता । आनीय ततो गजता, स्वपतिद्वारे यदाकलिता एते श्रीमद्गुर्जरेश्वरपुरोहि(*) त ठ० श्रीसोमेश्वरदेवस्य || ह वालिगसुतसह जिगपुत्राऽऽनकतनुजवाजडतनूजः । अलिखदिमां कायस्थः, स्तम्भपुरीयध्रुवो जयतसिंहः हेरिमण्डप - नन्दीश्वर शिल्पीश्वर सोमदेव पौत्रेण । कुलस्वामिनोत्कीर्णा पुरुषोत्तमेनेयम् महामात्य श्रीवस्तुपालस्य प्रशस्तिरियं निष्पन्ना || ६०३ ॥ श्रीनेमेस्त्रि जगद्भर्तुरम्बायाश्च प्रसादतः । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनी माहामात्यश्रीवस्तुपालभार्या महं० श्रीसोखुकाया धर्मस्थानमिदम् ॥ ( ४१-४ ) ॐ नमः श्री नेमिनाथदेवाय || तीर्थेशाः प्रणतेन्द्रसंहति शिरःकोटीरको टिस्फुरतेजोजालजलप्रवाहलहरीप्रक्षालितांघिद्वयः । [ नवमं ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥ ॥ १ ॥ ( गिरनार इन्स्क्रिप्शन्स् नं० २ । २४-२५ ) ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ १ पद्यमिदं प्राचीन जैन लेखसंग्रह २ भागे ३० संख्यागिरिनार सत्कप्रशस्तावपि प्रान्तभागे वर्त्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीन जैन लेख संग्रह २ भागे ३९-४१ संख्यागिरिनारप्रशस्त्योरपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ लेखसंग्रह २ भागे ३८-३९-४२-४३ संख्यागिरिनारसत्कप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्त्तते ॥ ३ पद्यमिदं प्राचीन जैन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः। ते वः केवलमूर्तयः कवलितारिष्टां विशिष्टाममी, तामष्टापदशैलमौलिमणयो विश्राणयन्तु श्रियम् स्वस्ति श्रीविक्रमार्कसंवत् १२८८ वर्षे फागुण (*) शुदि १० बुधे श्रीमदणहिलपुरवास्तव्यपाग्वाटान्वयप्रसूत ठ० श्रीचण्डपालात्मज ठ० श्रीचण्डप्रसादाङ्गज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशा जनन्दनस्य ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसंभूतस्य ठ० श्रीलुणिग महं० श्रीमालदेवयोरनुजस्य ठ० रहं० श्रीतेजःपालामजन्मनो महामात्यश्रीवस्तुपालस्यात्मजे (*) महं० श्रीललितादेवीकुक्षिसरोरिराजहंसायमाने महं० श्रीजयन्तसिंहे सं० ७९ वर्षपूर्व श्रीस्तम्भतीर्थवेलाकुलमुद्राव्यापार व्यापृवति सति सं० ७७ वर्षे श्रीशत्रुजयोजयंतप्रभृतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रभावाविर्भूतश्रीमद्देवाधिदेवप्रसा सादितसंघाधिपत्येन चौलुक्यकुलनभस्तलप्रकाशनैक (*) मार्तण्डमहाराजाधिराजश्रीलवणप्रसाददेवसुतमहाराजश्रीवीरधवलदेवप्रीतिप्रतिपन्नराज्यसर्वैश्वर्येण श्री-शारदाप्रतिपन्नापत्येन महामात्यश्रीवतुपालेन तथाऽनुजेन सं० ७६ वर्षपूर्व गूर्जरमण्डले धवलक्ककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापार व्यापृण्वता हं० श्रीतेजःपालेन च श्री (*) शत्रुजया-बुंदाचलमहातीर्थेषु श्रीमदणहिलपुर-भृगुपुर-स्तम्भनकपुर-स्तम्भतीर्थ-दर्भवती-धवलक्ककप्रमुखनगरेषु तथाऽन्यसमस्तस्थानेष्वपि कोटिशो धर्मस्थानानि भूतजीर्णोद्धाराश्च कारिताः । तथा सचिवेश्वरश्रीवस्तुपालेनेह स्वयंनिर्मापितशत्रुजयमहातीर्थाव*) तारश्रीमदादितीर्थकरश्रीऋषभदेव-स्तम्भनकपुरावतारश्रीपार्श्वनाथदेव-सत्यपुरावतारश्रीमहारदेवप्रशस्तिसहित-कश्मीरावतारश्रीसरस्वतीदेवकुलिकाचतुष्टय-जिनयुगला-ऽम्बा-ऽवलोकनागाम्ब-प्रद्युम्नशिखरेषु श्रीनेमिनाथदेवालंकृतदेवकुलिकाचतुष्टय-तुरगाधिरूढनि (*) जपितामह 'ठ० पीसोम-पितृ ठ० श्रीआशाराजमूर्तिद्वितय-तोरणत्रय-श्रीनेमिनाथदेव-आत्मीयपूर्वजा-ऽग्रजा-ऽनुजत्रादिमूर्तिसमन्वितमुखोद्धाटनकस्तम्भश्रीसंमेतावतारमहातीर्थप्रभृतिअनेककीर्तनपरम्पराविराजिते श्रीमिनाथदेवाधिदेवविभूषितश्रीमदुञ्जयन्तमहातीर्थे आ (*) त्मनस्तथा स्वभार्यायाः प्राग्वाटज्ञातीय ० कान्हडपुत्र्याः ठ० राणुकुक्षिसंभूतायाः महं० श्रीसोखुकायाः पुण्याभिवृद्धये श्रीनागेन्द्रगच्छे हारकश्रीमहेन्द्रसूरिसंताने शिष्यश्रीशान्तिसूरिशिष्यआणन्दसूरि-श्रीअमरमरिपट्टे भट्टारकश्रीहरिद्रिसूरिपट्टालंकरणश्रीविजयसेनसरिप्रतिष्ठि (*) तश्रीमदादिजिनराजश्रीऋषभदेवप्रमुखचतुर्विंशतितीर्थरालंकृतोऽयमभिनवः समण्डपः श्रीअष्टापदमहातीर्थावतारप्रधानप्रासादः कारितः । स्वस्ति श्रीबलये नमोऽस्तु नितरां कर्णाय दाने ययो रस्पष्टेऽपि दृशां यशः कियदिदं वन्द्यास्तदेताः प्रजाः । दृष्टे संप्रति वस्तुपालसचिवत्यागे करिष्यन्ति ताः, कीर्ति कांचन या पुनः स्फुटमियं विश्वेऽपि नो मागति ॥ १ ॥ कोटीरैः कटका-ऽङ्गुलीय-तिलकैः केयूर-हारादिभिः, कौशेयैश्च विभूष्यमाणवपुषो यत्पाणिविश्राणितैः । १ पद्यमिदं मलधारिनरेन्द्रप्रभीयलघुवस्तुपालपरास्तौ द्वादशपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ २ पद्यमिदं मलधारिरेन्द्रप्रभीयलधुवस्तुपालप्रशस्ती पञ्चदशपद्यरूपेणाऽपि दृश्यते ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [नवमं ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । विद्वांसो गृहमागताः प्रणयिनीरप्रत्यभिज्ञाभृत स्तैस्तैः स्वं शपथैः कथं कथमिव प्रत्याययांचक्रिरे न्यासं व्यातनुतां विरोचनसुत (*) स्त्यागं कवित्वश्रियं, मास-व्यासपुरःसराः पृथु-रघुपायाश्च वीरव्रतम् । प्रज्ञां नाकिपताकिनीगुरुरपि श्रीवस्तुपाल! ध्रुवं, जानीमो न विवेकमेकमकृतोत्सेकं तु कौतस्कुतम् ? वास्तवं वस्तुपालस्य, वेत्ति कश्चरिताद्भुतम् ? । यस्य दानमविश्रान्तमर्थिष्वपि रिपुष्वपि स्तोतव्यः खलु वस्तुपालसचिवः कैर्नाम वाग्वैभवै र्यस्य (*) त्यागविधिर्विधूय विविधां दारिद्र्यमुद्रां हठात् विश्वेऽस्मिन्नखिलेऽप्यसूत्रयदसावर्थीति दातेति च, द्वौ शब्दावभिधेयवस्तुविरहव्याहन्यमानस्थिती आयेनाप्यपवर्जनेन जनितार्थित्वप्रमाथान् पुनः, स्तोकं दत्तमिति क्रमान्तरगतानाहाययन्नर्थिनः । पूर्वस्माद् गणसंख्ययाऽपि गुणितं यस्तेष्वनावर्तिषु, । द्रव्यं (*) दातुमुदस्तहस्तकमलस्तस्थौ चिरं दुःस्थितः विश्वेऽस्मिन् किल पङ्कपकिलतले प्रस्थानवीथीं विना, सीदन्नेष पदे पदे न पुरतो गन्तेति संचिन्तयन् । धर्मस्थानशतच्छलेन विदधे धर्मस्य वर्षीयसः, संचाराय शिलाकलापपदवीं श्रीवस्तुपालः स्फुटम् अम्भोजेषु मरालमण्डलरुचो डिण्डीरपिण्डत्विषः, कासारेषु (*) पयोधिरोधसि लुठनिर्णिक्तमुक्ताश्रियः । ज्योत्स्नाभाः कुमुदाकरेषु सदनोद्यानेषु पुष्पोल्बणाः, स्फूर्ति कामिव वस्तुपालकृतिनः कुर्वन्ति नो कीर्तयः ? देव स्वर्नाथ ! कष्टं ननु क इव भवान् ! नन्दनोद्यानपालः, खेदस्तत् कोऽद्य ? केनाप्यहह ! हृत इतः काननात् कल्पवृक्षः, । हुं मा वादीस्तदेतत् किमपि (*) करुणया मानवानां मयैव, । प्रीत्याऽऽदिष्टोऽयमूास्तिलकयति तलं वस्तुपालच्छलेन श्रीमन्त्रीश्वरवस्तुपालयशसामुच्चावचैर्वीचिभिः, सर्वस्मिन्नपि लम्भिते धवलतां कल्लोलिनीमण्डले । ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ १ पद्यमिदं नरेन्द्रप्रभीयलघुवस्तुपालप्रशस्तौ चतुर्थपद्यतयाऽपि वर्तते ॥ २ पद्यमिदं नरेन्द्रप्रभीयलघुवस्तुपालप्रशस्तौ २७ तमपद्यरूपेणापि वर्त्तते ॥३ पद्यमिदं नरेन्द्रप्रभीयलघुवस्तुपालप्रशस्तौ २५ तमपद्यरूपेणापि वर्तते ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । गङ्गैवेयमिति प्रतीतिविकलास्ताम्यन्ति कामं भुवि, आम्यन्तस्तनुसादमन्दितमुदो मन्दाकिनीयात्रिकाः वक्त्रं (*) निर्वासनाज्ञानयनपथगतं यस्य दारिद्र्यदस्योष्टिः पीयूषवृष्टिः प्रणयिषु परितः पेतुषी सप्रसादम् । प्रेमालापस्तु कोsपि स्फुरदसम परब्रह्मसंवादवेदी, नेदीयान् वस्तुपालः स खलु यदि तदा को न भाग्यैकभूमिः ? साक्षाद् ब्रह्म परं धरागतमिव श्रेयोविवर्तैः सतां, तेजःपाल इति प्रसिद्धमहिमा तस्यानु ( * ) जन्मा जयी । यो धत्ते न दशां कदापि कलितावद्यामविद्यामयीं, यं चोपास्य परिस्पृशन्ति कृतिनः सद्यः परां निर्वृतिम् आकृष्टे कमलाकुलस्य कुदशारम्भस्य संस्तम्भनं, वश्यत्वं जगदाशयस्य यशसामाशान्तनिर्वासनम् । मोहः शत्रुपराक्रमस्य मृतिरप्यन्यायदस्योरिति, स्वैरं षड्धिकर्मनिर्मितिमया मन्त्रोऽस्य मन्त्रीशितुः एते मलधारिश्री नरेन्द्रसूरीणाम् । स्तम्भतीर्थेऽत्र कायस्थ वंशे वाजडनन्दनः । प्रशस्तिमेतामलिखज्जैत्र सिंहध्रुवः सुधीः हैरिमण्डप-नन्दीश्वरशिल्पीश्वरसोमदेवपौत्रेण । बकुलस्वामिसुतेनोत्कीर्णा पुरुषोत्तमेनेयम् श्रीवस्तुपालप्रभोः प्रशस्तिरियं निष्पन्ना ॥ मङ्गलं महाश्रीः ॥ ( ४२-५ ) ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ ५३ ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ (*) ( गिरनार इन्स्क्रिप्शन्स् नं० २ । २६-२७ ) ॥ १ ॥ ॥ २॥ ये उज्जयन्तं ... . जया भूप्रजाकल्याणा | स्वस्ति श्रीविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे फागुण शुदि १० बुधे श्रीमदणहिलपुरवा (*)स्तव्यप्राग्वाटान्वयप्रसूत ठ० श्रीचण्डपालात्मज ठ० श्रीचण्डप्रसादाङ्गज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्री आशाराजनन्दनस्य ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसंभूतस्य ठ० श्रीलुणिग महं० श्रीमालदेवयोरनुजस्य महं० श्रीतेजःपालाग्रजन्मनो महामात्य श्रीवस्तुपालस्यात्मजे महं० श्रीललितादेवीकुक्षिसरोवरराजहंसाय(*)माने महं० श्रीजयन्तसिंहे सं० ७९ वर्षपूर्वं स्तम्भतीर्थे मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वति सति सं० ७७ वर्षे शत्रुंजयोज्जयन्तप्रभृतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रसादाविर्भूतश्रीमद्देवाधिदेवप्रसादासादितसंघाधिपत्येन चौलुक्य कुलनभस्तलप्रकाशनैकमार्तण्डमहाराजाधिराजश्रीलवणप्रसाददेवसु १ पद्यमिदं नरेन्द्रप्रभीय लघुवस्तुपालप्रशस्तौ १९पद्यरूपेणापि वर्त्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेख संग्रह २ भागे ३८-४२-४३ संख्यगिरिनारसत्कप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे दृश्यते ॥ ३ पद्यमिदं प्राचीन जैन लेखसंग्रह २ भागे ३९ - ४० संख्य गिरिनारसत्कप्रशस्त्योरपि प्रान्तभागे वर्त्तते ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । [नयम तमहाराजश्रीवीरध(*)वलदेवप्रीतिप्रतिपन्नराज्यसर्वैश्वर्येण श्री-शारदाप्रतिपन्नापत्येन महामात्यश्रीवस्तुपालेन तथाऽनुजेन सं० ७६ वर्षपूर्व गूर्जरमण्डले धवलक्ककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापार व्यापृण्वता महं० श्रीतेजःपालेन च श्रीश@जया-ऽर्बुदाचलप्रभृतिमहातीर्थेषु श्रीमदणहिलपुर-भृगुपुर-स्त(*). म्भनकपुर-स्तम्भतीर्थ-दर्भवती-धवलक्करप्रमुखनगरेषु तथाऽन्यसमस्तस्थानेष्वपि कोटिशोऽभिनवधर्मस्थानानि प्रभूतजीर्णोद्धाराश्च कारिताः । तथा सचिवेश्वरश्रीवस्तुपालेनेह स्वयंनिर्मापितश्रीशत्रुजयमहातीर्थावतारश्रीमदादितीर्थकरश्री ऋषभदेव-स्तम्भनकपुरावतारश्रीपार्श्वनाथ-देव-सत्यपुरावतारश्री(*)महावीरदेवप्रशस्तिसहित-कश्मीरावतारश्रीसरस्वतीमूर्तिदेवकुलिकाचतुष्टय-जिनयुगला-ऽम्बाऽवलोकना-शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरेषु श्रीनेमिनाथदेवालंकृतदेवकुलिकाचतुष्टय-तुरगाधिरूढस्वपितामह महं० श्रीसोम-निजपितृ ठ० श्रीआशाराजमूर्तिद्वितय-चारुतोरणत्रय-श्रीनेमिनाथदेव-आत्मीय(*)पूर्वजा-ऽग्रजा-ऽनुज-पुत्रादिमूर्तिसमन्वितमुखोद्घाटनकस्तम्भश्रीअष्टापदमहातीर्थप्रभृतिअनेककीर्तनपरम्पराविराजिते श्रीनेमिनाथदेवाधिदेवविभूषितश्रीमदुजयन्तमहातीर्थे आत्मनस्तथा स्वधर्मचारिण्याः प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीकान्हडपुत्र्याः ठ० राणुकुक्षिसंभूताया महं० श्रीललितादेव्याः पुण्याभि(*)वृद्धये श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारकश्रीमहेन्द्रमूरिसंताने शिष्यश्रीशान्तिसूरिशिष्यश्रीआणन्दसूरि-श्रीअमरसूरिपट्टे भट्टारकश्रीहरिभद्रसूरिपट्टालंकरणप्रभुश्रीविजयसेनमूरिप्रतिष्ठितश्रीअजितनाथदेवादिविंशतितीर्थकरालंकृतोऽयमभिनवः समण्डपः श्रीसंमेतमहातीर्थावतारप्रासादः कारितः । से श्रीजिनाधिपतिधर्मधराधुरीणः, श्लाघास्पदं कथमिवास्तु न वस्तुपालः । श्री-शारदा-सुकृत-कीर्ति-नयादिवेण्याः, पुण्यः परिस्फुरति जङ्गमसङ्गमो यः । विभुता-विक्रम-विद्या-विदग्धता-वित्तवितरण-विवेकैः । यः सप्तभिर्विकारैः, कलितोऽपि बभार न विकारम् ॥ २ ॥ यस्य भूः किमसावस्तु, वस्तुपालसुतः सदा । नावासावथाप्येतो, धर्मकर्मकृतौ कृतौ ॥ ३ ॥ कस्यापि कविता नास्ति, विनाऽस्य हृदयामुखम् । वास्तवं वस्तुपालस्य, पश्यामस्तद् वयं च यम् ॥ ४ ॥ दुर्गः स्वर्गगिरिः स कल्पतरुभिर्भेजे न चक्षुष्पथे, ___ तस्थौ कामगवी जगाम जलधेरन्तः स चिन्तामणिः। कालेऽस्मिन्नवलोक्य यस्य करुणं(णां) तिष्ठेत कोऽन्यस्ततः, पुण्यः सोऽस्तु न वस्तुपालसुकृती दानैकवीरः कथम् ? सोऽयं मन्त्री गुरुरतितरामुद्धरन् धर्मभारं, श्लाघाभूमि नयति न कथं वस्तुपालः सहेलम् ? । तेजःपालः स्वबलधवलः सर्वकर्माणबुद्धि द्वैतीयीकः कलयतितरां यस्य धौरेयकत्वम् १ पद्यमिदं नर चन्द्रीयास्तुपालप्रशस्तौ पञ्चमपद्यत्वेनापि दृश्यते ॥ २ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यप्रथम सर्गे २३तमपद्यत्वेनाऽपि वत्तते ॥ ३ पद्यमिदं नरचन्द्रीयवस्तुपालप्रशस्तौ चतुर्थपद्यतयाऽपि दृश्यते ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । एतस्मिन् वसुधासुधाजलधरे श्रीवस्तुपाले जग____जीवातौ सिचयोच्चयैर्नवनवैर्नक्तं दिवं वर्षति (*)। आस्तामन्यजनो घनोज्झितशशिज्योत्स्नाच्छवल्गद्गुणो द्भूतैरद्य दिगम्बराद्यपि यशोवासोभिराच्छादितम् लक्ष्मीर्मन्थाचलेन्द्रभ्रमणपरिचयादेव पारिप्लवेयं, भ्रूभङ्गस्यैव भङ्गाचकितमृगदृशां प्रेमनस्थेतरस्य । आयुनिःश्वासवायुप्रणयपरतयैवेवमस्थैर्यदुस्थं, स्थास्नुर्धर्मोऽयमेकः परमिति हृदये (*) वस्तुपालेन मेने तेजःपालस्य विष्णोश्च, कः स्वरूपं निरूपयेत् ? । स्थितं जगत्रयीं पातुं, यदीयोदरकन्धरे ॥ ९ ॥ ललितादेवी नाम्ना, सधर्मिणी वस्तुपालस्य । अस्यामनिरस्तनयस्तनयोऽयं (*) जयतसिंहाख्यः दृष्ट्वा वपुश्च वी........च, परस्परविरोधिनी । विवादा......जैत्रसिंहस्तारुण्यवाद्रि (?) कः ॥ ११ ॥ (*) कृतिरियं मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरीणाम् ॥ तम्भतीर्थेऽत्र कायस्थवंशे वाजडनन्दनः । प्रशस्तिमेतामलिखज्जैत्रसिंहध्रुवः सुधीः हिडस्य तनूजेन, सूत्रधारेण धीमता । एषा कुमारसिंहेन, समुत्कीर्णा प्रयत्नतः ॥२॥ 'श्रीनेमेस्त्रिजगद्भर्तुरम्बायाश्च प्रसादतः । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनी ॥३॥ (गिरनार इन्स्क्रिप्शन्सू नं० २।२७-२९) (४३-६) ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ संमेतादिशिरःकिरीटमणयः स्मेरस्मराहंकृति ध्वंसोल्लासितकीर्तयः शिवपुरप्राकारतारश्रियः । आनत्यश्रितसंविदादिविलसद्रत्नौघरत्नाकराः, कल्याणावलिहेतवः प्रतिकलं ते सन्तु वस्तीर्थपाः स्वस्ति श्रीविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे फागुण शुदि १० बुधे श्रीमदणहिलपुरवास्तव्यप्राग्वाटलालङ्करण (*) श्रीचण्डपालात्मज ठ० श्रीचण्डप्रसादाङ्गज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशाराजदनस्य ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसम्भूतस्य ठ० श्रीलुणिग महं० श्रीमालदेवयोरनुजस्य महं० श्रीजापालाग्रजन्मनो महामात्यश्रीवस्तुपालस्यात्मजे महं० श्रीललितादेवीकुक्षिसरोवरराजहंसायमाने १ पद्यमिदं नरचन्द्रीयवस्तुपाल प्रशस्तौ षोडशपद्यतयाऽपि वर्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ गे ६४ संख्यअर्बुदाचलसत्कशिलालेखे षोडशं सोमेश्वर देवकृतितया वर्तते ॥ ३ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ ३४-४१-४२ संख्यगिरिनारप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ ४ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे १-४३ संख्यगिरिनारसत्कप्रशस्त्योरपि प्रान्तमागे वर्तते ॥ ५पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागे ३८-३९-४३ संख्यगिरिनारप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । [नवर्म महं० श्रीजयन्तसिंहे सं० ७९ वर्षपूर्व स्तम्भ (*) तीर्थमुद्राव्यापारान् व्यापृण्वति सति सं० ७७ वर्षे श्रीशजयोजयन्तप्रतिमहातीर्थयात्रोत्सवप्रभावाविर्भूतश्रीमद्देवाधिदेवप्रसादासादितसाधिपः त्येन चौलुक्यकुलनभस्तलप्रकाशनैकमार्तण्डमहाराजाधिराजश्रीलवणप्रसाददेवसुतमहाराजश्रीवीरधवलदेवप्रीतिप्रतिपन्नराज्यसर्वैश्वर्येण श्री-शारदाप्रतिपन्नापत्येन महामा (*) त्यश्रीवस्तुपालेन तथा अनुजेन सं० ७६ वर्षपूर्व गूर्जरमण्डले धवलक्ककप्रमुखनगरेषु मुद्राव्यापारान् व्यापृण्वता महं० श्रीतेजःपालेन च श्रीशत्रुञ्जया-ऽर्बुदाचलप्रभृतिमहातीर्थेषु श्रीमदणहिलपुर-भृगुपुर-स्तम्भनकपुर-स्तम्भतीर्थ-दर्भवती-धवलक्ककप्रमुखनगरेषु तथा अन्यसमस्तस्थानेष्वपि कोटिशोऽभिनवधर्मस्थानानि प्रभूतजी (*) गोद्धाराश्च कारिताः ॥ तथा श्री-शारदाप्रतिपन्नपुत्रसचिवेश्वरश्रीवस्तुपालेन स्वधर्मचारिण्याः प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीकान्हडपुत्र्याः ठ० राणुकुक्षिसम्भूताया महं० श्रीललितादेव्यास्तथा आत्मनः पुण्याभिवृद्धये इह स्वयंनिर्मापितश्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थावतारश्रीमदादितीर्थकरश्रीऋषभदेव-स्तम्भनकपुरावतारश्रीपार्श्वनाथदेव-सत्यपुरा (*) वतारश्रीमहावीरदेवप्रशस्तिसहित-कश्मीरावतारश्रीसरखतीमूर्तिदेवकुलिकाचतुष्टय-जिनयुगल-अम्बा-ऽवलोकना-शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरेषु श्रीनेमिनाथदेवालंकृतदेवकुलिकाचतुष्टय-तुरगाधिरूढनिजपितामह महं० श्रीसोम-स्वपितृ ठ० श्रीआशाराजमूर्तिद्वितय-चारुतोरणत्रय-श्रीनेमिनाथदेव-आत्मीयपूर्वजा-ऽग्रजा-ऽनुज-पुत्रादिमूर्तिस (*) मन्वितमुखोद्घाटनकस्तम्भ-श्रीअष्टापदमहातीर्थप्रभृतिअनेककीर्तनपरंपराविराजिते श्रीनेमिनाथदेवाधिदेवविभूषितश्रीमदुजयंतमहातीर्थे श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारकश्रीमहेंद्रसूरिसंताने शिष्यश्रीशांतिसूरिशिष्यश्रीआणंदमूरि-श्रीअमरमरिपट्टे भष्टारकश्रीहरिभद्रसूरिपट्टालंकरणप्रभुश्रीविजयसेनसरिप्रतिष्ठित (*) श्रीमदजितनाथदेवप्रमुखविंशतितीथंकरालंकृतोऽयमभिनवः समण्डपः श्रीसंमेतावतारमहातीर्थप्रासादः कारितः ॥ छ । मुष्णाति प्रसभं वसु द्विजपतेर्गौरीगुरुं लङ्घयन् , नो धत्ते परलोकतो भयमहो ! हंसापलापे कृती। उच्चैरास्तिकचक्रवालमुकुट ! श्रीवस्तुपाल ! स्फुटं, भेजे नास्तिकतामयं तव यशःपूरः कुतस्त्या (*) मिति ? कोपाटोपपरैः परैश्चलचमूरङ्गत्तुरङ्गक्षत क्षोणीक्षोदवशादशोषि जलधिः श्रीस्तम्भतीर्थे पुरे । स्वेदाम्भस्तटिनीघटाघटनया श्रीवस्तुपालस्फुरतेजस्तिग्मगभस्तितप्ततनुभिस्तैरेव सम्पूरितः ॥२॥ दिग्यात्रोत्सववीरवीरधवलक्षोणीधवाध्यासितं, प्राज्यं राज्यरथस्य भारमभितः स्कंधे दधल्लीलया । १ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यनवमसर्गप्रान्तेऽपि दृश्यते ॥ २ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्या १३७ तमपद्यतयाऽपि वर्त्तते ॥ ३ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकलोलिन्यां १२१ पद्यरूपेण उदयप्रभीयवस्तुपालस्तुतौ च ११ पद्यरूपेणाऽपि दृश्यते ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] गिरिनारपर्वतस्था: प्रशस्तिशिलालेखाः । भाति भ्रातरि दक्षिणे समगुणे श्रीवस्तुपालः कथं, न श्लाघ्यः स्वयमश्वराजतनुजः कामं स वामस्थितिः ? लावण्यांग इति द्युतिव्यतिकरैः सत्याभिधानोऽभवद्, भ्राता यस्य निशानिशांतविकसञ्चन्द्रप्रकाशाननः । शंके शंकरकोपसंभ्रमभरादासीदनंगः स्मरः, साक्षादंगमयोऽयमित्यपहृतः स्वर्गांगनाभिर्लघु रेक्तः सद्गतिभावभाजि चरणे श्रीमल्लदेवोऽपरो, याता परमेष्ठिवाहनतया प्राप्तः प्रतिष्ठां पराम् । खेलन्निर्मलमानसेन समयं कापि श्रयन् पंकिलं, विश्वे राजति राजहंस इव यः संशुद्धपक्षद्वयः सोऽयं तस्य सुधाहरस्य कवितानिष्ठः कनिष्ठः कृती, बंधुर्बंधुरबुद्धिबोधमधुरः श्रीवस्तुपालाभिधः । ज्ञानांभोरुहकोटरे भ्रमरतां सारंगसाम्यं यशः सोमे सौरितुलां च यस्य महिमक्षीरोदधौ खं दधौ इंदुबिंदुरपां सुरेश्वरसरिड्डिडीरपिंड : पति सां विद्रुमकंदलः किल विभुः श्रीवत्सलक्ष्मा नभः । कैलास-त्रिदशेभ-शंभु- हिमवत्प्रायास्तु मुक्ताफल स्तोमः कोमलवालुकाऽस्य च यशः क्षीरोदधौ कौमुदी हैस्तामन्यस्तसारस्वतरसरसनप्राप्तमाहात्म्यलक्ष्मी स्तेजःपालस्ततोऽसौ जयति वसुभैरैः पूरयन् दक्षिणाशाम् । यहुद्धिः कल्पितोरु (*) द्विपगहनपरक्षोणिभृद्बुद्धिसंप लोपामुद्राधिपस्य स्फुरति लसदिनस्फारसंचारहेतुः पुण्यश्रीर्भुवि मल्लदेवतनयोऽभूत् पुण्यसिंहो यशो वर्यः स्फूर्जति जैत्रसिंह इति तु श्रीवस्तुपालात्मजः । तेजःपालसुतस्त्वसौ विजयते लावण्यसिंहः स्वयं, यैर्विश्वेऽभवदेकपादपि कलौ धर्मश्चतुष्पादयम् एते श्रीनागेंद्र गच्छे भट्टारक श्रीउदय (*) प्रभसूरीणाम् । स्तम्भतीर्थेऽत्र कायस्थ वंशे वाजडनंदनः । प्रशस्तिमेतामलिख जैत्र सिंहभुवः सुधीः ५७ ॥ ३ ॥ || 8 || 114 11 ॥ ६ ।। (*) 11 911 || 2 11 ॥ १ ॥ १ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां ११३ पद्यतयाऽपि वर्तते ॥ २ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलियां ११५ पद्य - रूपेणापि वर्त्तते ॥ ३ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां १२८तमपद्यरूपेणापि दृश्यते ॥ ४ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां ११७ पद्यतयाऽपि वर्त्तते ॥ ५ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागे ३८-४१-४२ संख्यगिरिनारप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ गि०८ 11 3 11 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ गिरिनारपर्वतस्थाः प्रशस्तिशिलालेखाः । [ नवम वाहडस्य तनूजेन, सूत्रधारेण धीमता । एषा कुमारसिंहेन, समुत्कीर्णा प्रयत्नतः ॥२॥ श्रीनेमेस्त्रिजगद्भर्तुरम्बायाश्च प्रसादतः । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनी ॥ ३ ॥ श्रीवस्तुपालप्रभोः प्रशस्तिरियं निष्पन्ना । शुभं भवतु ॥ (४४-७) वैस्तुपालविहारेण, हारेणेवोज्वलश्रिया । उपकण्ठस्थितेनायं, शैलराजो विराजते श्रीविक्रमसंवत् १२८९ वर्षे आश्विनवदि १५ सोमे महामात्यश्रीवस्तुपालेन आत्मश्रेयोऽर्थ पश्चाद्भागे श्रीकपर्दियक्षप्रासादसमलंकृतः श्रीशत्रुजयाव[तार]श्रीआदिनाथप्रासादस्तदग्रतो वामपक्षे स्वीयसद्धर्मचारिणी महं० श्रीललितादेविश्रेयोऽथ विंशतिजिनालंकृतः श्रीसम्मेतशिखरप्रासादस्तथा दक्षिणपक्षे द्वि० भार्या महं० श्रीसोखुश्रेयोऽथ चतुर्विंशतिजिनोपशोभितः श्रीअष्टापदप्रासादः अपूर्वघाटरचनारुचिरतरमभिनवप्रासादचतुष्टयं निजद्रव्येण कारयांचक्रे । (लिष्ट ऑफ आर्कियोलॉजिकल रिमन्स इन बॉम्बे पॅसिडन्सी पृ० ३६१) (४५-८) महामात्यश्रीवस्तुपाल महं० श्रीललितादेवीमूर्ति । (४६-९) महामात्यश्रीवस्तुपाल महं० श्रीसोखुकामूर्ति.... । (लि० ऑ० आ० रि० इ० बॉ० प्र० पृ० ३५७-८) (४७-१०) वस्तुपालविहारेण, हारेणेवोज्वलश्रिया । उपकण्ठस्थितेनायं, शैलराजो विराजते (४८-११) वस्तुपालविहारेण, हारेणेवोज्ज्वलश्रिया । उपकण्ठस्थितेनायं, शैलराजो विराजते (लि. ऑ० आ० रि० इ० बॉ० प्र० पृ० ३५९) १ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे ३८-४२ संख्यगिरिनारसत्कप्रशस्त्योरपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे ३८-३९-४०-४२ संख्यगिरिनारप्रशस्तिष्वपि प्रान्तभागे वर्तते ॥ ३ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे ४७-४८ संख्यगिरिनारसत्कप्रशस्तिरूपेणापि दृश्यते ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । गूर्जरेश्वरमहामात्यश्रीतेजःपालकारितश्रीलूण वसहिकागतप्रशस्तिलेखाः । (६४) ॥ ०॥ वंदे सरस्वती देवी, याति या क ि[व]मानसम् । नी[यमा ]ना [निजेने ] व, [यानमा] नस[व] सिन [1] यः [क्ष ]तिमा [नप्य ] रु [णः प्रकोपे, शांतोऽपि दीप्त]: स्मरनिग्रहाय । निमीलिताक्षोऽ[पि सम]प्रदर्शी, स वः शिवायास्तु शि* [वातनूजः ॥२॥ अणहिलपुरमस्ति स्वस्तिपात्रं प्रजा [नाम ]जरजिर [ धुतुल्यैः ] पा [ल्य]मानं चुलुिक्यैः]। [विरम ]ति रमणीनां य[त्र वक्त्रे]न्दु [मंदी]कृत इव [ सि ]तपक्षप्रक्षयेऽप्यंधकारः ॥३॥ तत्र प्राग्वाटान्वयमुकुटं कुटजप्रसून (*) विशदयशाः । दानविनिर्जितकल्पद्रुमपंडश्चंडपः समभूत् चंडप्र[सादसं[ ज्ञः], स्वकुल[प्रासादहेमदंडोऽस्य । प्रसर[त्की ] तिपताकः, पुण्यविपाकेन सूनुरभूत् आत्मगुणैः किरणैरिव, सोमो रोमोद्गमं सतां (*) कुर्वन् । उदगादगाधमध्याहुग्धोदधिबांधवात्तस्मात् ॥६ ॥ एतस्मादजनि जिनाधि [ ना ] थभक्ति, बिभ्राणः स्वमनसि शश्वदश्वरा[जः । तस्याऽऽसीद्दयिततमा कुमारदेवी, देवीव त्रिपुररिपोः कुमारमाता तयोः प्रथमपु (*) त्रोऽभून्मंत्री लूणिगसंज्ञया । दैवादवाप बालोऽपि, सालोक्यं [व] सवेन सः ॥ ८ ॥ पूर्वमेव सचिवः स कोविदैर्गण्यते स्म गुणवत्सु लूणिगः । यस्य निस्तुषमतेर्मनीषया, धिकृतेव धिषणस्य धीरपि ॥९ ॥ श्रीमल्लदेवः श्रि(*)तमल्लिदेवः, तस्यानुजो मंत्रिमतल्लिकाऽभूत् । बभूव यस्यान्यधनांगनासु, लुब्धा न बुद्धिः शमलब्धबुद्धेः ॥१०॥ धर्मविधाने भुवनच्छिद्रपिधाने विभिन्नसंधाने । सृष्टिकृता न हि सृष्टः, प्रतिमल्लो मल्लदेव(*)स्य ॥११ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । [ नवम नीलनीरदकदम्बकमुक्तश्वेतकेतुकिरणोद्धरणेन । मल्लदेवयशसा गलहस्तो, हस्तिमल्लदशनांशुषु दत्तः तस्यानुजो विजयते विजितेंद्रियस्य, सारस्वतामृतकृताद्भुतहर्षवर्षः । श्रीवस्तु(*)[पा]ल इति भालतलस्थितानि,दौःस्थ्याक्षराणि सुकृती कृतिनां विलुपन् ॥१३॥ विरचयति वस्तुपालश्चलुक्यसचिवेषु कविषु च प्रवरः । न कदाचिदर्थहरणं, श्रीकरणे काव्यकरणे वा ॥ १४ ॥ तेजःपालः पालितस्वा(*)मितेजःपुंजः सोऽयं राजते मंत्रिराजः । दुर्वृत्तानां शंकनीयः कनीयानस्य भ्राता विश्वविभ्रांतकीर्तिः ॥१५॥ तेजपालस्य विष्णोश्च, कः स्वरूपं निरूपयेत् ? । स्थितं जगत्रयीसूत्रं, यदीयोदरकंदरे ॥ १६ ॥ जाल्हू-माऊ-साऊ-धनदेवी-सोहगा-वयजुकाख्याः । परमलदेवी चैषां, क्रमादिमाः सप्त सोदयः एतेऽश्वराजपुत्रा, दशरथपुत्रास्त एव चत्वारः । प्राप्ताः किल पुनरवनावेकोदरवासलोभेन ॥ १८ ॥ अनुजन्मना समेतस्तेजःपा(*)लेन वस्तुपालोऽयम् । मदयति कस्य न हृदयं ?, मधुमासो माधवेनेव ॥ १९॥ पंथानमेको न कदापि गच्छेदिति स्मृतिप्रोक्तमिव स्मरंतौ । सहोदरौ दुर्द्धरमोहचौरे, संभूय धर्माध्वनि तौ प्रवृत्तौ । ॥२०॥ इदं सदा सो(*)दरयोरुदेतु, युगं युगव्यायमदोर्युगश्रि । युगे चतुर्थेऽप्यनघेन येन, कृतं कृतस्यागमनं युगस्य ॥२१॥ मुक्तामयं शरीरं, सोदरयोः सुचिरमेतयोरस्तु । मुक्तामयं किल महीवलयमिदं भाति यत्कीर्त्या ॥ २२ ॥ ए(*)कोत्पत्तिनिमित्तौ, यद्यपि पाणी तयोस्तथाऽप्येकः । वामोऽभूदनयोर्न तु, सोदरयोः कोऽपि दक्षिणयोः ॥ २३ ॥ धर्मस्थानांकितामुवी, सर्वतः कुर्वताऽमुना । दत्तः पादो बलाढूंधुयुगलेन कलेगले ॥२४ ।। इतश्चौलुक्यवीरा(*)णां, वंशे शाखाविशेषकः । अर्णोराज इति ख्यातो, जातस्तेजोमयः पुमान् ॥ २५ ॥ तस्मादनंतरमनंतरितप्रतापः, प्राप क्षिति क्षतरिपुर्लवणप्रसादः । स्वर्गापगाजलवलक्षितशंखशुभ्रा, बभ्राम यस्य लवणाब्धिमतीत्य कीर्तिः(*) ॥ २६ ॥ सुतस्तस्मादासीदशरथककुत्स्थप्रतिकृतेः, प्रतिक्ष्मापालानां कवलितबलो वीरधवलः । १ पद्यमिदं प्राचीनजैनलेखसंग्रह २ भागे ४२ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे नवमं मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिकृतिरूपेण निर्दिष्टं वर्तते ॥ २ पद्यमिदं जिनहर्षीयवस्तुपालचरिते सोमेश्वरदेवनाम्नैव वर्तते ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । यशःपूरे यस्य प्रसरति रतिलांतमनसामसाध्वीनां भमाऽभिसरणकलायां कुशलता ॥ २७॥ चौलुक्यः सुकृती स वीरधवलः क(*) ऐजपानां जपं, यः कर्णेऽपि चकार न प्रलपतामुद्दिश्य यौ मंत्रिणौ । आभ्यामभ्युदयातिरेकरुचिरं राज्यं स्वभर्तुः कृतं, ___ वाहानां निवहाः घटाः करटिनां बद्धाश्च सौधांगणे ॥ २८ ॥ तेन मंत्रिद्वयेनायं, जाने जानूपवर्तिना । वि(*)भुर्भुजद्वयेनेव, सुखमाश्लिष्यति श्रियं ॥ २९ ॥ इतश्च गौरीवरश्वशुरभूधरसंभवोऽयमस्त्यर्बुदः ककुदमद्रिकदंबकस्य । मंदाकिनी घनजटे दधदुत्तमांगे], यः श्यालकः शशिभृतोऽभिनयं करोति ॥ ३० ॥ कचिदिह विहरंती:( * )क्षमाणस्य रामाः, प्रसरति रतिरंतर्मोक्षमाकांक्षतोऽपि । कचन मुनिभिरर्थ्यां पश्यतस्तीर्थवीथीं, भवति भवविरक्ता धीरधीरात्मनोऽपि ॥ ३१ ॥ श्रेयःश्रेष्ठवशिष्ठहोमहुतभुक्कुंडान्मृतंडात्मज प्रद्योताधिकदेहदीधितिभ(*)रः कोऽप्याविरासीन्नरः । तं मत्वा परमारणैकरसिकं स व्याजहार श्रुतेराधारः परमार इत्यजनि तन्नामाऽथ तस्यान्वयः ॥ ३२ ॥ श्रीधूमराजः प्रथमं बभूव, भूवासवस्तत्र नरेंद्रवंशे । भूमिभृतो यः कृतवानभिज्ञान , पक्षद्वयोच्छे(*)दनवेदनासु ॥३३॥ धंधुक-ध्रुव-भटादयस्ततस्ते रिपुद्विपघटाजितोऽभवन् । यत्कुलेऽजनि पुमान् मनोरमो, रामदेव इति कामदेवजित् ॥ ३४॥ रोदःकंदरवर्तिकीर्तिलहरीलिप्तामृतांशुद्युते रप्रद्युम्नक्शो यशोधवल इ(*)त्यासीत्तनूजस्ततः । यश्चौलुक्यकुमारपालनृपतिप्रत्यर्थितामागतं, ___ मत्वा सत्वरमेव मालवपतिं ब(व)ल्लालमालब्धवान् शत्रुश्रेणीगलविदलनोन्निद्रनिस्त्रिंशधारो, . धारावर्षः समजनि सुतस्तस्य विश्वप्रकाश्यः । क्रोधाक्रांतप्र(*)धनवसुधानिश्चले यत्र जाता योतन्नेत्रोत्पलजलकणाः कोंकणाधीशपत्न्यः सोऽयं पुनर्दाशरथिः पृथिव्यामव्याहतौजाः स्फुटमुज्जगाम । मारीचवैरादिव योऽधुनाऽपि, []गव्यमव्यग्रमतिः करोति ॥३५॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ इतश्च श्री अर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । सामं (*)तसिंहसमिति क्षितिविक्षतौजाः, श्रीगूर्जर क्षितिपरक्षणदक्षिणासिः । प्रह्लादनस्तदनुजो दनुजोत्तमारिचारित्रमत्र पुनरुज्ज्वलयांचकार देवी सरोजासनसंभवा किं ?, कामप्रदा किं सुरसौरभेयी ! । प्रह्लादनाकारधरा(*)धरायामायातवत्येष न निश्चयो मे धारावर्षसुतोऽयं, जयति श्रीसोम सिंहदेवो यः । पितृतः शौर्यं विद्यां पितृव्यकाद्दानमुभयतो जगृहे मुक्त्वा विप्रकरानरातिनिकरान्निर्जित्य तत्किंचन, प्रापत् संप्रति सोम (*) सिंहनृपतिः सोमप्रकाशं यशः । येनोर्बीतलमुज्ज्वलं रचयताऽप्युत्ताम्यतामीर्ष्यया, सर्वेषामिह विद्विषां नहि मुखान्मालिन्यमुन्मूलितं वसुदेवस्येव सुतः, श्रीकृष्णः कृष्णराजदेवोऽस्य । मात्राधिकप्रतापो, यशोद ( * ) यासंश्रितो जयति अन्वयेन विनयेन विद्यया, विक्रमेण सुकृतक्रमेण च । कापि कोऽपि न पुमानुपैति मे, वस्तुपालसदृशो दृशोः पथि देयिता ललितादेवी, तनयमवीतनयमाप सचिवेंद्रात् । नाना जयंत (*) सिंह, जयंतमिंद्रात् पुलोमपुत्रीव यः शैशवे विनयवैरिणि बोधवंध्ये, धत्ते नयं च विनयं च गुणोदयं च । सोऽयं मनोभवपराभवजागरूक यच्चाणक्या-ऽमरगुरु-मरुद्व्याधि-शुक्रादिकानां प्रागुत्पादं व्यधित भुवने ( * ) मंत्रिणां बुद्धिधानां । चक्रेऽभ्यासः स खलु विधिना नूनमेनं विधातुं, तेजःपालः कथमितरथाऽऽधिक्यमापैष तेषु ! [ नवमं 11 32 11 ॥ ३९॥ रूपो न कं मनसि चुंबति जैत्रसिंह : ? श्रीवस्तुपालपुत्रः, कल्पायुरयं जयं (*)तसिंहोऽस्तु । कामादधिकं रूपं निरूप्यते यस्य दानं च ॥ ४६ ॥ से श्रीतेजःपालः, सचिवश्चिरकालमस्तु तेजस्वी । येन जना निश्चिताश्चिंतामणिनेव नंदंति ॥ ४७ ॥ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ 11 82 11 १ पद्यमिदं प्राचीन जैनलेखसंग्रह २ भागगत ३८ संख्यगिरिनारसत्कशिलालेखे नवमं सोमेश्वरदेवकृतिरूपेणैव निर्दिष्टं वर्त्तते ॥ २ पद्यमिदं प्राचीनजैन लेखसंग्रह २ भागगत ३८ संख्यगिरिनारसत्क १०१ संख्यार्बुदाचलप्रशस्त्योः क्रमशः षष्ठं प्रथमं च सोमेश्वरदेवकृतितया निर्दिष्टं वर्तते ॥ ॥ ४५ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्री अर्बुदाचलो परिस्थिताः प्रशस्तयः । अस्ति स्वस्तिनिकेतनं तनुभृतां श्रीवस्तुपालानुजस्तेजःपाल इति स्थिति बलिकृतामुर्डीतले पालयन् । आत्मीयं ब(*)हुमन्यते न हि गुणग्रामं च कामंदकि चाणक्योऽपि चमत्करोति न हृदि प्रेक्षास्पदं प्रेक्ष्य यम् इतश्च महं० श्रीतेजःपालस्य पत्न्याः श्रीअनुपमदेव्याः पितृवंशवर्णनम् ॥ प्राग्वाटान्वय मंडनैकमुकुटः श्रीसांद्रचंद्रावती वास्तव्यः स्त(*)वनीयकीर्तिलहरिप्रक्षालितक्ष्मातलः । श्रीगागाभिधया सुधीरजनि यद्वृत्तानुरागादभूत्, को नाप्तप्रमदो न दोलितशिरा नोद्भूतरोमा पुमान् ! अनुसृतसज्जनसरणिर्धरणिगनामा बभूव तत्तनयः । स्वप्रभुहृदये (*) गुणिना, हारेणेव स्थितं येन त्रिभुवनदेवी तस्य, त्रिभुवनविख्यातशीलसंपन्ना । दयिताऽभूदनयोः पुनरंगं द्वेधा मनस्त्वेकम् अनुपमदेवी देवी, साक्षाद्दाक्षायणीव शीलेन । तद्दुहिता सहिता श्रीतेजःपालेन (*) पत्याऽभूत् इयमनुपमदेवी दिव्यवृत्तप्रसूनत्रततिरजनि तेजःपालमंत्री पत्नी । नय-विनय- विवेकौचित्य-दाक्षिण्य-दानप्रमुखगुणगणें दुद्योतिताशेषगोत्रा लावण्यसिंहस्तनयस्तयोरयं, रयं जयन्निं () [द्रि ] यदुष्टवाजिनाम् । लब्ध्वापि मीनध्वजमंगलं वयः, प्रयाति धर्मैकविधायिनाऽध्वना श्री तेजपालतनयस्य गुणानमुष्य, श्रीलूणसिंह कृतिनः कति न स्तुवंति ? । श्रीबंधनोद्धुरतरैरपि यैः समंतादुद्दामता त्रिजगति क्रि ( * ) यते स्म कीर्तेः गुण-धननिधानकलशः, प्रकटोऽयमवेष्टितश्च खलसपैः । उपचयमयते सततं, सुजनैरुपजीव्यमानोऽपि मल्लदेव सचिवस्य नंदनः, पूर्णसिंह इति लीलुकासुतः । तस्य नंदतिसुतोऽयमह्नणा ( * ) देविभूः सुकृतवेश्म पेथड : अभूदनुपमा पत्नी, तेजःपालस्य मंत्रिणः । लावण्य सिंहनामाऽयमायुष्मानेतयोः सुतः तेजःपालेन पुण्यार्थं, तयोः पुत्र-कलत्रयोः । हर्म्यं श्रीनेमिनाथस्य, तेने तेनेदमर्बुदे तेजःपाल इति क्षितीं सचिवः शंखोज्ज्वलाभिः शिला श्रेणीभिः स्फुरदिंदुकुंदरुचिरं नेमिप्रभोर्मंदिरम् । उच्चैर्मंडपमग्रतो जिन[वरा ]वासद्विपंचाशतं, तत्पार्श्वेषु बलानकं च पुरतो निष्पादयामासिवान् ६३ ॥ ४९ ॥ ॥ ५० ॥ ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ॥ ५३ ॥ ॥ ५४ ॥ ॥ ५५ ॥ ॥ ५६ ॥ ॥ ५७ ॥ ॥ ५८ ॥ ॥ ५९ ॥ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अर्बुदाचलो परिस्थिताः प्रशस्तयः । श्रीमच्चंड [प] संभवः [सम ] भवच्चंड प्रसादस्ततः, सोमस्तत्प्रभवोऽश्वराज इति तत्पुत्राः पवित्राशयाः । श्रीमणिग-मल्लदेवसचिव श्रीवस्तुपालाहया स्तेजः पालसमन्विता जिनमतारामोन्नमन्नीरदाः श्रीमंत्रीश्वरवस्तुपालतनयः श्रीजै ( * )त्र सिंहाह्वयस्तेजःपालसुतश्च विश्रुतमतिर्लावण्यसिंहाभिधः । एतेषां दश मूर्तयः करिवधूस्कंधाधिरूढाश्चिरं, राजते निदर्शनार्थमयतां दिग्मायकानामिव मूर्तीनामिह पृष्ठतः करिव धूपृष्ठप्रतिष्ठाजुषां, तन्मूर्तिर्विम (*)लाश्मखत्तकगताः कांतासमेता दश । चौलुक्यक्षितिपालवीरधवलस्याद्वैतबंधुः सुधी स्तेजःपाल इति व्यधापयदयं श्रीवस्तुपालानुजः तेजःपालः सकलप्रजोपजीव्यस्य वस्तुपालस्य । सविधे विभाति सफलः, ( * ) सरोवरस्येव सहकारः तेन भ्रातृयुगेन या प्रतिपुर- ग्रामा-ऽध्व-शैलस्थलं, वापी - कूप निपान-कानन- सरः - प्रासाद - सत्रादिका । धर्मस्थानपरंपरा नवतरा चक्रेऽथ जीर्णोद्धृता, तत्संख्याऽपि न बुध्यते यदि परं तद्वेदि ( * ) नी मेदिनी शंभोः श्वासगतागतानि गणयेद् यः सन्मतिर्योऽथवा, नेत्रोन्मीलनमीलनानि कलयेन्मार्कंडनाम्नो मुनेः । संख्यातुं सचिवद्वयीविरचितामेतामपेतापर व्यापारः सुकृतानुकीर्तनततिं सोऽप्युज्जिहीते यदि ( * ) सर्वत्र वर्ततां कीर्तिरश्वराजस्य शाश्वती । सुकर्तुमुपकर्तुं च जानीते यस्य संततिः आसीच्चंडपमंडितान्वयगुरुन्नगेंद्र गच्छश्रिय ६४ चूडारत्नमयत्नसिद्धमहिमा सूरिर्महेंद्राभिधः । तस्माद्विस्मयनीयचारुचरितः श्रीशांति ( * ) [ सूरिस्त ] तोप्यानंदा-मर रियुग्ममुदयचन्द्रार्कदीमयुति श्री जैनशासनवनीनवनीरवाहः, श्रीमांस्ततोऽप्यघहरो हरिभद्रसूरिः । विद्यामदोन्मदगदेष्वनवद्यवैद्यः ख्यातस्ततो विजयसेनमुनीश्वरोऽयम् " गुरो [स्त ] ( * ) स्था[शि ] षां पात्रं, सूरिरस्त्युदयप्रभः । मौक्तिकानीव सूक्तानि, भांति यत्प्रतिभांबुधेः [ नवमं ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ॥ ६५ ॥ ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ ॥ ६९ ॥ ॥ ७० ॥ ॥ ७१ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । एतद्धर्मस्थानं, धर्मस्थानस्य चास्य यः कर्ता । तावद् द्वयमिदमुदियादुदयत्ययमबुंदो यावत् ॥ ७२ ॥ श्रीसोमेश्वरदेवथुलुक्यनरदेवसेवितांहि(*)युगः । रचयांचकार रुचिरां, धर्मस्थानप्रशस्तिमिमाम् ॥ ७३ ॥ श्रीनेमेरम्बिकायाश्च, प्रसादादर्बुदाचले । वस्तुपालान्वयस्यास्तु, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनी ॥७४ ॥ सूत्र० केल्हणसुतधांधलपुत्रेण चंडेश्वरेण प्रशस्तिरियमुत्कीर्णा । (*) श्रीविक्रम [ संवत् १२८७ वर्षे ] फाल्गुण वदि ३ रवौ श्रीनागेंद्रगच्छे श्रीविजयसेनमूरिभिः प्रतिष्ठा कृता ।। (६५) ॥ र्द ॥ ॐ नमः [ सर्वज्ञाय ॥ संव] त् १२८७ वर्षे लौकिकफाल्गुनवदि ३ रवौ अद्येह श्रीमदणहिलपाटके चौलुक्यकुलकमलराजहंससमस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराजश्रीभ[ीमदेव ]. (*) विजयराज्ये त.......................... श्रीवसिष्ट(ष्ठ) कुंडयजनानलोद्भूतश्रीमद्भूमराजदेवकुलोत्पन्नमहामंडलेश्वरराजकुलश्रीसोमसिंहदेवविजयिराज्ये तस्यैव महाराजाधिराजश्रीभीमदेवस्य प्रसा [दात् गूर्ज ] (*) रत्रामंडले श्रीचौलुक्यकुलोत्पन्नमहामंडलेश्वरराणकश्रीलवणप्रसाददेवसुतमहामंडलेश्वरराणकश्रीवीरधवलदेवसत्कसमस्तमुद्राव्यापारिणा श्रीमदणहिलपुरवास्तव्यश्रीप्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीचंड[पसुत ठ० श्री] (*)चंडप्रसादात्मज महं० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआसराजभार्या ठ० श्रीकुमारदेव्योः पुत्र महं० श्रीमल्लदेव संघपति महं० श्रीवस्तुपालयोरनुजसहोदरातृ महं० श्रीतेजःपालेन स्वकीयभार्या महं० श्रीअनुपमदेव्यास्तत्कुक्षि [संभूतप ] (*) वित्रपुत्र महं० श्रीलूणसिंहस्य च पुण्ययशोऽभिवृद्धये श्रीमदर्बुदाचलोपरि देउलवाडाग्रामे समस्तदेवकुलिकालंकृतं विशालहस्तिशालोपशोभितं श्रीलूणसिंहवसहिकाभिधानश्रीनेमिनाथदेवचैत्यमिदं कारितं ॥ छ । (*) प्रतिष्ठितं. श्रीनागेंद्रगच्छे श्रीमहेंद्रमूरिसंताने श्रीशांतिसूरिशिष्यश्रीआणंदमूरि-श्रीअमरचंद्रसूरिपट्टालंकरणप्रभुश्रीहरिभद्रसूरिशिष्यैः श्रीविजयसेनमूरिभिः ॥ छ । अत्र च धर्मस्थाने कृतश्रावकगोष्टि(ष्ठि)कानां नामा(*)नि यथा ॥ महं० श्रीमल्लदेव महं० श्रीवस्तुपाल महं० श्रीतेजःपालप्रभृतिभ्रातृत्रयसंतानपरंपरया तथा महं० श्रीलूणसिंहसत्कमातृकुलपक्षे श्रीचंद्रावतीवास्तव्यप्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीसावदेवसुत ठ० श्रीशालिगतनुज ठ० (*) श्रीसागरतनय ठ० श्रीगागापुत्र ठ० श्रीधरणिगभ्रातृ महं० श्रीराणिग महं० श्रीलीला तथा ठ० श्रीधरणिगभार्या ठ० श्रीतिहुणदेविकुक्षिसंभूत महं० श्रीअनुपमदेवीसहोदरभ्रातृ ठ० श्रीखीम्बसीह ठ० श्रीआम्बसींह ठ० श्रीऊदल (*) तथा महं० श्रीलीलासुत महं० श्रीलूणसीह तथा भ्रातृ ठ० जगसीह ठ० रत्नसिंहानां समस्तकुटुंबेन एतदीयसंतानपरंपरया च एतस्मिन् धर्मस्थाने सकलमपि स्नपनपूजासारादिकं सदैव करणीयं निर्वाहणीयं च ॥ तथा ॥ (*) श्रीचंद्रावत्याः सत्कसमस्तमहाजनसकल अ. ९ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । [ नवम जिनचैत्यगोष्टि(ष्ठि)कप्रभृतिश्रावकसमुदायः ॥ तथा उवरणी-कीसरउलीग्रामीयप्राग्वाट ज्ञा० श्रे० रासल उ० आसधर तथा ज्ञा० माणिभद्र उ० श्रे० आल्हण तथा ज्ञा० श्रे० देल्हण उ० खीम्बसी(*)ह धर्कटज्ञातीय श्रे० नेहा उ० साल्हा तथा ज्ञा० धउलिग उ० आसचंद्र तथा ज्ञा० श्रे० वहुदेव उ० सोम प्राग्वाटज्ञा० श्रे० सावड उ० श्रीपाल तथा ज्ञा० श्रे० जींदा उ० पाल्हण धर्कटज्ञा० श्रे० पासु उ० सादा प्राग्वाटज्ञातीय पूना उ० सा(*)ल्हा तथा श्रीमालज्ञा० पूना उ० साल्हाप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिः श्रीनेमिनाथदेवप्रतिष्टा(ष्ठा )वर्षग्रंथियात्राष्टाहिकायां देवकीय चैत्रवदि ३ तृतीयादिने स्नपनपूजाद्युत्सवः कार्यः ॥ तथा कासइदग्रामीय ऊएसवालज्ञा(*)तीय श्रे० सोहि उ० पाल्हण तथा ज्ञा० श्रे० सलखण उ० वालण प्राग्वाटज्ञा० श्रे० सांतुय उ० देल्हुय तथा ज्ञा० श्रे० गोसल उ० आल्हा तथा ज्ञा० श्रे० कोला उ० आम्बा तथा ज्ञा० श्रे० पासचंद्र उ० पूनचंद्र तथा ज्ञा० श्रे० जसवीर उ० ज(*)गा तथा ज्ञा० ब्रह्मदेव उ० राल्हा श्रीमालज्ञा० कयडुरा उ० कुलधरप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा ४ चतुर्थीदिने श्रीनेमिनाथदेवस्य द्वितीयाष्टाहिकामहोत्सवः कार्यः ॥ तथा ब्रह्माणवास्तव्यप्राग्वाटज्ञातीय महाजनि० (*) आंमिग उ० पूनड ऊएसवालज्ञा० महा० धांधा उ० सागर तथा ज्ञा० महा० साटा उ० वरदेव प्राग्वाटज्ञा० महा० पाल्हण उ० उदयपाल ओइसवालज्ञा० महा० आवोधन उ० जगसीह श्रीमालज्ञा० महा० वीसल उ० पासदेव प्रा(*)ग्वाटज्ञा० महा० वीरदेव उ० अरसीह तथा ज्ञा० श्रे० धणचंद्र उ० रामचंद्रप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा ५ पंचमीदिने श्रीनेमिनाथदेवस्य तृतीयाष्टाहिकामहोत्सवः कार्यः ॥ तथा धउलीग्रामीय प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० सा(*)जण उ० पासवीर तथा ज्ञा० श्रे० वोहडि उ० पूना तथा ज्ञा० श्रे० जसडुय उ० जेगण तथा ज्ञातीय श्रे० साजन उ० भोला तथा ज्ञा० पासिल उ० पूनुय तथा ज्ञा० श्रे० राजुय उ० सावदेव तथा ज्ञा० दृगसरण उ० साहणीय ओइसवाल(*)ज्ञा० श्रे० सलखण उ० महं० जोगा तथा ज्ञा० श्रे[0] देवकुंयार उ० आसदेवप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा ६ षष्ठीदिने श्रीनेमिनाथदेवस्य चतुर्थाष्टाहिकामहोत्सवः कार्यः ॥ तथा मुंडस्थलमहातीर्थवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय (*) श्रे० सं० धीरण उ० गुणचंद्र पाल्हा तथा श्रे० सोहिय उ० आश्वेसर तथा श्रे० जेजा उ० खांखण तथा फीलिणीग्रामवास्तव्य श्रीमालज्ञा० वापल-गाजणप्रमुखगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा ७ सप्तमीदिने श्रीनेमिनाथदेवस्य पंचमाष्टाहिकाम(*)होत्सवः कार्यः ॥ तथा हंडाउद्रग्राम-डवाणीग्रामवास्तव्य श्रीमालज्ञातीय श्रे० आम्बुय उ० जसरा तथा ज्ञा० श्रे[ 0] लखमण उ० आसू तथा ज्ञा० श्रे० आसल उ० जगदेव तथा ज्ञा० श्रे० सूमिग उ० धणदेव तथा ज्ञा० श्रे० जिणदेव उ० जाला(*) प्राग्वाटज्ञा० श्रे० आसल उ० सादा श्रीमाल ज्ञा० श्रे० देदा उ० वीसल तथा ज्ञा० श्रे० आसधर उ० आसल तथा ज्ञा० श्रे० थिरदेव उ० वीरुय तथा ज्ञा० श्रे० गुणचंद्र उ० देवधर तथा ज्ञा० श्रे० हरिया उ० हेमा प्राग्वाटज्ञा० श्रे० लखमण(*) उ० कडयाप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा ८ अष्टमीदिने श्रीनेमिनाथदेवषष्ठाष्टाहिकामहोत्सवः कार्यः ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । तथा [म]डाहडवास्तव्यप्राग्वाटज्ञातीय श्रे० देसल उ० ब्रह्मसरणु तथा ज्ञा० जसकर उ० श्रे० धणिया तथा ज्ञा[०] श्रे० (*) देल्हण उ० आल्हा तथा ज्ञा० श्रे० वाला उ० पद्मसिह तथा ज्ञा० श्रे० आंवुय उ० बोहडि तथा ज्ञा० श्रे० वोसरि उ० पूनदेव तथा ज्ञा[0] श्रे० वीरुय उ० साजण तथा ज्ञा० श्रे० पाहुय उ० जिणदेवप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा ९ नवमीदिने (*) श्रीनेमिनाथदेवस्य सप्तमाष्टाहिकामहोत्सवः कार्यः । तथा साहिलवाडावास्तव्य ओइसवालज्ञातीय श्रे० देल्हा उ० आल्हण श्रे० नागदेव उ० आम्बदेव श्रे० काल्हण उ० आसल श्रे० वोहिथ उ० लाखण श्रे० जसदेव उ० वाहड श्रे० (*) सीलण उ० देल्हण श्रे० वहुदा श्रे० महधरा उ० धणपाल श्रे० पूनिग उ० वाघा श्रे० गोसल उ० वहडाप्रभृतिगोष्टि(ष्ठि)काः । अमीभिस्तथा १० दशमीदिने श्रीनेमिनाथदेवस्य अष्टमाष्टाहिकामहोत्सवः कार्यः ।। तथा श्रीअर्बुदोपरि देउल(*)वाडावास्तव्यसमस्तश्रावकैः श्रीनेमिनाथदेवस्य पंचापि कल्याणिकानि यथादिनं प्रतिवर्ष कर्तव्यानि । एवमियं व्यवस्था श्रीचंद्रावतीपतिराजकुलश्रीसोमसिंहदेवेन तथा तत्पुत्र राज० श्रीकान्हडदेवप्रमुखकुमरैः समस्तराजलोकैस्त(*)था श्रीचंद्रावतीयस्थानपतिभट्टारकप्रभृतिकविलास तथा गूगलीब्राह्मणसमस्तमहाजनगोष्टि(ष्ठि)कैश्च तथा अर्बुदाचलोपरि श्रीअचलेश्वर श्रीवसिष्ठ तथा संनिहितग्रामदेउलवाडाग्राम-श्रीश्रीमातामहबुग्राम-आबुयग्रामओरासाग्राम-उत्तरछग्राम-सिहरग्राम-सालग्राम-हेठउंजीग्राम-आखीग्राम--श्रीधांधलेश्वरदेवीयकोटडीप्रभृतिद्वादशग्रामेषु संतिष्ट(ष्ठ)मानस्थानपतितपोधन-गूगुलीब्राह्मण-राठियप्रभृतिसमस्तलोकैस्तथा भालि-भाडाप्रभृतिग्रामेषु संतिष्ट(ठ)मानश्रीप्रतीहा(* )रवंशीयसर्वराजपुत्रैश्च आत्मीयात्मीयस्वेच्छया श्रीनेमिनाथदेवस्य मंडपे समुपविश्योपविश्य महं० श्रीतेजःपालपार्थात् स्वीयस्वीयप्रमोदपूर्वकं श्रीलूणसीहवसहिकाभिधानस्यास्य धर्मस्थानस्य सर्वोऽपि रक्षाभारः स्वीकृतः । तदेतदा(*) स्मीयवचनं प्रमाणीकुर्वभि(द्भि)रेतैः सर्वैरपि तथा एतदीयसंतानपरंपरया च धर्मस्थानमिदमाचंद्रार्क यावत् परिरक्षणीयम् ॥ यतः किमिह कपाल-कमंडलु-वल्कल-सितरक्तपट-जटापटलैः । व्रतमिदमुज्वलमुन्नतमनसां प्रतिपन्ननिर्वहणं ॥ १॥ छ । (*) तथा महाराजकुलश्रीसोमसिंहदेवेन अस्यां श्रीलूणसिंहवसहिकायां श्रीनेमिनाथदेवाय पूजागभोगार्थ वाहिरहयां डवाणीग्रामः शासनेन प्रदत्तः ॥ स च श्रीसोमसिंहदेवाभ्यर्थनया प्रमारान्वयिभिराचंद्रा यावत् प्रतिपाल्यः ॥ * ॥ (*) सिद्धक्षेत्रमिति प्रसिद्धमहिमा श्रीपुंडरीको गिरिः, श्रीमान् रैवतकोऽपि विश्वविदितः क्षेत्रं विमुक्तेरिति । नूनं क्षेत्रमिदं द्वयोरपि तयोः श्रीअर्बुदस्तत्प्रभू , भेजाते कथमन्यथा सममिमं श्रीआदि-नेमी स्वयम् ? ॥२ ॥ संसारसर्वस्वमिहैव मुक्तिसर्वस्वमप्यत्र जिनेशदृष्टं । विलोक्यमाने भवने तवास्मिन् , पूर्व परं च त्वयि दृष्टिपांथे ॥३॥ श्रीकृष्णर्षीयश्रीनयचंद्रसूरेरिमे ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ . श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । [ नवम सं० सरवणपुत्र सं० सिंहराज साधू साजण सं० सहसा-साइदेपुत्री सुनथव प्रणमति ॥ शुभम् ॥ (६६) (१) ॥ॐ ॥ स्वस्ति ।। सं० १२९६ वर्षे वैशाख शुदि ३ श्रीश@जयम(२) हातीर्थे महामात्यश्रीतेजपालेन कारितनंदीसरवर(३) पश्चिममण्डपे श्रीआदिनाथबिंबं देवकुलिका दंड-क(४) लसादिसहिता । तथा इहैव तीर्थे महं [0] श्रीवस्तुपालका(५) रितश्रीसत्यपुरीयश्रीमहावीरबिंबं खत्तकं च । इहि( है )व (६) तीर्थे शैलमयबिंब द्वितीयदेवकुलिकामध्ये खत्तक(७) द्वय श्रीऋषभादिचतुर्विंशतिका च । तथा गूढमण्डपपूर्वद्वा(८) रमध्ये खत्तकं मूर्तियुग्मं तदुपरे श्रीआदिनाथबिंबं श्री(९) उज(ज)यंते श्रीनेमिनाथपादुकामंडपे श्रीनेमिनाथर्वि(१०) बं खत्तकं च । इहैव तीर्थे महं [0] श्रीवस्तुपालकारितश्री(११) आदिनाथस्याग्रत(तो) मंडपे श्रीनेमिनाथबिंबं खत्तकं च । (१२) श्रीअर्बुदाचले श्रीनेमिनाथचैत्यजगत्यां देवकुलि(१३) काद्वयं षट्बिंबसहितानि ॥ श्रीजावालिपुरे श्रीपा(१४) र्श्वनाथचैत्य जगत्यां श्रीआदिनाथबिंब देवकुलिका (१५) च । श्रीतारणगढे श्रीअजितनाथगूढमंडपे श्रीआ(१६) दिनाथबिंबं खत्तकं च ॥ श्रीअणहिल्लपुरे हथीयावापी(१७) प्रत्यासन्न श्रीसुविधिनाथबिंबं तच्चैत्यजीर्णोद्धारं च ॥ (१८) वीजापुरे देवकुलिकाद्वयं श्रीनेमिनाथबिंबं श्रीपा(१९) र्श्वनाथबिंबं च । श्रीमूलप्रासादे कवलीखत्तकद्वये (२०) श्रीआदिनाथ श्रीमुनिसुव्रतस्वामिबिंबं च ॥ लाटाप(२१) ल्यां श्रीकुमरविहारजीर्णोद्धारे श्रीपार्श्वनाथस्याग्र(२२) त(तो) मंडपे श्रीपार्श्वनाथविध खत्तकं च । श्रीप्रह्लादनपु(२३) रे पाल्हविहारे श्रीचंद्रप्रभस्वामिमंडपे खत्तक(२४) द्वयं च । इहैव जगत्यां श्रीनेमिनाथस्याग्रत(तो) मंडपे (२५) श्रीमहावीरबिंबं च । एतत् सर्वं कारितमस्ति ॥ श्रीनाग(२६) पुरीयवरहुडीया साहु नेमडसुत सा० राहड । (२७) सा० जयदेव भ्रा० सा० सहदेव तत्पुत्र संघ० सा० (२८) खेटा भ्रा० गोसल सा० जयदेव सुत सा० वीरदे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । (२९) व देवकुमार हालूय सा० राहड सुत सा० जिणचंद्र (३०) धणेश्वर अभयकुमार लघुभ्रातृ सा० लाहडेन (३१) निजकुटुंबसमुदायेन इदं कारितं । प्रतिष्ठितं (३२) श्रीनागेंद्रगच्छे श्रीमदाचार्यविजयसेनसूरिभिः ॥ (३३) श्रीजावालिपुरे श्रीसौवर्णगिरौ श्रीपार्श्वनाथजगत्यां (३४) अष्टापदमध्ये खत्तकद्वयं च ॥ लाटापल्यां श्रीकुमारवि(३५) हारजगत्यां श्रीअजितस्वामिबिंब देवकुलि(३६) का दंड-कलससहिता । इहैव चैत्ये जि(३७) नयुगलं श्रीशांतिनाथ श्रीअजितस्वामि । (३८) एतत् सर्व कारावि(पि)तं । (३९) श्रीअणहिल्लपुरप्रत्यासन्न चारोपे (४०) श्रीआदिनाथबिंबं प्रासादं गूढमंड(४१) पंछ चउकिया सहितं सा० राहड(४२) सुत सा० जिणचंद्र भार्या सा० चाहि(४३) णिकुक्षिसंभूतेन संघ सा० दे(४४) वचंद्रेण पिता माता आत्मश्रेयो(४५) थै कारापितं ॥ छ । (६७) र्द० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे श्रीमत्पत्तनवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं० श्रीआसरासुतश्रीमालदेव महं० (*) श्रीवस्तुपालयोरनुज महं० श्रीतेजपालेन महं० श्रीवस्तुपालभार्यायाः महं० श्रीसोखुकायाः पुण्यार्थं श्रीसुपार्श्वजिनालंकृता देवकुलिकेयं कारिता ॥ छ ॥ छ । (६८) द० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे श्रीपत्तनवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं० श्रीआसरासुतश्री(*)मालदेव महं० श्रीवस्तपालयोरनुज महं० श्रीतेजपालेन महं० श्रीवस्तपालभार्याललतादेविश्रेयोऽथ देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ छ । (६९) र्द० ॥ संवत् १२८८ वर्षे श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं० श्रीआसरांगज महं० श्रीवस्तपालसुत महं० श्रीजयतसीहश्रेयोऽर्थं (*) महं० श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ र्द० [॥] श्रीसुवधिनाथस्य कल्या० फाल्गुन वदि ९ च्यवन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्री अर्बुदाचलो परिस्थिताः प्रशस्तयः । ( ७० ) ६० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं० श्रीआसरांग‍ महं[0] श्री तेजपालेन श्रीजयतसीहभार्याजयतलदेवि [* ] श्रेयोऽर्थं देवकुलिका कारिता ॥ [ नवमं (७१) ६० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं[0] श्रीआसरांगज महं० श्री तेजपालेन श्रीजयत सीह भार्या सुहव देवि ( * ) श्रेयोऽर्थं देवकुलिक कारिता ॥ ( ७२ ) ६० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं० श्री आसरान्वयसमुद्भव महं० श्रीतेजपालेन महं० श्रीजयतसी ( * )हभार्या महं० श्रीरूपादेविश्रेयोऽर्थं देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ (७३) ६० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोम महं० श्रीआसरान्वये महं० श्रीमालदेवसुताश्री सहजलश्रेयोऽर्थं महं० श्रीतेजपालेन दे ( * ) वकुलिका कारिता ॥ छ ॥ ( ७४ ) र्द० ० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोम महं० श्रीआसरान्वये महं० श्रीमालदेवसुताबाई श्रीसदमल श्रेयो ( * ) ऽर्थं महं० श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ (७५) ६० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोम महं० श्रीआसरान्वये महं० श्रीमालदेवसुत महं श्रीपुंनसीहीयभा ( * )र्या महं० श्रीआल्हण - देवि श्रेयोऽर्थं महं० श्री तेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ ( ७६ ) ६० ० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीआसरासुत महं० श्रीमालदेवीयभार्या महं० श्रीपातूश्रेयोऽर्थं महं० श्रीतेजपालेन देवकुलि ( * ) का कारिता ॥ (७७) ६० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीआसरासुत महं० श्रीमालदेवीयभार्या महं० श्रीलीलूश्रेयोऽर्थ महं० श्री ( * )तेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । (७८) द० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटवंशीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोम महं० श्रीआसरा महं० श्रीमालदेवान्वये महं० श्रीपूनसीहसुत महं० श्रीपेथडश्रेयोऽर्थ महं. श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ (७९) द०॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटवंशीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीमालदेवसुत महं० श्रीपुंनसीहश्रेयोऽर्थं महं० श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ । छ । (८०) द०॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटवंशीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीआसरासुत महं० श्रीमालदेवश्रेयोऽर्थे तत्सोदरलघुभ्रातृ महं० श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ । (८१) र्द० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२८८ वर्षे प्राग्वाटवंशीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोम महं० श्रीआसरा महं० श्रीमालदेवान्वये महं० श्रीपुंनसीहसुताबाईश्रीवलालदेविश्रेयोऽर्थ महं० श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ । (८७) संवत् १२९० वर्षे प्राग्वाटवंशीय महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीतेजपालसुत महं० लूणसीहभारियणादेविश्रेयोऽ(*)थं महं० श्रीतेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ (८८) द० ॥ संवत् १२९० वर्षे महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीतेजपालसुत महं० श्रीलूणसीहभार्या महं० श्रीलषमादेविश्रेयोऽर्थ महं० तेजपालेन देवकुलिका कारिता ॥ द० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२९० वर्षे श्रीपत्तनवास्तव्य प्राग्वाटवंशीय महं० श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीआसरासुत महं० श्रीमालदेवभ्रातृ महं० श्री(*).. वस्तपालयोरनुज महं० श्रीतेजपालेन स्वकीयभार्या महं० श्रीअनुपमदेविश्रेयोऽर्थ देवश्रीमनिसुवतदेवस्य देवकुलिका कारिता ॥ छ । श्रीनृपविक्रमसंवत् १२९० वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय महं० श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम महं० श्रीआसरान्वयसमुद्भव महं० श्रीतेजपालेन स्वसुताबलदेविश्रेयोऽर्थं देवकुलिका कारिता ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अर्बुदाचलो परिस्थिताः प्रशस्तयः । ( ९१ ) संवत् १२९० वर्षे प्राग्वाटज्ञातीय महं० श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद श्रीसोम श्रीआसरा - न्वयसमुद्भूत महं० श्रीतेजपालेन स्वसुतश्रीलूण सीहसुताग उरदेवि श्रेयोऽर्थं देवकुलिका कारिता ॥ छ ॥ ( ९४ ) ॥ ६० ॥ स्वस्ति श्रीविक्रमनृपात् सं० १२९३ वर्षे चैत्र वदि ८ शुक्रे अद्येह श्रीअर्बुदाचलतीर्थे स्वयंकारितश्रीलूण सीहवसहिकाख्यश्री नेमिनाथदेवचैत्ये जगत्यां श्रीप्राग्वाटज्ञातीय ठ० चंडप ठ० श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये श्रीआसराज भार्याश्रीकुमारदेव्योः सुत महं० श्रीमालदेवसंघ पतिश्रीवस्तुपालयोरनुज महं० श्रीतेजः पालेन स्वभगिन्या बाईझालहणदेव्याः श्रेयोऽर्थं विहरमानतीर्थंकरसीमंधरस्वामिप्रतिमालंकृता देवकुलिकेयं कारिता प्रतिष्ठिता श्रीनागेंद्र - गच्छे श्रीविजय सेनसूरिभिः ॥ छ ॥ ७२ ( ९५ ) स्वस्ति श्रीविक्रमनृपात् सं० १२९३ वर्षे चैत्र वदि ८ शुक्रे अद्येह श्री अर्बुदाचलतीर्थे स्वयंकारितश्रीलूणसी हवस हिकाख्यश्रीनेमिनाथदेव चैत्ये जगत्यां श्रीप्राग्वाटज्ञातीय ठ० चंडप ठ० श्रीचंड प्रसाद महं० श्रीसोमान्वये ठ० श्री आसराज भार्या श्रीकुमारदेव्योः सुत महं० श्रीमालदेवसंघपतिश्रीवस्तुपाल योरनुज महं० श्रीतेजःपालेन स्वभगिनीबाईमाउश्रेयोऽर्थं विहरमानतीर्थंकर श्रीयुगंधरस्वा मिजिनप्रतिमालंकृता देवकुलिकेयं कारिता ॥ छ ॥ [ नवमं ( ९६ ) स्वस्ति श्रीविक्रमनृपात् सं० १२९३ वर्षे चैत्र वदि ८ शुक्रे अद्येह श्रीअर्बुदाचलतीर्थे स्वयं कारित श्रीलूणसी हव सहि काख्यश्रीनेमिनाथदेवचैत्ये जगत्यां श्रीप्राग्वाटज्ञातीय ठ० चंडप ठ० श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये ठ० श्रीआसराज भार्याश्रीकुमारदेव्योः सुत महं० श्रीमालदेवसंघपतिश्रीवस्तुपालयोरनुज महं० श्रीतेजपालेन स्वभगिन्या [ : ] साउदेव्या [वी] श्रयोऽर्थ विहरमानतीर्थंकर श्री बाहुजिनालंकृता देवकुलिकेयं कारिता ॥ छ ॥ ( ९७ ) स्वस्ति श्रीविक्रमनृपात् सं० १२९३ वर्षे चैत्र वदि ८ शुक्रे अद्येह श्री अर्बुदाचलतीर्थे स्वयंकारितश्री लूण सीहवस हिकाख्यश्रीनेमिनाथदेवचैत्ये जगत्यां श्रीप्राग्वाटज्ञातीय ठ० चंडप ठ० श्रीचंडप्रसाद महं० श्री सोमान्वये ठ० श्री आसराज - भार्या श्रीकुमारदेव्योः सुत महं० श्रीमाल - देवसंघपति श्रीवस्तुपालयोरनुज महं० श्रीतेजपालेन स्वभगिन्या बाईघणदेवी श्रेयसे विहरमानतीर्थं - श्री [सु] बाहुर्विबालंकृता देवकुलिकेयं कारिता ॥ ( ९८ ) ॥ ६० ॥ स्वस्ति श्रीनृपविक्रमसंवत् १२९३ वर्षे चैत्र वदि ८ शुक्रे अद्येह श्री अर्बुदाचलमहातीर्थे स्वयंकारितश्रीलूण सीहव सहिकाख्यश्रीनेमिनाथदेव ( * ) चैत्यजगत्यां श्रीप्राग्वाटज्ञातीय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीअर्बुदाचलोपरिस्थिताः प्रशस्तयः । ठ० श्रीचंडप ठ० श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये ठ० श्रीआसराज ठ० श्रीकुमारदेव्याः सुत महं० श्रीमालदेव संघप(*)ति महं० श्रीवस्तुपालयोरनुज महं० श्रीतेजःपालेन स्वभगिन्या बाईसोहगायाः श्रेयोऽथ शाश्वतजिनऋषभदेवालंकृता देवकुलिका कारि[ता] ॥ (९९) ॥ र्द० ॥ स्वस्ति श्रीनृपविक्रमस(सं)वत् १२९३ वर्षे चैत्र वदि ८ शुक्रे अद्येह श्रीअर्बुदाचलमहातीर्थे स्वयंकारितश्रीलणसीहवसहिकायां श्रीनेमिनाथदेवचैत्ये जगत्यां(*) ॥ श्रीप्राग्वाटज्ञावी(ती)य ठ० श्रीचंडप ठ० श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये ठ० श्रीआसराज ठ० श्रीकुमारदेव्योः सुत महं० श्रीमालदेव महं० श्रीवस्तुपालयोरनुज महं० (*) श्रीतेजःपालेन स्वभगिन्या बाईवयजुकायाः श्रेयोऽथ श्रीवर्धमानाभिधशाश्वतजिनप्रतिमालंकृता देवकुलिकेयं कारिता ॥ शुभं भवतु ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ (१०२) द० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२९३ वर्षे चैत्र वदि ७ अोह श्रीअर्बुदाचलमहातीर्थे स्वयंकारितश्रीलूणसीहवसहिकाख्यश्रीनेमिनाथदेवचैत्ये जगत्यां महं० श्रीतेजःपालेन(*)मातुलसुत भामा राजपालभणितेन स्वमातुलस्य महं० श्रीपूनपालस्य तथा भार्या महं० श्रीपूनदेव्याश्च श्रेयोऽर्थ अस्यां देवकुलिकायां श्रीचंद्राननदेवप्रतिमा कारिता ॥ (१०३) ० ॥ श्रीनृपविक्रमसंवत् १२९३ चैत्र वदि ७ श्रीअर्बुदाचलमहातीर्थे प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीचंडप ठ० श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये ठ० श्रीआसराजसुत(*) महं० श्रीमालदेव महं० श्रीवस्तुपालयोरनुज महं० श्रीतेजःपालेन स्वभगिन्याः पद्मलायाः श्रेयोऽर्थ श्रीवारिसेणदेवालंकृता देवकुलिकेयं कारिता ॥ (११०) संवत् १२९७ वर्षे वैशाख वदि १४ गुरौ प्राग्वाटज्ञातीय चंडप चंडप्रसाद महं० श्री.... .............सा सुतायाः ठकुराज्ञीसंतोषाकुक्षिसंभूताया महं० श्रौतेजःपालद्वितीयभार्या महं० श्रीसुहडादेव्याः श्रेयोऽथ एतत् त्रिगदेवकुलिकाखत्तकं श्रीशांतिनाथबिंब च कारितं ॥ छ । (१११) संवत् १२९७ वैशाख सुदि १४ गुरौ प्राग्वाटज्ञातीय चंडप चंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये अ० १० Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्री अर्बुदाचलो परिस्थिताः प्रशस्तयः । [ नवमं महं० श्रीआसराजसुत महं० श्रीतेजःपालेन श्रीमत्पत्तनवास्तव्यमोदज्ञातीय ठ० झाल्हण सुत ठ० आसासुताया ठकुराज्ञीसंतोषा कुक्षिसंभूताया महं० श्रीतेजःपालद्वितीयभार्या महं० श्रीसुहडादेव्याः श्रेयो.. (२ ( ३ (8 (५ (६ ( १ हस्तिपृष्ठभागे ) "" (८ (९ 123 "" "" 35 ( प्रथमहस्ती ) ( द्वितीय हस्ती ) ( तृतीयहस्ती ) 36 ( चतुर्थहस्ती ) ( पंचमहस्ती ) ( षष्ठस्ती ) ( सप्तमहस्ती ) 34 ( अष्टमहस्ती ) ( नवमहस्ती ) ( दश महस्ती ) 59 56 54 "" 12 ( ७,,,, ) 56 " > > ) > > > [ महं० [ महं० महं० ( १३१ ) श्रीचंडप । ] श्रीचंडप्रसाद । ] श्रीसोम । महं० श्रीआसराज । [ महं० श्रीलूणिग । ] [ महं० श्रीमल्लदेव । ] [ महं० श्रीवस्तुपाल । ] [ महं० श्रीतेजःपाल । ] [ महं० श्रीजैत्रसिंह । ] [ महं० श्रीलावण्यसिंह | ] १ आचार्यश्री उदयसेन । २ आचार्यश्रीविजयसेन । ३ महं० श्रीचंडप | ४ महं० श्रीचापलदेवी । १ महं० श्रीचंडप्रसाद १ महं० श्रीसोम । २ महं० श्रीसीतादेवी । १ महं० श्रीआसराज । २ महं० श्रीकुमारदेवी । १ महं० श्रीलूणिगदेव । २ महं० श्रीलूणादेवी । २ महं० श्रीवामलदेवी । । १ महं० श्रीमालदेव {३ मह० श्रीप्रतापदेवी । २ महं० श्रीललितादेवी । ३ महं० श्रीवेजलदेवी । १ महं० श्रीवस्तुपाल { १ महं० श्रीतेजःपाल | महं० श्री अनुपमदेवी । १ महं० श्रीजयतसिंह | महं० श्रीजयतलदेवी । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] ( १०,” 33 :) ( १ ) ( २४२ ) सं० १२७८ वर्षे फाल्गुण वदि ११ गुरौ श्रीमत्पत्तनवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय ठ० श्रीचंडेशानुज ठ० मुमाकीयानुज ( ? ) ठ० श्रीआसराजतनुज महं० श्रीमालदेव श्रेयसे सहोदर महं० श्रीवस्तुपालेन श्रीमल्लिनाथदेवखत्तकं कारितमिदमिति । मंगलं महाश्रीः ॥ शुभं भवतु ॥ ( २ ) ( ३ ) तारणदुर्गादिगताः प्रशस्तयः । १ महं० श्रीलावण्यसिंह । २ महं० श्रीरूपादेवी । १ महं० श्रीसुहडसीह । २ महं० श्रीसुहडादेवी । ३ महं० श्री सलखणदेवी । (३) ( ५४३ ) द० ।। स्वस्ति श्रीविक्रमसंवत् १२८५ वर्षे फाल्गुण शुदि २ रवौ । श्रीमदण हिलपुरवास्तव्य प्राग्वाटान्वयप्रसूत ठ० श्रीचंडपात्मज ठ० श्रीचंडप्रसादांगज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशाराजनन्दनेन ठ० कु ( * ) मारदेवीकुक्षिसंभूतेन ठ० श्रीलूणिग महं० श्रीमालदेवयोरनुजेन महं • श्रीतेजःपालाग्रजन्मना महामात्य श्रीवस्तुपालेन आत्मनः पुण्याभिवृद्धये इह श्रीतारंगकपर्वते श्री अजितस्वामिदेवचैत्ये श्रीआदिनाथदेवजिनबिंबालंकृतं खत्तमिदं कारितं । प्रतिष्ठितं श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारक श्रीविजयसेन सूरिभिः ॥ श्रीतारणदुर्गस्थः शिलालेखः । ( ४ ) श्रीशत्रुंजयपद्या (पाज) शिलालेखः । ७५ [ श्रीमदण हिलपत्तन ] वास्तव्य प्राग्वाटान्वय [ प्रसूत ठ० श्रीचंडतनुज ] ठ० श्रीचंडप्रसादां [ गज ठ० श्रीसोमपुत्र ] ठ० श्रीआशाराजनं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ( ४ ) ( ५ ) ( ६ ) तारणदुर्गादिगताः प्रशस्तयः । [ दनेन ठ० श्रीलूणिग ठ० ] श्रीमालदेव संघप [ ति महं० श्रीवस्तुपालानु ]ज महं० श्रीतेजः पाले[न श्रीशत्रुंजयतीर्थे ] संचारपाजा कारिता ॥ ॥ सं० १२८४ वर्षे ॥ (५) अणहिलपत्तनान्तर्गताः शिलालेखाः । ( १ ) विश्वानंदकरः सदा गुरुरुचिर्जीमूतलीलां दधौ, सोमश्चारुपवित्रचित्रविकसद्देवेशधर्मोन्नतिः । चक्रे मार्गणपाणिशुक्तिकुहरे यः स्वातिवृष्टिप्रजै मुक्तिकनिर्मलं शुचि यशो दिक्कामिनिमंडनम् . सोमसचिवः कुंदेंदुशुभ्रैर्गुणै युक्तं .. रिद्धः सिद्धनृपं विमुच्य सुकृती चक्रे न कंचिद्विभुम् । रंगद्भृंगमदप्रदच्छदमदः श्रीसद्म पद्मं किमु, सोल्लासाय विहाय भास्करमहस्तेजोन्तरं वांछति पर्यणैषीदसौ सीतामविश्वामित्रसंगतः । असूत्रितमहाधर्मलाघवो राघवोऽपरः [ नवमं ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ (२) सं० १२८४ वर्षे श्रीमत्पत्तन वास्तव्य प्राग्वाट ठ० श्रीचंडप्रसाद सुत ठ० श्रीसोमः ॥ ( ३ ) सं० १२८४ वर्षे श्रीमत्पत्त *नवास्तव्य प्राग्वाट ठ० श्रीपूनसीह सुत ठ० आल्हणदेवी कुक्षिभूः ठ० पेथडः ॥ ॥ ३ ॥ (8) सं० १३५२ वर्षे कार्त्तिक सु० ११ गुरु सं० पेथड सुत सं महाकेन परघरुसमेत मुरति करावित ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] अर्बुदाचलगतौ अवशिष्टौ शिलालेखौ । अर्बुदाचलगतौ अवशिष्टौ शिलालेखौ ___(१-२५६) द० ॥ सं० १२८७ वर्षे चैत्र वदि ३ शुक्रे महं० श्रीवस्तुपाल महं० श्रीतेजःपालाः ।। न्य [:] पूर्वजपुण्याय अस्मिन्नर्बुदगिरी श्री (२-२६०) नृपविक्रमसंवत् १२८७ वर्षे फाल्गुण सु(व)दि ३ सोमे(रवौ) अबेह श्रीअर्बुदाचले श्रीमदणहिलपुरवास्त० प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचंडप श्रीचंडप्रसाद महं० श्रीसोमान्वये महं० श्रीआसरासुत महं० मालदेव महं० श्रीवस्तुपालयोरनुज भ्रातृ महं० श्रीतेजःपालेन स्वकीयभार्या महं० श्रीअनुपमदेवीकुक्षिसंभूत सुत महं० श्रीणसीहपुण्यार्थं अस्यां श्रीलूणवसहिकायां श्रीनेमिनाथमहातीर्थ कारितं ॥छ ॥ छ । (श्रीजयंतविजयजीसंगृहीत श्रीअर्बुद-प्राचीन-जैन-लेखसंदोह) (७) स्तम्भतीर्थीय-श्रीआदीश्वरमन्दिरगतः शिलालेखः (१) ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ धीराः सत्त्वमुशन्ति यत्रिभुवने................नेति श्रुतं, साहित्योपनिष[ न्नि ](२)षण्णमनसो यत्प्रातिभं मन्वते । सार्वज्ञं च यदामनंति मुनयस्तत्किचिदत्यद्भुतं, ज्योति?तितवि(३)ष्टपं वितनुतां भुक्तिं च मुक्तिं च वः श्रीमद्गुर्जरचक्रवर्तिनगरप्राप्तप्रतिष्ठोऽजनि, प्राग्वाटायर(४)म्यवंश विलसन्मुक्तामणिश्चंडपः । यः संप्राप्य समुद्रतां किल दधौ राजप्रसादोल्लस दिक्कूलंकष(५)कीर्तिशुभ्रलहरिः श्रीमंतमंतर्जिनं अजनि रजनिजानिज्योतिरुद्योतिकीर्तिस्त्रिजगति तनुज(६)न्मा तस्य चंडप्रसादः । नखमणिसखशा[ङ्गः सुंदरः पाणिपद्मः, कमकृत न कृतार्थ यस्य कल्पद्रुकल्पः(७)॥३॥ पत्नी तस्याजायतात्यायताक्षी, मूर्तेव श्रीः [पुण्य ]पात्रं जयश्रीः [1] जज्ञे ताभ्यामग्रिमः सूरसंज्ञः, पुत्रः श्री(८)मान् सोमनामा द्वितीयः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६-२ { नवम ॥५॥ स्तम्भतीर्थीय-श्रीआदीश्वरमंदिरगतः निर्माप्याऽऽदिजिनेंद्रबिंबमसमं शेषत्रयोविंशति श्रीजैनप्रतिमाविराजि(९)तमसावभ्यर्चितुं वेश्मनि [1] पूज्यश्रीहरिभद्रसूरिसुगुरोः [पार्थात् प्र]तिष्ठाप्य च, ___ स्वस्याऽऽत्मीयकुलस्य चा [क्ष](१०) यमयं श्रेयोनिधानं व्यधात् असावाशाराजं तनुजमपरं सोमसचिवः, .. प्रियायां सीतायां शुचिच(११)रितवत्यामजनयत् [यशोभि............ ]भिर्जगति विशदे क्षीरजलधौ, निवासैकप्रीतिमुदमभजदिं(१२)दुः प्रतिपदं श्रीरवते निम्मितसप्तयात्रः, [केनोपमानस्त्विह ] सोऽश्वराजः । कलंकशंकामुपमान(१३)मेव, पुष्णात्यहो यस्य यशःशशांके अनुजोऽस्यापि सुमनुजत्रिभुवनपालस्तथा स्वसा केली । (१४)आशाराजस्याजनि, जाया च कुमारदेवीति तस्याभूत्तनयास्त्रया(यः) प्रथमकः श्रीमल्लदेवोऽपर .. श्चं(१५)चञ्चंडमरीचिमंडलमहाः श्रीवस्तुपालस्ततः । तेजःपाल इति प्रसिद्धमहिमा विश्वेऽत्र तुर्यः स्फुर चा(१६)तुर्यः समजायतायतमतिः पुत्रोऽश्वराजादसौ श्रीमल्लदेवपौत्रो, लीलूसुतपुण्यसिंहतनुज(१७)न्मा । आल्हणदेव्या जातः, पृथ्वीसिंहाख्ययाऽस्ति विख्यातः श्रीवस्तुपालसचिवस्य गेहिनी देहिनीव गृ(१८)हलक्ष्मीः । विशदतरचित्तवृत्तिः, श्रीललितादेविसंज्ञाऽस्ति। शीतांशुप्रतिवीरपीवरयशा विश्वेऽत्र (१९)पुत्रस्तयो विख्यातः प्रसरद्गुणो विज[यते श्रीजैत्रसिंहः कृती । लक्ष्मीर्यत्करपंकजप्रणयिनी हीनाश्रयोत्थेन सा, (२०)प्रायश्चित्तमिवाचरत्यहरहः स्नानेन दानांभसा अनुपमदेव्यां पन्यां, श्रीतेजःपालसचिवतिलकस्य [1] (२१)लावण्यसिंहनामा, धाम्नो धामाऽयमात्मजो जज्ञे नाभूवन् कति नाम संति कति ते नो वा भविष्यन्ति के [1] वे(२२)तुं कापि न कोऽपि संघपुरुषः श्रीवस्तुपालोपमः । पुण्याच्च प्रहरन्नहर्निशमहो सर्वाभिसारोद्धरो, येनायं वि(२३)जितः कलिर्विदधता तीर्थेशयात्रोत्सवं ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६-३ परिशिष्टम् ] गणेशरग्रामगतः शिलालेखः । लक्ष्मी धर्मांगयोगेन, स्थेयसीं तेन तन्वता [1] पौषधालयमा................(२४)निर्ममेन विनिर्ममे ॥ १५॥ श्रीनागेंद्रमुनींद्रगच्छतरणिर्जज्ञे महेंद्रप्रभोः, पट्टे पूर्वमपूर्ववाङ्मयनि(२५)धिः श्रीशांतिसूरिर्गुरुः [1] आनंदामरचंद्रसूरियुगलं तस्मादभूत्तत्पदे, पूज्यश्रीहरिभद्रसरिगुरवोऽभूवन् भु(२६)वो भूषणं ॥१६॥ तत्पदे विजयसेनसूरयस्ते जयंति भुवनैकभूषणं [1] ये तपोज्वलनभूविभूतिभिस्तेजयं(२७) ति निजकीर्तिदर्पणं स्वकुलगुरु...., पौषधशालामिमाममात्येंद्रः । पित्रोः पवित्रहृदयः, पुण्यार्थ(२८) कल्पयामास ॥१८॥ वाग्देवतावदनवारिजमित्रसामद्वैराज्यदानकलितोरुयशःपताकां [1] चक्रे गुरोविज(२९)यसेनमुनीश्वरस्य, शिष्यः प्रशस्तिमुदयप्रभसूरिरेनां ॥ १९ ॥ सं० १२८१ वर्षे महं० श्रीवस्तुपालेन कारितपौषध(३०)शालाख्यधर्मस्थानेऽस्मिन् श्रेष्ठि राजदेवसुत श्रे० मयधर । भां० सोमा उ भां० धारा । व्यव० वेला उ वीकल । श्रे० पूना (३१)सुत वीजा वेडी० उदेयपाल उ आसपाल भां० आल्हण उ गुणपाल एतैर्गोष्ठिकत्वमंगीकृतं । एभिर्गोष्ठिकैरस्य धर्मस्थानस्य(३२)................स्तंभतीर्थेऽत्र कायस्थवंशे वाज............लिखि. मिह च ठ० सू०........[ जैत्र] सिंह ध्रुव.......कुमरसिंहेनोत्कीर्णा ॥ ( एनाल्स ऑफ धी भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट पूना वॉ०९ पृष्ठ १७७ लेख १) गणेशरग्रामगतः शिलालेखः (१) ॥ ९० ॥ स्वस्ति ॥ संवत् १२९१ वर्षे वैशाख शुदि १४ गुरौ श्रीमदणहिलपुरवास्तव्य प्राग्वाट व० (ठ०) श्रीचंडपात्मज [चं](२)डप्रसादांगज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्रीआशाराजतनुजन्मा ठ० श्रीकुमारदेवीकुक्षिसमुद्भूत ठ० श्रीलूणि[ग](३) महं० श्रीमालदेव [कुमा] रानुज महं० श्रीतेजःपालाग्रज महामात्यश्रीवस्तुपालात्मज महं० श्रीजयतसिंहे [स्तंभ](४)तीर्थमुद्राव्यापारं सं० ७९ वर्षपूर्व व्यापृण्वति महामात्यश्रीवस्तुपाल महं० श्रीतेजःपालाभ्यां समस्तमहातीर्थेषु । (५)तथा अन्य]समस्तस्थानेष्वपि कोटिशोऽभिनवधर्मस्थानानि जीर्णोद्धाराश्च कारिताः ॥ तथा सचिवेश्वरश्रीवस्तु(६)पालेन आत्मनः पुण्यार्थमिह गाणउलिग्रामे प्रपा श्रीगाणेश्वरदेवमंडपः पुरतस्तोरणं तः प्रतोली द्वारा........(७)त प्राकारश्च कारितः ॥ ० ॥ गांभीर्य जलधिर्वलिर्वितरणे पूषा प्रतापे स्मरः, सौंदर्ये पुरुषव्रते रघुपतिर्वाचस्पतिर्वाच(८)या [1] लोकेऽस्मिन्नुपमानतामुपगताः सर्वेषु नः संप्रति, प्राप्ता नेत्युपमेयतां तदधिकश्रीवस्तुपाले सति ॥१॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६-४ नगरग्रामगतः शिलालेखः । .. ( ९ ) विदग्धमतयस्तुल्यौ कौटिल्य - वस्तुपालौ । • कुर्बते न, कस्मात् कूपारयोः समतां ॥ २ ॥ वदनं वस्तुपालस्य,(१०) कमलं को न मन्यते । यत्सूर्यालोकने स्मे [ रं], भवति प्रतिवासरं ॥ ३ ॥ श्रीवस्तुपाल संप्रति, परमं हतिकर्मक ( 3 ) [ 1 ] ................वा(११) भवता निर्वृतिरधिजनेन संघटिता तस्मै स्वस्ति चिरं चुलुक्य तिलकामात्याय .... ...(१२) राधेयेन विना विना च शिबिना य(१३). कर्मनिर्मलमतिः सौवस्तिकः शंसति । .........स्मयं .. गच्छंति संतः सदा .स्व. महामात्य श्रीवस्तुपालस्य प्रशस्तिरि [य] .. [ नवमं 11 8 11 ॥ ५॥ ( एनाल्स ऑफ धी भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना वॉ० ९ पृष्ठ १८० लेख २ ) ( ९ ) नगरग्रामगतः शिलालेखः (१) ॥ ९० ॥ संवत् १२९२ वर्षे आषाढ शुदि ७ रवौ श्रीनारदमुनिविनिवेशिते श्रीनगरवरमहास्थाने सं० ९०३ वर्षे अ (२) तिवर्षाकालवशादतिपुराणतया च आकस्मिकश्रीजयादित्य देवी महाप्रासादपतनविनष्टायां श्रीरत्नादेवीमूर्ती(३) पश्चात् श्रीमत्पत्तनवास्तव्यप्राग्वाट ठ० श्रीचंडपात्मज ठ० श्रीचंडप्रसादांगज ठ० श्रीसोमतनुज ठ० श्री आशाराजनंद ( ४ ) नेन ठ०. श्रीकुमारदेवीकुक्षिसंभूतेन महामात्यश्रीवस्तुपालेन स्वभार्यायाः ठ० कान्हडपुत्र्याः ठ० राणुकुक्षिभवा (५) या महं० श्रीललितादेव्याः पुण्यार्थमिहैव श्रीजयादित्यदेवपत्न्याः श्रीरत्नादेवी मूर्तिरियं कारिता || शुभमस्तु ॥ छ ॥ ( एनाल्स ऑफ धी भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना वॉ० ९ पृष्ठ १८२ लेख ३) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] तारण दुर्गादिगताः प्रशस्तयः । (६) वस्तुपालतीर्थयात्रालेखः सं० १२४९ वर्षे संघपति स्वपितृ ठ० श्रीआशाराजेन समं महं० श्रीवस्तुपालेन श्रीविमलाद्रौ रैवते च यात्रा कृता । सं० ५० वर्षे तेनैव समं स्थानद्वये यात्रा कृता । सं० ७७ वर्षे स्वयं संघपतिना भूत्वा स(स्व) परिवारयुतं ९० वर्षे सं० ९१ वर्षे सं० ९२ वर्षे सं० ९३ वर्षे महाविस्तरेण स्थानद्वये यात्रा कृता । श्रीशत्रुंजये अमून्येव पंच वर्षाणि तेन सहितेन सं० ८३ वर्षे सं० ८४ सं० ८५ सं० ८६ सं० ८७ सं० ८८ सप्त यात्राः सपरिवारेण तेन स्तसे .. श्रीनेमिनाथाम्बिका.. भूता भविष्यति ॥ प्रसादाद्या............. ........... ( वॉट्सन म्युझियम - राजकोट ) ७७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमं परिशिष्टम् आचार्य श्रीउदयप्रभविरचिताया उपदेशमालाकर्णिकाख्य विशेषवृत्तेः आद्यन्तगते । मङ्गल-प्रशस्ती। आदिः अहंस्तनोतु भुवनाद्भुतकल्पवृक्षः, श्रेयःफलं निबिडबोधसुमप्रसूतम् । यस्याभिमूलमभितः पतितप्रसूनप्रायाः सुरा-ऽसुर-नराधिपसम्पदोऽपि देवः स वः शतमखप्रमुखामरौषकृप्तप्रथः प्रथमतीर्थपतिः पुनातु । मुक्तिक्रमो न... ........... चिन्तातीतफलप्रदः स दिशतु श्रेयो युगादिप्रभुर्गेजुर्जन्मनि यस्य कल्पतरवः सर्वेऽप्युपादानताम् । नेत्थं चेत् कथमन्यथा वसुमतीमस्मिन्नलड्डुर्वति, त्रैलोक्यैकगुरौ न गोचरममी जग्मुर्जगञ्चक्षुषाम् ? ॥३॥ तु भभीममसितीव्रतरेण कर्मवातं व्रतेन विनिपाट्य भवाटवीषु ।। मुक्तावलिश्रियमशिश्रियदात्म...... लीलासञ्चरणं च न पुररणत्कारश्रियं च स्वयं, बोद्धं साधु निषेव्यते खगकुलोत्तंसेन हंसेन या । किझल्कासनप्रसक्तमनसस्तस्यैव हेतोः करे, कुर्वाणा कमलं सतां भवतु सा ब्राह्मी परब्रह्मणे ॥५॥ जीयाद् विजयसेनस्य, प्रभोः प्रातिभदर्पणः । प्रतिबिम्बितमात्मानं, यत्र पश्यति भारती॥ ६ ॥ संघस्याद्भुतपुण्यपण्यविपणौ सा मा ........................................ ................... । ...............................................पदेशपद्धतिरसौ सा प्रातराशायते ॥ ७ ॥ गाथास्ताः खलु धर्मदासगणिनः सज्जातरूपश्रियः, किंचैष स्फुरदर्थरलनिकरः सिद्धर्षिणैवार्पितः । तेनैतामतिवृत्तसंस्कृतमयीमातन्वतः कर्णिकां, वृत्तिं मेऽत्र सुवर्णकारपदवीसीमाश्रमश्चिन्त्यताम् ॥ ८॥ यतः ............... . ......... .... ....................................यथाविधिस्तबकघटनादुज्जम्भते यशांसि तु शिल्पिनः ॥९॥ अन्तगता प्रशस्ति: कमठघनभृताम्भोराशिसंवासिसाधिपतिकलितमूर्तिर्नीलनालीककान्तिः । सितरुचि-रविराजल्लोचनः केवलश्रीपरिचयचतुरात्मा श्रीजिनो वः श्रियेऽस्तु ॥ १ ॥ १ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां प्रथमपद्यरूपेणापि वर्तते ॥ २ पद्यमिदं सुकृतकीर्तिकल्लोलिन्यां सप्तमपद्यतयाऽपि वर्तते ॥ ३ पद्यमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्ये प्रथमसर्गे चतुर्दशपद्यत्वेनापि वर्तते ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] उपदेशमाला कर्णिकावृत्तेर्मङ्गलप्रशस्ती | ॥३॥ श्रीवर्धमानः शमिनां मनांसि, जिनो घिनोतु त्रिपदी यदीया । व्याप्नोति विश्व बलिघात ( ति ) कर्म्मजयोदिता विश्वमनश्वरश्रीः श्रीवीरशासन महामहिमागरिष्ठः, श्रीभद्रबाहु विहिताचरणप्रतिष्ठः । काले कलावपि विलुप्तघनाघसङ्घः, श्रीमानयं विजयते यतिमूलसङ्घः श्रीनागेन्द्र कुले मुनीन्द्रसवितुः श्रीमन्महेन्द्रप्रभोः, पट्टे पारगतागमोपनिषदां पारमग्रामणीः । देवः संयमदैवतं निरवधिस्त्रैविद्यवागीश्वरः सञ्जज्ञे कलिकल्मषैरकलुषः श्रीशान्तिसूरिगुरुः ॥ ४ ॥ शक्तिः काऽपि न कापिलस्य न नये नैयायिको नायकश्चार्वाकः परिपाकमुज्झितमतिर्वौद्धश्च नौद्धत्यभाक् । स्याद्वैशेषिकशेमुषी च विमुखी वादाय वेदान्तिके, दान्तिः केवलमस्य वक्तुरयते सीमां न मीमांसकः ॥५॥ तत्पट्टे प्रथमः शमिप्रभुरभूदानन्दसूरिः परः, स ज्ञेऽमरचन्द्रसूरिरखिलानूचानचूडामणिः । शश्वद् यस्य सरस्वतीप्रसरणे सिद्धेशितुः संसदि, प्राज्ञैश्चेतसि वेतसीतरुरसावाचार्यकं कार्यते ॥ ६ ॥ सिद्धान्तोपनिषन्निषण्णहृदयो धीजन्मभूस्तत्पदे, पूज्यः श्रीहरिभद्रसूरिरभवच्चारित्रिणामग्रणीः । भ्रान्त्वा शून्यमनाश्रयैरतिचिराद् यस्मिन्नवस्थानतः, स्तामेतामुदयप्रभाख्यगणभृद् वृत्तिं व्यधात् कर्णिकाम् तस्याऽऽज्ञया विजयसेनमुनीश्वरस्य, शिष्येण सेयमुदयप्रभदेवनाम्ना । योग्या विशेषविदुषामुपदेशमालावृत्तिः कथामथनतोऽभिनवा वितेने प्रथमादर्शे प्रथमानमानसो देवबोधविबुध इमाम् । स्थपतिरिव स्थापयिता, गुरुषु नतोऽतनुत साहाय्यम् सन्तुष्टैः कलिकालगौतम इति ख्यातिर्वितेने गुणैः गुरुः श्रीहरिभद्रोऽयं लेभेऽधिकवयः स्थितिम् । मोहद्रोहाय चारित्रनृपनासीरवीरताम् तत्पदे विजयसेन सूरयः, पूरयन्ति कृतिनां मनोरथान् । तद्भवी वृषमसूत नूतना, कामधेनुरिव सर्वकामदम् 113 11 गर्वात् पूर्वमनादरैरव हितैः तैः पश्चात् ततो विस्मितैः, प्रस्विन्नैरनुविस्मृतात्मभिरथो वादेऽनुवादे क्षणात् । भाग्यैर्मानिमनीषिणां परिणता पुंस्त्वेन वागेष इत्याक्षिप्तैरथ सेव्यतेऽथ सहसा यः सादरं वादिभिः ॥ १० ॥ यस्योपदेशममृतोपमितं निपीय, श्रीवस्तुपालसचिवेश्वर - तेजपालौ । सङ्घाधिपत्यमसमं जिनतीर्थतेजः संवर्धनाज्जितशतक्रतु चक्रतुस्तौ ॥ ११ ॥ १२ ॥ श्रीमद्विजयसेनस्य, सौमनस्यं नमस्यत । यद्वासिता धृताः कैर्न, गुणाः शिष्याश्च मूर्धसु ? ॥ शिष्यस्तस्य च लक्षणक्षणचणः साहित्य सौहित्यवानुद्यत्तर्कवितर्ककर्कशमनाः सिद्धान्तशुद्धातुरः । श्रीधर्माभ्युदये कविः प्रविलसद्दुर्वादिगोत्रे पवि ७९ ॥ २ ॥ 119 11 ।। ८ ।। ॥ १३ ॥ ॥ १५ ॥ १ पथमिदं धर्माभ्युदयमहाकाव्यप्रथमसर्गे नवमपद्यतयाऽपि वर्त्तते ॥ २ पद्यस्यास्य पूर्वार्ध नरेन्द्रप्रभीयवस्तुपालप्रशस्तिगत १०१ पद्यपूर्वार्धसमम् ॥ ॥ १४ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशमालाकर्णिकावृत्तेमङ्गलप्रशस्ती । [ दशम चान्द्रे कुले कलशतः किल सूरिदेवानन्दापशिष्यकनकप्रभसूरिनाम्नः । प्रद्युम्नमरिरुदितः कवितासमुद्रमुष्टिन्धयोऽम्बुवदशोधयदेष वृत्तिम् ॥ १६ ॥ उत्सेकितोत्सूत्रनिरूपणाद्यैर्याऽऽशातना स्यात् तनुकाऽपि काचित् । मिथ्याऽस्तु मे दुष्कृतमत्र साक्षी, श्रीसङ्घभट्टारक एव तीर्थम् एकैकेन विमोहशक्यचरणांछित्त्वा कषायानिमान् , दीप्ते भानु-कृशानुधामनि मनश्चैकेन हुत्वाऽऽत्मनः । मन्त्रस्याष्टशतैरितीह जपितैस्तैः पञ्चभिः सिद्धये, गाथाभिर्गुरुगुम्फिता विजयते जप्योपदेशावलिः ॥ १८ ॥ कल्पाविष्करणादितो विवरणाद् विज्ञाय विज्ञात्मनामाम्नायादुपदेशपद्धतिमिमामासेवमानो मुदा । लोकानोपरिवर्तिनीमभिमुखीं कुर्वीत वीतान्यधीवृत्तिनिर्वृतिदेवतां शिवपुरीसाम्राज्यकामः कृती ॥ १९ ।। तत्त्वोदित्वरसप्तभूमिकमहापासादराजाङ्गणं, यावद भाति जगद्गुरोर्भगवतः तीर्थेशितुः शासनम् । तावच्छ्रावक-साधुधर्मविजयस्तम्भद्वयालम्बिनी, वृत्तिर्वन्दनमालिका विजयतां तत्रोपदेशस्रजः ॥ २० ॥ सेयं पुरे धवलके नृपवीरवीरमन्त्रीशपुण्यवसतौ वसतौ वसद्भिः । वर्षे ग्रह-ग्रह-रवौ कृतार्कसङ्ख्यैः, भोकैर्विशेषविवृतिर्विहिताऽद्भुतश्रीः ॥२१॥ इत्याचार्यश्रीउदयप्रभदेवसङ्घटितायामुपदेशमालायाः कर्णिकायां विशेषवृत्तौ तृतीयः परिवेशः सम्पूर्णः ॥ ६० ३७१४ । एतावता च सम्पूर्णा उपदेशमालायाः कर्णिकाख्या विशेषवृत्तिरिति । ग्रंथ १२२७४ । छ । छ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशं परिशिष्टम् गूर्जरेश्वरपुरोहितश्रीसामेश्वरदेवविरचितस्य सुरथोत्सवमहाकाव्यस्य महामात्यश्रीवस्तुपालवंशवर्णनादिप्रतिबद्धः प्रशस्तिरूपः पञ्चदशः सर्गः । अस्ति प्रशस्ताचरणप्रधानं, स्थानं द्विजानां नेगराभिधानम् । कर्तुं न शक्नोति कदाऽपि यस्य, त्रेतापवित्रस्य कलिः कलङ्कम् सत्तीर्थस्य सुराश्रितेन जगता यस्योपमा स्यात् कथं, स्वाध्यायैकनिधेर्गतश्रुतिवृतेनोर्वीतलेनापि वा ? । यत्सौघेषु विशुद्धिवर्जितवपुर्बालोऽपि नाऽऽलोक्यते, वन्दे श्रीनगरं तदेतदखिलस्थानातिरिक्तोदयम् ॥ २ ॥ हृतनयनसुखैर्मखामिधूमैः, श्रुतिकटुभिर्बटुवृन्दवेदपाठः । कलिरकलितसम्मदः प्रदत्ते, न खलु पदं विदुषां गृहेषु यत्र ॥ ३॥ चश्चत्पश्चमखामिभनतमसि स्थाने त्रिनेत्रानल ज्वालाप्रज्वलितप्रसूनधनुषा देवेन दत्तोदये । श्रीमत्तां च पवित्रतां च परमामालोकयन्तः सुराः, स्वासेऽप्यरसा रसामरजनव्याजेन भेजुः स्थितिम् ॥ ४ ॥ तस्मै संयमिनामिनीय मुनये नित्यं नमस्कुर्महे, यन्माहात्म्यमसह्यमाह स मुहुर्मुह्यन्मनाः कौशिकः । आविर्भूतमभूतपूर्वचरितश्रेष्ठाद् वशिष्ठात् ततः, ___ सत्कर्मोद्धरमँध्वरस्थितिविदां स्थानेऽत्र गोत्रं महत् येषामशेषाधिपतिः प्रसन्नः, सन्नद्धपाणिः प्र(फ)णिकङ्कणेन । त एव सम्भूतिमिहाभवन्ति, [कुले ] गुंलेचा(वा)भिधया प्रसिद्धे श्रीसोलशर्मा विमले कुलेऽत्र, जन्म द्विजन्मप्रवरः प्रपेदे । यः स्वर्गिणः सोमरसेन यागे, पितॄश्च पिण्डैरपृणत् प्रयागे ॥ ७ ॥ १ मानन्दपुरम् ॥ २ देवाः, मदिरा च ॥ ३ सर्पाः, वेदभ्रष्टाश्च ॥ ४ भूदेवाः ॥ ५ स्वामिने, सूर्याय ॥ ६ उलकः, विश्वामित्रश्च ॥ ७ यज्ञविद्याविदाम् ॥ ८ ईश्वरः ॥ ९ 'प्नुव' ख ॥ १० 'गुलेवा' इति स्थानाचारेण गोत्रस्यावठङ्कनाम प्रतीयते, परं च डॉक्टर-रामकृष्ण-गोपाल-भाण्डारकरमहाशयः १८८३-८४ वर्षीय 'रिपोर्ट' पुस्तके 'गुलेचा' इत्येव पाठ आश्रितः ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरथोत्सवमहाकाव्यस्य [एकादरी सोलः सलीलमवनीमवतामसौ वः, सौवस्तिकोऽस्त्विति वरं स्मरता स्मरारेः । श्रीगुर्जरक्षितिभुजा किल मूलराज-देवेन दूरमुपरुध्य पुरो दधे यः ॥ ८ ॥ यथा प्रतिष्ठां महतीं वसिष्ठस्तिग्मांशुवंशे भगवानवाप । निजेन सौवस्तिकतागुणेन, चौलुक्यभूपालकुले तथाऽसौ विधिवद् वाजपेयं यः, कलिकालेऽप्यकल्पयत् । कियती वा जपेयं तच्चरिताद्भुतसंहिताम् ? ॥ १० ॥ ऋग्वेदवेदी च श(कृ)तक्रतुश्च, दत्तान्नदानश्च जितेन्द्रियश्च । तिरोहिते तत्र पुरोहितेन्द्रे, तदङ्गजन्माऽजनि लल्लशर्मा यः करोति स्म चामुण्डराजाख्यं नृपमाशिर्षां । हेतिपँतापसम्पन्नं, हविषा च हविर्भुजम् ॥ १२ ॥ श्रीमुञ्जनामा तनुजस्तदीयः, स्वयं स्वयम्भूरिव भूतलेऽभूत् । बाह्मण्यलाभाय तथाहि सद्भिरभाजि मौञ्जी रशनेव वृत्तिः ॥१३॥ सद्वंशजातेन गुणान्वितेन, शरासनेनेव पुरोहितेन । एतेन मेने भुवने न किञ्चिन्न दुर्लभं दुर्लभराजदेवः सन्तापशान्ति जगतोऽपि सोमस्तन्नन्दनश्चन्दनवच्चकार ।। पीयूषहारी हरिणाक्तितश्च, सत्यां बभाजे द्विजराजतां यः ॥१५॥ यस्याशीःप्रतिपादितोदययुजा श्रीभीमभूमीभुजा, क्षीरक्षालितशालितन्दु(ण्डु)लसितं साक्षात्कृतं तद्यशः । येनाशाक्रमणक्षमेण त इमे मूर्तिप्रभेदाः प्रभो भस्मोद्धूलनमन्तरेण धवलाः सर्वेऽपि निर्वर्तिताः भित्त्वा भानुं तत्र ताते प्रयाते, पुत्रः श्रीमानामशर्मा बभूव । कृत्वा सम्यक् सप्त संस्थाः क्रतूनां, क्रीता कम्रा येन संम्राडभिख्या ॥१७॥ सदा यदाशीःपरिपूर्णकर्णः, श्रीकर्णनामा नृपतिः प्रकाण्डम् । वसुन्धरामण्डलमर्णवान्तं, वान्तारिनारीनयनाम्बु चक्रे १ अस्य मूलराजपुरोहितस्य सोलस्य सत्तासमयो मूलराजराज्यसमय एव ॥ २ पुरोहितः ॥ ३ अयं मूलराजमहाराजः वि० सं० ९९३-१०५३ वर्षेषु राज्यमकार्षीत् , इति Indian Antiquary Vol. XI. P. 219 ॥ ४ अस्य चामुण्डराजपुरोहितस्य लल्लशर्मणः सत्तासमयश्चामुण्डराजराज्यसमय एव ॥ ५ चामुण्डराजराज्यम्-वि० सं० १०५३-१०६६ ॥ ६ आयुधम् , दीप्तिश्च ॥ ७ पौरुषम् , सन्तापश्च ॥ ८ अस्य दुर्लभराजपुरोहितस्य श्रीमुञ्जनाम्नः सत्तासमयो दुर्लभराजराज्यसमय एव ॥ ९ मौजी वृत्तिरिति मुजवद्वर्तमानानां ब्राह्मण्यं भवतीत्यर्थः । एतेन मुञ्जस्य सदाचारत्वमुक्तं भवतीत्यर्थः । अथ च मौजी मेखला शरमयी रशना ब्राह्मण्यलाभाय सद्भिर्बध्यते ॥ १० दुर्लभराजराज्यम्-वि० सं० १०६६-१०७८ ॥ ११ अस्य भीमराजपुरोहितस्य सोमस्य जीवनसमयो भीमराजराज्यसमय एव ॥ १२ विष्णुना, मृगेण च ॥ १३ बमले ख ॥ १४ ब्राह्मण्यं, चन्द्रत्वं च ॥ १५ भीमराजराज्यम्-वि० सं० १०७८-११२० ॥ १६ पृथिव्यादयोऽष्टौ ॥ १७ शिवस्य ॥ १८ अस्य श्रीकर्णराजपुरोहितस्याऽऽमशर्मणः स्थितिसमयः श्रीकर्णराजराज्यसमय एव ।। १९ अग्निष्टोमाद्याः ॥ २० वाजपेययाजीति ॥ २१ श्रीकर्णराजराज्यम्-वि. सं. ११२०-११५० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] पञ्चदशः सर्गः । दानानि तानि सदनानि च तानि शम्भोरम्भोजराजिरुचिराणि सरांसि तानि । येनामुना मुनिजनानुकृता कृतानि, वित्तैश्चुलुक्य कुलसम्भवभूपदत्तैः धराधीशपुरोधसा निजनृपक्षोणीं विलोक्याखिलां, चौलुक्याकुलितां तदत्ययकृते कृत्या किलोत्पादिता । मन्त्रैर्यस्य तपस्यतः प्रतिहता तत्रैव तं मान्त्रिकं, सा संहृत्य तडिल्लता तरुमिव क्षिप्रं प्रयाता क्वचित् तस्मात् कुमारः सुकुमारमूर्तिर्मूर्तस्तपोराशिमिवोज्जगाम । स्वराजराज्योदयदायिनी वागुवास शक्तेरिव यस्य वक्त्रे बद्धः सिन्धुवसुन्धरापतिरतिप्रौढप्रतापोऽपि य नीतः स्फीतबलोsपि मालवपतिः कारां च दारान्वितः । दृप्तः सोऽपि सैपादलक्षनृपतिः पादानतिं शिक्षितः, श्रीसिद्धक्षितिपेन सैष विभवः सर्वोऽपि यस्याऽऽशिषाम् कुँशोपशोभितैर्यागैस्तडागैश्च परःशतैः । दृष्टं पूर्तं च यश्चक्रे, चक्रवर्तिपुरोहितः ऋजुरोहितभृत्पुरोहितत्वस्पृहयेव त्रिदिवं गतस्य तस्य । तनुभूर्मनुभूपतिप्रणीतस्मृतिसर्वस्वमवाप सर्वदेवः मध्वरेधित साधु सपर्यामध्वरेषु जयति स्म सुरेशम् । मानवानविदितापरयाच्ञो, मानवानकृत चैष कृतार्थान् अर्चिषामयनमीयुषितत्र, क्षत्रसत्तमनमस्करणीये । अध्यगामि विधिरामिगनाम्ना, वैदिकस्तदनु तत्तनुजेन सत्कर्मनिर्माणरतेरमुष्य, व्रीडानिदानं द्वयमेतदासीत् । स्ववर्णना कर्णनमुत्तमेभ्यः, संसारकारान्तरवस्थितिश्च ज्येष्ठः श्रेष्ठतमः समस्तविदुषां श्रीसर्वदेवाह्वयः, श्रेयःसम्पदपास्तदुस्तरतमाः श्रीमान् कुमारोऽनुजः । मुखोऽथ द्विजकुञ्जरस्तदनुजो न्यायाजडेनाइडश्वत्वारस्तनयास्ततः समभवन् वेदा इव ब्रह्मणः ॥ १९॥ ॥ २० ॥ ॥ २१ ॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ i ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ १ माळवाधिपतियशोवर्मणः पुरोहितेन स्वदेशभूमिं गूर्जरराजश्रीसिद्धराजापरनामधेयजयसिंहदेवेन व्याकुळीकृतां वीक्ष्य तद्वधार्थमभिचारेण कृत्योत्पादिता । सा च आमशर्मणः पुरोधसः शान्तिमन्त्रैः प्रतिषिद्धा सती तमेव मालवाधीशपुरोहितं संहृत्य तिरोहितेति श्रूयते ॥। २ शक्तिर्वसिष्ठपुत्रः || ३ वोदत्तनामा ॥ ४ यशोवर्मनामा ॥ ५ आनलदेवः || ६ श्रीसिद्धराजराज्यम् वि० सं० ११५० - ११९९ ।। ७ जलं, दर्भश्च ॥ ८. बृहस्पतिः ।। ९ विष्णोः || १० अर्चिर्मार्ग गतवति ॥ ११ अग्निहोत्रादिः ॥ १२ अस्य सिद्धराजपुरोहितस्य सर्वदेवस्य जीवनसमयः सिद्धराजराज्यसमय एव ॥ 11 32 11 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ सुरथोत्सवमहाकाव्यस्य कुमारपालस्य चुलुक्यभर्तुरङ्गानि गङ्गासलिले निधाय । श्रीसर्वदेवेन गयाप्रयागविप्राः प्रदानेन कृताः कृतार्थाः ॥ २९ ॥ स्थाने स्थाने तडागानि, शिवपूजा दिने दिने । विप्रे विप्रे च सत्कारः, श्लाघा यस्य गृहे गृहे ॥३०॥ राहौ गृहीतोष्णंकरे कुमारः, कुमारपालस्य सुतेन राज्ञा । कृतोपरोधोऽपि परं पुरोधाः, प्रत्यग्रहीत् तस्य न रत्नराशिम् यः शौचसंयमपटुः कटुकेश्वराख्यमाराध्य भूधरसुताघटितार्धदेहम् । तां दारुणामपि रणाङ्गणजातघातत्रातव्यथामैजय पालनृपादपास्त् विलोक्य दुष्कालवशेन लोकं, कङ्कालशेषं सविशेषशुकः । श्रीमूलराजं दलितारिराजमचीकवृ (र) त् तत्करमोचनं यः दुष्टारिकोटिकदनोत्कटराष्ट्रकूटकुल्येन शल्येितरणाङ्गणकङ्कणेन । सर्वप्रधानपुरुषाधिपतिः प्रतापमल्लेन भूपतिममल्लिकया कृतो यः सेनानीर्विदधे कुमार इति यः शके चुलुक्येन्दुना, जित्वा सोऽथ जवादवार्यतरसः प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीन् । इष्टां तद्विषयर्द्धिमाशिषमिव प्रादात् पुरोधाः स्वयं, तस्मै याज्यमहीभुजे निजचमूवीरव्रजैरक्षतैः धाराधीशे विन्ध्यवर्मण्यवन्ध्यक्रोधाध्मातेऽप्याजिमुत्सृज्य याते । गोगस्थानं पत्तनं तस्य भङ्क्त्वा, सौधस्थाने खानितो येन कूपः गृहीतं कुप्यता कुप्यं, मालवेश्वरदेशतः । दत्तं पुनर्गयाश्राद्धे, येनाकुप्यमकुप्यता जित्वा म्लेच्छपतेर्बलं तदतुलं राज्ञी सरः सन्निधौ, स्वःसिन्धोः सलिलैर्विधाय विधिवत् प्रीतिं पितॄणामपि । दानी मोक्षमनुक्षतक्षितितले कृत्वाऽब्दमब्दवजे, राजार्थं रचयाञ्चकार चतुरः स्वार्थं प्रजार्थं च यः ? यः कर्माणि च षङ्गुणांश्च तनुते तद्भू-र्भुवः-स्वस्त्रयं, कीर्तिर्यस्य च यश्च निर्मलरुचिर्नो जातुचिन्मुञ्चति । [ पकादर्श ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५ ॥ ॥ ३६ ॥ ॥ ३७ ॥ १ कुमारपालराज्यम् वि० सं० ११९९ - १२३० ॥ २ अस्य कुमारपालपुरोहितस्य कुमारस्य सत्तासमयः कुमारपालराज्ये || ३ अजयपालेन ॥ ४ सामन्तसिंहयुद्धे हि श्रीअजयपालदेवः प्रहारपीडया मृत्युकोटिमायातः कुमारनाम्ना पुरोहितेन श्रीकटुकेश्वरमाराध्य पुनः स जीवितः ।। ५ अजयपालराज्यम् वि० सं० १२३०-१२३३ ॥ ६ शूकः श्लक्ष्णतीक्ष्णाग्रः शङ्कुः ॥ ७ मूलराजराज्यम् वि० सं० १२३३१२३५ ।। ८ कुमारः श्रीअजयपालपुत्र श्रीमूलराजसकाशाद् दुष्कालपीडितानां प्रजानां तदानी करमोचनं कारितवान् ॥ ९ निहतकौङ्कणाधिपतिमल्लिकार्जुनेन ॥। १० वैरिदेशसमृद्धिम् ॥ ११ अब्रणाः तण्डुलैरखण्डितैश्च ।। १२ अयं विन्ध्यवर्मा यशोवर्मणः पौत्रः ॥ ॥ ३८ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] पञ्चदशः सर्गः। शस्त्राविष्कृतिरध्वरे च युधि च श्लाघ्योजिहीते यतः, सूत्रं यस्य हृदि स्फुरत्यविरतं ब्राह्मं च राज्यस्य च ॥ ३९॥ अरुन्धतीव कान्ताऽस्य, पत्युराज्ञामरुन्धती । अभूदभिधया लक्ष्मीः , साक्षालक्ष्मीरिव क्षितौ ॥ ४० ॥ आदिमः प्रशममन्दिरं महादेव इत्यभिधया तदङ्गभूः । येन पाणिनिहितेन पङ्कजेनेव तुष्यति परं सरस्वती सोमेश्वरदेव इति, क्षितिदेवस्यास्य बन्धुरनुजन्मा । अजनि कनिष्ठस्तस्य, भ्राता ख्यातान्वयो विजयः ॥ ४२ ॥ तैस्त्रिभिः प्रथममध्यमोत्तमैः, स्वे पदे च पुरुषैर्व्यवस्थितैः । शब्दशास्त्रमिव गोत्रमुच्चकैः, सक्रिय समजनिष्ट विष्टपे । ॥४३॥ सोमेश्वरदेवकवेरवेत्य लोकम्पृणं गुणग्रामम् । हरिहर-सुभटप्रभृतिभिरभिहितमेवं कविप्रवरैः ॥४॥ श्रीसोमेश्वरदेवस्य, कवितुः सवितुश्च को । सतृणाभ्यवहारस्य, निरासेऽपि रसप्रदा ॥४५॥ वाग्देवतावसन्तस्य, कवेः श्रीसोमशर्मणः । धुनोति विबुधान् सूक्तिः, साहित्याम्भोनिधेः सदा ॥१६॥ तव वक्त्रं शतपत्रं, सद्वर्णं सर्वशास्त्रसम्पूर्णम् । अवतु निजं पुस्तकमिव, सोमेश्वरदेववाग्देवी ॥४७॥ वसिष्ठानिष्ठायाः पदमिति जगत्यस्ति पटहः, प्रकृष्टास्त्वेषामप्यजनिषत मुञ्जप्रभृतयः । कुले जातोऽप्येषां शतधृतिदुहित्रा पुनरयं, स्वयं पुत्रीचक्रे नवकविगुणप्रीणितहृदा ॥४८॥ काव्येन नव्यपदपाकरसास्पदेन, यामार्धमात्रघटितेन च नाटकेन । श्रीभीमभूमिपतिसंसदि सभ्यलोकमस्तोकसम्मदवशंवदमादधे यः । कवीन्द्रपदवीस्पृहामहह ! तेऽपि तन्वन्ति य द्वचः क्रकचकर्कशं प्रथयति व्यथां कर्णयोः । कविः स विरलः पुनर्भुवि भवादृशो दृश्यते, सुधाभिरभिषेचनं रचयतीव यः सूक्तिभिः ॥ ५०॥ मन्दश्छन्दसि कोऽपि कोऽपि विकलः सालङ्कतिव्याकृता वर्थे कोऽपि वृथाश्रमो रसनिधावन्धः स कोऽप्यध्वनि । वक्त्रान्तर्विहरतिरञ्चितनयामञ्जीरम स्वरस्पर्धाबन्धुभिरेक एव कवते काव्यैः कुमारात्मजः ॥५१॥ १ अयं श्रीहर्षवंश्यो हरिहरो वीरधवलराजसमीपे नैषधपुस्तकं प्रथमं वस्तुपालेऽमात्ये सत्यानयत्हति हरिहरप्रबन्धे प्रबन्धकोशे स्फुटमुपलभ्यते ॥ २ भीमदेवराज्यम् वि० सं० १२३५-१२९८; एतपुत्रत्रिभुवनपालराज्यम् वि० सं० १२९८-१३०० ॥ ३ अयं कुमारस्य पुत्रः सोमेश्वरदेवकविः श्रीभीमदेवसभायामासीत् ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरथोत्सवमहाकाव्यस्य वैदुष्यं विगताश्रयं श्रितवति श्रीहेमचन्द्रे दिवं, श्रीप्रह्लादनमन्तरेण विरतं विश्वोपकारव्रतम् । डल्या तद् द्वयमत्र मन्त्रिमुकुटे श्रीवस्तुपाले कविस्तत्कीर्तिस्तुतिकैतवादिति मुदामुद्गारमारब्धवान् ॥५२॥ प्राग्वाटान्वयवारिधौ विधुरिव श्रीचण्डपः प्रागभूत् , सम्भूतोऽद्भुतसत्य-शौचसदनं चण्डप्रसादस्ततः । सोमस्तत्तनयो नयोज्वलमतिस्तस्याऽश्वराजः सुतः, पूतात्माऽथ तदङ्गभूः सुकृतभूः श्रीवस्तुपालोऽभवत् ॥५३॥ उत्कुल्लमल्लीप्रतिमल्लकीर्तिः, श्रीमल्लदेवोऽभवदप्रजन्मा । बभूव तस्यावरजश्च तेजःपालाभिधानः सचिवप्रधानम् ॥ ५४॥ श्रीवस्तुपालस्य चिरायुरस्तु, दिशां प्रकाशं दिशते सदा यः । कर्पूरकिर्मीरितकेरलस्त्रीरदावदातद्युतिभिर्यशोभिः क्षीणे चक्षुषि भेषजं भगवती कालीश्वरी देहिनां, देहे चित्रविचित्रभाजि शरणं श्रीवैद्यनाथः प्रभुः । संसारज्वरजर्जरे हृदि सदा विष्णु विष्णुर्मुदे, दौर्गत्ये च जिघांसिते गतिरसौ श्रीवस्तुपालः पुनः न वदति परुषा रुषाऽपि वाचः, स्पृशति परस्य न मर्म नर्मणाऽपि । विरमति मतिमानमात्यचन्द्रः, कचन च नार्थिकदर्थितोऽपि दानात् धनमनवरतक्षितीन्द्रसेवाश्रमसमवाप्तमयत्नतोऽपि दत्ते । अपरमपि परोपकारकं यद, विमृशति वस्तु तदेव वस्तुपाल: सत्यं ब्रुवे भवतु मा क्षतिरत्र काचिद् , भूत्वा खलप्रकृतिनाऽपि मयाऽतिमात्रम् । मन्त्री समे च विषमे च परीक्षितोऽसौ, दृष्टं न दुष्टमिह किश्चन सचरित्रे ॥ ५९ ॥ अयमनुदिनदानोत्कर्षितप्राणवर्ष परिचरितचरित्रः स्वस्तिमानस्तु मन्त्री । तुहिनकरसमानैर्यस्य कीर्तिप्रतानरजनिषत रजन्यः प्राप्तराकाविपाकाः ॥६० ।। लभन्ते लोकतः पापाः, शपानन्ये नियोगिनः । अधिकारमधिक्कारममात्यः शास्त्यसौ पुनः ॥ ६१ ॥ त एव स्तूयन्ते नृपतिपशुभिर्धीवरतया, प्रजानामानायः सपदि खलु येभ्यः प्रपतति । तदित्थं सुस्थानां चकितचकितं कापि वसतां, सतां सम्प्रत्येकः सचिवशिवतातिर्भुवि भवान् ॥ ६२॥ १ हेमचन्द्रः कुमारपालराज्ये वि० सं १२२९ वर्षे स्वर्गमगमत् ॥ २ अयं प्रहादनपण्डितः सोमेश्वरपितुः कुमारस्य गुरुः ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ६४॥ परिशिष्टम् ] पश्चदशः सर्गः । अर्थदानदलितार्थिदुःस्थितिं, त्वां विना विनयनम्र! सम्प्रति । मृज्यते जगति केनचित् सतां, वस्तुपाल! न कपालदुर्लिपिः गोमयरसानुलिप्ते, कीर्तिसुधाधवलिते च भुवनगृहे । श्रीवस्तुपाल ! भवतश्चकास्ति चित्रं चरित्रमिह पीयूषैः प्रणता हिमैः प्रणिहिता ताराभिराराधिता, गावीचिभिरर्चिता परिचिता दिग्दन्तिदन्तांशुभिः । कर्पूरैः परिशीलिता मलयजैरावर्जिता मण्डिता, डिण्डीरस्तबकैर्बकैरनुसृता मन्त्रीश ! कीर्तिस्तव प्रवर्तमानेऽत्र कवित्वसत्रे, सत्कृत्य सत्पात्रममात्यमेवम् । कृतार्थमात्मानमसावमस्त, सौवस्तिको गुर्जरनिर्जराणाम् कुमारपुत्रेण कुमारमातुः, काव्यं तदेतज्जगदेकदेव्याः । श्रुति-स्मृति-व्याकृति-यज्ञविद्याविशारदेन क्रियते स्म तेन ॥ इति श्रीगुर्जरेश्वरपुरोहितश्रीसोमेश्वरदेवविरचिते सुरथोत्सवनाग्नि महाकाव्ये कविप्रशस्तिवर्णनो नाम पञ्चदशः सर्गः ॥ १कुमारनामकषिदुषः पुत्रेण सोमेश्वरदेवेन ॥ २ कुमारः स्कन्दस्तस्य मान गयाः ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशं परिशिष्टम् गूर्जरेश्वरमहामात्यश्रीवस्तुपालकविविरचितस्य नरनारायणानन्द. महाकाव्यस्य प्रशस्त्यात्मकः षोडशः सर्गः । शोभाभिभूतपुरुहूतपुरं पुरन्ध्रीलावण्यलोभितजगन्नगरं गरीयः । धाम श्रियोऽणहिलपाटकनाम कामलीलामयं जयति गूर्जरभूविभूषा ॥१॥ वाग्देवतां यदि जना जननीमिवैनामानन्दिनः प्रतिदिनं हृदि नन्दयन्ति । यस्मिन्निमान् मदनतुल्यरुचस्तथापि, निर्मत्सरा त्यजति नो सुतवत्सला श्रीः ॥२॥ प्राग्वाटगोत्रतिलकः किल कश्चिदत्र, श्रीचण्डपः स्फुटमखण्डपदप्रतिष्ठः । विस्फूर्जितान्यधित गूर्जरराजराज्यराजीवजीवनरविः सचिवावतंसः ॥ ३ ॥ कृष्णीकृतारिवदना सुमनोमनांसि, रागास्पदं विदधती यदलक्ष्यरूपा ।। आनन्दमर्दितविचारमदैर्यदीयकीर्तिर्मुधा जितसुधा बुबुधे बुधेन्द्रैः ॥४॥ चण्डप्रसाद इति सादितविश्वदौस्थ्यस्तन्नन्दनः स्वकुलनन्दनकल्पशाखी । मुक्तामयप्रसवसञ्चयचारुचञ्चत्कीर्तिप्रभासुरभिताम्बरभूर्बभूव शास्त्रार्थवारिभरहारिहृदालवालसंरोपिता मतिलता वितता नितान्तम् ।। यस्य प्रकाशितरविग्रहतापवद्भिश्छायार्थिभिनुपकुलैः फलदा सिषेवे ॥६॥ पुण्यस्य पापपटलीजयिनो जयश्रीरासीत् तदीयदयिता नयभूर्जयश्रीः । यस्या मनो दयितभक्तिसुरस्रवन्तीस्नानोज्ज्वलां जनयति स्म जिनेन्द्रसेवाम् ॥७॥ नैवोष्ठसम्पुटविपाटनया कदाचिदेषा स्मितं जितसुधाविभवं व्यधत्त । श्वेतद्युतिः कलुषतां तदयं हृदन्तः, केनापरेण परिभूततनुस्तनोति ? ॥ ८ ॥ श्रीरङ्गभूर्भृशमभूदनयोर्नयाढ्यश्रीरङ्गभूर्जगति शूर इति प्रतीतः । अस्वमतां सुरगुरुः सह शिष्यवगैर्धत्ते स्म यन्मतिजितश्चिरचिन्तयेव ॥९॥ चूडामणीकृतजिनाङ्ग्रिनखप्रपञ्चः, कर्णस्फुरद्गुरुसुवर्णविभूषणश्रीः । सद्वर्त्मनि प्रचलदुर्मदमोहचौरः, दुःसञ्चरेऽपि विललास य एव शूरः ॥ १०॥ हृत्वाऽपि कान्तिलवमेव यदीयकीर्तेर्दिव्यं सृजन्निव जगत्यपवादभीतः ।। इन्दुः सुधावपुरपि प्रभुरौषधीनामप्येष सर्पनिभलक्ष्मधृतौ न शुद्धः ॥११॥ सोमाभिधस्तदनुजः सुजनाननाब्जसूर्योऽभवद् विबुधसिन्धुविशुद्धबुद्धिः । यन्मानसेऽद्भुतरसे विललास वार्धिक्षिप्तौर्वतापविधुरेव सरस्वतीयम् ॥१२ ।। क्रीडाकथासु सदसि घुसदां सदैव, मौलिं विकम्प्य किल सोऽपि गुरुः सुराणाम् ।। यहृद्धिवैभवभरस्य विचारितस्य, नीराजनान्यकृत चञ्चलचूलरत्नैः ॥ १३ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरनारायणानन्दस्य षोडशः सर्मः। देवः परं जिनवरो हरिभद्रसूरिः, सत्यं गुरुः परिवृढः खलु सिद्धराजः । धीमाननेन नियतं नियमत्रयेण, कीर्ति व्यधात् त्रिपथगामिव यः पवित्राम् ॥ १४ ॥ पुस्फूर्ज गुर्जरधराधवसिद्धराजराजत्सभाजनसभाजनभाजनस्य । दुर्मन्त्रिमन्त्रितदवानलविहलायां, श्रीखण्डमण्डननिभा भुवि यस्य कीर्तिः ॥१५॥ कुर्वन् परायंगणिते सति यद्गुणानामेकैकबिन्दुरचनामुडकैतवेन । चन्द्रच्छलेन कति नो खटिनीवुभित्तौ, धाता व्यधादथ विधास्यति कीर्तिशेषाः ? ॥१६॥ नो चेद् यशांसि बलि-कर्ण-दधीचिमुख्या, दानोत्सवैरविरलानि भुवि व्यधास्यन् । भक्तैरदास्यत विलासमरालबाललक्ष्मीर्यदीयघनदानयशोनदीषु श्रीवाससद्मकरपद्मगदीपकल्पां, व्यापारिणः कति न बिभ्रति हेममुद्राम् ? । प्रज्वालयन्ति जगदप्यनयैव केऽपि, येन व्यमोचि तु समस्तमिदं तमस्तः ॥१८ ॥ कान्ता जगत्रितयविस्मयनीयनीतेः, सीतेति रामचरितस्य बभूव तस्य । यल्लोचनं स्थिरतरं दयिताननेन्दौ, दूरेण काञ्चनमृगश्रियमन्वगच्छत् ॥ १९ ॥ हर्षादसौ हसतु शीतकरोऽपि भासा, भृङ्गीरुतैरपि च हुङ्कुरुतां सरोजम् । दूरावलम्बितशिरोम्बरडम्बरेण, यस्या मुखं जगति न प्रकटं यदासीत् ॥२०॥ तत्सम्भवत्रिभुवनाभरणं बभार, शुभ्रं यशोभरमनश्वरमश्वराजः । मुक्त्वा कलङ्ककलितं ललितं हिमांशु, हर्षादलाभि सकलाभिरयं कलाभिः ॥२१॥ यं मातृभक्तिशुचिमेव यशश्छलेन, संसेव्य जातसुकृतो रजनीभुजङ्गः । आसीजगत्रितयविस्तृतवैभवश्च, साक्षात् कलङ्करहितश्च सदोदितश्च ॥ २२ ॥ हुत्वा सदध्वरचितेषु तमांसि तीर्थयात्रोत्सवेषु खलु सप्तसु पावकेषु । यः सप्तपूर्वपुरुषैकमुदे यशोऽम्भःपूर्तानि सप्त भुवनानि कृती प्रतेने ॥ २३ ॥ संस्तूयमानचरितः परितः प्रबुद्धैः, सत्यव्रते सुकृतसूनुरिवान्वहं यः । लज्जामसज्जयत चापगुरुद्विजेन्द्रद्रोणक्षयक्षणतदुक्तिविचारणेन तस्य प्रिया प्रणयपात्रममात्रशीललीलायितं बत ! बभार कुमारदेवी । आलीयत प्रतिपदं जिनपादपद्मे, चित्तेशवक्त्रकमले च यदीयदृष्टिः ॥ २५ ॥ यस्या मुखे जिनगुणग्रहणप्ररोहत्प्रीत्या शिरः प्रतिकलं परिकम्पयन्त्याः । हित्वाऽम्बुजं च रजनीरमणं च लोला, दोलाकुतूहलरसं समसेवत श्रीः ॥२६ ॥ सूनुस्तयोरजनि नीरजनिर्मलास्यः, श्रीलास्यभूः स्मरकलः किल लूणिगाख्यः । बाल्येऽपि यस्य चरितं विरराज वृद्धसंवादकं क्रमनिराकृतपल्लवस्य ॥ २७॥ यस्याऽऽननं द्विजवियुक्तमपि द्विजेन्द्रसान्द्रप्रभाभरमभान्नवशैशवस्य । अङ्गं च केशलवमुक्तमपि व्यराजद्, यस्य प्रवालरुचिराधरपाणिपादम् ॥ २८ ॥ सत्याभिधस्तदनुजो मनुजावतंसरत्नं बभूव विदितो भुवि मल्लदेवः । यस्याप्रतः प्रतिकलं गतिविभ्रमेण, विभ्राजते स्म न महानपि हस्तिमलः ॥२९॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरनारायणानन्दस्य षोडशः सर्गः । [ वादर्श ॥ ३० ॥ ॥ ३३ ॥ और्वाग्निनाऽपतत यः सततं पयोधौ, पातालसीनि फणिफुत्कृतिदावदाहः । चण्डेव चण्डकरधर्मघटेति मत्वा, यस्योज्ज्वलानि वचनानि सुधा सिषेवे तस्यानुजः पितृपदाम्बुजचञ्चरीकः, श्रीमातृभक्तिसरसीरसकेलिहंसः । साक्षाज्जिनाधिपतिधर्मनृपाङ्गरक्षो, जागर्ति नर्तितमना हृदि वस्तुपालः नागेन्द्रगच्छमुकुटाऽमरचन्द्रसूरिपादाब्जभृङ्गहरिभद्रमुनीन्द्रशिष्यात् । व्याख्यावचो विजय सेनगुरोः सुधाभमास्वाद्य धर्मपथि सत्पथिकोऽभवद् यः ॥ ३२ ॥ कुर्वन् मुहुर्विमल-रैवतकादितीर्थयात्रां स्वकीयपितृपुण्यकृते मुदा यः । सङ्घट्टिसङ्घपदरेणुभरेण चित्रं, सद्दर्शनं जगति निर्मलयाम्बभूव धर्मौचितीं रुचितकामगवीं निषेव्य, दुग्धप्रपास्त्रिजगतोऽपि वितत्य कीर्तीः । यो मातृदुग्धरसपान महोत्सवानामानृण्यमात्मनि कथञ्चन नैव मेने भास्वत्प्रभावमधुराय निरन्तरायधर्मोत्सवव्यतिकराय निरन्तराय । यो गुर्जरावनिशिरोमणिभीमभ्रूपमन्त्रीन्द्रतापरवशत्वमपि प्रपेदे यः कामवृत्तिरनुजेन निजेन तेजःपालेन पूर्णनृपकार्यपरम्परेण । सद्धर्मकर्मरस एव मनो मनोज्ञविद्वद्विनोदपयसि स्नपयाम्बभूव यः स्वीयमातृ-पितृ-बन्धु- कलत्र-पुत्र - मित्रादिपुण्यजनये जनयाञ्चकार । सद्दर्शनत्रजविकासकृते च धर्मस्थानावलीवलयिनीमवनीमशेषाम् कीर्त्या सौरभसारसान्द्र सुमनःसन्दोहसन्दोहक ॥ ३४ ॥ ॥ ३१ ॥ ।। ३५ ।। ॥ ३६ ॥ त्कान्त्या पाति वसन्तमन्वहमसावित्यर्पितार्थक्रमम् । ख्यातिं प्राप वसन्तपाल इति यो नामाद्वितीयं मुदा, विद्वद्भिः परिकल्पितं हरिहर - श्री सोमशर्मादिभिः श्रीशत्रुञ्जयशैलशेखरमणेः श्रीनाभिसूनुप्रभोः, पीत्वा वक्त्रसुधांशुदीधितिसुधामाकण्ठमुत्कण्ठया । व्यातन्वन् कवितां नितान्तमुदितः सद्यस्तदुद्गारवत्, ॥ ३९ ॥ तस्यैवाऽऽदिजिनेश्वरस्य जनयामास स्तवं यो नवम् नरनारायणानन्दो, नाम कन्दो मुदामिदम् । तेने तेन महाकाव्यं, वाग्देवीधर्मसूनुना ॥ ४० ॥ उद्भास्वद्विश्वविद्यालयमयमनसः ! कोविदेन्द्राः ! वितन्द्राः !, मन्त्री बद्धाञ्जलिर्वो विनयनतशिरा याचते वस्तुपालः । अल्पप्रज्ञाप्रबोधादपि सपदि मया कल्पितेऽस्मिन् प्रबन्धे, भूयो भूयोऽपि यूयं जनयत नयनक्षेपतो दोषमोषम् ॥ ३७ ॥ ॥ ३८ ॥ ॥ इति श्रीगुर्जरेश्वर महामात्य श्रीवसन्तपालविरचिते नरनारायणानन्दनाम्नि महाकाव्ये प्रशस्तिप्रपञ्चो नाम षोडशः सर्गः ॥ ॥ ४१ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशं परिशिष्टम् गुर्जरेश्वरमहामात्यश्रीवस्तुपालविरचितस्तोत्रादि । मनोरथमयं विमलाचलतीर्थमण्डनश्री आदिनाथस्तोत्रम् । लब्ध्वा मानुषजन्म जातिसुकुलप्रष्ठां प्रतिष्ठामिमां, धृत्वा धर्मधुरीणतामधिगतः सङ्घाधिपत्यश्रियम् । तीर्थेशामि ! वस्तुपालसचिवो विश्वाग्रजाग्रत्पदा ssरोहाय प्रगुणां मनोरथमयीं निःश्रेणिमाशिश्रियत् श्रीनाय ! मनोरथाः शतपथा मिथ्याभिमानाम्बुधेः, कल्लोला इव विस्फुरन्ति विषयग्राहग्रहव्ययिताः । हित्वा तानिति वस्तुपालसचिवः सद्बोधदुग्धोदधे जे वीचिसमानिमान् शमदमप्रव्यक्तमुक्ताफलान् प्रत्याशं प्रसरत्कषायविषयज्वालाकरालादितो, दूरीभूय भयङ्ककराद् भवदवाद् व्यामोहधूमान्धितः । श्री शत्रुञ्जयशैलपावन ! जिन ! त्वद्वत्रचन्द्रातपो पास्तिध्वस्ततमाः शमामृतहृदे दाहं कदाऽहं क्षिपे ? एतस्मिन् भववारिधौ निरवधिक्रोधौर्ववह्नेयुत खस्तो लोभतिमिङ्गिलस्य गिलनात् क्लेशाम्भसो निर्गतः । वस्तस्तात ! कदा कदाग्रहमहाग्राहाच्च शत्रुञ्जय द्वीपं प्राप्य भजेय जेयविजयप्रीतः परां निर्वृतिम् ? संसारव्यवहारतो रतिमऽतिव्यावर्त्य कर्तव्यता वार्तामप्यपहाय चिन्मयतया त्रैलोक्यमालोकयन् । श्रीशत्रुञ्जयशैलगह्वरगुहामध्ये निबद्धस्थितिः, श्रीनाभेय ! कदा लभेय गलितज्ञेयाभिमानं मनः ? स्वामिन् ! मृत्युहरेरहं हरिणवन्नष्टोऽतिकष्टायुध व्याधिव्याधशतैर्वृतः श्रितभवारण्योऽशरण्यो भ्रमन् । नामेय ! त्वमनाकुलः कुलपतिर्यत्रासि तस्मिल्लभे, श्रीशत्रुञ्जयशैलनामनि कदा पुण्याश्रमे विश्रमम् ? ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ॥ ६ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८ ॥ मनोरथमयं श्रीआदिनाथस्तोत्रम् । [प्रमोद श्रीगोप्मभिरौप्मलेषु धनिनामीर्थ्यानलज्वालया, जिह्वालेषु मृगीदृशामनुशयामायितेषु द्विषाम् । वक्त्रेषु ग्लपितामिमां त्रिजगतीनिस्तन्द्रचन्द्रोदये, देव श्रीविमलाद्रिकेतन ! कदा दास्ये त्वदास्ये दृशम् ? क्रोधेन ज्वलितो हतोऽहमिषुभिः पञ्चेषुणा पञ्चभिः, बद्धो मोहमहाद्विषा च विषयग्रामं प्रकामं श्रितः । तद् ध्वस्तान्तरवैरिवार ! भुवनस्वामिन् ! सनाथे त्वया, दुर्गे श्रीविमलाद्रिनामनि सुखं स्थातास्मि सुस्थः कदा ? आस्यं कस्य न वीक्षितं ? क न कृता सेवा ? न के वा स्तुताः ?, तृष्णापूरपराहतेन विहिता केषां च नाभ्यर्थना ! । तत् त्रातर् ! विमलाद्रिनन्दनवनीकल्पैककल्पद्रुम !, त्वामासाद्य कदा कदर्थनमिदं भूयोऽपि नाहं सहे ? संसारे सुखहेतुवस्तुविषयैरुत्सङ्गितैः सङ्गतै दत्ता देव ! त्वदन्यदेव तदियं वाञ्छा ममोत्सेकिनी । श्रेयोवैभव ! नाभिसम्भव ! भवाकूपारपारङ्गम !, श्रीशत्रुञ्जयमण्डनेन भवता भावी कदा सनमः ? ॥१०॥ एताः शमामृतरसेन हृदालवाले, संवर्धिताः पृथुमनोरथवल्लयो मे । विश्वैकमित्र ! भगवन् ! भवतः प्रसादाल्लोकोत्तरैः फलभरैः सफलीभवन्तु ॥११॥ धर्मध्यानमना मनोरथमयं स्तोत्रं युगादिप्रभो____ श्चक्रे गूर्जरचक्रवर्तिसचिवः श्रीवस्तुपालः कविः । प्रातः प्रातरधीयमानमनघां यच्चित्तवृत्तिं सता माधत्ते विभुतां च ताण्डवयति श्रेयःश्रियं पुष्यति ॥ इति गूर्जरेश्वरमहामात्यश्रीवस्तुपालविरचितं मनोरथमयं विमलाचल तीर्थमण्डनश्रीआदिनाथ जिनस्तोत्रम् ॥ ॥ १२ ॥ १ अयं श्लोकः प्रबन्धकोशे ११४ तमपृष्ठे २९१तमः, पुरातनप्रबन्धसंग्रहे ६० तमपृष्ठे १७२ तमः वर्तते ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रैवतकाद्रिमण्डनश्रीनेमिजिनस्तवः । ॥१ ॥ जयत्यसमसंयमः शमितमन्मथप्राभवो, भवोदधिमहातरिर्दुरितदावपाथोधरः । तपस्तपनपूर्वदिक्कलुषकर्मवल्लीगजः, समुद्रविजयाङ्गजस्त्रिभुवनैकचूडामाणिः अहङ्कतिलतायुधं प्रमदमान्द्यसिद्धौषधं, मदेन्धनधनञ्जयः स्मरकरीन्द्रकण्ठीरवः । स्पृहारजनिवासरः प्रथितपकतीव्रातपः, समुद्रविजयात्मजः स्फुरतु मानसे मेऽनिशम् ॥२॥ मेरुर्मे रुचिमातनोति न मुधा मानी हिमानीगिरिः, कैलासस्तु न वस्तुतः स्तुतिपदं वन्ध्यः स विन्ध्याचलः। श्लाघ्यो रैवत एव केवलमयं शृङ्गाणि शृङ्गारय-त्युच्चैर्यस्य जगत्रयस्तुतिपदः श्रीनेमिकल्पद्रुमः ॥३॥ संसारार्तितपोपतापशमनश्रद्धालवः! किं मुधा, राग-द्वेषदवोल्मुकैर्बत ! बुधाः! सेव्यान्तरैः सेवितैः ।। आजन्मोपशमामृतैकसरसः श्रीरिष्टनेमिप्रभो-निर्वृत्यौपयिकं पदाम्बुजयुगं धत्त प्रसक्तं हृदि ॥४॥ यस्यानीकवधूभिरेव विजिताः स्व-भू-र्भुवःस्वामिनो, मौलौ शासनमुद्वहन्ति भुवने देवोऽयमेकः स्मरः । सोऽप्याजन्मजितः करोति न करे जैत्रं धनुर्य प्रति, प्रीति रैवतदैवतं वितनुतां देवाधिदेवः स वः ॥५॥ येषां मूर्तिरसौ तवेश ! परमानन्दैकनिस्यन्दिनी, ध्यानावेशवशंवदा स्मृतिपथे शश्वत् पुनीतेतमाम् । ' तेषां सम्मदवारिपूरितदृशां शैवेय! नैवेयम-प्याधत्ते मनसश्चमत्कृतिसुखं सा सिद्धिसीमन्तिनी ॥ ६॥ साम्राज्यं चतुरणवीनिवसनक्षोणीशमौलिस्खल-त्पादाब्जं न सुरा-ऽसुरेन्द्रमुकुटस्पृष्टांहिपीठं च न । सिद्धिं शाश्वतसौख्यसङ्गसुभगां नाभ्यर्थये किन्तु मे, श्रीशैवेय! तवेयमस्तु चरणाम्भोजेषु भक्तिभृशम् ॥७॥ नेपथ्यैरतिथीभवत्पृथुतरापथ्यैरतथ्यप्रथै-रुद्यद्वैद्युतडम्बरैः किमपरैरेकैव भूयान्मम । आश्लेषस्पृहयालुमुक्तियुवतिप्रीतिप्रियम्भावुका, श्रीमन्नेमिजिनेशितुः स्तुतिरियं अवेयकं शाश्वतम् ॥ ८॥ इत्थं श्रीवस्तुपालः सुकृतसुरतरोरालवालस्त्रिलोकी स्वामिन् नेमे ! त्वदीयक्रमकमलरजःपुञ्जपुण्यैकभालः । संघाधीशथुलुक्यक्षितिपतिसचिवः शारदाधर्मसनुविज्ञप्तिं ते विधत्ते प्रथय मम सदा दर्शनेन प्रसादम् ॥ ९ ॥ श्रीसचभर्तृसचिवेश्वरवस्तुपालक्लप्तेन नेमिनमनेन किलाष्टकेन । यः स्तौति तस्य कमलामविलम्बमम्बादेवी तनोत्यतनु सन्तनुते च तेजः ॥१०॥ ॥ इति गूर्जरेश्वरमहामात्यश्रीवस्तुपालकृतो रैवतकाद्रि मण्डनश्रीनेमिजिनस्तवः ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अम्बिकास्तोत्रम् | (३) अम्बिकास्तोत्रम् | पुण्ये गिरीशशिरसि प्रथितावतारामासूत्रितंत्रिजगतीदुरितापहाराम् । दौर्गत्यपातिजनताजनितावलम्बा मम्बामहं महिमहैमवतीं महेयम् यद्वक्त्रकुञ्जकुहरोद्गत सिंहनादोऽप्युन्मादिविघ्न करियूथकधाममाथम् । कुष्माण्ड ! खण्डयतु दुर्विनयेन कण्ठः, कण्ठीरवः स तव भक्तिनतेषु भीतिम् ॥ २ ॥ कुष्माण्ड ! मण्डनमभूत् तव पादपद्मयुग्मं यदीयहृदयाव निमण्डलस्य । पद्मालया नवनिवासविशेषलाभलुब्धा न धावति कुतोऽपि ततः परेण दारिद्र्यदुर्दमतमः शमनप्रदीपाः, सन्तानकानन घनाघनवारिधाराः । दुःखोपतप्तजनबालमृणालदण्डाः, कुष्माण्डि ! पान्तु पदपद्मनखांशवस्ते देवि ! प्रकाशयति सन्ततमेष कामं, वामेतरस्तव करश्चरणानतानाम् । कुर्वन् पुरः प्रणितां सहकारलुम्बिमम्बे ! विलम्बविकलस्य फलस्य लाभम् ॥ ५ ॥ हन्तुं जनस्य दुरितं त्वरिता त्वमेव नित्यं त्वमेव जिनशासनरक्षणाय । देवि ! त्वमेव पुरुषोत्तममाननीया, कामं विभासि विभया सभया त्वमेव तेषां मृगेश्वर - गर- ज्वर - मारि - वैरि- दुर्वारवारण - जल - ज्वलनोद्भवा भीः । उच्छृङ्खलं न खलु खेलति येषु धत्से, वात्सल्यपल्लवितमम्बकमम्बिके ! त्वम् ॥ ७ ॥ देवि ! त्वदूर्जितजितप्रतिपन्थितीर्थयात्राविधौ बुधजनाननरङ्गसङ्ग । एतत् त्वयि स्तुतिनिभाद्भुतकल्पवल्लीहल्लीसकं सकलसङ्घमनोमुदेऽस्तु ॥ ८ ॥ वरदे ! कल्पवल्लि ! त्वं, स्तुतिरूपे ! सरस्वति ! | पादाग्रानुगतं भक्तं, लम्भयस्वातुलैः फलैः ॥ ९ ॥ स्तोत्रं श्रोत्ररसायनं श्रुतसरस्वानम्बिकायाः पुर व गूर्जरचक्रवर्त्तिसचिवः श्रीवस्तुपालः कविः । प्रातः प्रातरधीयमानमनघं यच्चित्तवृत्तिं सता माधत्ते विभुतां च ताण्डवयति श्रेयः श्रियं पुष्यति ॥ इति महामात्यश्रीवस्तुपालविनिर्मितमम्बिकास्तोत्रम् ॥ [ त्रयोद ॥ १ ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 ॥ ६ ॥ ॥ १० ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ] श्रीवस्तुपालकृता आराधना । महामात्यश्रीवस्तुपालकृता आराधना । न कृतं सुकृतं किञ्चित् , सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणामेकमेव गतं वयः ॥१॥ अर्हन्तस्त्रिजगद्वन्द्यान् , सिद्धान् विध्वस्तबन्धनान् । साधूंश्च जैनधर्म च, प्रपद्ये शरणं त्रिधा ॥२॥ कृतं षड्विधजीवानां, पीडनं क्रीडयाऽपि यत् । हास्यादिना विमूढेन, यन्मृषा भाषितं मया ॥३॥ परद्रव्येष्वदत्तेषु, यन्मनोऽपि नियोजितम् । कथञ्चिदभिलाषोऽपि, यदब्रह्मणि निर्मितः ॥४॥ मूर्च्छया विहितः कश्चिदाग्रहो यत् परिग्रहे । स्वप्नेऽप्याऽऽविष्कृता या च, रजनीभोजने स्पृहा ॥५॥ चक्रे कोपश्च यत्किञ्चिद् , या च काचिदहकृतिः । माया लोभश्च यस्तत्र, मिथ्या दुष्कृतमस्तु मे। यद् वात्सल्यं कृतं नैव, यद् गुणा नानुमोदिताः । गुरवो यदवज्ञाताः, संस्तुता यत् कुतीर्थिकाः ॥७॥ कुदेशना च या चक्रे, यत् सिद्धान्तेऽप्यवासना । यत् सत्कर्मप्रमादश्च, निन्दामि तदशेषतः ॥ ८ ॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्रं, गोचरे विहितं च यत् । मार्गानुसारतः सर्वांस्ताम्येयोरनुमादये (?) ॥९॥ त्यजामि पापमाहारं, बाह्ये मध्यमखण्डतः । श्रयेऽहं सुकृतं पारभविकं दुष्कृतं त्यजन् ॥१०॥ ॥ इति मन्त्रीश्वरश्रीवस्तुपालकृता आराधना ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशं परिशिष्टम श्रीमदरिसिंहविरचितं सुकृतसंकीर्तनमहाकाव्यम् । वनराजः श्रीवेश्मविस्मयमयप्रबलप्रतापश्चापोत्कटान्वयवनैकहरिनरेन्द्रः । आसीदसीमचरितः परितप्तशत्रु-भालाप्तिाभिनलिनो वनराजदेवः यत्खड्गखण्डितविरोधिशिरोऽधिरक्त-स्रोतस्विनीभिरुदधिर्विदधे सरागः । येनाऽधुनाऽप्यरुणतां भजतस्तदङ्ग-सम्पर्कतोऽर्क-शशिनावुदयक्षणेषु निर्गत्य कोशकुहरादसिदन्दशूकः, श्यामो यथागतमगात् त्वरितं यदीयः । एतेषु मास्म विशदेष परैरितीव, रुद्धेषु वक्त्रविवरेषु कराङ्गुलीभिः खट्वाङ्गसञ्जतकरस्तरवारिलग्न-कृत्तारिमुण्डमिषतः समराङ्गणे यः । भालाधिरोपितहुताशनचण्डचक्षु-रामादिभासुरविरोधिविभासुरश्रीः ॥४॥ तेने कृतान्तसमतां रसनासनाभि-धारोद्धरो यदसिरञ्जनमञ्जलश्रीः । अहाय यस्य युधि दर्शनसंज्ञयैव, भिन्दन्नरीनधित किङ्करतां कृतान्तः स्तब्धप्रकम्पितविलीनविवर्णगात्रैः, खिन्नैर्विभङ्गररवस्फुरदश्रलेशम् । उन्मुच्य पौरुषमवाप्य च भीरुभावं, यः सेव्यते रिपुभिरुत्पुलकैः प्रसन्नः ॥६॥ आकर्ण्य तूर्णमुपकर्णयितुं च यस्य, कीर्ति मुहुर्भुजगभीरुगणेन गीताम् । चक्षुःश्रवा रसक्शेन दृशां निमेषो-न्मेषक्रियामनिमिषोऽपि चकार शेषः वक्रीकृते धनुषि मौक्तिकताडपत्रज्योत्स्नाम्बुभारभृति पल्वलतां दधाने । यस्याऽऽननं विकचवारिजकल्पमन्त-भेंजे विहाय परराजकरान् जयश्रीः ॥८॥ श्रीमत् पुरं भुवि पुरन्दरपत्तनाभं, तेनाऽऽदधेऽणहिलपाटकनामधेयम् । स्त्रीणां मुखे स्मरतपस्विवनेऽजनीन्दु-पद्मश्रियोरसुहृदोरपि यत्र योगः। अन्तर्वसद्धनजनाद्भुतभारतो भू-र्मा भ्रश्यतादिति भृशं वनराजदेवः। पञ्चासराहनवपार्श्वजिनेशवेश्म-व्याजादिह क्षितिधरं नवमाततान ॥१०॥ १ग-विशीर्ण ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३७॥ परिशिष्टम् ] लिखितप्रतिप्रान्तगता वस्तुपालादिप्रतिबद्धाः प्रशस्तयः । तस्याः पादतलप्रपातरभसोड्डीनैरिवोड्डामरै स्तेनातस्तरिरे तरङ्गितयशःकिञ्जल्कजालैर्दिशः विश्वेऽस्मिन् कस्य चेतो हरति नहि समुल्लास्य विश्वासमुच्चैः, प्रौढश्वेतांशुरोचिःप्रचयसहचरी वस्तुपालस्य कीर्तिः । मन्ये तेनेयमारोहति गिरिषु भिया लीयते गहरेषु, स्वर्गोत्सजानुपास्ते भजति जलनिधिं याति पातालमूलम् ॥ ३८ ॥ एतेभ्यः प्रभुणा सगौरवमहं तावत् प्रदत्ता परं, देश देशममी भ्रमन्ति तदहं गच्छाम्यमीभिः समम् । नो चेत् काऽप्यपरा मिलिष्यति वधूस्तत्रेति भीत्या ध्रुवं, कीर्तिर्यस्य गुणाननु भ्रमति स श्रीवस्तुपालः कृती ॥ ३९ ॥ सोऽयं धात्री धवलयति को वस्तुपालोऽचलेन्द्र स्तस्मादाविर्भवति समरे काऽपि दोःस्फूर्तिगङ्गा । मस्यां ममाः प्रतिवसुमतीवल्लभानां समन्तात् , सम्पद्यन्ते खलु पुनरनावृत्तये कीर्तयस्ताः ॥४०॥ छ । (पाटण संघवीपाटक-ताडपत्रीय-भंडार) महामात्य श्रीवस्तुपालसुतजैत्रसिंहलेखित पुस्तिका प्रशस्तिः । प्राग्वाटान्वयमण्डनं समजनि श्रीचण्डपो मण्डपः, ____श्रीविश्रामकृते तदीयतनयश्चण्डप्रसादाभिधः । सोमस्तत्प्रभवोऽभवत् कुवलयानन्दाय तस्याऽऽत्मभू राशाराज इति श्रुतः श्रुतरहस्तत्त्वावबोधे बुधः तज्जन्मा वस्तुपालः सचिवपतिरसौ सन्ततं धर्मकर्मा लंकर्मीणैकबुद्धिर्विबुधजन[चम ?] त्कारिचारित्रपात्रम् । प्राप्तः सङ्घाधिपत्वं दुरितविजयिनी सूत्रयन् सङ्घयात्रां धर्मस्यौज्ज्वल्यमाधात् कलिसमयमयं कालिमानं विलुप्य यस्याग्रजो मल्लदेव उतथ्य इव वाक्पतेः । उपेन्द्र इव चेन्द्रस्य तेजःपालोऽनुजः पुनः चौलुक्यचन्द्रलूणप्रसादतनुजस्य वीरधवलस्य । यो दधे राज्यधुरामेकधुरीणं विधाय निजमनुजम् ॥ २ ॥ ॥४ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखितप्रतिप्रान्तगता वस्तुपालादिप्रतिबद्धाः प्रशस्तयः। [चतुर्दशं विभुता-विक्रम-विद्या-विदग्धता-वित्त-वितरण-विवेकैः । यः सप्तभिर्विकारैः कलितोऽपि बभार न विकारम् अपि चाप्यायिता वापी-प्रपा-कूप-सरोवरैः । पोषिता पोषधागारैर्जीर्णोद्धारैः समुद्धृताः ॥६॥ श्रिया प्रीतया निर्व्याज पूजिता सङ्घपूजनैः । प्रशस्तिविस्तरस्तोमैः सरस्वत्यापि संस्तुता ॥ ७ ॥ शौर्येणोर्जस्वितां नीता स्फीता नव्योक्तिसूक्तिभिः । प्रीताऽर्थिसार्थसत्कारैरुपकारैः पुरस्कृता ॥८॥ वासिता साधुवादेन तोरणैस्तुगतां गता। हैमस्रग्दामकुम्भेन्द्रमण्डपाद्यैश्च मण्डिता नित्यं शत्रुञ्जयाद्रौ नवजिनभवनोत्तुङ्गशृङ्गाग्रजाग्र द्वातव्याधूतधौतध्वजपटकपटाद् यस्य ननर्ति कीर्तिः । तस्येयं गेहलक्ष्मीविभवति ललितादेविनानी तदीयः पुत्रोऽयं जैत्रसिंहः स्फुरति जनमनःकन्दरामन्दिरेषु ॥१०॥ दृष्ला वपुश्च वृत्तं च परस्परविरोधिनी ? । विवदाते समं यस्मिन् मिथस्तारुण्य-वार्द्धके ॥ ११ ॥ सोऽयं सहवदेवी कुक्षिभवस्य प्रतापसिंहस्य। तनयस्य श्रेयोऽर्थ व्यधापयत् पुस्तिकामेताम् ॥ १२ ॥ पुष्पदन्ताविमौ यावद् दीप्रौ ब्रह्माण्डमण्डपे । एषा सुपुस्तिका तावद् धर्मजागरकारणम् ॥ १३ ॥ [ एतत्प्रशस्तियुक्ता पुस्तिका पत्तननगरे वाडीपार्श्वनाथभाण्डागारे विद्यते।] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशं परिशिष्टम् श्रीविजयसेनसूरिविरचित रेवंतगिरिरासु । परमेसर तित्थेसरह, पयपंकय पणमेवि । भणिसु रासु रेवंतगिरे, अंबिकदेवि सुमरेवि ॥१॥ गामागर पुर वण वहण, सरि सरवरि सुपएसु । देवभूमि दिसि पच्छिमह, मणहरु सोरठदेसु ॥ २ ॥ जिणु तहिं मंडेल मंडणउ, मरगयमउडमहंतु । निम्मल सामल सिहरभरे, रेहँइ गिरि रेवंतु ॥ ३ ।। तसु "सिरि सामिउ सामलउ, सोहगसुंदर सारु। जाइवनिम्मलकुलतिलउ, निवसइ नेमिकुमारु ॥ ४ ॥ तसु मुह दंसणु दसदिसि वि, देसदेसंतरु संघ । आवइ भावरसालमणउ, हलि [हलि] रंगतरंग ॥ ५ ॥ पोरुयाडकुलमंडणउ, नंदणु आसाराय । वस्तुपाल वर मंति तहिं, तेजपालु दुइ भाय ॥ ६॥ गुरजरधरधुरि धवलकि, वीरधवलदेवराजि । बिहु बंधवि अवयारियउ, सू [स]मू दूसम माझि ॥ ७ ॥ नायलगच्छह मंडणउ, विजयसेणरिराउ । उवएसिहि बिहु नरपवरे, धम्मि धरिउ दिदु भाउ तेजपालि गिरनारतले, तेजलपुरु नियनामि । कारिउ गढ-मढ-पर्वपवरु, मणहरु घरि आरामि ॥९॥ तहिं पुरि सोहिउ पासजिणु, आसारायविहारु । निम्मिउ नामिहि निजजणणि, कुमरसरोवर फारु तहि नयरह पुरवदिसिहि, उग्गसेण गढदुग्गु। आदिजिणेसरपमुहजिणमंदिरि भरिउ समग्गु ॥ ११ ॥ बाहिरि गढ दाहिणदिसिहि, चउरियवेहिविसालु । लाडुकलहहियओरडीय, तडि पसु ठाइ कराल ॥ १२ ॥ तहि नयरह उत्तरदिसिहि, साल-थंभसंभार । मंडण महिमंडल........, मंडप दसह उयार ॥ १३ ॥ जोइउ जोइउ भवियण, पेमि गिरिहि दुयारि । दामोदरु हरि पंचमउ, सुवन्नरेहनइ पारि ॥१४॥ अगुण अंजण अंबिलीय, अंबाडय अंकुल्लु । उंबरु अंबरु आमलीय, अगरु असोय अहल्ल ॥ १५ ॥ करवर करपट करणतर, करवंदी करवीरा । कुडा कडाह कयंब कड, करब कदलि कंपीर ॥ १६ ॥ वेयलु वंजलु बउल वडो, वेडस वरण विडंग । वासंती वीरिणि विरह, वंसियालि वण चंग ॥ १७ ॥ सीसमि सिंबलि सिरसमि, सिंधुवारि सिरखंडा । सरल सार साहार सय, सागु सिगु सिणदंड ॥ १८ ॥ १ वहण झरणं ॥ २ मंडल-देश ॥३ राजते शोभे छे ॥ ४ सिरि-मस्तक-शिखर ॥ ५ प्रपा पाणीनी परब ॥ ६ स्फार प्रधान ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीविजयसेनसूरिविरचित [पञ्चदशं पल्लव-फुल्ल-फलुल्लसिय, रेहइ तहि वणराइ । तहि उजिलतलि धम्मियह, उल्लंटु अंगि न माइ ॥ १९ ॥ बोलावी संघह तणीय, कालमेघंतर पंथि । मेल्हविय तहिं दिढ धणीय, वस्तुपाल वरमंति ।। २० ॥ ॥प्रथमं कडवं ॥ ॥४ ॥ दुविहि गुजरदेसे रिउरायविहंडणु, कुमरपालु भूपाल जिणसासणमंडणु । तेण संठाविओ सुरठदंडाहिवो, अंबओ सिरिसिरिमालकुलसंभवो । पाज सुविसाल तिणि नैठिय, अंतरे धवल पुणु पैरव भराविय धनु सु धवलह भाउ जिणि पाग पयासिय, बारविसोत्तरवरसे जसु जस दिसि वासिय । जिम जिम चडइं तडि कडणि गिरनारह, तिम तिम ऊडई जण भवण संसारह ।। जिम जिम सेउँ जलु अंगि पलोट्टए, तिम तिम कलिमलु सयलु ओहट्टए ॥२॥ जिम जिम वायइ वाउ तहि निज्झरसीयलु, तिम तिम भवदुहदाहो तक्खणि तुट्टइ निश्चल । कोइलकलयलो मोरकेकारवो, सुम्मए महुयर महुरु गुंजारवो । पाज चदंतह सावयालोयणी, लापारामु दिसि दीसए दाहिणी ॥ ३॥ जलदजालवबाले नीझरणि रमाउलु, रेहइ उजिलसिहरु अलि-कजलसामलु ।। बहलवुहु धातुरसभेउणी, जत्थ उलदलइ सोवन्नमइ मेउणी । जत्थ दिप्पंति दिवोसही सुंदरा, गुहिर वर गरुय गंभीर गिरिकंदरा जाइ कुंदु विहसंतो जं कुसुमिहि संकलु, दीसइ दस दिसि दिवसो किरि तारामंडलु । मिलियनवलवलिदलकुसुमझलहालिया, ललियसुरमहिवलयचलणतलतालिया । गलियथलकमलमयरंदजलकोमला, विउल सिलवट्ट सोहंति तहिं संमैला मणहरघणवणगहणे रसिर हसिय किंनरा, गेउ मुहुरु गायतो सिरिनेमिजिणेसरा । जत्थ सिरिनेमिजिणु अच्छए अच्छरा, असुरसुरउरगकिंनरयविज्जाहरा । मउडमणिकिरणपिंजरिय गिरियसेहरा, हरसि आवंति बहुभत्तिभरनिब्भरा सामियनेमिकुमारपयपंकयलंछिउ, धेर धूल वि जिण धन्न मन पूरइ वंछिउ । जो भवकोडाकोड्डि................, अन्नु सोवन्नु घणु दाणु जउ दिज्जए । सेवउ जडकम्मघणगंठि जउ तिजए, तउ उजिंतसिहरु पाविजए । जम्मणु जोवणु] जीविय तसु तहिं कयत्थू, जे नर उर्जितसिहरु पेक्खइ वरतित्थू । आसि गुरजरधरय जेण अमरेसरु, सिरिजयसिंघदेउ पवरु पुहवीसरु । हणवि सोरठु तिणि राउ षंगारउ, ठविउ साजणु दंडाहिवं सारउ ॥ ८ ॥ १ऊलट-शुभ भावना ॥ २ पद्याम्पहाड उपर चडवा माटे पगथीयां बांधेलो रस्तो || ३ निष्ठिता-तैयार करावी ॥४प्रपा-पाणीनी परब ॥ ५ स्वेदजल-परसेवो ॥ ६ सुम्मए-आयते-संभळायले ॥ ७ श्यामला काळी ॥ ८ हर्षेण हरखे ॥ ९ पृथ्वी अने धूळ पण ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिएर रेवतगिरिधनु। अहिणवु नेमिजिणिंद तिणि भवणु कराविउ, निम्मलु चंदरु बिंबे नियंनाउं लिहाविउ । थोरविक्खंभवायंभरमाउलं, ललियपुत्तलियकलसकुलसंकुलं । मंडपु दंड घणुतुंगतरतोरणं, धवलिय बज्झि रुणझणिरिकिंकिणिघणं । इक्कारसयसहीउ पंचासीय वच्छरि, नेमिभुयणु उद्धरिउ साजणि नरसेहरि मालवमंडलगुहमुहमंडणु, भावडसाहु दालिधुखंडणु । ऑमलसार सोवन्नु तिणि कारिउ, किरि गयणंगण सूरु अवयारिउ । अवरसिहर वरकलस झलहलइ मणोहर, नेमिभुयणि तिणि दिठुइ दुह गलइ निरंतर ॥१०॥ ॥ द्वितीयं कडवं ॥ दिसि उत्तर कसमीरदेसु नेमिहि उम्माहिय । अजिउ रतन दुइ बंधैं गरुय संघाहिव आविय ॥१॥ हरसवसिण घणकलस भरिवि ति न्हवणु करंतह । गलिउ लेव सु नेमिबिंब जलधार पडतह ॥ २ ॥ संघाहिवु संघेण सहिउ नियमणि संतविउ । हा हा ! धिगु धिगु! महं विमलकुलगंजणु आविउ ॥३॥ सामियसीमलधीरचरण मह सरणि भवंतरि । इम परिहरि आहार नियमु लइउ संघधुरंधरि ॥ ४ ॥ एकवीसि उपवासि तामु अंबिकदेवि आविय । पभणइ संपसन्न देवि जय जय सद्दाविय ॥५॥ उद्देविणु सिरिनेमिबिंबु तुलिउ तुरंतउ । पच्छलु ममैं जो रसि वच्छ ! तुं भवणि वलंतउ ॥ ६ ॥ णइवि अवि.........कंचणं.........बलाणइ। .........बिंबु मणिमउ तहिं आणइ ॥ ७॥ पढमभवणि देहलिहि छुडि पुडि आरोविउ । संघाहिवि हरिसेण ताम दिसि पच्छलु जोइउ ॥ ८ ॥ ठिउ निच्चलु देहलिहि देवु सिरिनेमिकुमारो । कुसुमवुट्टि मिल्हेवि देवि किउ जइजड्कारो ॥ ९॥ वइसाहीपुन्निमह पुन्नवंतिण जिणु थप्पिउ । पच्छिमदिसि निम्मविउ भवणु भवदुहतरुकप्पिउ ॥१०॥ न्हवण-विलेवणतणीय वंछ भवियणजण पूरिय । संघाहिव सिरिअजित-रतनु नियदेसि पेराइय ॥११॥ सयल वित्ति कलिकालि कालकलसे जाणवि छाहिउ । झलहलंति मणिबिंबकंति अंबिकुरुं आइय । ॥ १२ ॥ समुद्दविजय-सिवदेविपुत्तु जायवकुलमंडणु । जरासिंधदलमलणु मयणभडमाणविहंडणु ॥ १३ ॥ राइमईमणहरणु रमणु सिवरमणि मणोहरु । पुन्नवंत पणमंति नेमिजिणु सोहगुसुंदरु ॥ १४ ॥ वस्तपालि वर मंति भुयणु कारिउ रिसहेसरु । अट्ठावय-सम्मेयसिहरवरमंडपु मणहरु ॥ १५ ॥ कउडिजक्खु मरुदेवि दुह वि तुंगु पासाइउ । धम्मिय सिरु धुणंति देव वलिवि पलोइउ ॥ १६ ॥ तेजपालि निम्मविउ तत्थ तिहुयणजणरंजणु । कल्याणउतउतुंगु भुयणु लंघिउ गयणंगणु ॥ १७ ॥ १ निज नाम ॥ २ दारिद्रखण्डनः दारिद्रने दूर करनार ॥ ३ नेमिनाथना मंदिरनो आमलसारो ॥ ४ बन्धु भाई ॥ ५ सामियसामल नेमिनाथ भगवान् ॥ ६ मुप्रसन्ना ॥ ७ निषेधार्थक अव्यय ॥ ८ बलानक-मंदिरनो एक भाग ॥ ९परागताः पाछा आध्या ॥:१० कल्याणकत्रयतुंगं भवन-नेमिनाथ भगवानना दीक्षा केवलज्ञान अने निर्वाण ए त्रण कल्याणकने लगतुं विशाळ मंदिर ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ विजसेनसूरिविरचित [ पश्चदर्श दीसइ दिसि दिसि कुंडि कुंडि नीझरणउ मालो । इंद्रमंडपु देपालि मंत्रि उद्धरिउ विसालो ॥१८॥ अइरावणगयरायपायमुद्दासम टंकिउ । दिट्ठ गयंदमुकुंड विमलु निज्झरसमलंकिउ ॥ १९ ॥ गयणगंग जं सयलतित्थअवयारु भणिज्जइ । पक्खालिवि तहि अंगु दुक्ख जलअंजलि दिजइ ॥२०॥ सिंदुवार-मंदार-कुरबक-कुंदिहि सुंदरु । जाइ-जूइ-सयवत्ति-वित्तिफलेहि निरंतर ॥२१॥ दिट्ठय छत्रसिलकडणि संबवणु सहसारामु । नेमिजिणेसरदिक्ख-नाण-निवाणह ठामु ॥ २२ ॥ ॥ तृतीयं कडवं ॥ ॥४॥ गिरिगरुया सिहरि चडेवि, अंब-जंबाहि बंबालिउं ए । संमिणी ए अंबिकदेविदेउलु दीठु रमाउलं ए वज्जइ ए ताल कंसाल, वज्जइ मद्दल गुहिरसर । रंगिहिं ए नच्चइ बाल, पेखिवि अंबिकमुहकमलु सुभकरु ए ठविउ उच्छंगि, विभकरो नंदणु पासिक ए । सोहइ ए ऊर्जिलसिंगि, सामिणी सीहँसिंघासणी ए दावइ ए दुक्खहं भंगु, पूरइ वंछिउ भवियजण । रक्खइ ए चउविहु संघु, सामिणी सीहसिंघासणी ए दस दिसि ए नेमिकुमारि, आरोही अवलोइउं ए । दीजइ ए तहि गिरनारि, गयणंगणु अवलोणसिहरो पहिलइ ए सांबकुमार, बीजइ सिहरि पजून पुण । पणमई ए पामइं पारु, भवियण भीसण भवभमण ठामि ठामि ए रयणसोवन्न, बिंब जिणेसर तहिं ठविय । पणमइ ए ते नर धन्न, जे न कलिकालि मलमयलिया ए जं फलु ए सिहरसंमेय, अट्ठावय नंदीसरिहिं । । तं फलु ए भवि पामेइ, पेखेविणु रेवंतसिहरो गहगण ए माहि जिम भाणु, पन्वयमाहि जिम मेरुगिरि ए । त्रिहु भुयणे ए तेम पहाणु, तित्थमाहि रेवंतगिरि धवल धय ए चमर भिंगार, आरत्ति मंगलपईव । तिलय मउड ए कुंडल हार, मेघाडंबर जावियं ए १ दशे दिशामां ॥ २ झरणांनी माला ॥ ३ आंबा अने जांबूनां झाडोथी ॥ ४ स्वामिनी ॥ ५ रमणीय ॥ ६ उजयंतभंगे ॥ ७-८ अम्बिकादेवी ॥ ९ मलमलिनिताः मलमेला ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् । ] रेवतगिरिशसु । दियहिं ए नर जो पवर, चंद्रोयें नेमिजिणेसरवरभुयणि । भवि ए भुंजवि भोय, सो तित्थेसरसिरि लहइ ए चहुए संघु करेइ, जो आवइ उर्जितगिरि । दिविसैव ए रागु करे, सो मुंबइ चउगइगमणि अहि ए जय ( झ ) करंति, आठई जो तहिं करइ ए । अट्ठवह ए करम हणंति, सो अट्ठभवि सिज्झइ ए अंबिल ए जो उपवास, एगासण नीवी करई ए । तसु मणि ए अछई आस, इहभव परभव विविह परे पेमहि ए मुणिण अन्नह, दाणु धम्मियवच्छल करई ए । तसु कही ए नहीं उपमाणु, परभाति सरण तिणर x आवइ ए जे न उज्जिंति, घरघर धोलिया ए । आविही ए हियइ न संति, निष्फलु जीविउ तासु तणउं जीविउ ए सो जि परि धन्नु तासु संमच्छर निच्छणु ए । सो परि ए मासु परि धन्नु, बलि हीजइ नहि वासर ए जणु ए उज्जलठामि, सोहगसुंदरु सामलु ए । दीसइ ए तिहूणसामि, नयणसलूणउं नेमिजिणु नीजर ए चमर ढलंति, मेघाडंबर सिरि घरीइं । तित्थह ए सउ रेवंदि, सिंहासणि जयइ नेमिजिणु रंगहि ए रमइ जो रासु, सिरिविजयसेणि सूरि निम्मविउ ए । नेमिजिणु ए तूसइ तासु, अंबिक पूरइ मणि रलीए ॥ चतुर्थं कडवं ॥ ॥ समन्तु रेवंतगिरिरासु ॥ १०३ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥ ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ ॥ १९ ॥ १ आपे ॥ २ चंद्रवो ॥ ३ देवांगना ॥ ४ घरआंगणे ॥ ५ धंधोलीया धंधामां रच्यापच्या रहेनारा, अथवा धांधलीया = रात दिवस धमाल करनारा ॥ ६ निर्जर=देव ॥ ७ रेवंतगिरि || व० १४ ॥ २० ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशं परिशिष्टम् पाल्हण पुत्र कृत आबूरास ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ६० ॥ पणमेविणु सामिणि वाएसरि, अभिनवु कवितु रेयं परमेसरि । नंदीवरधनु जासु निवासो, पभणउ नेमिजिणंदह रासो गूजरदेसह मज्झि पहाणं, चंद्रवती नयरि वक्खाणं । वावि सरोवर सुरहि सुणीअइ, बहुयारामिहि ऊपम दीजइ त्रिग चौचरि चैउहट विथारा, प( म )ढ मंदिर धवलहर पगारा । छत्रिस राजकुली निवसेइ, धनु धनु धम्मिउ लोकु वसेइ राजु करइ तह ( हिं) सोमनरिंदो, निम्मल सोलकला जिम चंदो । हिव वन्नउ गिरि पुहवि प्रसिद्धं, बहुयहं लोयहं तणउ जु तीथो घण वणरायहं सजलु सुठाउं, तहिं गिरिवर पुणु आबू नाउं । तसु सिरि बारह गाम निवासो (सी), राठी गूगलिया तहिं तपसी तसु सिरि पहिलउ देउ सुणीजइ, अचलेसरु तसु ऊपमु दीजइ । तहि छइ देवत बालकुमारी, सिरि मा सामिणि कहउ विचारी विमलिहिं ठवियउ पावनिकंदो, तहि छइ सामिउ रिसहजिणिंदो। सानिधु संघह करइ संखेवी, तहि छइ सामिणि अंबाएवी पुरुत्व पच्छिम धम्मिय तहिं आवहिं, उत्तर दक्षिण संघु जिणवरु न्हावहिं । पेखहि मंदिरु रिसह खत्ता (रवन्ना ?), नाचहि धम्मिय बहु गुणवत्ता(न्ना) धनु धनु विमलडि जेणि कराविउ, ससिमंडलि जिणि नाउ लिहाविउ । बिहुं सइ वरिसह अंतरु मुणीजइ, बीजउ नेमिहि भुवणु सुणीजइ ठवणिनमिवि चिराणउ थु(पु ?) णि नमिवि, बीजा मंदिरनिवेसु । त पुहविहि माहिं जो सलँहिजए, ऊतिम गूजर देसु ॥ त सोलंकियकुलसँभभिडं, सूरउ जगि जसवाउ । त गूजरातधुरसमुधरणु, राणउं लूणपसाउ परिवलु दल्ल जो आडवए, जिणि पेलिउ सुरिताणु । राजु करइ अन्नय तणओ, जासु अगंजिउ माणु ॥ ॥ ८॥ १ प्रणम्य ॥ २ रचयामि ॥ ३ चत्वर || ४ चौटां ॥ ५ नाम ॥६लाध्यते ॥ ७ संभमिउंसंभविउ =संभूतः ॥ ८ गूजरातनी धुराने बहेनार ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १०५ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ ॥ १४ ॥ ॥ १५॥ ॥ १६॥ परिशिष्टम् ] आबूरास। लुणसापुत्तु जु विरधवले, राणउ अरडकमल्ल । त चोर-चराडिहि आगलओ, रिपुरायह उरि साल भासवस्तपालु तसु तणइ महंतउ, सहुयरु तेजपाल उदयंतउ । अभिणबु मंदिर जेण कराविय, ठोवि ठावि जिणबिंब भरात्रिय महिमंडलि किय जेणि उद्धारा, नीरनिवाणिहि सत्तूकारा । सेत्तुजसिहरि तलावु खणाविउ, अणपमसरु तसु नामु दियाविउ नितु नितु सुरसंघ पूजा कीजइ, छहि दरिसणि घरि दाणु वि दीजइ । संघ पुरिस पुहविहि सलहीजइ, रीतु वघेला बहु मानिजइ अन्न दिवसि निय मणि चिंतीजइ, महतइ तेजपालि पभणीजइ । आबू भणिजइ तीथहं ठाउं, जइ जिणमंदिरु तह नीपावउं ठाकुरु ऊदल ताव हकारिउ, कहिय बात कान्हइ बइसारिउ । आबू रिखभह मंदिरु आछइ, महतउ तेजपालु इम पूछई बीजउ नेमिहिं भुवणु करेसहं, जइ जिणमंदिर थाहर लहिसहं । पहिलउ सोमनरिंदु पूछीजइ, कटक माहि जाइवि विनवीजइ ठवणिमहतिहिं जायवि भेटियओ धावलदेविमल्लारु । त कड(र) जोडेविणु वीनतओ, सोमनरिंद प्रमारु ॥ विनति अम्हहं तणीय, सामिय तुहु अवधारि । ___त मागउ थाहर मंदिरह, आबृयगिरिहि मझारि त तूठउ धांवलदिवितणउ, आगइ कहियउ एहु। त विमलह मंदिर आससउं, बिजउं करावहु देव ।। अम्हि धुरि गोठिय आबुयह, आगे अछह निवाणु । त करिज मंदिरु तिजपाल ! तुहुँ, हियइ म धरिजहु काणि भासादिस( य ! )इ आय(ए)सु तह सोमनरिंदो, वस्तुपालु तेजपालु आणंदो । जिण समिय मंदिरु वेगि निप्पज्जए, अइसु निरोपु दिव उदुलु दीजए अइसि ऊदल्लु चंद्रावती आवए, सयलु महाजनु घरि तेडावए । चालहु हिव आबुइ जाएसहं, जिणमंदिर थाहर भूमि जोएसहं ॥ १८ ॥ ॥ १९ ॥ ॥२०॥ ॥२१॥ १साल-शल्यतुल्यः॥ २ ठागे ठामे स्थाने स्थाने ।। ३ कने बेसारी-पासे वेसारीने ॥ ४ मंदिरने लायक भूमी॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पाल्हण पुत्र कृत । [ षोडशं चलिउ ऊदल्लु महाजनि सहितउं, आबुय देवलवाडइ पहुतओ। ठामि ठामि मंदिरभूमि जोयंतओ, मिलिउ मेलावओ आबुय लोयहं ॥ २२ ॥ मंदिर थाहर नवि आपेसहं, प्राणिहिं भुवणु करण नवि देसहं । आगए विमलमंदिर निप्पनओ, सिर मा भूमिहिं दीनउ दानु ॥ २३ ॥ ठवणिऊदल्लु तित्थु [त]पसीय बहु परि मनावइ । राठी वर गूगुलिया वस्तइं पहिरावइ ॥ २४ ॥ भासअम्हि धुरि गोटिय दिव निमिनाथ, जिणभूमि आपहु ते इसु बाहा । विमल मंदिरु ऊतर दिसि जाम, लक्ष्य भूमि तिल(ज)पालु वधाविउ ॥२५॥ महतइ तेजपाल पभणीजइ, सोभनदिउ सुतहारु तेडीजइ । जाइज आबुइ तुहुं (मुहुतु) कमठाए, वेगिहि जिणमंदिरु निप्पाए ॥ २६॥ चालिउ पइट करिउ सुतहारो, भूमि सुवण इकवार अहारो । सोभनदिउ विगि आबुइ आवइ, कमठा मुहुतु आरंभु करावइ ॥२७॥ भासमूलग्ग पायारधर, पूजिउ कुरुम प्रवेसु । भरिउ गडारउ तहि ज पुरे, खरसिल हुयउ निवेसु ।। आसंनी तहिं ऊघडिय, पाथरकेरिय खाणि । निपनु गडारउ मूलिगओ, देउलु चडिउ प्रमाणि ॥ २८॥ रूपा सरिसउ समतुल ए, दसहि दिसावरि जाइ । पाहणु तहिं आरासणउं, आणिउ तहिं कमठाइ ।। सरवर घाटु जो नीपजए, मंदिरु बहु विस्तारि । त आतिसइ दीसइ रूवडउं, नेमिजिणिंद पयारु ॥ २९ ॥ ठवणिसोभनदेउ सुतहारो कमठाउ करावइ । सइ तउ मंत्रि तिजपालो जिणबिंबु भरावइ ॥३०॥ भासखंभायति वर नयरि बिंबु निप्पज्जए, रयणमउ नेमिजिणु ऊपम दीजए । दिसंति कंति रयणकंति सामल धीरा, बहु पंकति बहु सफति जाइ सरीरा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ॥ ३२ ॥ ॥ ३३ ॥ ॥ ३४ ॥ ॥ ३५॥ ॥३६॥ ॥ ३७॥ परिशिष्टम् ] आबूरास । निवसए बिंबु जो सालह संठिओ, विजयसिणसूरि गुरि पढम पतीठिओ। निपनु परिपूरनु सामलदेउ, धणु तिजपाल जिणि आबुय नेओ धवलसुत सुरहि पुत ठविय तहिं रहवरे, खडइ सुहडा सुमुहुआ आबुय गिरवरे । नयरवर गामह माहिहि आवए, सइत भवियहो जिण पहेरावए आबुय तलवटे रत्थु पहूतओ, तेणीय ऊवरणीय पाज चडंतओ। थडऊथडइ रहु पाज विसमी खरी, वेगि संपत्त अंबिक वर अच्छरी सानिधि अंबाइय रत्थु चडंतओ देवलवाडए दिणि छठइ पडतओ ठवणिआबुय सिहरि संपत्तु देउ पहु नेमिजिणेसरु । वणसइ सवि विहसणहं लग्ग आइउ तित्थेसरु उच्छंगिहि जुगादिजिणु जिणु पहिलउ ठविजइ । तुहं गरुयउ निमिनाथ बिंबु तिजपालिहिं कीजइ हक्कारहु वर जोइसिय पइठह दिणु जोयहु । तेडावहु चउविहहं संघु पुर-पाटण-गामहं बार संवच्छरि छियासियए( १२८६ ) परमेसरु संठिठ । चेत्रह तीजह किसिण पखि निमि भुवणिहि संठिउ बहु आयरिहिं पयट्ठ किय बहु भाउ धरंता । रागु न(त) वद्धइ भवियजणाहं निमितित्थु नमंतह श्रावे हंडावडा तणे जिणु पहिलउ न्हवियउ । पाछइ न्हवियउ सयल संघि तुम्हि पणमहु भवियहु [ ........................ ] तासु कल्याणिकु कीजइ । दसमि तित्थु नेमि जात रेसि संघ पासि मंगीजइ संघु रहिउ जिणि जात करिवि नेमिभुवण विसाल । पूरि मणोरह वस्तुपाल मंति तेजपाल मूरति बपु असराज तणी कुमरादि विभाया । काराविय नेमिभुवणुमाहि बिहु निम्मलकाया काराविउ निमिभुवण फल लयउ संसारे । निसुणहु चरितु नदन्ते (ते ? ) तिणि धंधूय प्रमारे रिषभमंदिरु सासणि जाणुं धुंधुय दिन्नउ डकडवाणिउं गाउं । तिणि सुमसीहि उजालिउ नाउं नेमिहि दिन्नु डवाणिउ गाउं ॥ ३८ ॥ ॥ ३९॥ ॥ ४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥१४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ १ बपु पिता ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पोड आबूरास। [भास] [ .... । ........... ॥ ४७ ॥ ४८। अनेक संघपति आबुइ आवहिं, कनक कपड निमिजिणु पहिरावहिं पूजहि माणिक मोतिय हले, किवि पूजहिं सोगंधिहिं फूले । केवि हु हियडय भावण भावहिं, केवि हु मंनीणइ आराहहिं केवि चडावलि नेमि नमीजइ, रासु वयणु पाल्हण पुत्र कीजइ । बार संवच्छरि नवमासीए( १२८९), वसंत मासु रमाउल दीहे एह राहु(सु ! ) विस्तारिहिं जाए, राषइ सयल संघ अंबाई । राखइ जाखु जु आछइ खेडइ, राखइ ब्रह्मसंति मूढेरह ॥४९। ॥ ५०। ॥ आबूरासः समाप्तः ।। १ माणेक अने मोतीना फूलथी ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टानि। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह । पद्यानुक्रमणिका। * * * * * * * १०२ अइरावणगयराय अइसि ऊदल्लु अकारयन्नगाकारं अगण्यपुण्योदय अगुण अंजण अग्रे हम्मीरवीरश् अचिन्त्यदातार अच्छिद्रो यदि तत्कृतः अजनि रजनिजानि अजयदजयपाल अट्ठविह एजय अणहिलपुरमस्ति अत्यद्भुता सचिवपुङ्गव! अत्यद्भुतैः कृत्यशतैः अत्रैव शत्रुञ्जय अत्रैव शैले रचयाञ्चकार अनन्तप्रागल्भ्यः अनुजन्मना समेतस् अनुजोऽस्यापि अनुपमदेवी देवी अनुपमदेव्यां पल्यां अनुपमदेव्यास्तेन अनुसृतसजन अन्तःकजलम अलश्रि अन्तःक्षारं रिपूणां अन्तर्यत्कीर्त्तिकासारं अन्तर्योम श्रवन्ती अन्ये केचन १०२ अन्वयेन विनयेन १०५ अन्न दिवसि २६ अपास्य शौण्डीर्यमदं २६ अपि चाप्यायिता ९९ अप्राप्ततादृशगुणां ___५ अभूदनुपमा पत्नी ४३ अभ्यर्च्य देवान् ८ अम्बिकाभवने येन ७६-१ अबिल ए जो ३६ अम्भोजेषु मराल १०३ अम्भोदभ्रममाजि ५९ अम्हि धुरि २० अयं हि राकासु २९ अयमनुदिनदानो २८ अरिबलदलनश्री २८ अरुन्धतीव कान्ता ३२ अर्कपालितकग्राम ६० अर्चिषामयन ७६-२ अर्णोराजाङ्गजातं ६३ अर्थदानदलिता ७६-२ अर्थव्यर्थितदुस्थ २८ अर्हस्तनोतु भुवना अर्हतस्त्रिजगद् अवञ्चयन्नाशु ४० असावाशाराज ३६ असौ कीर्तीः स्वका असौ भुवनपालस्य ३७ अस्ति प्रशस्ता ८२ ७८ २२ * * * * * * * * * * * * * * * * * ५३ ४ ه ه ه ه ३५ ७६-२ १२ ه Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अस्ति स्वस्तिनिकेतनं अस्थापयत् स्थिरमतिः अस्मद्गोत्रैकमित्रं अस्मिन्नाभिभुवः अस्मिन्नुन्नतवेश्म अस्य त्रिक्रमविक्रमस्य अहंकृतिलतायुधं अहिण म आकृष्टे कमलाकुलस्य आगो यहवार आजन्मत्रासहेतु आत्मगुणैः किरणैरिव आत्मा त्वं जगतः आदिमः प्रशम आदेशं देव ! यद्येवं आधेनाऽप्यपवर्जनेन आनन्दचन्द्राऽमरचन्द्र आनन्दाऽमरसूरी आनन्दाय सुदर्शना आपपे प्रसृति आय तलवटे आय सिहरि आयाताः कति आयुर्वा होर्मित् आव ए जे आशाभ्यो नवपुष्प आशाराज इति आशाराजः शस्यधी आशाराजस्य पितुः आश्चर्यं वसुवृष्टिभिः आसीदिशो दोष्मदा आसीचंडपमंडिता आस्ते तस्य सुधारहस्य सुकृत कीर्तिकल्लोलिनी - आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लो० पृ० ६३ ३८ १२ १५ ४९ ६३ १३२ १६६ १३ ५३ ९ १३ १७ ६८ ६ ८ ४१ ६८ १५३ १०० ३ ३० ३४ ३६ ५ १६१ १६ २६ १०७ २१ ९७ १८ १६ ६९ ११६ २ ५ ९३ १०१ ५३ ३१ ६ ५९ ४९ ८५ ३९ ५२ १३ २९ ३४ ३६ १०७ १०७ ४७ १४ १०३ १९ ९ २५ २८ ३१ २ ६४ १० आस्यं कस्य न आहडस्तदजनि इंदबिंदुरपां इतर गुणकथायाः इतौलुक्यवीराणां इत्थं श्रीवस्तुपालः इत्यन्तः स्मित इत्युक्त्वा प्रीति इत्युक्त्वा मम इदं सदा सोदरयो इन्दुः पत्रावलम्ब इन्दुः पत्रावलम्बं इन्दुर्निन्दति इन्दुर्बिन्दुरप इमां समयवैषम्याद् इमामकृत सद्गुरोर् इयमनुपमदेवी इह तेजपाल इह वालिग इह वालिगसुत पदोद्धारं ईदृग्रूप गुरूपदेश उच्छंगिहि उट्ठेविणु सिरिनेमि उत्कर्षगुणां उत्फुल्लमल्ली उत्से कि तो सूत्र उदग्रतेजः सुकृतक उदारः शूरो वा उदधारानुजो यस् उद्धृत्य पञ्चासर उद्धृत्य वैद्यनाथ उद्भास्वद्विश्वविद्या श्लो० ९ ७ ६ २५ ९ ६९ ५१ ६७ २१ १५८ १७ ११ १२८ १५ १७८ ५४ ७ ६५ १६२ ३७ ६ ४५ ५४ १७ 22. १० ४ ५२ ३२ ५८ ४१ ů + + 3 x 6 3 2 पृ० ९२ ५७ ४२ ६० ९३ ३९ ३७ ३९ ६० १४ १९ ४० ११ २२ १६ * 2 2 2 2 x 2 ६३ ४७ ४७ ५० २७ १४ १०७ १०१ 2 w 8 x 8 ३७ ८६ ८० २४ ४९ 2 0 2 0 २७ २६ २७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्भूत प्रतिभा उद्भूत प्रतिभा उपार्जि विभुता ऊदल्लुतित्थु ऋग्वेदी च ऋजुरोहित एकवीस उपवास एकाऽपि प्रमदां एकैकेन विमोह एको पत्तनिमित्तौ एतद्धर्मस्थानं एतस्मादजनि एतस्मिन् भव एतस्मिन् वसुधा एतस्मिन् वसुधा एतस्य विकसद्धर्मा एताः शमाभृतरसेन एतेभ्यः प्रभुणा एतेऽश्व राजपुत्रा एह राहु और्वाग्निनाऽपतत औषधीशसखः सत्यं कउडिजक्खु कथ्यन्ते न महीभृतः कमभृताम्भो करवर करपट करसरसिरुहं ते करसरसिरुहं ते कराम्भोजं भेजे कराम्भोज भेजे कर्णायास्तु नमो कर्णे खलप्रलपित कर्मसाक्षिभवताप लो० १३० १३ ९७ २४ ११ २४ ५ १२ १८ २३ ७२ ? ४ १६ १०६ ११ ३९ १८ ܘ ३० ४ १६ ६१ १ १६ ५ ९ ३४ १० २८ 2 १० १५१ पद्यानुक्रमणिका । पृ० ११ १८ ८ १०६ ८२ ८३ १०१ २ ८० ६० ६५ ५९ ९१ २२ ५५ ९ ९२ ९७ ६० १०८ ९० ४० १०१ ५ ७८ ९९ ४१ ४२ ३ १८ ३३ ५० १३ कल्पद्रुप्रसवावतंस कल्पाविष्करणादितो कवीन्द्रपदवीगृहा कस्यापि कविता कान्तं यं वीक्ष्य कान्तस्वान्तसरो कान्ता जगलितव कान्ते कृष्णेऽभिभूते काराविउ निसु काले यत्खङ्गदण्डे काव्येन नयपद किं च कारयता किं चित्रं यदि किं वर्णी लवण किञ्चैतेन गुणैः किमिह कपाल कीर्तिकरमलित कीर्त्तिस्तोमसुधा की सौरभसार कुण्डलप्रतिमित कुदेशना च या कुन्दं मन्दप्रतापं कुमारपालस्य कुमार पुत्रेण कुर्वन् परार्थ्यगणिते कुर्वन् मुहुर्विमल कुशोपशोभितैर् कुष्माण्ड ! मण्डन कृतं पड्विवजीवानां कृत्वाऽधः कच्छपं कृष्णीकृतारिखदना के निधाय वसुधातले केवि चडावलि 'लो० xoxo m 2 १९ ५० ३९ १११ १९ ४० ४५ २१ ४९ ५७ १६८ ७८ १४९ १ ४४ ७ ३८ ९२ ८ ६ २९ ६७ १६ ३३ २३ ३ ६ ४ ६ ४९ ११३ पृ० ४० ८० ८५ ५४ ४ ९ ८९ ४ १०७ २२ ८५ २७ १३ ६७ ३७ ३४ ९० ८ ९५ ३० ८४ ८७ ८९ ९० ८३ x x x v ९४ ९५ ३४ ८८ ४९ १०८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ 5 Y १०४ ६४ ~N 201८ १ १७२ १०४ W0 35 ० ११४ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लो. पृ० कोटीरैः कटका ____३१ गुरोस्त]स्या शि]षां कोटीरैः कटका ५१ गूजरदेसह मज्झि कोदण्डं स्वकरे गृहीतं कुप्यता कोपाग्निज्वलिता ७ गृह्णासि नाम परतोऽपि कोपाटोपपरैः परैश् १२ गोग्रहमोज्झिता कोपाटोपपरैः परैश् गोमयरसानुलिसे क्रान्तशक्रबलो गौरीवरश्वशुर क्रामन्ति स्म यथा ग्रामेऽर्कपालितक क्रीडाकथासु सदसि ८८ ग्रामे शासनदत्ते च क्रुद्धे युद्धेषु यस्मिन् ७ घण वणरायह क्रोधेन ज्वलितो ९२ घोरारण्यविलचनै क्वचिदिह विहरंतीर् ६१ चंडप्र[सा]दसं[ज्ञः] क्षीणत्वं दाक्षिणात्या ६ चक्रे कोपश्च क्षीणे चक्षुषि ८६ चक्रे च यो धवलके क्षीराब्धि ठति १३५ चञ्चत्पञ्चम खंभायति वर १०६ चण्डप्रसाद इति खेलखड्गषडंहि ३ चण्डप्रसाद इति ख्यातः सङ्ग्रामसिंहो १२ चण्डप्रसादपुण्यं गयणगंग जं चण्डांशोरपि चण्डता गर्जन्निर्जरकुञ्जरे चत्वारस्तनया गर्ननिर्जरकुञ्जरे १८ चलियउ ऊदल्लु गर्वात् पूर्व ७९ चहुविहु ए संघु गहगण ए माहि चान्द्रे कुले गांभीर्ये जलधिर् ७६-३ चालिउ पइठि गाथास्ताः खलु चित्रं चित्रं समुद्रात गामागर पुर चित्रं विवल्गन्नपि गिरिगरुया सिहरि १०२ चिन्तातीतफलप्रदः गुणग्रामे रामे चिन्तातीतफलप्रदः गुणधननिधान चीत्कारैः शकटवजस्य गुणौघहंसालि २५ चूडामणीकृतः गुरजरधरधुरि ९९ चेतः किं कलिकाल ! गुरुः कुलेऽस्य २९ चेतः किं कलिकाल ! गुरुः श्रीहरिभद्रोऽयं ७९ चेतः केतकगर्भ ० ३१ २७ १०६ MARA... Mrv 2004 ७८ Www ०G WG 06 Www a b m ० ० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालुक्यः सुकृती चौलुक्य क्षितिपाल चौलुक्यचन्द्र छद्मोत्से कितनी जं फल ए. जगदन्यंमन्यः जज्ञे हर्षपुरी जनव्यामोह जम्बूद्वीप जलधि जम्मणु जोव [] जयति विजयसेन जयत्य समसंयमः जलद जालवबाले जहिं जिणु ए जाइ कुंदु विहसंतो जातः करीन्द्रोगुर जाता कृष्णपदात् जाहू- माऊ-साऊ जिणु तर्हि मंडल जित्वा म्लेच्छपतेर् जिम जिम वायइ जीयाद विजयसेनस्य जीयासुः कवयो जीवि ए. सो जुहूवन् पातक जैन धर्ममुरीचकार जो उ जोइउ ज्ञान-दर्शन- चारित्र ज्येष्ठः श्रेष्ठतमः ठाकुरु ऊदल ठामि ठामि ए ठिउ निचल इविवि लो० २८ ५ ४ ५ ८ ६५ १०४ ७ ८ १५७ १ ४ १८ ५ १७ १३३ १७ ३ ३८ ३ ६ ८ १७ ७० २५ १४ 3 २८ १६ ७ ९ 19 पद्यानुक्रमणिका । पृ० ६१ ४५ ९५ २ १०२ ६ २९ ४२ ४३ १०० १४ ९३ १०० १०३ १०० २ १२ ६० ९९ ८४ १०० ७८ १ १०३ ३९ ३६ ९९ ९५ ८३ १०५ १०२ १०१ १०१ तएव स्तूयन्ते तजगत्यां च तज्जन्मा वस्तुपालः त तूठउ ततोऽभवत् कीर्ति तत्कामश्रीजन तत्कालं कलहे तत् त्रैलोक्यनिभ वोदित्वर तत्पट्टे प्रथमः तत्पदे विजयसेन तत्पदे विजयसेन तत्पदे विजयसेन तत्र प्राग्वादान्चय तत्र रैवतकाधीशः तत्र लोलाकृति तत्राऽऽत्मस्वामिनो तत्रैकं राणक तत्रैव वीरधवल तत्रैवारयद् तत्संभवस्त्रिभुवा तत्सत्यं कृतिभिर् तदन्तिके च निःशेष तदन्वयम्भ तदात्मजः संयति दि मौलिy मौलि तदीये शिखरे नेमिं तन्नन्दनः कुमुद तमः सर्वान्नीने तमहतमहं बद्धूवा तमेकदा करारोप तयोः प्रथमपुत्रो तव वक्त्रं शतपत्रं श्लो ६२ २ १९ ९ ३८ २२ २० ६ १०१ १७ ९ ४ ७९ ५४ ८१ ६६ १७६ ७६ २१ १० ८६ ३ ६ ११८ ८९ १६ १९ ६९ ६४ ८ ४७ 2 ११५ पृ० ८६ २७ ९७ १०५ २४ ४ ३५ ३५ ८० ७९ २९ ७६-३ ७९ ५९ २८ . २७ २८ २७ १६ २७ 606 ८९ ३१ २८ २४ २४ १० २८ २५ २२ ६ ३८ ५९ ८५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृतकोतिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लो० bu 5 १५ ६ MAS० ० G 0 m mm ० ० 0. 0 . M ४० mmm ० १०१ m २४ ४३ ५६ तसु मुह दसणु तसु सिरि पहिलउ तसु सिरि सामिउ तस्मात् कुमारः तस्मादकश्मल तस्मादनंतर तस्मादभूदजयपाल तस्मादभूद् तस्मान्नेत्रसुधाञ्जनं तस्माद् भस्मीकृत तस्माद् विस्मारित तस्मिन् काञ्चनकोटिभिः तस्मै संयमिनामिनाय तस्मै स्वस्ति चिरं तस्य गर्भगृहोत्सङ्गे तस्य जगत्यां तस्य प्रिया प्रणय तस्य प्रिया मुद तस्याऽऽज्ञया तस्यानुजः तस्यानुजन्मा तस्यानुजो विजयते तस्याऽभवन्निर्मल तस्याऽभूत्तनया तस्यैवाऽऽद्यविभो तहि नयरह उत्तर तहिं पुरि सोहिउ तहिं नयरह पूरव तादृक्कम्पव्यतिकर तादृग्दानपरम्पराभि तीर्थेशाः प्रणतेन्द्र तुङ्गेभभीम तेजःपाल इति ९९ तेजःपाल: पालित १०४ तेजःपाल: सकल ९९ तेजःपाल: सचिवतिलको तेजःपाल ! कृपालुधुर्य ! तेजःपालयशो तेजःपालस्य विष्णोथ तेजःपालस्य विष्णोश्च ३५ तेजःपालेन पुण्यार्थ ३ तेजःस्फूर्जितदीप तेजपालि निम्मविउ ३५ तेजपालि गिरनार २३ तेजोवह्निहुताष्टदिग् तेन भ्रातृयुगेन ७६-४ तेन मंत्रिद्वयेनायं २६ तेषां मृगेश्वर २७ तैस्तैर्येन जनाय तैत्रिभिः प्रथम त्यजामि पापमाहारं ७९ त्यागाराधिनि राधेये त्रिग चाचरि त्रिजगति यशसस्ते त्रिभुवनदेवी तस्य २५ त्वत्कीर्तिज्योत्स्नया ७६-२ दत्तालोकेऽर्थिलोके २७ देत्ते चेतसि सम्मदं दधेऽस्य वीरधवल ९९ दन्तौ धर्ममतङ्गजस्य ९९ दयिता ललितादेवी ३६ दयिता ललितादेवी ३६ दर्श दर्शमसह्य ५० दस दिसि ए ७८ दानं दुर्गतवर्गसर्ग ६३ दानानि तानि T WM w, m mm MMM X 001 जY V८ ४४० १०९ ७१ __२६ __१०२ २६ २५ १९८३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानुक्रमणिका। को श्लो १६० 10MS a. N ९८ w v o or r ० s N MMM Wx mm Mmm w ० o १०२ ० १०२ W १०७ दायादा कुमुदावलिर दारिद्रयदुर्दम दावइ ए दुक्खहं दास्यवर्तिन इवाऽऽस्य दिग्यात्रोत्सववीर दिग्यात्रोत्सववीर दिग्यात्रोत्सववीर दिय छसिल दियहिं ए नर दिस(य ?)इ आय(प)सु दिसि उत्तर कसमीर दीपः स्फूर्जति दीपः स्फूर्जति दीसइ दिसि दिसि दुर्गः स्वर्गगिरिः दुर्गः स्वर्गगिरिः दुर्विहि गुजरदेसे दुष्टारिकोटि दूरं दुर्ललितेन दृश्यः कस्यापि दृश्यः कस्यापि दृश्यन्ते मणिमौक्तिक दृष्ट्या वपुश्च दृष्ट्वा वपुश्च देवः पङ्कजभूर देवः परं जिनवरो देवः स वः देव ! त्वत्प्रतिपन्थि देव स्वर्नाथ ! कष्टं देव स्वर्नाथ ! कष्ट देवि ! त्वर्जित हेवि ! प्रकाशयति देवी सरोजासन पृ० २१ देशोऽरण्यप्रदेशो ९४ दोषोन्मुद्रणमुद्रितेऽपि १०२ द्वारे यत् किल ___५ धंधुक-ध्रुव-भटा १० धनमनवरत धनु धनु विमलडि धनु सु धवलह १०२ धन्यः स वीरधवल १०३ धर्मध्यानमना १०५ धर्मविधाने भुवन १०१ धर्मस्थानमिदं २३ धर्मस्थानांकितामुवी ४७ धौचिती रुचित धवल धय ए २१ धवलसुत सुरहि धात्रीधुरीण भुज धाम्नां धाम धाम्नि स्वर्धामशैलं धाराधीशपुरोधसा १९ धाराधीशे विन्ध्यवर्म धारावर्षसुतोऽयं धीराः सत्त्वमुशन्ति ९८ न किं स हरितुल्यता ५५ न कृतं सुकृतं ३३ नगराख्ये महास्थाने नताशेषद्वेषि नभस्ये निर्वृष्टाः ४० नमिवि चिराणउ ३२ नम्रारीन्दुमुखी न यस्य लक्ष्मीपति ९४ नरनारायणानन्दो न वदति परुषा ६२ नागेन्द्रगच्छ १०० १ oc १२४ moc Wc Wom ० ० ४ ८ 05 ० ० M " WG ० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ नाभूवन् कति नाभेयं नेमिनाथं च नायलगच्छह नितु नितु सुरसंघ नित्यं शत्रुञ्जयाद्रौ नियोगिनागेषु निरीन्द्रग्रामे वोडाख्य निर्मायाssदिजिनेंद्र निवस बिंबु नीजर ए चमर नीता वशं विषम नीलनीरदकदम्बक नृत्यन्त्या व्योमरङ्गे नृणां यत्पदपद्मयोर् नेत्राणाममृताञ्जनं नेपथ्यैरतिथीभवत् नैवोष्ठसम्पुट द्यशांसि न्यस्यावश्यं शिरसि न्यासं व्यातनुतां न्हवण-विलेवण पंथानमेको न पञ्च पौषधशालाश्व पढम भवणि पणमेव सामिणि पत्नी तस्याजायता पत्युर्नदीनामिव पदं विजय सम्पदा पद्मा पद्ममपास्य पद्माभिरामहस्तेन पद्माभिरामहस्तेन पन्था ग्रन्थाटवीनां परद्रव्येष्वदत्तेषु सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लो० १४ ३९ ८ १४ १० १३ ४६ ३२ १९ १२३ १२ १७७ १५६ २७ ८ ५० २६ ५ ७६-२ १०७ १०३ १० ६० १६ १४ ८ १७ ४४ ११ २० ६३ ८ पृ० ७६-२ ४ २० ६६ ४३ १४२ १८ १५२ ४ २६ ९९ १०५ ९८ २० ९३ ८८ ८९ ४ ५२ १०१ ६० २७ १०१ १०४ ७६-१ २५ ४ १२ १९ १३ ९५ परमपदपुराग्र परमेसर तित्थेसरह परिवल दल्ल पर्यषीद सौ पल्लव-फुल्ल पहिलइ सांब पाण्ड्यः पाखण्डिवेषं पातालमूले पिहितां पाताले बलिराज पापं पङ्कजयन् पीनश्रीर्भुजयनग पीयूषरस्य च पीपादपि पेशला पीयूषैः प्रणता पुण्यं प्रतापसिंहस्य पुण्यश्रीभुवि पुण्यस्य पापपटली पुण्यायाऽजयसिंह्स्य पुण्यारामः सकल पुण्ये गिरीशशिरति पुरतः कालमेघस्य पुरा पादेन दैत्यार् पुरुव्व पच्छिम पुरोत्तमे स्तम्भका पुष्पदन्ताविमौ स्फूर्जगुर्जर पूजहि माणिक पूर्वमेव सचिवः स पृष्ठे काञ्चनपट्टिक पेमहि ए मुणिजण पोत्रेण धारय पोरुयाउकुल श्लो० ४ १ ११ ३ १९ ६ २६ ४३ ३७ २ २२ १ १ ६५ ५९ ९ ७ ६४ ३३ ६ ९४ ८ ८ ३८ १३ १५ ४८ ९ १६९ १५ ७ ६ पृ० ९९ १०४ ७६ १०० १०२ ३ ३७ ३७ ४६ १७ 3239 ८७ २७ ५७ ८८ २७ ३३ ९४ १ २८ ४५ १०४ २६ ९८ ८९ १०८ ५९ १५ १०३ ४९ ९९ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानुक्रमणिका । श्लो० ३७ १२ ०७ ३ १०५ ८ १०० १३६ ० 1 9 ५ m ० १८ ० पौषधशालाद्वितयं प्रणमदमरग्रङ्खन् प्रतापतपनो यस्य प्रतापस्याद्वैतं प्रतिदिनमपि रौदैर् प्रतिष्ठाप्य च मन्त्रीशस् प्रतीता नीतीना प्रत्याकारलगुरुदरी प्रत्याशं प्रसरत् प्रथमं धनप्रवाहैर प्रथमादर्श प्रद्युम्नशिखरे सोम प्रभूतभूतराजस्य प्रवर्त्तमानेऽत्र प्रसादादादिनाथस्य प्राग्वाटगोत्रतिलकः प्राग्वाटवंशध्वज प्राग्वाटान्वयमंडनं प्राग्वाटान्वयमंडनै प्राग्वाटान्वयवारिधौ प्रासादैर्गगना प्रीतो वस्त्रापथभुवि प्रेक्ष्यास्थैर्य प्रभुप्रीति प्रेयस्यपि न्यायविदा बद्धः सिन्धुवसुन्धरा बन्धुः कनीयान् बभूव गोत्रैकगुरुर् बलि-कर्ण-दधीचि बहुं आयरिहिं बाढं प्रौढयति बाणे गीर्वाणगोष्ठी बार संवच्छरि बालः श्रीमूलराजोऽथ पृ० श्लोक बाहिरी गढ ४८ बिडौजसि गते २२ बिभ्राणं परितो २२ बीजउ नेमिहिं बोलावी संघह १५ भग्नः शङ्ख इति १४० १२ भर्ता भोगभृतां ८ भत्तुर्वेषमयं विधाय ९१ भर्तुर्वेषमयं विधाय भवति हि विभवो ७९ भवद्भुजभुजङ्गोऽसौ २८ भाग्यभूः किमसावस्तु भास्वत्प्रभावमधुराय ८७ भित्त्वा भानुं १६ भित्त्वा भानु ८८ भूवल्लभस्तदनु २५ भूभारोद्भुतिधुर्य ___ भूमीभारमथो बभार भूयांस एव भूषा भूवोऽणहिल भृगुनगरमौलि भेजे तेजोगगन भैमीव नैषध भोगीन्द्रस्त्वद्भुजेन ८३ भ्रमन्ती भृशमन्याय भ्रातः! पातकिनां किमत्र भ्राता वातायन इव ४० भ्रूभङ्गिप्रतिबिम्ब १०७ मंदिर थाहर ____२३ ३१ मजन्तीमवनी १६३ २० मजन्तीमवनी २१ १०७ मणहरघणवण ६ ३६ मतिकल्पलता यस्य W० MW G : MY Y x S MY v २ २५ C १२ ليه س اس ته ام و १०६ १५ १९ १०० ३९ ३७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह ० M २५ १३८ ११४ २६ १ १०२ १४५ १९ ८८ १४४ M०७ ॥ ० - - मध्वरेय॑धिन मन्दश्छन्दसि मन्येऽस्मिन्नमृता मल्लदेव इति मल्लदेवसचिवस्य मसृणघुसृणपकैर् महतइ तेजपाल महतिहिं जायवि महिमंडलि किय माधुर्यधुर्यमधुलोभ मा भून्मभुवनेऽपि मा भून्मभुवनेऽपि मालवमंडल मालिन्यं मुमुचे मुकुलितकमलोदय मुक्तामयं शरीरं मुक्त्वा विप्रकरा मुष्णाति प्रसभं मूरति बपु मूर्च्छया विहितः मूर्तीनामिह पृष्ठतः मूलं कीर्तिलताततेः मूलग्ग पायारधर मूलस्थूलहरिकरि मेरुर्मे रुचिमातनोति मेरुश्चेत् परिकम्पते मोहो द्रोहधिया मौक्तिकद्युति यं मातृभक्ति यं विधुं बन्धवः यः करोति स्म यः कर्माणि च यः कामवृत्ति पृ० ८३ यः क्ष]ांतिमा ८५ यः प्रत्यर्थिक्षितिपति २७ यः शत्रुञ्जयशेखरं १० यः शाम्बशिखरे ६३ यः शैशवे १७ यः शौचसंयमपटुः यः स्फुरन्मेदुरामादे १०५ यः स्वीयमातृ १०५ यच्चाणक्याऽमरगुरु यत्कीर्तिप्रसरैः यत्कीर्तेः स्वैर १९ यत्कीत: स्वैर १०० यखड्गक्षत यत्खङ्गदण्ड ४२ यत्खड्गवल्ली यत्पदाम्बुजयुगं ६२ यत्रारिक्षत्रगोत्र यथा प्रतिष्ठा १०७ यदङ्गघटनोत्सृष्टैः ९५ यदाननसरोजेन यदानप्रभव ६ यदानोदकजात यदिक्कुम्भि-कुलाद्रि यद् दूरीक्रियते स्म ९३ यदोर्मण्डलकुण्डली यद्यात्रासु तुरङ्ग ३९ यद्वक्त्रकुञ्ज यद् वात्सल्य यन्निापितदेव ४७ यश्चकार नवोद्धार ८२ यस्तीर्थानां प्रकर ८४ यस्मादभ्युदयं ९० यस्मिन् दाननिदान LU V ny my my २८ १४६ १२७ my room ४ यटन 0 १०८ 0 ३ १५९ १४ ९५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्मिन् धर्म यस्मिन्नुत्तर यस्मिन् पयति यस्मिन् विश्वजनीन यस्मै रश्मिभरो , यस्य न्यञ्चितचाप यस्य भूः किमसा यस्य अनि सदा यस्याग्रजो य (त) स्थात्मभूः समभवद् यस्याssai यस्यानीकवधूभि यस्या मुखे यस्याशीःप्रतिपादितो यस्यासिरम्भोद यस्योपदेश यस्योर्वीतिलकस्य यावच्चण्डपगोत्र यात्रापर्वणि रैवत या प्रार्थना याचक या श्रीः स्वयं युक्तं ... युद्धं वारिधिरेप युद्धपर्वणि कदापि युद्धपर्वणि कदापि युद्धोडामरमण्डला येन व्यधाप्यत येन स्तम्भनकाधि नाकारि तमोनिकारि येनऽऽत्मनः स्वपत्न्याश्च येनाऽत्रैव वियचुम्बि येनारिनारीनेत्राम्भः येनोज्जयन्तगिरि श्लो० २३ ५० ६७ १३ २ ८६ ३ ५८ ३ ४ २८ ५ २६ १६ ३८ ११ ७ ७२ १४८ २९ १० २ २३ ९१ ६ २८ ५८ १७४ ५५ ८७ ६९ ११ ६० पद्यानुक्रमणिका | पृ० २३ ५ ६ ३१ ३४ ७ ४२ ७६ ३२ ८ १७ ५४ ५ ९७ २४ ८९ ९३ ८९ ८२ ३७ ७९ ३० ३९ रूपा सरिसउ १३ रोदः कन्दरवर्त्ति २० रोदः क्षीरोदनीरैः लक्ष्मी धर्माङ्गयोगेन लक्ष्मीर्मन्था चलेन्द्र लक्ष्म्यामाकृष्टि ३ ३८ १६ ३८ २८ २७ २२ ३८ येषां मूर्तिरसौ येषामशेषाधिपतिः यैर्नद्राऽतिचला O रंगिहि ए रमइ रक्षादक्षो दिवि रक्ष्यां रक्षितुमक्षमे रणे वितरणे चात्र रक्तः सद्गतिभावभाजि रक्तः सङ्गतिभावभाजि राइमई मणहरणु का ताण्डविन्दु राजा चामुण्डराज राजा श्रीवनराज राजु करइ तह राह गृहीतोष्णक रिपुत्रनेत्राभो रिषभमंदिरु लब्ध्वा मानुषजन्म लभन्ते लोकतः ललितादेवीनाम्ना ललितादेव्याः पत्न्याः लवणप्रसादपुत्र लावण्यद्रवकूप लावण्यसिंहस्तनय लावण्याङ्ग इति लावण्याङ्ग इति लीलासञ्चरणं च ६ १५ २० ४ ४८ १४ ११५ ५० ४ ८ १९ ९ ४ ३१ ७२ ४६ २९ ३५ २९ १५ ८ १५ ६१ ७ १२५ ५५ ११३ ४ ५ १२१ पृ० ९३ ८१ १८ १०३ ३४ 20 20 ४ २२ १० ५७ १०१ ३० W २ १०४ ८४ १०७ १०६ ६१ ७६-३ ५५ ४२ ९१ ८६ ५५ 2 x 2 = 3 y २७ ४५ ११ ६३ ९ ५७ ७८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ला० T eri - १०४ ० MY M ९४ को mm ~ ७१ or १२२ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लो. पृ० लीलासञ्चरणं च १ विद्या यद्यपि वैदिकी हणिगः प्रथमस्तेषु २६ विद्यते हृद्यविद्यौ वंदे सरस्वती ५९ विधिवद् वाजपेयं वंशश्रीमौलिधम्मिल्ल २५ विबुधैः पयोधिः वंशोऽयं प्रथितोन्नतिः ८ विभुता-विक्रम वंशो विश्वत्रितयविदितः विभुता-विक्रम वइसाही पुन्निमह १०१ विमलिहिं ठवियर वक्त्रं निर्वासनाज्ञा ५३ विरचयति वस्तुपाल वजइ ए ताल १०२ विलुप्ताश: पाशं वदनं वस्तुपालस्य ७६-४ विलोक्य दुष्कालवशेन वरदे ! कल्पवल्लि ! विशेषके रैवतकस्य वर्षीयान् परिलुप्त २० विश्वस्मिन्नपि वस्तुपाल ! वलभ्यां पुण्यलभ्यश्रीः २७ विश्वस्योपकृतिव्रत वसिष्ठानिष्ठायाः विश्वानन्दकरः सदा वसुदेवस्येव सुतः ६२ विश्वानन्दकरः सदा वस्तपालि वर विश्वेऽस्मिन् कस्य वस्तपालु तसु १०५ विश्वेऽस्मिन् किल वस्तुपालविहारेण ५८ वीरं दक्षिणतः वस्त्रापथे जगत्यां २८ वीरश्रीवीरधाम्नि वाग्देवतां यदि ८८ वेयलु वंजलु वाग्देवताचरण ३७ वैदुष्यं विगताश्रयं वाग्देवतावदन ७६-३ वैरं विभूति-भारत्योः वाग्देवतावसन्तस्य व्यजयत जयसिंह वाग्देवीप्रसादः ३७ व्याघ्ररोल्य(पल्ल्य) वाजभ्राजितवाजि ४ व्याजात् पौषधशालानां वार्षं तस्य व्यातन्वन्नमरेन्द्र वासिता साधुवादेन ९८ व्योमोत्सङ्गरुधः वास्तवं वस्तुपालस्य शंभोः श्वासगतागतानि वास्तवं वस्तुपालस्य शक्तिः काऽपि न वाहडस्य तनूजेन ४६ शङ्के पङ्कजिनीपतिः वाहडस्य तनूजेन ५५ श शारदपर्व वाहडस्य तनूजेन ५८ शके शारदपर्व विक्रीडतो यस्य ३६ शङ्ख शार्ङ्गधरस्य 9, 10, ६ १७३ १६७ २९ 1m ० ० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्खं शार्ङ्गधरस्य शत्रुञ्जनगोत्सङ्गे शत्रुञ्जये भवपयोधि शत्रुश्रेणीगल शास्त्रार्थवारिभर शिष्यस्तस्य च शीतांशु प्रतिवीर शुभ्रांशुर्भुवि शून्येषु द्विषतां पुरेषु शूरो रणेषु शेषद्वेषविधायिनीमपि शोभाभिभूत शोपः सैष जवाद शौण्डीरोऽपि शौर्येोर्जस्वितां श्रावे हंडावडा श्रियं चौलुक्यानां श्रिया प्रीतया श्रीकुमारविहारेऽत्र श्रीक्षेमराज इति श्रीगर्वौष्मभि श्रीम चंड[प] संभवः श्रीजैनशासनवनी श्री तेजपालतनयस्य श्रीद-श्रीदयितेश्वर श्रीधूमराजः प्रथमं श्रीनागेन्द्रमुनीन्द्र श्रीनागेन्द्र कुले श्रीनाय ! मनोरथाः श्रीनेमिर्नवनील श्रीनेमे रम्बिकायाश्च श्रीनेमेखि जगद्ध श्रीनेमेत्रिजगद्भत्त श्लो० ७ ७३ १६५ ३६ १२ ३७ ५ १३ ५ ४६ २ ८ ४१ १३ ७ ६७ १८ ७ ६२ ७० ५६ २ ३३ १६ ४ ७४ ३ १ पद्यानुक्रमणिका । पृ० १७ २७ १५ ६१ ८८ ७९ ७६-२ ९६ ३० ४२ ४० ८८ ४ ३० ९८ १०७ 2 2 2 २५ ९८ २७ r ९२ ६४ ६४ ६३ ४६ ६१ ७६-३ ७९. ९१ १ ६५ ४६ ५० श्रीनेमेस्त्रि जगद्भर्त्त श्रीनेमेत्रिजगद्भ श्रीनेमेस्त्रि जगद्भ श्रीप्राग्वा टकुलेsa श्रीमन्त्रीश्वरवस्तुपाल श्रीमद्गुर्जरचक्रवर्त्ति श्रीमन्त्रीश्वरवस्तुपाल श्रीमन्त्री श्वरवस्तुपाल श्रीमल्लदेव इति श्रीमल्लदेवः श्रित श्रीमल्लदेवपौत्रो श्रीमद्विजयसेनस्य श्री मांस्ततोऽजनि श्रीमालवेन्द्रसुभटेन श्रीमुञ्जनामा श्रीयुगादिप्रभोर् श्रीरङ्गभूर्भृश श्री रैवते निर्मित श्रीवर्धमानः शमिनां श्रीवस्तुपाल ! कलिकाल श्रीवस्तुपाल ! कलिकाल श्रीवस्तुपाल ! क्षितिपालमुद्रां श्रीवस्तुपाल ! जितबाल श्रीवस्तुपाल ! तव श्रीवस्तुपालपुत्रः श्रीवस्तुपाल ! भवता श्रीवस्तुपालमन्त्रीदोर् श्रीवस्तुपालयशसा श्री वस्तुपाल संप्रति श्रीवस्तुपालसचिवस्य श्रीवस्तुपालसचिवस्य श्रीवस्तुपालसचिवस्य श्रीवस्तुपालसचिवस्य लो० ३ Ww ६३ २ २५ १० ४९ १० १० १२ १५५ १७५ १३ ३३ ९ २२ ३ २८ १४ ७६ ४६ १६ ३ ३५ ४ २४ ३ ८ ११ १२३ पृ० ४७ ५५ ५८ २१ ६४ ७६-१ ३२ ५२ ३७ ५९ ७६-२ ७९ १४ १६ ८२ २६ ८८ ७६-२ ७९ १९ ४१ २० ४२ ३९ ६२ ५० १७ ३३ ७६-४ १९ ३० ४२ ७६-२ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लोक . 0 ० ४ My 90 ~ - श्रीवस्तुपालस्य श्रीवस्तुपालस्य श्रीवाससद्मकर श्रीवासाम्बुजमाननं श्रीवीरधवलमूर्तिर् श्रीवीरशासन श्रीवैद्यनाथगर्भ श्रीवैद्यनाथवरवेश्मनि श्रीशत्रुञ्जयशृङ्ग श्रीशत्रुञ्जयशैल श्रीसङ्घभर्तृसचिवे श्रीसुव्रतपदाम्भोज श्रीसोमेश्वरदेवश् श्रीसोमेश्वरदेवस्य श्रीसोलशर्मा विमले श्रुत्वेति मुदितहृदयः श्रेयः श्रीमुनिसुव्रतः श्रेयः श्रेष्ठवशिष्ठ श्लाघ्यः स वीरधवल: श्वभ्रं सिन्धुरभुग्नया संघाहिवु संघेण संघु रहिउ संजज्ञे नृपतिशतैः संतापं यत्प्रतापस्य संदिष्टं तव वस्तुपाल ! संमेतादिशिरः संयोजितेन मणिमण्डित संलीनानामनुतटवनं संसारख्यवहारतो संसारसर्वस्वमिहैव संसारार्तितपो संसारे सुखहेतु संस्तूयमानचरितः ८१ मत २८ स एप निःशेष ८६ सङ्ग्रामः क्रतुभूमि ८९ सङ्ग्रामसिंहपृतना १८ सङ्घस्याद्भुत २६ सङ्घोऽधिरोहनिह ७९ सचिवप्रवरं कञ्चित् २६ सत्कर्मनिर्माणरते सत्तीर्थस्य सुराश्रितेन ३८ सत्यं ब्रुवे सत्याभिधस्तदनुजो सदा यदाशी: ३९ सदंशजातेन सन्तापशान्ति ८५ सप्ततन्तुप्रपञ्चेन सप्तलोकचरी स मङ्गलं वो ३४ समजनि जिनसेवा ६१ समुद्दविजय-सिवदेवि ३२ समूलमुन्मूलयितुं सम्पूर्णे भुवने सयल वित्ति १०७ सरस्वतीकलिकला सर्वत्र भ्रान्तिमती ६ सर्वत्र वर्त्ततां कीर्ति ४९ स वः श्रेयः शत्रुञ्जय ५५ स वैकुण्ठः कुण्ठः १३ स श्रीजिनाधिपति ६ स श्रीजिनाधिपति ९१ स श्रीमानुदयाचलो ६७ स श्रीतेजःपाल: ९३ स श्रीतेजःपाल: ९२ सा कुत्रापि युगत्रयी ८९ साक्षाद् ब्रह्म परं NNN 190 V 0 0 १०१ १०१ ६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षाद् ब्रह्म परं सानिधि बाइय सामंतसिंह समिति सामियनेम कुमार सामियसामल साम्राज्यं चतुरर्णवी सिंदुवार - मंदार सिद्धक्षेत्रमिति सिद्धान्तोपनिष सौसमि सिंवलि सीताकुक्षिरारो सुतस्तस्मादासीद् सुभकर एठविउ सुरस्त्रीणां नेत्र सुत्रतक्रमनमस्कृति नुस्तदीयोऽजनि नुस्तयोरजनि सूरो रणेषु सूर्याचन्द्रमसौ सेच सेचं स खलु सेनानीर्विदधे सेयं पुरे धवलके सेवालन्ति पयः समुद्रति सेवालन्ति पयः समुद्रति सैन्यप्रकम्पितरा सोऽपि बले सोभनदेउ सुहा सोमाभिधस्तदनुजः सोमेश्वरदेव इति सोमेश्वरदेवक सोऽयं तस्य सोऽयं धात्रीं सोऽयं पुनर्दाशरथिः श्लो० १२ ३५ ३८ ७ ४ ७ २.१ २ ७ १८ ४६ २७ ३ १३ ६५ ७ २७ ४ १० ३४ ३५ २१ ३७ ८ ५७ १२ ३० १२ ४२ ४४ ६ w ४० ३७ पद्यानुक्रमणिका । पृ० ५३ १०७ ६२ १०० १०१ ९३ १०२ ६७ ७० ९९ ३७ ६० १०२ ३५ ३८ २४ ८९ १७ २ ३३ ८४ ८० ४ १७ ५ ५० १०६ ८८ ८५ ८५ ५७ ९७ ६१ सोऽयं प्रख्यातकीर्तिः सोऽयं मन्त्री सोऽयं सूहवदेवी सोल: सलील स्तम्भतीर्थेऽत्र स्तम्भतीर्थेऽत्र स्तम्भतीर्थेऽत्र स्तम्भतीर्थेऽत्र स्तम्भतीर्थे नगोत्तुङ्गे स्तम्भनपुर-रैवतगिरि स्तोतव्यः खलु स्तोतुं नाभिनरेन्द्र स्तोत्र श्रोत्ररसायनं स्थाने स्थाने स्थापयन् सिंहुलग्राम स्फूर्जदगूर्जरवेश्म स्वकुलगुरु......... स्वक्रान्तसिन्धुपति स्वच्छन्दं हरिशङ्करः स्वस्ति श्रीबलये स्वस्ति श्री लये स्वस्ति श्रीवल्लिसालाय स्वस्ति श्रीवस्तुपालाय स्वस्ति श्रीव्योमदेशा स्वयं विनम्रेषु परेषु स्वर्गं यद्गुरुचैत्य स्ववंश्य मूर्तिभिः स्वविरोधिनीं शुचिर् स्वस्त्रीयः श्रयति स्म स्वामिन्! मृत्युहरे स्वैरं भ्राम्यतु नाम स्वैरेव प्रहतैर् श्लो० १२० १२ ८ १ ५३ १६४ ५ ७७ 2 2 3 2 ३० ४७ १४ १८ २४ ६ १२ १ ७४ ११ ६१ ९६ ५१ २३ ६ २४ २४ १२५ पृ० १. ५४ ९८ ८२ 0 w m y 3 2 Z N V ४६ ५५ ५७ २७ ५२ २८ ९४ ८४ २६ २ ७६-३ ३ २१ ३१ ५१ ३० ४० ३९ ३५ ३८ २८ २७ v ९१ ३२ ३६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ २६ हंहो रोहण ! रोहति हक्कारहु वर हत्वाऽपि कान्तिलव हन्तुं जनस्य दुरितं हरसवसिण हरिमण्डप-नन्दीश्वर हरिमण्डप-नन्दीश्वर सुकृतकीतिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह श्लो पृ० ३२ हरिमण्डप-नन्दीश्वर १०७ हर्षादसौ हसतु ८८ हस्ताग्रन्यस्त ____९४ हस्ताग्रन्यस्त २ १०१ हुत्वा सदध्वरचितेषु ५ हृतनयनसुखैर् ४७ हृष्टोऽभून्मुशलध्वजः MA MM Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह । विशेषनामानुक्रमणिका । पृष्ठ अंबय ( मंत्रा) १०० अम्बिका भवन (देवतामन्दिर ) ૨૮ अङ्ग (पनिशेप) ५ अरसीह (प्राग्बाट ज्ञा० महा० वीर देवपुत्र) ६६ अचलेश्वर (शिवमंदिर ) ६७ अर्कपालित ( ग्राम) अचलेसर (अचलेश्वर, शिवमन्दिर) अर्कपालितक २७.३८ अजयपाल ( चौलक्यगपति) ६,२४,३६,८४ अर्जुनमडी ( स्थलविशेष) अजयसिंह २७ अर्णोराज ( सपादलक्षनृपति ) अजित ( संघाधिपति) १०१ अर्णोगज ( चौलुक्यवंशीय ) ६.७.२५,३६,६० अजिय (अजिन, संघाधिपति) १०१ अर्बुद (पर्वत) ६१,६२,६७ अट्ठावय ( अष्टापदपर्वत) १८१,१.०२ अर्बुदगिरि , ७६-१ अणपमसर ( अनुपमा सरोवर) १०५ अर्बुदावल ,, २६,४४,४६,४८,५१,५४,५६, अणहिलपत्तन ( अणहिलपुर, गूजा राजधानी) ७५ ६५, ६७,६८,७२, ७३,७६-२ अणहिलपाटक ( अहिलपुर, २,६५, अवलोकनाशिखर (रेवतगिरि शिखरविशेष ) २८, गूजर राजधानी) ८८,९६ अणहिलपुर (गूजर राजधानी) ४४,४६,४८,५१,५३, अवलोयणसिहर ( अवलोकनाशिखर) १०२ ५४,५५,५६ ५९,६५, अश्वराज (आशाराज, मंत्री) १०.१८, २१,३७, ७५, ७६-१, ७६-३ अणहिल्लपुर ( अणहिलपुर ) ६८,६९ ७६-२, ८६, ८९ अश्वावतारतीर्थ अनुपमदेवी ( तेजपालपत्नी) २८.६३,६५,७२, अष्टापदप्रासाद ( स्थापत्यविशेष ) ७४.७६-२,७६-२ अष्टापद महातीर्थ (स्थलविशेष) अनुपम सरोवर ४४,४६४९, ५१,५४५६ अनुपमा ( अनुपमदेवी, तेजपालपत्नी) ६३ अष्टापदशैल (पर्वत अनुपमासर (सरोवर) २८ अष्टापदोद्धार ( जिनमन्दिर ) अन्ध्र (नृपविशेष) असगज (अश्वराज) अभयकुमार (साहु राहडसुत) अहणादेवि ( पूर्णसिंहपत्नी ) अमरसूरि ( नागेन्द्रगच्छीय) २९,४५,४६,४८, आंमिग (प्राश्वाटज्ञा० महाजन) ५१,५४,५६,६४ आंवुय ( प्रा० ज्ञा० श्रे०) अमरचन्द्रसूरि ,, १३,६५,७६-३, आखण्डलमण्डप (इन्द्रमण्डप ) ७९,९० आखीग्राम अमरेन्द्र मण्डप ( इन्द्रमण्डप, स्थापत्यविशेष) १५ आमिग (विद्वान् ) अम्बड (राणक) आणंदसूरि (नागेन्द्रगच्छीय आनन्दमूरि) ४५४८, ,, (महामन्त्री) ३८ ५१,५४,५६,६५ , (मण्डलेश्वर) आनंदमूरि ( आणदसूरि) अम्बाशिखर (रेवतगिरि शिखर विशेष) ४४,४६,४८, ७६-३,७९ ५१,५४,५६ आनन्दचन्द्रसूरि ,, १३ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आनक ( कायस्थ ) आबु ( अर्बुद पर्वत ) आबुय 95 "" आबू आबूय आबुयग्राम आमशर्मा (विद्वान् ) ८२ आम्बदेव ( ओसवाल ज्ञा० श्रे०, नागदेवपुत्र ) ६७ आम्बसिंह ( प्रावाट ठकुर ) आम्बा ( प्राबाट ज्ञा० श्रे०, कोलापुत्र ) आम्बुय ( श्रीमाल ज्ञा० श्र० ) आरासण ( ग्राम आल्हण ( प्राग्वाट श्रेष्ठी माणिभद्रपुत्र ) आल्हण ( ओइसवालज्ञा० थे०, देल्हापुत्र ) आल्हण (भाण्डागारिक ) आणदेवि (पूर्णसिंहपत्नी ) आल्हा ( प्रावाद ज्ञा० ०, गोसलपुत्र ) आल्हा (प्रा० ज्ञा० ०, देल्हणपुत्र ) आवोधन ( ओसवाल ज्ञा० महा० ) मंत्री, सोमपुत्र ) ९,२५,२८ आशाराज मंत्री ठकुर ) ४४, ४६, ४८,५१,५३, ५४,५५,५६,७५७-६२, ७६.३७५-४, ७७, ९७ आश्वेश्वर ( प्रा० ज्ञा० ०, सोहियपुत्र) आसचंद्र ( कट ज्ञान, धडलिंगपुत्र ) ६६ ६६ आसदेव ( ओसवाल ज्ञा० प्र०, देवकुंयारपुत्र ) ६६ आसधर ( श्रीमाल ज्ञा० ० ) ६६ ६६ 29 17 सुकृत कीर्तिकल्लोलिनी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह "" आसधर ( प्रा० ज्ञा० ०, रासलपुत्र ) आसपाल (श्रेष्टी ) आसरा (आसराज ) १०५,१०६,१०८ १०५, १०६, १०७ १०४, १०५ १०५ ६७ पृष्ठ ४७,५० आसराज (ठकुर, आशाराज ) ६५७२,७३,७४,७५ आसल ( श्रीमाल ज्ञा० ० ) ७६-३ ७०, ७६, ७६-२ ६६ ६७ ६६ ( प्रा० ज्ञा० ० ) ( श्रीमाल ज्ञा० ० ) ( ओइस ० ज्ञा० ०, काल्हणपुत्र ) "" आसा ( ठक्कुर मोढज्ञातीय झाल्हणत ) आसाराय ( आशाराज ) आसाराय विहार ( जिनमन्दिर ) ७६-३ ६९.७०, ७१.७६-१ ६५ ६६ ६६ १०६ ६६ ६७ आसू ( श्रीमाल ज्ञा० ० लखमणपुत्र ) आहड (चापोत्कट नृप ) आहड (विद्वान् ) ६६ ६६ ६६ ६७ ૭૪ ९९ ९९ v ६६ इन्द्रमण्डप (स्थापत्यविशेष ) १५,१९,३८,१०२ उग्गसेणगढ ( दुर्गविशेष) उज्जयन्त ( रैवत पर्वत ) उर्जित (उज्जयन्त पर्वत ) उजिल ( उज्जयन्त पर्वत ) उत्तरछग्राम उदयन (मंत्री) उदयपाल ( प्रा० ज्ञा० महा०, पाल्हणपुत्र ) उदयप्रभसूरि ( नागेन्द्रगच्छीय ) उदयसेनसूरि ( आचार्य ) उदुल ( टकुर ) उदयपाल (श्रेणी) उपदेशमाला ( ग्रन्थ ) उमारशय्य (ग्राम) उवरणी (ग्राम) ऊसवाल (ज्ञाति) ऊजिल ( उज्जयन्त पर्वत ) ऊदल ( प्रावाट, उक्कुर ) पृष्ठ ९९ ३८, ४४, ४५,४६,४८, ५१, ५३.५४,५६,६८ १००, १०३ १०० ऊदल (ठकुर ) ऊदल (ठकुर ) ऊवरणी (ग्राम) ओइसवाल ( ज्ञानि ) ओरासा ( ग्राम ) कउडिजक्ख ( कपर्दी यक्ष ) कटुकेश्वर ( शिवमन्दिर ) कडुया ( प्रा० ज्ञा० ० लखमणपुत्र ) कनकप्रभसूरि (आचार्य) कपर्दी (यक्ष ) कयडुरा ( श्रीमाल ज्ञा० ) कर्णदेव (चौलुक्यनृपति ) कर्णाट (नृपविशेष ) कलिङ्ग (नृपविशेष ) कश्मीरावतार (स्थापत्यविशेष ) ६७ ३९ ६६ १६, ४३५७, ६४,७६-३, ७९ ७४ १०५ ७६-३ ७९ २७ ६६ ६६ १०२ ६५ १०५ १०५,१०६ १०७ ६६,६७ ६७ २०१ ८४ ६६ ८० १६ ६६ ४,२४,३५,८२ ३.५ कसमीर (देश) कान्तीश्वर (नृपविशेष ) कान्यकुब्जा ( स्त्रीविशेष ) २ कान्हड (ठक्कुर, ललितादेवी पिता ) ४५,४६,४८,५१, ८३ ५०,५६,७६-४ ५ ४४,४६,४८, ५१,५४,५६ १०१ ३ ६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट कान्हडदेव ( राजकुमार ) कामंदकि ( नीतिशास्त्रकार ) कायस्थ (वंश) ४६, ४७,५०,५३,५५,५७,७६-३, ९६ ६७ खीम्बसीह (प्रा० ज्ञा० प्र०, देल्हणपुत्र ) खेटा (साहु, वरहुडिया ) ६३ गउरदेवि ( लूणसीहसुता ) कालमेघ ( क्षेत्रपाल ) २८ कालमेघतर (स्थानविशेष ) १०० कालिदास (कवि ) २० काल्हण ( ओसवालज्ञा० थे० ) ६७ कासहद (ग्राम) कीर (नृपविशेष ) की सरउली (ग्राम) कुङ्कण ( देश ) कुमरादिवि ( कुमारदेवी आशा राजपत्नी ) कुमरपाल ( कुमारपाल, राजा ) कुमरविहार ( जिनमंदिर ) कुमरसरोवर कुमर सिंह (सूत्रधार ) कुमार ( कुमार शर्मा, विद्वान् ) कुमार देवी ( ( आशाराज पत्नी ) कुमारपालदेव ( चौलुक्य नृपति ) कुमारविहार ( जिनमन्दिर ) कुमारसिंह ( सूत्रधार ) कुरु (नृपविशेष ) विशेषनामानुक्रमणिका । ८३,८४,८५,८७ २५,३७ ( ठक्कुराणी, आशाराज पत्नी ) ४४, कुलधर ( श्रीमाल ज्ञा०, कयडुरापुत्र ) कृष्णराज ( परमार नृपति ) केली ( आशाराज भगिनी ) ४६,४८ ५१,५३,५५,५९ ६५. ७२ ७३ ७४, ७५, ७६-२, ७६-३, ७६-४, ८९ ५,६,२४,३६, ६१,८४ २७,६९ ४६,५५,५८ केल्हण ( सूत्रधार ) कोङ्गण (देश) कोला ( प्रावाट ज्ञा० ० ) कङ्कण ( कुणपति नृप ) कङ्कणपति (नृपविशेष ) कङ्कणी (स्त्रीविशेष ) कौटिल्य (चाणक्य) क्षेमराज ( चापोत्कट नृप ) भायति (नगरी) खांखण (प्रा० ज्ञा० ०, जेजापुत्र ) खम्बसिंह (प्रा० ज्ञा० ठकुर ) २७.६६ ३,६ ६६ ३६ १०७ १०० ६८ ९९ ७६-३ ५६ ६६ ६२ ७६-२ ६५ ६१ ६६ ८४ ६ ६ ७६-४ २ १०६ ६६ ६५ गङ्गा (नदी ) गयंद ( गया (तीर्थ) गागा ( प्राग्वाटवंशीय ) प्रा० ज्ञा० ठकुर ) 5 गाजण ( श्रीमाल ज्ञा० ) गाणउलि (ग्राम) गाणेश्वरदेव ( शिवमंदिर ) गिरनार पर्वत ) गुजर (देश) गुणचंद्र ( प्रा० ज्ञा० ०, धीरणपुत्र ( श्रीमाल ज्ञा० ० ) गुणपाल (भाण्डागारिक ) गुरजर (देश) गुर्जर (देश) رو गुर्जरेश्वर पुरोहित ( सोमेश्वरदेव ) गुलेचा गोत्रविशेष ) गूगलिया । गूगुलिया ) ( ज्ञातिविशेष ) गूजर (देश) गुजरात (देश) गुर्जर (देश) गूर्जरकर्णिका ( गूर्जर राजधानी ) [ गुर्ज ] रा ( मंडल ) गूर्जर मंडल गुर्जर राजधानी ( अणहिल पाटक ) गोगस्थान (ग्राम) गोसल ( प्रा० ज्ञा० ० ) 33 ( ओइस० ज्ञा० ० ) ( साहु. वरहुडिया ) " गौड (नुपविशेष ) १२९ चंडप (मंत्री) चंडप ( मंत्री, ठकुर ) पृष्ट ६६ ६८ ७२ ८४ १०२ ८४ ६३ ६५ ६६ ७६-३ ७६-३ ९९,१००, १०२ २०० २२,३७,६२,८८,८९,९०,९२,९४ ६६ ६६ ७६-३ ९९, १०० ७६-१८२८७ ४५,५० ८१ २,३७ ८४ ६६ ६७ ६८ ५ ८,२१,२५,२८,३७,३९, ४० ४४, ५९, ६४, ६५,६९,७०, ७१,७२,७३,७४,७५,७६-१, ७६-३, ७६-४, ८६,८८,९७ ४६,४८,५१,५३५५ चंडपाल ( चंडप ) चंडप्रसाद (मंत्री, चंडपपुत्र ) ८,२१, २५, २८, ३७ १०४,१०६ १०४ १०४ १५ ६५ ४४, ४६५१,५४५६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह चंडप्रसाद ( मंत्री, ठकुर ) ५४,४६,४८.५१,५३, जयसिंहदेव ( चौटक्यापति ) ४.२४.३५ ५६,५९,६४,६५,६९७०,७१, जयसिंहसूरि ( कवि, जैनाचाय ) ३८,३९. ७२,७३,७४, ७५, ७६, ७६-१, जयादित्य ( नुपविशेष) ७६-४ ७६-३, ७६-४, ८६, ८८, ९७ जसकर प्रा. ज्ञा. श्रे.) ६७ चंडेश ( चंडप) ७५ जसडुय (प्रा. ज्ञा• थे.) चंडेश्वर ( सूत्रधार ) ६५ जसदेव (ओइसवाल ज्ञा. श्रे.) चंद्रावती (पुर, पुरी, नगरी) ७,६३,६५.६७, जसरा ( श्रीमाल ज्ञा० ०, आम्बुयपुत्र) १०४, १०५ जसवीर (प्राबाट ज्ञा, थे.) चडावलि ( चन्द्रावती नगरी) १०८ जाङ्गल (देश) चाणक्य ( कौटिल्य) ६२,६३ जाङ्गली (स्त्रीविशेष ) चान्द्र कुल ( गच्छ) जाला (श्रीमाल ज्ञा० अ०, जिणदेवपुत्र) चापलदेवी ( महं, चंडपपत्नी) जाल्हू (वस्तुपाल-तेजपालभगिनी) चापोत्कट ( राजवंश) २ जावडि (प्रामाटवंशीय । चामुण्डराज (चापोत्कट नृप) २ जावालिपुर चामुण्डराज ( चौलुक्यनृपति) ३,२४,३४,८२ जिणचंद्र ( साहु राहडपुत्र) चारोप (ग्राम) ६९ जिणदेव (श्रीमाल ज्ञा• अं० ) चाहिणि ( साहु जिणचंद्रभार्या ) , (प्रा. ज्ञा• ", पाहुयपुत्र) चुलुक्य ( चौलुक्य, राजवंश ) २४,३६,५९,६०,६५, जिणदेवसूरि (आचार्य ) ___७६-४,८३,८४,९३ जींदा ( प्राग्बाट श्रेष्ठी) चौड ( नृपविशेष) जेगण (प्रा० ज्ञा० ०, जसठ्यपुत्र । चौलुक्य राजवंश ) २.६२५.३४,४४,४५,४६,४८, जेजा (प्रा. ज्ञा० श्रे० ) ५१,५३,५६,६०,६१,६४,६५, जैत्रदेवी । वीरधवलपत्नी) ८२,८३.९७ जैत्रसिंह ( जयतसिंह, वस्तुपालपुत्र ) ५५,५७,६२,६४, चौलुक्यपुर (अणहिलपुर ) ७६-२.९८ जगदेव (श्रीमाल ज्ञा० श्रे०, आसलपुत्र) ६ , (ध्रुव, कायस्थ) ४६,५३.५५,५७,७६-३ जगसीह (प्राघाट, ठकुर) ६५ जोगा ( महं, ओइसवाल ज्ञा• श्रे, सलमणपुत्र ६६ ,, (ओइस० ज्ञा० महा०, आवोधनपुत्र) ६६ झालहणदेवी ( वस्तुपाल-तेजपालभगिनी ) ७२ जगा (प्राग्वाट ज्ञा० श्रे०, जसवीरपुत्र) झाल्हण ( ठकुर, मोदज्ञातीय) ७४ जङ्गल (नृपविशेष) ६ डकउवाणि ( ग्राम ) १०७ जयंतसिंह ( वस्तुपालपुत्र) ४५,४६,४,५१,५३, उवाणि (ग्राम) १०७ ५६,६२ उवाणी (ग्राम) ६६,६७ ,, (कायस्थ) ९६ तारंगक (पर्वत) जयतलदेवी ( वीरधवलपत्नी ) २६ तारणगढ ६८ ,, (जयंतसिंहभार्या) ७२,७४ तिजपाल ( तेजपाल ) १०५,१०६,१०७ जयतसिंह ( महं, वस्तुपालपुत्र ) ४४,५५,७४,७६-३ तिहुणदेवि (ठकुरराणी, धरणिगभार्या ) ६५ ,, (स्तंभपुरीय, ध्रुव) ४७५० तुरष्क (उपविशेष) जयतसीह (महं, वस्तुपालपुत्र) ६९,७० तुमक (नपविशेष ) जयदेव (साहु, वरहुडिया) ६८ तेजःपाल ( मंत्री, आशा राजपुत्र ) १०,१३ १४ २१, जयश्री (चंडप्रसादपत्नी) ८,७६-१,८८ २५.२८,३१,३२, जयसिंघ (चौलुक्यनृपति) १०० ३७,३८,३९ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रमणिका। पृष्ट ६६ तेजःपाल महं) ४४.४.४३.४७,४८,४९५१.५३, धणदेव (श्रीमाल ज्ञा० श्र०, सूमिगपुत्र) ५४, ५५ ५६ ५७६०,६२,६३.६४, धणदेवी ( वस्तुपाल-तेजपालभगिनी) ६५.६७,७२.७३,७४,७५,७६, ६-१, धनदेवी ७६२, ७६ ३, ८६, ९०, ९६, ९७ धणपाल (ओइस० ज्ञा० श्रे०, महधरापुत्र) तेजपाल ( महामात्य, महं ) ६८,६९,७०,७२ ७९९६, धणिया (प्रा. ज्ञा० श्रे०, जसकर पुत्र ) ____९९, १०१, १०५ १०७ धणेश्वर ( साहु राहडमुत) तेजलपुर ( ग्राम) धरणिग (प्राग्वाट, गागामुत) त्रिपुरुषप्रासाद ( शिवमंदिर ) , (प्रा. ज्ञा०, ठकुर ) त्रिभुवनदेवी (प्राग्वाट, धरणिगपत्नी) ६३ धर्कट ( ज्ञाति ) ६३ त्रिभुवनपाल ( अश्वराजभ्राता) ___७६२ धर्मदासगणी । आचार्य) थिरदेव (श्रीमाल ज्ञा. थ.) धर्माभ्युदय ( महाकाव्य) दक्षिण ७९,९६ पविशेष) दर्भवती ( नगरी । १६,२६४४,४६,४८,५४,५१,५६ धवल (चौलुक्य वंशीय ) . (मंत्री) दाक्षिणात्या (स्त्रीविशेष) २०० धवलक (नगर) दामोदरहद ( स्थानविशष) धवलक , दुर्लभ ( चौलुक्यनपति) ३,२४,३५,८२ धवलकक , ४४,४६,४८,५२,५४,५६ दूगसरण (प्रा. शा.) धांधल (सूत्रधार) देउलवाडा (ग्राम) ६५ ६७ धांधा ( ऊएस० ज्ञा० महा० ) देदा ( श्रीमाल ज्ञा. श्रे.) देपाल ( मंत्री) धांवलदिवि (धावलदेवी, सोमनरेन्द्रमाता) . १०५ देल्हण (प्रा. ज्ञा.भ.) ६६,६७ धावलदेवि ,. ( ओट्स, ज्ञा० श्रे०, सीललपुत्र) धारा (भाण्डागारिक) ७६-३ देल्हा ( ओइस ज्ञा० अं०) __ (नगरी) ८३,८४ देल्हुय ( प्रा. ज्ञा. श्र०, सांतुयपुत्र) धारावर्ष (परमार नृपति) देवकुंयार ( ओइस ज्ञा. थे.) धीरण (प्रा० ज्ञा० श्रे०) देवकुमार ( साहु जयदेवपुत्र) ध्रवभट (परमारवंशीय नृपति) देवचंद्र । साहु जिणचद्रपुत्र ) धूमराज (परमारवंशीय नृपति) ६१,६५ देवधर ( श्रीमाल ज्ञा• श्र०, गुणचंद्रपुत्र) नंदीश्वर । (स्थापत्यविशेष) २८,४७ देवप्रभसूरि (हर्षपुरगच्छीय आचाय ) नंदीसर , देवबोध ( विद्वान् ) नगर ( वृद्धनगर, स्थानविशेष) देवलवाड ( ग्राम) १०६,१०७ नगरवर (महास्थान) ७६-४ देवानन्दसरि ( आचार्य, हर्षपुरगन्छीय) २९,८० नगराख्य , देसल (प्रा. शा. श्रे.) ६७ नयचन्द्रसूरि (कृष्णर्षिगच्छीय ) देसीनाममाला ( ग्रंथ ) ९६ नरचन्द्रसूरि ( हर्षपुरगच्छीय ) धंधुक (परमारवंशीय नृपति) , (मलधारी) धंधूय " १०७ नरनारायणानन्द (काव्य) धुधुय धलिग (धकट शा.) ६६ नरेन्द्रप्रभसूरि मलया धउली (ग्राम) ६६ नागदेव (ओइस० ज्ञा० थे०) धणचंद्र (प्राबाट ज्ञा. श्रे.) ६६ नागपुर १०२ (७२ २६ ४७,५५ १०७ नरेन्द्रसूरि मलधारी) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह पृष्ट ६७ ६७ ७३ NW4 नागेन्द्रगच्छ १३,२९,४५,४६,४८,५१,५४ ५६५७, पाहुय ( प्रा. ज्ञा० श्रे० ) ६४,६५ ६९,७२,७५, ७६-३, ७९ ९० प्राग्वाट कुल, वंश ) ८,१५२१,२५,३७,३८,४४,४५, नायलगच्छ (नागेन्द्रगच्छ ) ४६.४८ ५१,५३,५४,५५, ६, निरिन्द्रग्राम २६ ५९, ६३, ६५, ६६६७६९७०, नृपविक्रम संवत् ६९,७०७१,७३,७६-१ ७२,७२,७३,७५ ७६.७६-१, नेमड ( साहु, वरहुडिया) ७६-३,७६-४, ८६ ८८.९७ नेहा (धकट श्रष्टी) ६६ पुंडरीक ( पर्वत, शत्रुजय ) पजून्न ( प्रद्युम्नशिखर ) १०२ पुनसीह । ७० पञ्चासर (जिनमंदिर) पुण्यसिंह। ५७,७६-२ २,१५,२६ पूनसीह । ( मल्लदेवसत) ७१,७६ पत्तन ( अणहिलपुर) ६९,७४,७५,७६,७६-४ पूर्णसिंह पद्मला ( वस्तुपाल-तेजपालभगिनी) पुरुषोत्तम (सूत्रधार । ४७५०,५३ पद्मसिंह (प्रा० ज्ञा० श्रे०, वालापुत्र ) पूनचंद्र (प्राग्वाट ज्ञा० श्रे०, पासचंद्रपुत्र) ६६ परमलदेवी ( वस्तुपाल तेलपालभगिनी) पूनड (प्राबाट ज्ञा. महाजनी, आंमिगपुत्र) ६६ परमार (राजवंश) पूनदेव (प्रा० ज्ञा० श्रे०, वोसरि पुत्र ) प्रतापदेवी (मालदेवपत्नी) ७४ पूनदेवी ( महं, वस्तुपाल तेजपालमातुलभार्या ) ७३ प्रतापमल्ल ( राजपुरुष) पूनपाल ( महं, वस्तुपाल तेजपालमातुल ) प्रतापसिंह ( जयतसिंहपुत्र, वस्तुपालपौत्र) २७,२८,९८ पूना ( प्रापाट ज्ञा० ) प्रतीहार ( राजवंश) ७७ ,, (श्रीमाल ज्ञा.) प्रद्युम्नशिखर ( रेवतगिरि शिखरविशेष )२८,४४,४६, ., (प्रा. ज्ञा० ० बोडिपुत्र) ४८,५१,५४,५६ ,, (श्रेष्टी) ७६-३ प्रद्युम्नसूरी (आचार्य) पूनिग (ओइस० ज्ञा. श्र०) प्रमार (राजवंश) ६७,१०५ पूनुय (प्रा० ज्ञा०, पासिलपुत्र ) प्रयाग ( तीर्थस्थान) ८१,८४ पृथ्वीसिंह ( पूर्णसिंहपुत्र) ७३-२ प्रह्लादन (परमार नृपति) पेथड ६३,७१,७६ ,, (पण्डित, कुमारशर्मगुरु) पोख्याड (वंश) प्रह्लादनपुर (पालणपुर) ६८ फीलिणी (ग्राम) पाण्ड्य ( नृपविशेष) ३ बकुलस्वामी ( सूत्रधार ) ४७,५०५३ पातू ( मालदेवभार्या) ७० बदरकप (ग्राम) पादलिप्तनगरी ३८ बर्बर (दत्य ) पाल्हण (प्रा. ज्ञा० श्रे०, जींदापुत्र) ६६ बलदेवि ( तेजपालपुत्रो) (ऊएस० ज्ञा० श्रे०, सोहिपुत्र ) " बाव)ल्लाल (मालवनपति) ,, (प्रा० ज्ञा० महा.) ब्रह्मदेव (प्राग्वाट ज्ञा०) , (कवि) १०८ ब्रह्मसंति (ब्रह्मशान्ति यक्ष) पाल्हविहार ( जिनमंदिर) ६८ ब्रह्मसरणु (प्रा. ज्ञा० अं०, देसलपुत्र ) पाल्हा (प्रा. ज्ञा. श्रे०, धीरणपुत्र) ६६ ब्रह्माण (ग्राम) पासचंद्र ( प्राग्वाट ज्ञा० श्रे०) ६६ बाण (कवि) पासदेव (श्रीमाल ज्ञा० महा०, वीसलपुत्र) ६६ बोहडि ( प्रा० ज्ञा० ०, आंबुयपुत्र ) पासवीर (प्रा० ज्ञा० श्र०, साजणपुत्र) ६६ भद्रबाहु ( आचार्य) पासिल (प्रा० ज्ञा०) भाडा (ग्राम) पासु (धर्कट श्रेष्ठी) ६६ भाभा ( तेजपालमातुलसुत) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रमणिका । १३३ ३ भालि (ग्राम) ६७ मालवपति ( नृपविशेष) भावड । साधु) १०१ मालवभूप ( नृपविशेष ) भास ( कवि ) मालवी (स्त्रीविशेष) भीम ( चौलुक्यनृपति, प्रथम ) ३,२४,३५.८२ मालवेन्द्र (नृपविशेष) ,, ( , , द्वितीय) ६.२४ ३६.३७,६५, , (सुभट नृप) ८५,९० मुंज (नृपति, धाराधीश) भीम (पल्लीगति ) " (विद्वान् ) ८२,८३,८५ भीमसिंह ( मुराष्ट्रापतिपति) मुंडस्थल ( ग्राम, महातीर्थ ) भीमेश्वर (शिवन्दिर) मुनीन्दुप्रभु ( मुनिचन्द्रसूरि, हर्षपुरगच्छोय) २९ भुवनपाल (नृपविशेष) मुमाकीय (ठकुर ?) ७५ भूतेशवेश्म ( शिवमन्दिर) मुरल (नृपविशेष) भूभट ( चापोत्कट नप) मूढेर (ग्राम) १०८ भृगुकच्छ ( भृगुनगर, भृगपुर ) मूलराज ( चौलुवयनपति, प्रथम ) २,२४,३४८२ भृगुनगर (भृगुकन्छ, भृगुपुर) , (चौलुक्यनृपति, द्वितीय) ६.२४,३६.८४ भृगुपुर ( मुगुकच्छ, भृगुनगर ३८,४४.४६,४८, मेदपाट (नृपविशेष) (देश) भोज (जपति, धाराधीश) मोढ ( ज्ञाति) भोला (प्रा. ज्ञा० श्रे०, साजनपुत्र) ७४ मडाहड (ग्राम) यशोधवल (परमारवंशीय नृपति ) यशोराज (नृपविशेष) मयधर ( अष्टी) योगराज ( चापोत्कट नृप) मरु (नपविशेष) . २ मलधारि ( गन्छ) रतन (संघाधिपति) १०१ रत्नसिंह ( प्राग्वाट, ठकुर ) मल्लदेव (आशाराजपुत्र) i०,१६, २१,२५,२६,२७, २८,३७,५७ ५९,६०,६३,६४ रत्नादित्य ( चापोत्कट नृप ) ,, (मह. आशाराजपुत्र) ६५, ७६.२.८६, ८९, ९७ रत्नादेवी ( जयादित्यदेवपत्नी) ७६-४ रयणादेवि (लूणसीहभार्या ) महधरा ( आइस ज्ञा० श्र०) ७१ महाक (नं० पेथडमुत) राजदेव (श्रेष्टी) ७६-३ महादेव । विद्वान् , सोमेश्वरपुरोहित भ्राता) ८५ राजपाल ( तेजपालमातुलमुत) महेन्द्रप्रभसूरि ( नागेन्द्रगच्छीय) राजुय (प्रा. ज्ञा. श्रे०) २९ ६६ ७६-३७९ राठी ( ज्ञातिविशेष) १०४,१०६ महेन्द्रसूरि १३ ६४,६५ राणभट्टारक २६ (भट्टारक) राणिग (प्रा० ज्ञा०, महं) ४५,४६,४८,५१,५४,५६ राणु (ठकुराणी, ललितादेवी माता) ४५,४६,४८, माउ वस्तुपाल-तेजपालभगिनी) ७२,६० ५१,५४,५६,७६-४ माघ (कवि) २० रामचंद्र (प्रारबाट ज्ञा० अं०, धणचंद्रपुत्र ) ६६ माणिभद्र ( प्राबाट श्रेष्ठी) ६६ रामदेव (परमारवंशीय नृपति) मारव (नुपविशेष) ३८ राल्हा (प्राम्बाट ज्ञा०, ब्रह्मदेवपुत्र) मालदेव । महं ) ४४,४६,४८,५१'५३,५५,६९,७०, राष्ट्रकूट ( राजवंश) , (ठकुर ) ७१७२,७३,७४,७२,७६-१,७६-३ रासल (प्राग्वाट श्रेष्ठी) मालव ( देश) ६,८३ ८४,१०१ राहउ ( साहु, नेमडपुत्र ) ६८,६९ मालवनृप । नृपतिविशेष) ३५ , (साहु) ६७ महेन्द्रप्रभु " माऊ www New Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह पृष्ठ ७४ ६८ ७१ रूपादेवि ( जयंतसिंहभार्या ) ७० लूणवसहिका ( जिनमंदिर ) ७६-१ , (लावण्यसिंहभार्या) ७५ लूणसिंह ( लावण्यसिंह, तेजपालपुत्र) ६३.६५ रेवंत (रैवत पर्वत) ९९ १०२ लूणसीह ( , ) ७१,७२,७६ १.९६ रेवंद ( , ) १०३ लूणसिंहवसहिका (जिनमंदिर) रैवत (पर्वत) १५,७६-२,७७ लूणसीहवसहिका । ,, ) ६७,७२,७३ रैवतक (,) २८,६७,९० लणसीह ( महं, लीलामृत) ६५ रेवताद्रि ( ,,) लणादेवी ( लूणिगपत्नी ) रोहडी (ग्राम) लणग (लावण्यांग, आशागजपुत्र) २१,२५,५९. लक्ष्मी (कुमारशर्म-पत्नी ) ६४,७५,७६,७६-३.८९ लक्ष्मीघर २७ लाणिगदेव ( ) ७४ लखमण (श्रीमाल ज्ञा. श्रे.) ६६ वघेला राजवंश) १०५ , (प्रा० ज्ञा० श्रे.) ६६ वन । नृपविशेष) ललितसर (सरोवर) २७ वटसावित्रीसदन ( देवतामन्दिर ) ललितादेवी ( वस्तुपालपत्नी ) वनराज ( चापोत्कट) २,२६ (महं, बस्तुपालपत्नी ) ४४,४५,४६४८ । वयजका ( वस्तुपल-तेजपालभगिनी) ६०,७३ ५१,५३,५४५५,५६,५८,६२, वरदेव ( ऊएगवाल ज्ञा० महा०, साटापुत्र) ६६ ६९,७४,७६-२,७६-४, ९८ वरहुडिया ( गोत्रविशेष) लल्लशर्मा (विद्वान्) वलभी। नगरी) लवणप्रसाद (चौलुक्यवंशीय) ६,७,२५,६० वलालदेवि (पूनसीहमुता) (महाराजाधिराज) ४४,४५४६,४८, ५१,५३,५६ वल्लभराज (चौटक्यनुपति ) ३,२४,३५ (महामण्डलेश्वर, राणक ) ६५ वशिष्ट (ऋषि) लवणसिंह (लावण्यसिंह, लूणसिंह, तेजपालपुत्र ) ४५ वशिष्ट कुंड ( अबदस्थित मुंड) लषमादेवि (लूणसीहभार्या) वसिष्ट ( स्थानावशेष) लाखण (ओइसवाल ज्ञा० श्रे, वोहिथपुत्र ) ६७ ,, (ऋषि) लाट (नृपविशेष) वसिष्ट ट कुंड (अर्बुदस्थित कुंड) लाटापली (ग्राम) ६८,६९ वसन्तपाल ( वस्तुपाल ) लावण्यप्रसाद ( लवणप्रसाद, चौलुक्यवंशीय) ३६ वस्तशल ( वस्तुपाल) १०१,१०५ लावण्यसिंह (लूणसिंह, तेजपालपुत्र) ५७६३,६४, वस्तुपाल ( मंत्री, आशाराजपुत्र ) १०,१२,१४ १५, ७५,७६२ १६.१७१८,१९,२०,२१, लावण्यांग (लूणिग, आशाराजपुत्र) ७५७ २२ २३.२५,२६,२८,२९, लाषाराम (स्थानविशेष) १०० ३०, ३१, ३२.३३, ३७, लाहड (साहु राहडसुत) ३९,४०, ४१, ४२,४३ लीला (प्राग्वाटज्ञातीय महं) , (महामात्य) ४४,४५,४६,४७,४८,४९,५०, लीलादेवी (मालदेवभार्या ) ७४ ५१,५२,५३,५४५५,५६,५७, लीलुका ५८.६०,६२.६३,६४ ७०,७६-२ ,, (महं) ६५, ६८,६९, ७२,७३,७४,७५,७६, लुणिग । ठकुर, लावण्यांग ) ४४,४६,४८,५१,५३,५५ ७६-१, ७६.२.७६ ३.७६-४.७७७९, लुणसा (लवणप्रसाद, चौलुक्य) ८६ ८७ ९०, ९१ ९२, ९३, ९४. लूणपसाय ( लवणप्रसाद, चौलुक्य ) १०४ ९६,९७, ९९. १००, १०५, १०७ लूणप्रसाद (लवणप्रसाद, चौलुक्य ) ९७ वस्तुपालसर (सरोवर ) लीलू १०५ २७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रमणिका । ७४ वस्त्रापथ ( स्थानविशेष) १३,२८ वीजापुर वहडा ( ओइसवाल ज्ञा० श्रे० गोसलपुत्र) ६७ वीर ( वीरधवलराजा) वहुदा ( ओइसवाल ज्ञा. श्रे०, सीलणपुत्र) ६७ वीरदेव (प्राग्वाट ज्ञा० महा०) वहुदेव (धर्कट श्रेष्ठी) ६६ वीरदेव ( साहु, जयदेवपुत्र ) वाग्भट ( महामंत्री) १५ वीरुय (श्रीमाल ज्ञा० श्रे० थिरदेवपुत्र) वाघा । ओइसवाल ज्ञा० ०, पूनिगपुत्र) ६७ वीरुय (प्रा. ज्ञा० श्रे०) वाजड । कायस्थ) ४६,४७५१,५३,५५,५७ वीसल (श्रीमाल ज्ञा० महा०) वापल । श्रीमाल ज्ञा०) ६६ , (श्रीमाल ज्ञा० श्रे० देरापुत्र ) वामलदेवी ( मह, चंडप्रसादपत्नी) ७४ वीसलदेव (नृपति) वालण (एसवाल ज्ञा० अं०, सलखणपुत्र) ६६ वेजलदेवी ( वस्तुपालपत्नी) वाला (प्रा० ज्ञा० श्रे०) वेला ( व्यवहारी) ७६-३ वालिग (कायस्थ) ४७,५० वैद्यनाथ ( शिवमंदिर) १६,२६,२७ वालीनाथ ( यक्षविशेष) २६ वैरिसिंह ( चापोत्कटनृप ) वाइड (सूत्रधार) ४६५५,५८ वैरिसिंह ,, (ओइसवाल ज्ञा० ०, जसदेवपुत्र) ६७ वोडाख्य ( वालीनाथयक्ष ) विक्रम संवत् ४३,४६,४८,५३, वोसरि (प्रा० ज्ञा० श्रे०) ५५, ५८,६५,७५ वोहडि ( प्रा. ज्ञा० श्रे०) विक्रमनृप संवत् __७२ वोहिथ (ओइसवाल ज्ञा० श्रे०) विक्रमार्क संवत् ५१ व्यास (कवि) २०,५२ विजय ( सोमेश्वरपुरोहित भ्राता) ८५ व्याघ्ररोलि (ग्राम) विजयसिणसूरि (विजयसेनसूरि ) १०७ शकुनीविहार (जिनमन्दिर ) विजयसेण (विजयसेनसूरि ) ९९,१०३ शङ्क ( संग्रामसिंह नृपति) १२ विजयसेनसूरि ( नागेन्द्रगच्छीय) १४,१६,२९,४५, शत्रुजय (पर्वत) १५२१,२७३८,७७,९२ ४७,४९,५१,५४,५६,६४,६५,६९, ,, (पर्वत, महातीर्थ ) ४४,४७,४८,५१,५३, ___७२, ७४, ७५,७६-३,७८,७९,९० ५४,५६,६८ विन्ध्यवर्मा (धाराधीश नृप ) ८४ , (पर्वत, तीर्थ ) विमल ( मन्त्री) १०४,१०५ , (धवलक्कस्थित जिनमंदिर ) विमल ( शत्रुजय पर्वत) ९० शत्रुजयशैल विमलउ (मन्त्री) १०४ शत्रुजयमहातीर्थावतार (स्थापत्यविशेष ) ४४,४६, विमलमंदिर ( जिनमंदिर ) ४८,५१,५४,५६ विमलाचल शवजयपर्वत ) ४६ शत्रुजयाद्रि विमलादि (शत्रजयपर्वत) १५,७७,९२ शत्रुजयावतार (स्थापत्यविशेष) विरधवल ( वीरधवल) १०५ शांतिसूरि ( नागेन्द्रगच्छीय ) १३, २९, ४५, ४६, वीरधवल ( चौलुक्यवंशीय, नृपति ) ७, ८, १०, १३, ४८,५१, ५४,५६, १६,१८,२५,२६,२८,३२,३६, ६४,६५,७६-३,७९ ३७,३८,६०,६१,६४,९१,९९ शाम्बशिखर (रैवतगिरिशिखरविशेष ) २८,४४,४६, ,, (महाराज ) ४४,४६,४७,४८,५१,५४,५६ ४८,५१,५४,५६ ,, (राणक, महामण्डलेश्वर) ६५ शालिग (प्राग्वाटज्ञातीय, ठकुर) बीकल (व्यवहारी) ७६-३ शालिगजिनालय बीजा (श्रेष्ठी) ७६-३ शूर (सूर, चंडप्रसाद ज्येष्ठपुत्र) १०६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी-आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह पृष्ठ पृष्ठ शैलादित्य (नृप) १५ साजण (साधु ) श्रीधांधलेश्वरदेवीयकोटडी (स्थानविशेष) ६७ (दंडाधिप ) १००,१०१ श्रीपाल (प्राग्वाटश्रेष्ठी, सावडपुत्र) ६६ साजन (प्रा० ज्ञा. श्रे.) श्रीमाल (ज्ञाति) ६६ साटा (ऊएसवाल ज्ञा. महा०) श्रीमातामहबुग्राम ६७ सादा ( धर्कटश्रेष्ठी, पासुपुत्र) पं(ख)गार (सोरठपति) १०० , (प्रा० ज्ञा. ०. आसलपुत्र ) संग्रामसिंह ( शंख, सिन्धुराज) १२,४१ सामंतसिंह (नृप ) संतोषा । ठकुराज्ञी, मोढ ज्ञा० ठक्कर आसा-पत्नी) सालग्राम ७३,७४ साल्हा (धर्कटश्रेष्ठी, नेहापुत्र) संमेतमहातीर्थ (महातीर्थ ) ४८ ., (प्रा० ज्ञा०, पूनापुत्र) संमेतमहातीर्थावतारप्रासाद ( स्थापत्यविशेष) , ( श्रीमाल ज्ञा", पूनापुत्र ) ४५,५४ सावड (प्राग्वाटश्रेष्ठी) संमेतमहातीर्थावतारप्रधानप्रासाद सावदेव (प्राग्वाटज्ञातीय, ठकुर ) (स्थापत्यविशेष) ४७ सावदेव ( प्रा. ज्ञा, श्रे०, राजुयपुत्र ) संमेतशिखरप्रासाद (स्थापत्यविशेष ) ५८ साहणीय (प्रा. ज्ञा, दूगसरणपुत्र) संमेतावतार (स्थापत्यविशेष) . ५१ साहिलवाडा ( ग्राम ) संमेतावतारमहातीर्थप्रासाद ( स्थापत्यविशेष) ५६ सिंहण ( यदुवंशीयनृप) संमेय (संमेतशिखर पर्वत) १०१,१०२ सिंहराज ( संघपति, सरवणपुत्र ) सत्यपुर (नगर) १५,२७,६८ सिंहुलग्राम सत्यपुरावतार (स्थापत्यविशेष) ४४,४६,४८, सिद्ध (सिद्धराज) । सिद्धनृप ( , ) सदमल (मालदेवसुता) ७० सिद्धराज (चौलुक्यनपति) १,३७८९ सपादलक्ष (देश) सिद्धर्षि (आचार्य ) सरवण (संघपति) ६८ सिद्धाधिप (सिद्धराज) सर्वदेव (विद्वान् ) ८३,८४ सिद्धेश (सिद्धराज) सलखण (ऊएस० ज्ञा० श्रे०) सिद्धेशिता (सिद्धराज ) ,, (ओइस० ज्ञा० श्रे०) सिन्धु (देश) सलखणदेवी ( सुहडसीहपत्नी) ७५ सिन्धुराज ( शंख, संग्रामसिंह ) सहजल (मालदेवसुता) ७० ( कच्छपति) सहजिग ( कायस्थ) ४७.५० सिरिमाल (श्रीमालकुल) सहदेव (साहु, वरहुडिया) ६८ सिहरग्राम सहसा (संघपति) सीता (सोमपत्नी) सहसाराम (स्थानविशेष) १०२ सीतादेवी ( महं, सोमपत्नी) सांतुय (प्राग्बाट ज्ञा० ० ) ६६ सीलण ( ओइसवाल झा. श्रे.) सांबकुमार ( शाम्वशिखर ) १०२ सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी ( कृतिविशेष) साइदे (सं० सहसापत्नी) ६८ सुनथव ( सं० सहसापुत्री) साउदेवी ( वस्तुपाल-तेजपाल भगिनी)। ७२ सुभट (कवि) साऊ ( , ६० सुभटवर्मा (नृप) सागर । प्राग्वाटज्ञातीय, ठक्कुर ) ६५ सुमसीह ( सोमसिंह) सागर (एसवाल ज्ञा० महा० घांधापुत्र) ६६ सुरठ (देश) साजण (प्राग्वाट ज्ञा. श्रे.) ६६ सुराष्ट्रापति (भीमसिंहनृपति ) ६६ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनामानुक्रमणिका। १३७ सुहडसीह ६६ ४८ पृष्ठ सुरिताण (सुल्तान) १०४ सोलंकि (राजवंश) १०४ सुवन्नरेह ( नदी) ९९ सोल (सोलशर्मा) ७५ सोलशर्मा ( विद्वान् ) सुहडादेवी ( महं तेजपाल द्वितीयभार्या ) ७३,७४ सोहगा (वस्तुपाल-तेजपाल-भगिनी) ६०,७३ ,, सुहडसीह पत्नी) ___७५ सोहि (ऊएसवाल ज्ञा० श्रे) सूमिग ( श्रीमाल ज्ञा० ०) सोहिय (प्रा० ज्ञा० श्रे०) सूर ( मंत्री, चण्डप्रसाद ज्येष्ठपुत्र) ९७६१ सौवर्णगिरि (पर्वत) सुहवदेवि (जयतसिंहभार्या ) ७०,९८ स्तम्भतीर्थ (पुर. नगर, स्थान ) १२,२७२८,४४, सेत्तुज ( शत्रजय) १०५ ४६५१,५३,५४,५५, ५६,५७,७६३,९६ सोखु ( महं वस्तुपाल द्वितीयभार्या ) स्तम्भनक (ग्राम) साखुका ( ) ४६,४८,५०, ५१,५८६९ स्तम्भनकतीर्थ (स्तम्भतीर्थ ) सोभनदिउ शोभनदेव, सूत्रधार ) । १०६ स्तम्भनकपुर (ग्राम) ४४,४६,४८,५१,५४,५६ सोभनदेउ ( , ,, ) १०६ स्तम्भनपुर ( स्थानविशेष) सोभा ( भाण्डागारिक) ७६-३ स्तम्भपुरीय ध्रुव (जयतसिंह ) ४७,५० सोम (मंत्री चण्डप्रसाद-द्वितीयपुत्र) ९,२१,२५२८,३७ साजण (प्रा० ज्ञा० श्रे०, वीरुयपुत्र) , (मंत्री, ठकुर) ४४,४६,४८,५१,५३, हंडाउद्र (ग्राम) ५४,५५,५६,५९,६४ हंडावडा (ग्राम) १०७ , ( महं ) ६५,६९,७०,७१,७२. हथीयावापी ७३, ७४, ७५, ७६, हम्मीर (नृपविशेष) ७६.१,७६-२,७६-३, हरिभद्रसूरि नागेन्द्रगच्छीय) १४,२९,३७.६४ ७६-४,८६,८८ ६५,७६-२,७६-३, ७९,८९,९० सोम । धर्कटश्रेष्ठी. वहुदेवपुत्र) , (भट्टारक) ४५,४७,४८,५१,५४,५६ सोम ( नरेंद्र) १०४,१०५ हरिमण्डप (स्थापत्यविशेष) ४७ सोमदेव : सूत्रधार ) ४७,५०,५३ हरिया (श्रीमाल ज्ञा० श्रे०) सोमशर्मा ( विद्वान् ) ८२ हरिहर (कवि) सोमशर्मा ( सोमेश्वर देव, पुरोहित) ८५९० हर्षपुरीयगच्छ सोमसिंह (नृपति, धरावर्षसुत) ६२ हालूय ( साहु जयदेवपुत्र) सोमसिंहदेव (महामण्डलेश्वर) ६५,६७ हणी (स्त्रीविशेष) सोमेश्वरदेव ( टकर, गूर्जरेश्वर पुरोहित) ४५,५०, हेठउंजीग्राम ६५,८५ हेमचन्द्र (आगर्य) सोरठ (देश) ९९,१०० हेमा (श्रीमाल ज्ञा० श्रे०, हरियापुत्र) ६७ ६६ ८५९० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jajn Education International