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श्री पंचगुरुभ्यो नमः | श्री चंद्रप्रभाय नमः ।
मुनिराज श्री इन्द्रनन्दि विरचित
श्री ज्वालामालिनी कल्प
भाषा टीका और मंत्र तंत्र यंत्र सहित
टीकाकार
काव्य साहित्य तीर्थाचार्य, प्राच्य विद्यावारिधि श्री पं० चंद्रशेखरजी शास्त्री- देहली
प्रकाशक
मूलचंद किसनदास कापडिया दिगम्बर जैन पुस्तकालय, गांधी चौक-सूरत
प्रथमा वृति ]
वीर सं. २४९२
मूल्य : पांच रुपये
Eac
[ प्रति १०००
य
319000 - Rea.
Rese
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RSARORAR
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निवेदन
मलन विमान
ड विमस
छ जैन शास्त्रों में मंत्र शास्त्र और औषधिशास अनेक हैं सनमें मंत्र शाखाकी महिमा को अपरंपार है। मंत्र शाखों में से श्री. ऋषि मण्डल यंत्र कल्प, भक्तामर स्तोत्र कल्प, कल्याण मंदिर स्तोत्र कल्प, मोकार मंत्र कल्प-माहाल्यो यंत्रमंत्र साधनविधि हित प्रकट हो चुके हैं। लेकिन और में मंत्रशाखबन्धकारमें मौजूद थे व प्रकट नहीं हो सके थे ऐसे समयमें मानले ३७ वर्ष पर जब हम सहकुटुम्ब श्री शिखरजीकी यात्रार्थ गये ये सब कौटते समय देहली में धर्मपुराको धर्मशालायें ठहरे थे जिसकी सूचना मिलते ही यहां के एक महान् प्रण विद्वान श्री०-५० चन्द्रशेखरजी शास्त्री जो विद्यावारिधि मावि पदवीधारी ये हमसे मिलने पाये थे। उनसे जैन साहित्य व मंत्र शास्त्रोंकी पर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि जैन मंत्रशासनाव हैं। "हमने यहां (देहली) के शाम भण्डारसे बढ़ो मेहनतले मेरक पनामती कल्प, बालामालिनी कल्प, विका कम्प, मंत्र-व्याकरण
बीज कोष मूड प्राप्त करके उनकी प्रेस कॉपी की है। उन्हें हिन्दी अर्थ सहित तैयार किये हैं। यदि भाप इन जो पाना चाहें मैं आपको चित मूल्य पर देयकता हूँ तो हमने आपकी ये प्रेस कापियां मंगाकर देख ली थी फिर सूरत जाकर सनमें से "भैरव पद्मावती कल्प" यंत्र मंत्र साधनविधि सहित बापसे मंगा लिया था बादमें अनेक कारणवशात् या प्रन्थ हम जी प्रकट नहीं कर सके थे लेकिन बाजसे १३ वर्ष पूर्व यह अन्य प्रकट किया था जो करीब-करीक पिक चुका है। (बिर्फ इनीगिनी प्रतियां शेष हैं)
20A 1905/
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[४] इस ग्रन्धके मुख पृष्ठपर हमने प्रकट किया था किभागे हम ज्यालामालिनी कल्प" भी प्रकट करनेकी भावना रखते हैं 'ऐसा पढ़कर हमारे पास इस कल्पके लिए मांग आती ही रहती
थी। इसलिए हमने पं०चंद्रशेखरजी शाबीसे पत्रव्यवहार करके इस "पालामालिनी कल्प" मंत्र-शाल जो हिन्दी अर्थ व यंत्रमंत्र साधन विधि अहित है. देहलीसे मंगा लिया था जिसको भी प्रकट करने में अनेक कार्यवशात् बिलंच मा वो भी वर्ष होता है कि वह मन्त्र-शाखाज हम साधन विधि व यंत्र मंत्र पवित्रक्ट कर रहे हैं।
जब "भैरव पद्यावती कप बारहवीं शताब्दिमें श्री महीषणसरिने रचा था, और यह "वालामालिनी का यंत्र-शास्त्र मुनिराजश्री इन्द्रनन्दीने दशीं शताब्दिमें रचा था। यह मंत्रशखर परिच्छेदों में शास्त्रोक्त मन-चाहे विधान करीव ७५ प्रकार की साधन विधि अहित हैं तथा इसमें उसकी साधमाके २३ मंत्र भी बड़ा भारी खर्च करके दिये गये हैं।
"भैरव पद्मावती कल्प" की प्रस्तावना तो श्री०५० चंद्रशेखरजी शास्त्रीने लिख दी थी लेकिन ज्यालामालिनी कल्प' को हमने छापकर पूर्ण किया और आपको इसकी प्रस्तावनाके लिये देहली लिखा गया तब बायके पुत्र श्री चन्द्रमणिका पत्र माया कि हमारे पिताजी (पं० चन्द्रशेखरजी शाखी) तो १ वर्ष हुये गुजर गये है शादि। सब इमने इस यंत्रशाखापर किसी महान बिद्वानसे प्रस्तावना लिखाना सचित समझा ब ऐसे विद्वान् हमें मिल गये जिनका नाम है-प्रो० उमाकांत प्रेमानन्द शाह एम. ए. पी. एच. डी. बड़ीदा। बाप यंत्रशासके बड़े भारी बिद्वान हैं। बड़ौदामें बोरिएंटल इनस्टीटयूट में उच्च पद पर पामोन हैं तथा आप जैन रिसर्च के मार्गदर्शक हैं। बापने इस मंत्र शाखाकी प्रस्तावना बड़ी विद्वत्तापूर्वक लिख दी है जिसके लिये हम आपका हार्दिक सपकार मानते हैं।
इस प्रन्धके श्लोकोंको जहांतक हो हमने शुद्ध किये हैं तो भी इसमें अशुद्धियां रह गई हैं ऐसा प्रस्तावना लेखाएका अभिप्राय है तो भी सभी श्लोकोंका हिन्दी अर्थ जो ठीकर किया गया है।
हमारे ८ वें तीर्थकर भगवान चन्द्रप्रभुकी कुछदेवी श्री बाबामाकिनी थी सह के नामसे ही यह मंत्र शास रचा गया है जो अक्षरशः पढ़ने, मनन करने साधना करने योग्य है। हाँ, यह कार्य बडे परिश्रमका अत: बहुत कम भाई बहिन इसकी साधना कर सकेंगे तो भी यह मंत्र शास्त्र प्रत्येकको स्वाध्याय करनेयोग्य तो है हो।
इस ग्रन्धकी कोपी में, यंत्रों के उठोक बनाने में तथा आजकलकी छपाईकागजकी मंहगी में भी हमने इस प्रन्धको प्रकट करने का साहस किया है। बाशा है इस मंत्र शास्त्रका भी शीघ प्रचार हो जायगा ।। बीर सं.२४९२, सं. २०२३) निवेदक:भाद्रपद वदी ५ रविवार मूलचंद किसनदास कापड़िया-सूरत सा.४-९-६६
-प्रकाशक
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NASHIRAM
प्रास्ताविक
Provinces and Berar नासक प्रन्यसूची नागपूरचे ई०७० १९२६ में प्रसिद्ध की थी जिसमें इस प्रन्धका निर्देश था। अपनी Introduction में उन्होंने श्री इन्द्रनन्दी के बारेमें लिखते हुए लिखा कि
CONTRIEHARE
श्री० सेठ मूलचन्दजी कापडिया सूरतने " भैरव पद्मावतीकल्प" नामक श्री० मल्लिषेणसूरि कृति ग्रंथ बोर संवत् २४७९ में प्रषिद्ध किया था। यह ग्रंथ स्व. श्री पं० चन्द्रशेखरजी शास्त्री (देही) कुन भाषा टीका समेत छपा था, और उसका सम्पादन भी उन्होंने किया था।
इस वर्ष श्री कापडियाजी, मुनिराज श्री० इन्द्रनन्दि-विचित "श्री पालामालिनी कप" प्रसिद्धि में जा रहे हैं। साथमें स्व० पं० चन्द्रशेखरजी शास्त्री रचित भाषा टीका और यन्त्रादि, विषयानुक्रम, के अलावा मालामालिनी साधनविधि, मालिनी-स्तोत्र, ब्राह्मादि अष्टमातृका पूजा आदि प्रकट कर रहे है जिसके लिए भाप धन्यवाद के पात्र हैं।
इन्द्रनधी रचित यह प्रन्थ श्री मलिगके “भैरव प्रमावती कल्प" से प्राचीन है। यह प्रन्थ प्रसिद्ध हो ऐनी मेरी आकांक्षा बहुत समयसे थी क्योंकि जैन मन्त्र-तन्त्र शास्त्रके इतिहास में इस प्रन्थका अनोखा स्थान है। उपलब्ध जैन तन्त्र प्रन्थों में, खासकरके दिगम्बर जैन तन्त्र प्रन्यों में इससे प्राचीन कोई अन्य शायद नहीं है।
पदुगत रायबहादुर हीरालालजीने A Catalogue of Sanskrit and Prakrit manuscripts in the Central
By this author we have the work Jvalamalini-Kalpa. It deals with the cult. of propitiating the goddess of fire Jvalamalini. The work opens with an account of the circumstances of the origin of the cult. Elacharya, a sage and leader of Dravidagana, lived at Hemagrama in Daksinadesa. He hada female pupil named Kamala-Sri. Once she became possessed of a Brahma-Rakshahsa under whose influence she indulged in all sorts of acts and talks decent or indecent. xx Elacharya sought the aid of Vahnidevata that dwelt on the top of the Nilagiri hills. He inculcated the art which Indranandi long after him professes to expose in writing.
जैसा कि इस ग्रंथको पढ़नेसे मालूम होगा, द्रविडगणके नायक श्री हेलाचार्यने अपनी शिष्या कमळी जो ब्रह्म पक्षमसे प्रहित थी ससकी प्रापीडा मिटाने के लिए बह-रेषता (पालामालिनी देवी) की साधना की थी। यह साधनविधि परम्परा इन्द्रनन्दीको प्राप्त हुई जिन्होंने इस प्रस्थ की रचना की।
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रायबहादुर हीरालालजे ने इन्द्रनन्दीकी गुरु-परम्परा इस
द्राविड-गण
ईन्द्रनन्दी
वामपनन्दी
वर्षनदी
इनन्दी
हर्षनन्दी
ईन्द्रनन्दी (इस प्रन्थ के रचयिता) श्री कापडियाजीने इस अन्धको स्व०५० चन्द्रशेखरजी शास्त्रीने अपनी भाषा टीका सहित जो प्रति लिखी थी उसके आधार पर छापा है। इसमें अन्धके अंतमें प्रन्थ कर्ताको प्रशस्ति नही है। इस प्रशस्ति में प्रन्थ रचनाका समय आदिकी महत्वपूर्ण हकीकत है जो रायबहादुर हीरालालजीने दी है और जो मैंने जैनसिद्धांत-भवन, बाराकी एक प्रतिमें भी देखी है। दशम परि
छेदके अन्त के बाद, भारावाली प्रतिमें (पृ०३७ से) निम्रलिखत पाठ हैद्रविण समय मुख्यो जिनपतिमार्गोचितक्रियापूर्णः ।
व्रत समिति गुप्तिगुप्तो हेखाचार्यों मुनिर्जयतु ।। यावरिक्ष तजधिशश काम्बर साराकुलाचला
स्वाबद्-हेडाचार्योक्ताथै स्थेयाच्छ्रोवालिनीकल्पः ।।
[९] मासीनिन्दादिदेवस्तुतपदकमश्रीन्द्रनन्दिमुनीन्द्रो ।
म नित्योद्यत्मचरित्रविमलजनिधौतपापोषलेपः ।। " xxxxबामळोद्यत्प्रगुणगुणभृतोत्तीणसिद्धा
'ताम्भोगशिषिलोकयम्बुजवनविचरत पद्यशो राजहंस ।। यवृत्त दुरितारिसैन्यहनने चण्डानिधारायते ।
चितं यस्य शरस्सरः मलिलवत्स्वच्छ सदा शीतकम् ॥ कीर्तिः शारदकौमुदीशशमृतो ज्योत्स्नेव यस्थामला ।
स श्रीवासवनन्दि सन्मुनिपतिः शिष्यत्तदीयो भवेत् ।। शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमिति विभवः ।
श्री वर्षनधिगुरुरिति बुधमधुपनिसेवितपदानः।। बोके यस्य प्रसादादजनि मुनिजनः मरपुराणार्थवेदी। .
यायाशास्तम्मभूधस्यतिविमलयशश्रीवितानो निबद्धः।।। »xxxxपौराणिकविवृषमाद्योतितास्तत्पुराण
व्याख्यानादू-हर्षनन्दि प्रथितगुणस्तस्य किं वय॑तेऽत्र ।। शिष्यस्तस्येन्द्रनन्दि विमन्गुणगणोद्दामधामाभिरामः
प्रज्ञतीक्ष्णासधाराविमलितबहलाज्ञानबही वितानः । जैने सिद्धान्तवार्थो विमलिहूदयस्तेन ग्रन्थतोऽयं,
हेलाचार्योदितार्थो व्यरवि निरुपमो वाहिनीमन्त्रबादः ।। अष्टाशतैकष्टिप्रमाणशकवत्सरेबतीतेषु ।
भीमान्यखेटकटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् ।। शतवहितपतुःशतपरिमाणप्रन्टरपनया युक्तं ।
श्रीकृष्णराजराज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्याः॥ इति हेवाचार्यप्रणीतार्थे श्रीमदिन्द्रनन्दियोगीन्द्रविरचितप्रन्थसंदर्भ वाडिनी-मते विधाकारपरिलेखन समाप्तम् ।।
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श्री रायबहादुर हीराकानीने भी अब निर्माणका समय चतानेवाला अन्तिम लोक अपने प्रास्ताविक समय में दिया है। इसके अनुसार, श्री हे (५१) जात्रार्यकृत प्रथके तात्पर्यानुसार भीमद् इन्द्रनन्दि-योगीन्द्रने इस चाहिनी-मत संज्ञक ग्रंथकी रचनाकी परिसमाप्ति मान्यखेटमें (बर्तमान माखेड़-मह राष्ट्रकूट राजाओंकी राजधानी थी-) शक मन् ८६१ ( 3 ई० स० ९३९) में अक्षय तृतीयाके दिन की गई।
अतः यह ग्रन्थ ईसाकी दखीं शतीके पूर्वाद्धका होनेसे प्राचीन है। इस ग्रन्थकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां लेकर इन सबके पाठको देखकर संशोधित पाठमें इसका पुनः सम्पादन करना बाबश्यक है।
श्री कापडियाजीका यह प्रकाशन इस प्रन्थको सर्व प्रथम अधिनिमें जानेका कार्य करता है। किंतु मुदित ग्रन्थमें अशुद्धियां रह गई हैं।
-उमाकांत प्रेमानन्द शाह-बडौदा ।
विषय-सूची प्रथम परिच्छेद (मंत्री लक्षण)| नं. विषय नं. विषय... पृष्ट
१९. मष्ट दंडकरी देवियां ५७ १. मंगलाचरण १
२०. योबह प्रतिहार २. ग्रंथ स्मनाका कारण
२१. उस मंडलका उपयोग १९ (कमश्री कथा) ३ २२.७माय-मंडल ३. ग्रंथकी गुरु परंपरा ७
२३. सत्य मंडल ६२ ४. ग्रंथी अनुक्रमणिका ९
पंचम परिच्छेद ५. मंत्रीके बक्षण १०२४. भूताकंपन तेल द्वित्तीय परिच्छेद दिव्यादिन्य ग्रह षष्ठम परिच्छेद ६. ग्रहोंके पकड़ने के कारण १२ २५. सर्वरक्षा यंत्र ७१
२६. प्रारक्षक पुत्रदायक यंत्र ७२ ८. कौन हाकिमको
२७. वश्व यंत्र (१) ७३ पकड़ता है १२
२८. मोहन पश्य यंत्र (२)७४ .दिव्य पुरुष ग्रहोंकेक्षण १३
२९. बी बाकर्षण यंत्र ७५ ..दिव्य संग्रह और
३०. दिव्यगति सेना जिला उसके बक्षण
और कोष स्तंभन यंत्र ११. दिव्य ग्रह
३१. स्तंभन यंत्र ७८ । तृतीय परिच्छेद
३२. जिला स्तंभन यंत्र ७९ १२. पडीकरण क्रिया
३३. गति जिहादकोष
स्वैमन यंत्र ८० १३. ह निग्रह विधान
३४. पुरुष वश्य यंत्र ८० १४. बीजाक्षर ज्ञानका
३५. कपबश्य यंत्र ८२ महत्व
३६. शामिनी मय हरण यंत्र ८३ १५. पल्लवोंकावर्णन
३७. घट यंत्र १६. साधारण Eि
४४३८ पबित्रहरण यंत्र ८६ चतुर्थ परिवेद सामान्य मंडळ
80. परमदेकमाइ यंत्र ८९ २८. सर्वतोभद्र मंडळ ५४ | ४१. वश्य हवन
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B
नं. विषय
पूछ
सप्तम परिच्छद ४२. सर्व वशीकरण तिलक (१) ९१
४३. ढोक वशीकरण तिलक (२),, ४४. सर्व वशीकरण तिलक (४) ९२ ४५. सर्व वशीकरणसिफ (४), ४६. मुख सुगंधी हर तिलक ९३ ४७. सर्व वशीकरणअंजन (२) " ४८. सुखदायक अंजन (१) ९६ ४९. सर्वसुखदायक अंजन, २) " ५०. सुखदायक अंजन (२) ५१.शीकरण अंजन ( ३) ९७ ५२. बश्य प्रयोग (१)
13
५३. वश्य नमक ५४. वश्यते ५५. बश्य ते (२)
(१)
५६. पश्य ते (३) ५७. बश्ब प्रयोग (२)
[१२].
५८. कामवाण चण ५९. दशरारिक चूर्ण ६०. योनि शोधन लेप संतानदायक औषधि अष्टम परिच्छद १६२. बसुधा स्नान के > स्थानकी विधि
17
दशम परिच्छेद शिष्यको बिद्या नेकी ि
वाडामा बिनी 5 सावन विधि ज्वालामालिनी स्तोत्र वाडामा लिनी अन्य साधन विधि १ ७३. मालिनी तीसरी साधन विधि १ १४१ १०१ ७४. त्रह्मो बादि
१३७
१००
39
अष्ट देवियोंकी पूजा १४४ १०२७५. जप व हवन विधि १४५ १०३ | ७६. शिष्यको विद्या
१५१
देनेकी ि -७७ बाडामालिनी माछा यंत्र
१५२
१५५
७८ ज्वालामानि पश्य १०५ मंत्र व यंत्र ६३. सिद्धमिट्टी की परिभाषा १०८ ७९ चंद्रप्रभु स्वबल साधारण पूजन विधि १०९८० चंद्रप्रभु यंत्र व विधि १५९
१५६
998
3 6
32
35
नं. विषय:
६५. वसुधारा यंत्र ६६. नवग्रह यंत्र
६७. मुख्य स्नान
९९
591
६८. नीराजन विधि
७१. ९८ ७२.
39
६९.
नवम परिच्छेद
७०.
१११
११२
११३
१५५
१२२
9 १३०
199
pestenen
श्री ज्वालामालिनी देवी ( दक्षिणकी एक धातुकी मूर्ति ) श्री ज्वालामालिनी कल्प ग्रन्थकी श्री चंद्रप्रभुकी अधिष्ठात्रीदेवी ( सेठ माणेकचन्द मलुकचन्द दोशी वकील फलटन से प्राप्त )
Berateraceae
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श्री पंचगुरुभ्यो नमः | श्री चंद्रप्रभाय नमः ।
मुनिराज श्री इन्द्रनन्दि विरचित - श्री ज्वालामालिनी कल्प
भाषाटीका और मंत्र तंत्र सहित
प्रथम परिच्छेद
॥ मंगलाचरण |
2
चंद्रप्रभजिननाथ, चंद्रप्रभमिन्द्रनंदिमहिमानं । ज्वालामालिन्यचिंत, चरणसरोजद्वयं वंदे ॥ १ ॥
अर्थ - जिनकी महिमा इन्द्रनन्दिको भी प्रसन्न करनेवाली है, जिनके चरणकमल ज्वालामालिनी नामकी देवोसे पूजे
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२] वालामालिनी कल्प। जो हैं ऐसे चंद्रमाके समान प्रभावाले भगवान चंद्रप्रभको मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ कुमुददलधवल गात्रा, महिषमहावाहिनोज्वलाभरणा । मां पातु वह्नि देवी, ज्वालामाला करालोगी ॥२॥
अर्थ-कुमुदके दलके समान श्वेत शरीरवाली, महिपकी सवारी तथा उज्वल आभूषणवाली, अग्निके समान भयंकर अंग-- काली ज्वालामालिनी मेरी रक्षा करे ॥ २॥.. जयनादेवी ज्वालामालिन्युद्यस्त्रिशूलपाश ऊषा। , कोदंडकांड फलवरद, चक्रचिह्नोज्वलाष्टभुजा ॥ ३ ॥ ___ अर्था-उठे हुए त्रिशूल, पाश, मछली, धनुष, मंडल फल वरद (अमि) और चक्रके चिह्नसे उज्वल अष्ट भुजावाली ज्यालामालिनी देवी जयवन्त हो ॥३॥
अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायान् , सकलसाधुमुनिमुख्यान् । प्रणिपत्य मुहुर्मुहुरपिवक्ष्येऽहं, ज्वालिनीकल्पम् ॥ ४ ॥
अर्थ-मैं अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओं और मुख्य मुनियोंको बारम्बार नमस्कार करके ज्वालामालिनी कल्पको कहूंगा ॥४॥ दक्षिण देशे मलय हेम ग्रामे, मुनिममहात्मासीत् । हेलाचार्यों नासा द्रविडगणाधीश्वरो धीमान् ॥५॥
प्रथम परिच्छेद । ग्रन्थ रचनाका कारण
कमलश्रीकी कथा अर्थ-दक्षिण देशके मलय हेम नामके ग्राममें द्रविड गणके अधीश्वर हेलाचार्य नामके बुद्धिमान महात्मा मुनि थे॥५॥ खच्छिष्या कमलश्री श्रुतदेवी वा समस्त शास्त्रज्ञा। सा ब्रह्मराक्षसेन ग्रहीता, रौद्रण कर्मवशात् ॥ ६॥
अर्थ-उनकी एक समस्त शास्त्रोंको जाननेवाली दसरी श्रतदेवीके समान कमलश्री नामकी शिष्याको भाग्यवश रौद्र ब्रह्मराक्षसने पकड़ लिया ॥६॥
रोदिति हाहाकारैः स्फुटाइ हासं तनोति संध्यांयां । जपति पठत्यथ वेदान् , हसति पुनः कह कह ध्वनिना ॥७॥
अर्थ-अब वह कभी तो हाहाकार करके रोती, कभी सार्यकालके समय अट्टहास कर करके हंसती, कभी जप करती, कभी वेदोंको पढ़ती और कभी कहकहा लगाकर हंसती ॥७॥
कोसा वास्ते मंत्री, यो मोचयति स्वमंत्रशक्त्या मां। बक्तीति सावलेप, सविकारं जमणं कुरुते ॥ ८॥
अर्थ-वह कभीर कष्टसे कहती. कि ऐसा कौन मंत्र
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४] ज्वालामादिनी कल्प। शास्त्री है, जो मुझे अपने मंत्रकी शक्तिसे छुड़ाये और फिर विकारसे जंभाई लेने लगती ॥८॥
दृष्ट्वा तामिति दुष्टग्रहेण, परिपीडितां मुनीन्द्रोऽसौ । व्याकुलितोऽभूतत्प्रविधानकर्तव्यतामूदः ॥९॥
अर्थ-वह मुनिराज हेलाचार्य उसको इस प्रकार दुष्ट ग्रहसे पीड़ित देखकर किंकर्तव्य विमूढ होकर बड़े दुःखी हुए ॥९॥
प्रथम परिच्छेद । कामार्था लैहिकफलसिद्धार्थ, देविनोपरुद्धासि । किन्तु मया कमलश्रीग्रहमोक्षायोपरुद्धासि ॥ १२ ॥
अर्थ-हे देवि ! मैंने आपको काम अर्थ आदि लौकिक फलोंकी सिद्धिके वास्ते नहीं बुलाया है किन्तु कमलश्रीको ग्रहसे छुड़ानेके लिये बुलाया है ॥ १२ ॥
तस्मात्तद ग्रहे मोक्षं, कुरु देव्येतावदेव मम कार्य। तद्वचनं श्रुत्वासा बभाण, तदिदं कियन्मानं ॥ १३ ॥ LAL अर्थ--इस वास्ते हे देवि ! आप उस ग्रहको छुड़ाकर मेरा इतना कार्या कर दीजिए। उसके बचन सुनकर वह बोली-यदि यही है तो यह कितना काम है ॥ १३ ॥
FREE
तद्ग्रहविमोक्षणार्थ, तद्ग्रहसमीपनीलगिरिशिखरे । विधिनैव वह्नि देवांस, साधयामास मुनिमुख्यः ॥ १० ॥
अर्थ-इसके पश्चात् उन महामुनिने उस ग्रहको छुड़ानेके वास्ते उसके घरके समीप नीलगिरि पर्वतके शिखर पर विधिपूर्वक वह्निदेवी (ज्वालामालिनि) को सिद्ध किया ॥१०॥
दिन सप्तकेन देव्या, प्रत्यक्षीभूतया पुरः स्थितया। मुनिरुक्तः किं कार्य, तवायं वद मुनिरुवाचेत्थं ॥ ११ ॥
अर्थ-सात दिनके पश्चात् देवीने प्रत्यक्षरूपसे सामने आकर उस मुनिसे कहा-हे आर्य ! आपका क्या कार्य है ? मुझे बतलाइये ॥११॥
मुनिने इस प्रकार कहा
मा मनसि कृथाः खेदं, मंत्रेणानेन मोक्षयेत्युक्त्वा । मृदुतरमायस पत्रं, विलिखितमंत्रं ददौ तस्मै ॥ १४ ॥
अर्थ-मनमें खेद मत करो, इस मन्त्रसे छुडालो, यह कहकर उसने कोमल लोह पत्र पर लिखा हुवा मंत्र उस मुनिको दे दिया।
तन्मन्त्रविधिमजानन् , पुनरपि मुनियो बभाणतां देवीं। माऽस्मिन्वेगिन किमप्य, हमतो वितृत्ये तदभि देहि ॥ १५॥
अर्थ--उस मंत्रकी विधिको न जानते हुए उन मुनि
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व्यायामानी कल्प।
हिर
SINHARIHARANAINMamtaemonymwwANINomurasana
पथम परिच्छेद।
जप करना चाहिये। और दश सहस्र (अयुत) हवन करके अपने कार्यको पूर्ण करना चाहिये । ऐसा कहकर वह देवी अपने स्थानको चली गई ॥ १९॥ तत्र स्थित एवं ततस्तमसौ बंदह्यमानमाध्याय । दहनाक्षररुदन्तं दुर्ट निघोटयामास ॥२०॥
राजने फिर उस देवीसे कहा-"मैं इसकी विधिको नहीं जानता हूँ" अतएव आप मुझको इसकी पूर्ण विधिको कहें। तस्मै तया ततस्तव्याख्यातं, सोपदेशमथ तत्वं । पुनरपि तद्भक्तिवशाददामि तसिद्ध विद्युत्थं ॥ १६ ॥
तब उस दवान उपदेश सहित उस तत्वको मनिको बतलाया और कहा-"उस सिद्ध विद्याको मैं तुम्हारी भक्तिके वशसे फिर भी देती हूँ। साधनविधिना यस्मै, त्वं दास्यसि होमजपविहीनोऽपि । भविता ससिद्ध विद्या, नोदास्यसि यस्यसोऽत्र पुनः ॥१७॥
अर्थ-तुम हवन तथा जपसे रहित हो जानेपर भी साधन विधिसे जिसको भी दोगे यह विद्या उसको ही सिद्ध हो जावेगी और जिसे न दोगे उसको सिद्ध न होगी ॥ १७॥ उद्यान वने रम्ये जिन भवने, निम्नगा तटे पुलिने। गिरिशिखरेऽन्य स्मिन्वा स्थित्वा, निर्जन्तुके देशे ॥१८॥
अर्थ-उद्यान, सुन्दर बन, जैन मंदिर, नदीका किनारा, या पासका प्रदेश, पर्वतके शिखर पर अथवा किसी अन्य एकांत स्थानमें स्थित होकर ॥१८॥ प्रजाप्य नियतं तथा युतं हुत्वा प्रकरोतु । प्रकरोतु पूर्वसेवां प्रणिगौवं स्वधामगता ॥ १९ ॥
INR अर्थ-तब उस मुनिने वहां बैठे-बैठे ही उस
पीडा देनेवाले तथा दहन करनेवाले अक्षरोंके बेगसे रोनेवाले दुष्ट ब्रह्मराक्षसको दूर कर दिया ॥ २०॥ निर्घाटितो ग्रहश्चेद्यात्वेक, स्वदहन रररर बीजं । शेष दश निग्रहाणां किमस्त्य, साध्यो ग्रहः कोऽपि ॥
अर्थ- जब जलानेबाले प्रबल बीजाक्षरोंसे एक ऐसा ग्रह दूर हो गया तो फिर शेष दश ग्रहोंमें से किस ग्रहको दूर करना -कठिन हो सकता है ? अर्थात् सभी दूर किये जा सकते हैं ॥२१॥
ग्रंथकी गुरु परम्परा देच्यादेशाच्छावं तत्पुनालिनीमतंततश्चेदं। तच्छिष्यो गाङ्गमुनिीलग्रीवो विजाब्जयो॥ २२॥
हवन दशांश होता है। जब दश हजार हवन है, तो जप एक लाख करना चाहिये।
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मालिनी कल्प
अर्थ-उसके पश्चात् ज्वालामालिनीदेवीके मतका यह देवीकी आज्ञासे उस मुनिराजके शिष्य गांग मुनि नील श्रीव और विजाब्ज ॥ २२ ॥
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भार्याक्षान्तर सम्बा विरुवडः क्षुल्लक स्तथेत्यनया । गुरु परिपाट्या विचेनसम्प्रदायेन वागच्छत् ॥ २३ ॥
R
अर्थ — भाक्षान्तर सब्ब तथा विरुवट्ट नामके क्षुल्लक के पास इस प्रकार गुरु परिपाटीसे नष्ट न होकर सम्प्रदायसे आया ।। २३ ।।
कंदर्पेण ज्ञातं तेनापि स्वनुत निर्विशेषाय ।
गुणनंदि श्री मुनये व्याख्यातं सोपदेशं तत् ॥ २४ ॥
अर्थ — इसके पश्चात् इसका ज्ञान कंदर्प नामके मुनिको हुआ और उन्होंने इसका व्याख्यान उपदेश सहित अपने शिष्य नंदिके सामने किया ॥ २४ ॥
पार्श्वे तयोर्द्धयोरवि तच्छाख ग्रंथतोऽर्थतथापि । मुनिनेन्द्रनन्दिना काय सम्यगीडितं विशेषेण ॥ २५ ॥
अर्थ- उन दोनों के पास इंद्र नंदि नामके मुनिने उस arrat ग्रंथरूपसे तथा अर्थरूपसे भली प्रकार पड़कर विशेषः रूपसे कहा ||२५||
प्रथमपरिच्छेद -
क्लिष्टं ग्रंथ प्राक्तन शास्त्र' तदेति स्वचेतसि निधाय । नेन्द्रनंदिमुनिना ललितार्या वृतगीताद्यैः ॥ २६ ॥
जू
अर्थ- प्राचीन शास्त्र बड़ा क्लिष्ट ग्रंथ है। अपने मनमें यह सोचकर उस इंद्रनंदि मुनिने सुन्दर आर्या गीति आदि छन्दोंसे ॥ २६ ॥
लाचार्योकार्थं ग्रंथपरावर्तनेन रचितमिदं । सकलजगदेव विस्मय जगतिजनहितकरं शृणुत ॥ २७ ॥
[ ९
अर्थ -- हेलाचार्यकी प्रशंसा के वास्ते संपूर्ण जगतको आश्चर्य करनेवाला तथा संसारके प्राणियोंका हित करनेवाला यह शास्त्र उस प्राचीन शास्त्र के बदले में बनाया इसे सुनो।
ग्रन्थकी अनुक्रमणिका
मंत्र सन्मुद्रा मण्डल कटुतैलजंत्रवश्यसुतंत्रं । स्नपनविधिर्नीराजनविधिरथ साधनविधि वेति ॥ २८ ॥
अर्थमंत्री ग्रह, बीजाक्षर विधान, मंडल, कम्पन तैल,. वश्ययंत्र, वश्यतंत्र, वसुधारा स्नान विधि, नीराजन विधि, और साधन विधि |
अधिकारादेषां दश चिदात्मनां स्वरूपनिर्देशं । संक्षेपात्प्रकटं, देव्या यथोद्दिष्टं ।। २९ ।।
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ज्वालामालिनी कल्प
अर्थ- इन दश अधिकारोसे मैं संक्षेपमें देवीके कथनानुसार इस ग्रंथका वर्णन करूंगा ॥ २९ ॥
१०]
मन्त्रीके लक्षण
मौनीर्नियमित चितो मेधावि बीजदारण समर्थः । - मायामदनमदोनः सिध्यति मंत्रिर्नसंदेहः ॥ ३० ॥
अर्थ - मौनसे रहनेवाला, चित्तको नियममें रखनेवाला, बुद्धिमान, बीजाक्षरोंको अलग करने में समर्थ माया कामदेव तथा मदसे रहित मंत्रवाला पुरुष निस्संदेह सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।
सम्यग्दर्शन शुद्ध देव्य चैन तत्पुरो व्रतसमेतः । मंत्रजपहोमनिरतो नालस्यो ज्ञायते मंत्री ॥ ३१ ॥
अर्थ- जो शुद्ध सम्यग्दृष्टी देवीको पूजनेवाला व्रती मन्त्र जप तथा हवनको करनेवाला तथा आलस्य रहित हो वह मंत्री ' मंत्रवाला ' होता है ॥ ३१ ॥
| देवगुरुसमय भक्तः सविकल्पः सत्यवाक् विदग्धश्व | व कपटुरपगतशुक्रः शुचिरौद्रमना भवेन्मंत्री ॥ ३२ ॥
अर्थ- देव शास्त्र तथा गुरुका भक्त सावधान सत्यवादी बुद्धिमान् बोलने में चतुर ब्रह्मचारी पवित्र तथा रौद्र मनवाला मंत्री होता है ।
प्रथम परिकछेद ।
देव्याः पदयुगभक्तो हेलाचार्यक्रमाब्जभक्तियुतः । स्वगुरूपदिष्टमार्गेण वर्तते यः स मंत्री स्यात् ॥ ३३ ॥
अर्थ — जो देवीके चरणकमलका भक्त हो, हेलाचार्य के चरण कमलमें भक्ति रखता हो और अपने गुरुके बतलाये हुए मार्ग पर चलनेवाला हो, वह मंत्री होता है ॥ ३३ ॥
विद्यागुरुमतियुते तुष्टिं पुष्टिं ददाति खलु देवी । विद्यागुरुभक्तिवियुक्त चेतसि द्वेष्टि सुतरांसा ॥ ३४ ॥
११
अर्थ- देवी विद्या तथा गुरुमें भक्ति रखनेवाले पुरुषको तुष्टि और पुष्टि दोनों ही देती है, तथा विद्या और गुरुमें भक्ति न रखनेवालोंसे चित्तमें स्वभाव से अत्यन्त द्वेष करती है ॥ ३४ ॥
सम्यग्दर्शनदूरो वा छांदसो मयसमेतः । शून्यहृदयश्च लजः शास्त्र ऽस्मिन् नो भवेन्मंत्री ॥ ३५ ॥
अर्थ- जो सम्यग्दर्शनसे रहित अशुद्ध वाणीवाला हो, वेद पाठी हो, भय करनेवाला हो, शून्य हृदय हो, और लजा करता हो, वह इस शास्त्रमें मन्त्री नहीं हो सकता ॥ ३५ ॥
इति टाचार्य प्रणीत अर्थ में श्रीमान् इन्द्रनन्दि सुनि विचित ग्रन्थ ववालामालिनी कल्पक आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्रो कृत भाषा टीकामे मंत्री उक्षणमा ला पहला परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ १ ॥
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[१३
Ammonium
ज्वालामालिनी कप।
प्रथम परिच्छेदः । द्वितीय परिच्छेद
कौन ग्रह किसको पकडता है ? का ग्रहोंके पकड़ने के कारण ...
पुरुषग्रहोथ पुरुष स्त्रियं तथा स्त्री ग्रहो न गृह्णाति । अतिहष्टमति विषणं भवतिरस्नेहवैरसम्बधं । ।
पुरुष ग्रहस्तु वनितां गृह्णाति स्त्रीगृहः पुरुषं ॥ ४ ॥ भीतं चान्यमनस्कं गृहाः प्रगृह्णति भुवि मनुजं ॥१
अर्थ-साधारणतः पुरुष ग्रह पुरुषको और स्त्री ग्रह स्त्रीको
ग्रहण नहीं करते, किंतु पुरुष ग्रह स्त्रीको और स्त्री ग्रह पुरुषको अर्थ-अत्यन्त प्रसन्न मनवाले, दुःखी मनवाले, अथबा
ही ग्रहण करते हैं ॥४॥ अन्य मनस्क और डरपोक पुरुषको पूर्व जन्मके प्रेम अथवा बैरके सम्बन्धसे ग्रह पकड़ लेते हैं ॥१॥
रतिकामेग्रहनियमः प्रोक्तोऽयं नेतरत्र नियमोऽस्ति ।
पुरुषगृहोऽपि पुरुषं गृह्णाति स्त्रीगृहोपि वनितानां ॥५॥ - रतिकामा बलिकामा निहन्तुकामा ग्रहाः प्रग्रहणन्ति । बरेण हन्तु कामा गृहणान्त्यवशेषकारणः शेषाः ॥२॥
अर्थ-यह नियम ग्रहोंके रतिकी कामनासे पकड़नेसे है। अर्थ-कोई ग्रह रतिकी इच्छासे, कोई बलिकी इच्छासे,
अन्यत्र नहीं है, क्योंकि अन्य इच्छाओंमें पुरुषग्रह पुरुषको और
। स्त्री ग्रह स्त्रीको भी ग्रहण करते हैं ॥ ५ ॥ कोई मारनेके लिये, कोई वैरके कारणसे घातके लिये, तथाः । शेष ग्रह अन्य कारणोंसे, पुरुषको पकड़ते हैं ॥२॥
दिव्य पुरुष ग्रहोंके लक्षण ___ग्रहोंके भेद
देवो नागो यक्षो गंधर्वो ब्रह्म राक्षसश्चैव । तेऽपि ग्रहा द्विधास्यु दिव्यादिव्यग्रहप्रिभेदेन ।
भूतो व्यंतर नामेति सप्त पुरुष ग्रहास्तेस्युः ॥ ६ ॥ दिव्याश्चापि द्विधा पुरुषस्त्रीग्रहविभेदेन ॥
अर्थ-देव, नाग, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्म, राक्षस, भूत, और ___ अर्थ-वह ग्रह दो प्रकारके होते हैं-दिव्य और व्यंतर, यह सात पुरुष ग्रह होते हैं ॥६॥ अद्विव्य, उनमेंसे दिव्य ग्रहोंके भी दो भेद होते हैं-पुरुष ग्रह।
'देवः सर्वत्रशुचिर्नागः शेते भनक्ति सर्वांगं । तथा स्त्री ग्रह।
क्षीरं पिबति च नित्यं यक्षो रोदिति हसति बहुधा ॥७॥
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ARRINORINNI
द्वितीय परिच्छेद । दिव्य स्त्री ग्रह और उनके लक्षण
12:
31
ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ-देव सदा यवित्र रहता है, नाग सोता है, सब अंगको तोड़ डालता है और नित्य ध पीता है। यक्ष बहुत प्रकारसे रोता है और हसता है ॥ ७॥
गंधर्वो गायति सुस्वरेण सुब्रह्म राक्षसः संध्यायां । जयति च वेदान् पठति स्त्रीष्वनुरक्तः सगर्वश्च ॥ ८ ॥ .
अर्थ-गंधर्व अच्छे स्वरसे गाता है, ब्रह्म राक्षस संध्याके समय जप करता है, वेदोंको पढ़ता है, स्त्रियोंमें अनुरक्त रहता है, और बड़ा घमंडी होता है ॥ ८ ॥ नेत्रे विस्फारयति त्वंशगति ज भति मनोति हस्ति च भूतः । मृच्छति रोदिति धावति बहुमोजी व्यंतर स्तथा भुवि पतति ॥९॥
अर्थ-भूत आंख फाड२ कर देखता है, शिथिल गतिले जंभाई लेता है, मिन२ करके बोलता है, और हँसता है। व्यंतर मूर्छित होता है, रोता है, दौडता है, बहुत भोजन करता है, और जमीन पर गिर२ पड़ता है ॥९॥ दिव्यपुरुषगृहाणां लक्ष्मणमेवं मया समुद्दिष्टं। दिव्यस्त्रीग्रहलक्षणमधुना व्यावयेते शृणुत ॥ १०॥
अर्थ-इस प्रकार दिव्य पुरुष ग्रहोंका लक्षण कहा गया अब दिव्य स्त्री ग्रहोंका लक्षण कहा जाता है ॥१०॥
काली तथा कराली कंकाली काल राक्षससी जंधी। प्रेताशिनी च यक्षी वैताली क्षेत्रवासिनी चेति ॥११॥
अर्थ-काली, कराली, कंकाली, कालराक्षसी, जंघी, ताशिनी, यक्षी, बैताली, और क्षेत्रवासिनी, यह नौ स्त्री ग्रह हैं। कृष्णां भवेच्छरीरं हृत्करलोचनानि दाते।' काल्यामपि देहस्य करालिकाों न भुन्तऽयं ॥ १
अर्थ-कालीसे पकड़े हुयेका शरीर कृष्ण हो जाता है। और हथेली हृदय तथा नेत्रोंमें जलन मालूम होती है । करालीले पीडित अन्न नही खाता ॥ १२॥ मुखमापांडुरमंगं कृशंचकं कालिका गृहीतस्यभ्रमति । निशि वदति कौलिकमथाहासं करोति राक्षस्यातः ॥१३॥
अर्थ-कंकालीसे पकड़े हुएका मुख तथा अंग पीला पड़ जाता है । राक्षसीसे पीड़ित हुआ रात्रिमें घूमता है, ऊंचीर बातें करता और अट्टहास करके हंसता है ॥ १३ ॥
जंधी ग्रहीत मनुजी मच्छेति रोदिति कृशं शरीरं स्यात् । प्रेताशिनी ग्रहीतश्चकितौ वा भी करध्वनिना ॥ १४ ॥
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wimmismamimmmmmmmmmmmmms
।' विद्युन्निभमावेशं गृह्णाति च वदति कौलिकी भाषां ।' साधावति वेगे नेति स्त्रीग्रहसलक्षणं प्रोक्त ॥ १८ ॥
ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ-जंघीसे ग्रहण किया हुआ मनुष्य मूञ्छित होता है, रोता है, और उसका शरीर कुश हो जाता है, प्रेताशिनीसे ग्रहण किया हुआ भय करनेवाली ध्वनिसे शब्द करता हुआ चकित हो जाता है। -4 : what उतिष्टति दष्टोष्टः स एव वीर ग्रहो बुधैः प्रोक्तः । म
T o मासद्वि तयात्परतस्तस्य चिकित्सा न लोकेऽस्ति ॥ १५ ॥
अर्थ ऐसा व्यक्ति होंठ चबार कर उठता है। पंडितोंने इसीको वीर ग्रह कहा है। इसकी चिकित्सा दो माससे आगे संसारभरमें नहीं हो सकती ॥ १५ ॥
भोक्तं न ददाति न च प्रियांगना संगम तथा कतु स्वयमेव प्रच्छन्नं जीवति सहते न वट यक्षी ॥ १६ ॥
अर्थ-बट यक्षीसे पीड़ित पुरुष न खाता है। और न अपनी प्रिय स्त्रीका ही संग करता है। यक्षी गुप्त रूपसे उसके साथ रहती है ॥ १६॥
शुष्यति मुर्ख कृशं स्याद्गात्रं वैतालिका ग्रही तस्य ।। तत्क्षेत्रवासिनी पीड़ितो नरो नर्ति हा हसति ॥ १७ ॥
अर्थ-वैतालिकासे पकड़े हुएका मुख सूख जाता है और शरीर कुश हो जाता है। क्षेत्रवासिनीसे पीड़ित पुरुष नाचता है और हा हा करके हंसता है॥१७॥
अर्था-ऐसा व्यक्ति विजलीके समान आवेशको ग्रहण करता है। ऊँची ऊँची बातें करता है और चेगसे दौड़ता है। यह दिव्य स्त्री ग्रहोंका लक्षण कहा गया ॥ १८ ॥mputer मिथ्याग्रहस्तथान्ये विद्यन्ते तानपि विद्वान्सः। सत्य ग्रहान् प्रकुर्वन्ति शेमुषी वैभववलेन ॥ १९ ॥ कि
अर्थ-विद्वान् लोग बुद्धिके बलसे मिथ्या ग्रहों (अदिव्य ग्रहों) को सत्य ग्रह (दिव्य ग्रह) कर देते हैं।॥ १९ ॥ कखगघ जैश्च उततपैर्य शर कल सके
* शवहर लैश्वान्योन्य । परिवर्तित रल युतै निद्दिष्टं भूत देव कौलिक मे तत् ॥२०॥
अर्थ-इन ग्रहोंका निवारण अ, क, ख, ग, घ, ज, उ, बत, प, य, श, र, ष, ल, व, व, ह, र और ल, से एक इसरेको अऔर ल से युक्त करके भूत और देवोंका कीलन होता है ॥ २० ॥
_अदिव्य ग्रह दंष्टालनामादनु ग्रहाः शाखिलच शशनागः । ग्रीवा भंगोचलितौ षड पस्मार ग्रहाः प्रोक्ताः ॥ २१ ॥
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ज्वालामालिनी कल्प
अर्थ- दंष्ट्रा, शृङ्गल, दनु, शाखिल, शशनाग, ग्रीवाभंग, और उच्चलित यह छह अपस्मार ग्रह या अदिव्य ग्रह कहे गये हैं ॥ २१ ॥ फिटक
ये ते ग्रहा दिव्या मुंचति न जीवितं विना पुण्यात् । साध्यास्तंत्रेप्येषां मंत्रं ध्याने पुनर्भस्तः ॥ २२ ॥
१८३
अर्थ - यह अदिव्य ग्रह विना विशेष पुण्यके जीता नहीं छोड़ते, मंत्र शास्त्रसे इनका निवारण सीखकर कष्ट दूर करना चाहिये।
इतिश्री देवाचार्य प्रणीत अर्थमें श्रीमान् इन्द्रनन्दि मुनि विरचित ग्रन्थ स्वाबामालिनी कल्पकी काव्य साहित्य तीर्थाचार्य प्राच्य विद्यावारिधि श्री चन्द्रशेखर शास्त्री कृत भाषाटीका में दिव्यादिव्य प्रहाधिकार नामक
द्वितीय परिच्छेद समाप्तम् ॥ २ ॥
1
तृतीय परिच्छेद ।
तृतीय परिच्छेद सकलीकरण क्रिया
[ १९
सकलीकरणेन विना मन्त्री स्तंभादिनिग्रहविधाने । असमर्थस्तेनादौ सकलीकरणं प्रवक्ष्यामि ॥ १ ॥
अर्थ मन्त्री पुरुष स्तंभन आदि निग्रहके विधानमें सकलीकरण क्रियाके विना सफल नहीं हो सकता । अतएव आदिमें मैं सकलीकरण क्रियाको कहूंगा ॥ १ ॥
उभयकरांगुलिप मंहं सं तथैव तं बीजं । ferrer तेन पश्चात्कुर्यात्सर्वांगसंशुद्धिं ॥ २ ॥
अर्थ- दोनों हाथोंकी उंगलियों के जोडोंमें वं, मं, हैं, सं और तं, बीजाक्षरोंको रखकर फिर सब अंगोंकी शुद्धि करे ॥ २ ॥
वामकरांगुलिप सुरां, री, रू, रौं, रः, न्यसेच्च रं बीजं । ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः पुनरेतान्यपि विन्यसेत्तद्वत् ॥ ३ ॥
अर्थ – बाएं हाथ की उंगलियों के जोडोंमें रां, रीं हूं, रौं और रः बीजको रखकर फिर उसी प्रकार ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रौं और हः बीजोंको रक्खे ॥ ३ ॥
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१
तृतीय पच्छेद ।
२०।
ज्वालामालिनी कल्प।
वामादीन्येतान्येव देवि पाटौ च जघनमुदरं वदनं । शीर्ष रक्ष युगं स्वाहां तान्यात्मांग पचके विन्यस्य ॥ ४॥
अर्थ-इन्हींको वामांगसे आरंभ करके दोनों पग (पैर) जघन उदर (पेट) बदन (मुख) और शीर्ष (शिर) में लगाकर "रक्ष" और "स्वाहा” लगावे जो इस प्रकार हैॐवंग ह्रीं ज्वालामालिनि मम पादौ रक्ष२ स्वाहा । ॐ मरीं ह्रीं ज्वालामालिनि मम जघनं रक्ष२ स्वाहा । ॐ हं रह ज्वालामालिनि मम उदरं रक्षर स्वाहा । ॐसं रौं ह्रौं ज्वालामालिनि मम वदनं रक्षर स्वाहा । ॐ तहः ज्वालामालिनि मम शीर्ष रक्षर वाहा ।
आपादमस्तकान्तं ध्यायेजाज्वल्यमानमात्मानं । भूतोरगशाकिन्यो भित्वा नश्यति दुष्टमृगाः ॥ ५॥
( अर्थ-अपनेको चरणसे मस्तक तक अत्यंत प्रज्वलित ध्यान करे इस प्रकार भूत सर्प शाकिनी और दुष्ट पशु दूर होकर नष्ट हो जाते हैं।
क्षांक्षीं क्षं थे मैं क्षों क्षौं क्षं शः प्राच्यादि दिक्षु विन्यसेत् । मूलादापर्यंता दिशाबंधं करोतीदं ॥ ६॥
__ अर्थ-फिर मूलसे चारों ओर पूर्वादि दिशाओंमें शां क्षी शं क्षौं क्षं और क्षः को रख दिशाबंध करे ॥६॥
आत्मानमभिसमन्ताच्चतुरस्र वज्रपञ्जरमखण्डं । ध्यायेस्पीतं धीमानभेद्यमन्यैरिदं दुर्ग ॥ ७॥
अर्थ-फिर वह बुद्धिमान् अपने चारों ओर चौकोर चन्नमय अखण्ड पिंजरेके समान दूसरोंसे अभेद्य पीत वर्णके दुर्गका ध्यान करे ॥७॥ मंत्रजपहोमकाले नोपद्रवति सुमंत्रिणं कश्चित् । । दुष्टाहो जिघांसुर्नलंघते दुर्गमध्यगतं ॥ ८ ॥
अर्थ-इस दुर्गके बीच में बैठे हुए मंत्रीके पास मंत्र जप तथा होमके समयमें कोई भी दुष्ट ग्रह और मारनेकी इच्छा करनेवाला लांघकर नहीं आ सकता ॥८॥
भूतिषु सप्तभिषु त्रिभू , कोष्टा सर्व दिग्मुखाः।
लेख्या विधान बत्त्येक, चत्वारिंशल्पद प्रमाः ॥ ९॥ REअर्थ-सातों प्रकारके भयोंसे पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले उस वज्रमय पिंजरेमें सब दिशाओंकी पृथ्वी पर तीन कोठे बनाये। और उनमें विधिपूर्वक इकतालीस पद लिखे ॥९॥ अब उन पदोंका विस्तार बतलाया जाता है। नव तत्वान्येक नवपदविंध्योर्लिखेद्विधिक्रमशः। तत्कोण त्रिपद चतुष्कैः द्वादश पिंडान् प्रदक्षणतः ॥१०॥
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___ ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ-नव तत्वों से एकर को लिखे, वह यह हैंद्रां, द्रीं, क्लीं. ब्लू, सः, हां, आं, क्रों, क्षीं।
फिर क्रमसे विंध्यके नौ पदोंको लिखेम उसके पश्चात् तीसरे कोठेमें तीन गुण चार अर्थात् बारह पिंडोंको लिखें जो यह हैं-"क्षल्ब्यू', हव्यू', मन्व्यू. मन्यू, यल्व्यूं', पल्यू, धन्व्यू, अन्व्यू' खल्ब्यू, छम्ल्यू, कल्व्यू कम्ल्यू।" मला :
. । अत्राष्टमे समुद्देशे द्वादश पिंडाक्षाकार पिंडाद्याः । हा स्तंभादिषु ग्रहाणां निग्रहणं चापि वक्ष्यन्ते ॥ ११ ॥ 10
अर्थ-इन बारह पिंड आदिको आगे आठवें समुद्देशमें ग्रहोंके स्तम्भन तथा निग्रह आदिके साथ लिखेंगे ॥११॥ विलिखेच जयां विजयामजितां अपराजिता स जमा ।। मोहां गौरी गांधारी चक्रों ब्लू पार्श्वेष्व ॐ जादिकाः ॥१२॥ स्वाहान्ताः क्षीं क्लीं पार्श्वस्थेष
ह्रां ह्रीं ह्र हौं ह्रः चतुः कोष्टेषु विलिखेत् ।। रेखाग्रेष्ठखिलेषु च वज्रान्यथ वज्रपंजरं प्रोक्तम् ॥१३॥
अर्थ-जया, विजया, अजिता, अपराजिता, जंभा मोह, गौरी, गांधारी, क्रों, ब्लं, का, क्षी, और.
तृतीय परिच्छेद ।। momponsomnoism ही को, आदिमें ॐ। और अंतमें, स्वाहा, लगाकर बारह बिंदु पदोंके स्थान में लिखे। वह इस प्रकार हैं। ॐ जयायै नमः । ॐ विजयायै नमः । ॐ अपराजितायै नमः। ॐ जम्मायै नमः। ॐ मोहायै नमः। ॐ गौर्यै नमः। ॐ गांधाय नमः। ॐक्रोनमः। ॐ ब्लू नमः। ॐ श्लीं नमः। ॐ क्लीं नमः।चारों कोठोंमें " ह्रां ह्रीं है हौं हः" इन पाचों शून्योंको लिखे।
और सब रेखाओंके अग्र भागमें बज्रोंको लिखे। यह वजमय लिखे । यह वज्रमय पंजरका वर्णन किया गया। पिंडेष ह भानां देव्य विधानं पृथक् पृथक् लिख्यं । तान् स्त्री नेके नैव प्रवेष्टयेन्मध्य पिंडेन ॥ १४ ॥
अर्थ-पिंडोंके लिखनेमें ह, म, आदि अक्षरोंको पृथक्पृथकरूपसे लिखकर पिंडोंके अन्दर सावधानीसे लगावे । फिर मध्य पिंडके द्वारा देवीको वेष्टित करे ॥१४॥
रक्षक यन्त्र खरकेशर मष्टदलं कमलं बायै क्रमाद्दलेषु लिखेत् । ... अष्टौ ब्राह्मण्याद्या ब्रह्मादि नमोन्तिमा मातः ॥ १५ ॥
अर्थ-परागमें ज्वालामालिनीदेवीको लिखकर उसके चारों ओर अष्टदल कमल बनावे जिनमें क्रमसे आठों ब्राह्मणी आदि माताओंको आदिमें ॐ और अंतमें "न" लगा कर लिखे ॥१५॥
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मानिकप
पर ऊप छठ व पिंडान् चाष्टौ शेषान् पृथक्क्रमाद्विलिखेत् तथैव प्रणवाद्याभवतत्व नमतिमान्मंत्री ॥ १६ ॥
अर्थ - इसके पश्चात् दूसरे क्रमसे, प, र, घ, ऊ, प, छ, ठ, और, व, पिंडोंको आदिमें ॐ और अंतमें "नमः" लगाकर लिखे ॥ १६ ॥
2005
सर्वदलाग्रेषु ह्रीं सर्वदलांतरेषु लिखेत् । ॐ नव तत्वं ज्वालिनी नम इत्या वेष्टयेद्वाद्ये ॥
अर्थ- सर्व दलोंके अग्रभागमें, क्रों, और बीचमें, ह्रीं, लिखकर बाहर ॐ ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां ह्रीं ह्रां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्यै नमः ।" मंत्रसे वेष्टित कर दे ॥ १७ ॥
इत्थं कथि तस्यास्य ज्वालिन्याः परम मूलमंत्रस्य । मध्ये ध्यायन्मातृभिरष्टाभिः परिवृतां देवीं ॥ १८ ॥
१७ ॥
अर्थ - इस कहे हुए ज्वालामालिनी के मूलमंत्र के बीच में अष्ट मातृका देवियोंसे घिरी हुई ज्वालामालिनीदेवीका ध्यान करें ॥ १८ ॥
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#71
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तृतीय परिच्छद ।
ज्वालामालिनिका ध्यान
अब ज्वालामालिनिदेवीके स्वरूपका ध्यान करनेके वास्ते वर्णन करते हैं।
चंद्रप्रभजिननार्थं, चंद्रप्रभमिन्द्रनंदि महिमानं । भक्त्या किरीटमध्ये, विभ्राणं खोतमांगेन ॥ १९ ॥
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अर्थ- ज्वालामालिनिदेवी इन्द्रोंके प्रसन्न करनेवाली महिमावाले चंद्रमा के समान कांतिवाले भगवान् चंद्रप्रभुकी मूर्तिको भक्तिसे अपने शिर पर मुकुटके अंदर धारण करती
॥ १९ ॥
कुमुददलधवलगात्रां, महिषारूढां समुज्वलाभरणं । श्रीज्वालिनि त्रिनेत्रां ज्वालामाला करालांगी ॥ २० ॥
अर्थ- वह देवी कुमुदके पुष्पके समान श्वेत शरीरवाली, भैंसेके वाहन वाली, उज्वल आभूषणोंवाली, तीन नेत्रवाली और aaat शिखाके समूहसे भयंकर अंगवाली है ।। २० । पाशत्रिशूलकार्मुकरोपण ऊष चक्र फलवर प्रदानानि ।
idr rateष्टमयक्षेश्वरीं पुण्यां ॥ २१ ॥
अर्थ- प्राश, त्रिशूल, धनुष, बाण, मछली, चक्र, फल और वरदान देनेको अपने हाथोंमें धारण करनेवाली पुण्य - स्वरूप आठवीं यक्षेश्वरी है ॥ २१ ॥
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मानी कल्प ।
श्रीमच्छन्दकशांकुशं हरियुतं कूटं स बिन्दु लिखेत् ।
बाणान् द्वादशपिण्ड मातृ सहितान् शून्यैश्चतुर्भिर्युतान् ॥
क्षत्रिं वज्र सुपंजरांतरगतो दुष्टैरलंघ्यो भवेत् ।
我 शाकिन्यादि महाग्रहान् वितथान् रौद्रान् समुच्चाटयेत् ॥२२॥
२६
अर्थ-उस समय आगे आनेवाले “ श्रीमत आं कौई वां द्रां द्रीं क्लीं ब्लू सः क्षन्यू हव्यू यू मल्यू यू यू यू म्यू कम्यू क्षीं क्षू क्षः " मंत्र बज्रमय पिंजरेके बीच में बैठा हुआ मंत्री दुष्ट ग्रहोंसे अलंघ्य होकर शाकिनी और रौद्र महा ग्रहोंको शीघ्र ही दूर भगा देता है ॥ २२ ॥
पात्र मुक्त्वा मंत्री बली हि मत्वा गृहाः प्रयान्ति यदि । तत्राप्याशा बंधं कुर्यादित्थं सनापैति ॥ २३ ॥ अर्थ – यदि मंत्रीको बली जानकर कोई ग्रह आवे तौ दोशाबंध करने से वह दूर हो जाता है।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्र हः ज्वालिनी पादौ च जघनमुदरं वदनं । शीर्ष रक्ष द्वय होमांतम् परगात्र पंचके संस्थाप्य ॥ २४ ॥
अर्थ – “ ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः ज्वालामालिनी पात्रस्य पादौ जघनं उदरं वदनं शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा " इत्यादि ऊपर के अनुसार इस मंत्र को अपने पांचों अंगोंमें होमके अन्त तकस्थापित करके ।
| २७.
तृतीय परिच्छेद ।
यह निग्रह निधान
क्ष ह भ म य र ऊकांत पूछकार पूर्णेन्दुयुक्त निर्विष बीजैः । बिंदूर्द्ध रेफ सहितैर्म्मल वरयूँ संयुतं द्विषद्विबीजैः ॥ २५ ॥
अर्थ-क्ष ह भ म य र उख छकार और पूर्णचंद्र (ठ) सहित निर्विष (क) बीजोंसे बिन्दु ऊर्ध्व रेफ सहित मलबर और यूं से युक्त शत्रुओं को नष्ट करनेवाले बीजोंसे मुक्त करके,
स्तम्भन स्तोभन ताडन मांध्य प्रेषणं दहनभेदनं बंधाः ।" ग्रीवा भंग गात्र छेदन हननमाप्यायनं ग्रहाणां कुर्यात् ॥ २६ ॥
अर्थ- ग्रहोंका स्तम्भन, कम करना (स्थिर करके खैंचना) - मारना, अंधा करना, जलाना, भेदना, बांधना, ग्रीवाभंग, अंग छेदना, मारण तथा दूरीकरण करे ॥ २६ ॥
हास्यान्निरोधशून्यं स्वरो द्वितीय चतुर्थ षष्टौ च । ॐ कारो विन्दुयुतो विसर्जनीयश्च पंचकलाः ॥ २७ ॥
ॐ कूट पिंड पश्च स्वर संयुत कूट पंचकं स निरोधं । दुष्ट ग्रहांस्तथा द्विस्तम्भ मंत्र इति फट् २ घे घे ॥ २८ ।।
अर्थात् "ॐ न्यू ज्वालामालिनि, ह्रीं क्लीं, ब्लूद्रां, द्रीं, क्षां क्षीं, क्षू, क्षौं, क्षः, हाः, दुष्ट ग्रहान् स्तम्भय २: हां, आं, क्रों, क्षीं, ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ फट् घे घे ॥""
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२८ स्वालामालिनी कल्प।
ल नोय परिच्छेद ।
। २९ यह ग्रहोंका स्तंभन मंत्र है। इसमें शृखला मुद्रा होती है। ॐ शून्य पिंड पंच स्वर युत ह बीज पंचकं स निरोधं ।
यांनी नंम्रो म्रः दुष्टग्रहान् हुँ फट् सर्वेषां दुष्ट ग्रहाणां स्तोभन मंत्रः सर्वग्रहानथाकर्षय द्वयं संवौषट् ॥ २९ ॥
वज्रमय सूच्या अक्षीणि स्फोटय स्फोटय हां आं क्रों वीं
J लालामालिन्याज्ञापयति हुँ फट् घे थे। अर्थ-* हल्ब्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लू द्रा द्रों ग्वीं हां ही हूँ हौं हः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान्स्तोभय २ आकर्षय२
यह ग्रहोंका अधिस्फोटन मंत्र है। इसकी सूची मुद्रा है ॥३२॥
भक्त्यादि वायुपिंडो य य य य याः याः ग्रहानथ समस्तान् हां आं को क्षी ज्वालामालिन्याज्ञापयति संवौषट् ।”
द्विप्रेषय घे घे हुँ जज जःप्रेषण सुमंत्रः ॥३३॥ यह ग्रहोंका स्तोभन मंत्र है । इसमें शिखि मुद्रा होती है ॥२९॥ अर्थ-ॐ यल्ब्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं भक्ति भ पिंडो, भ्रां, श्री, श्रौं, भ्रः, सन्निरोधसहितं च । द य य य याः याः सर्व दुष्टग्रहान् प्रेषय२ घे घे हां आं क्रों दुष्ट ग्रह मथ ताडय हुँ फट् घे घे इति ताडनमंत्रः ॥३०॥ी ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ जः जा जा र
अर्थ-"ॐ भल्व्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां दी यह प्रेषण मंत्र है। इसकी छुरिका मुद्रा है ॥३३॥ भ्रां श्रीं , भ्रौं भ्रः हाः दुष्ट ग्रहान् नाडयर हां, आं, क्रों, क्षी,
वामादि रग्निपिंडः शिखि मद्देवी ज्वल द्वयं र र र र रां रां, ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ फट२ घेघे।"
प्रज्वल हुँ धगयुग धू धू धूमांधकारिणी ज्वलनशिखे ॥३४॥ यह ताडन मंत्र है । इसमें गद मुद्रा होती है ॥३०॥
देवानागान् यक्षान् गंधर्वान् ब्रह्मराक्षसान भूतान् । विनयादि मपिंडो ग्रां प्रीं यूं नौं प्रस्तथैव सं निरोधः । शतकोटि देवतास्ताः सहस्रकोटिं पिशाचराजानं ॥३५॥ हुँ फट् घे घे सर्वग्रह नाना वनमय शूच्या ॥ ३१ ॥
दह दह पद प्रतिपदं घे स्फोटय मारयेति युगलं च । अक्षीणि विस्फोटय द्वि स्तथैव हुं फट् घे थे।
दहनाक्षि प्रलय धगद्धगितमुखी ज्वालिनी हाहीं ॥३६॥ अक्षि स्फोटनमंत्री मुद्राप्यस्याक्षि भंजिनी नराम ॥ ३२ ॥
ह हौं हः सर्वग्रह हृदयं हुँ दह दहेति मंत्रपदं । ____ अर्थ-ॐ मन्व्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्रीं ब्लू द्रां द्रीं
ह ह ह ह हाः हाः फट घे घे होम मंत्रोऽयं ॥ ३७॥
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WINIINDAN
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MORNIRMIRMIRMIRMIRRORMIRRORIES
तृतीय परिच्छेद । फिर भूताख्य नामके गायत्री मंत्रका तीन नाम उच्चारण (करके अग्नि जलावे, फिर संधुक्षण मंत्रसे तीनवार अग्निका संधुक्षण करे ॥ ३९॥
4 भूताख्य गायत्री मंत्र ।
"ॐ वज्र तुण्डाय धीमहि एक दंष्ट्राय धीमहि अमृतं वाक्यस्य संभवेत् तन्नोदहः प्रचोदयात् ।” प्रणवनयपिण्ड पंचकलायुत तलरेफयुत धकार निरोधं ।
खं खं खड्गै रावण सद्विद्ययाथ घातय मुगलं ॥ ४० ॥
३०]
ज्वालामालिनी कप अर्थ-ॐ राम ज्वालामालिनि डी की द्री ज्वल ज्वल रररररां ज्वल प्रज्वल प्रज्वल हुँ है। धग धग धू धू धूमांधकारिणि ज्वलशिखे देवान् दह दह - नागान् दह दह यक्षान् दह दह गंधर्वान् दहर ब्रह्मराक्षसान् दह२ भूत ग्रहान् दहर व्यन्तर ग्रहान् दह२ सर्व दुष्टग्रहान् दहर शतकोटि देवतान् दह दह सहस्त्र कोटिपिशाचराजानं 'दहर लक्षकोटिअपस्मार ग्रहान दह दह घे घे स्फोटय स्फोटय
मारय मारय दहनाक्षि प्रलय धगद्धगित मुखि ज्वालामालिनि हाँहीं ह हः सर्व दुष्ट ग्रह हृदयं हूँ दह२ पचर छिंद भिंदर ह ह ह ह हाः हाः आं क्रों क्षी ज्वालामालिन्याज्ञापयति । -हुँ फट् घे थे।"
यह दहन मंत्र और होम मंत्र है ॥३४-३७॥ । अग्नि त्रिकोण कुड़े मधुरत्रयसर्वधान्यसर्वपलवणैः।
राज पलाश शमितरु काष्टः कुर्खाद् बुधो होम ॥ ३८ ॥ भूर्तख्यागायत्रीमुच्चार्य त्रिः सकृद्ध मेदग्निं । श्रीन्वाराग्नित्यग्ने रादौ संधुक्षणं कुर्यात् ।। ३९ ॥
।। अर्थ-त्रिकोण कुण्डमें, घृत, दुग्ध और मधु, सब “धान्य, सफेदसरसों, और लवणको लेकर पलाश और शमीकी • समिधासे होम करै ॥ ३८ ॥
चा"
.
सचंद्रहासेन द्विच्छेदय भेदय द्विः ऊ ऊ खं खं। ई सं फट्२ घे२ मंत्रोऽयं जठर भेदि स्यात् ॥ ४१ ॥
"धल्यू ज्वालामालिनि, ही, क्लीं, ब्लू, द्रो, द्रों, क्रां, घी, ध्रु, नौं, घ्रः, हाः, , , खं, खं, खड्गै रावण सद्विद्यया घातय२ सच्चंद्रहासड़गेन छैदयर भेदय२, ऊं, ऊं, खं, खं, है, स, हां, आं, क्रों, क्षी, ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ फट्२ घे थे।
यह उदर भेदी मन्त्र है। इसको खड्ग रावण विद्या ऋहते हैं ॥ ४०-४१॥
प्रणवन सहित ऊपिंडो गुप्तोचरितः स्ववायु निर्गमनः । M हाः पूर्णेन्दु समेतः स्यात् मुष्टि ग्रहण मंत्रोऽयं ॥ ४२॥ .
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३२ ।
न
अथ-- “ ॐ झन्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूं ड्री हाजः " यह मुष्टिग्रहण मंत्र है। इसकी मुष्टिमुद्रा है ॥ ४२ ॥ पिंडेन विना हा फट् घे घे मंत्रेण तत्र चान्यस्मिन् । कुर्याद्ग्रह संक्रामं मुष्टिविमोक्षेण सन्मंत्री ॥ ४३ ॥
अर्थ - " हा फट् घे वे । " यह मुष्टि विमोक्षण मंत्र । इससे भी ग्रह दूर हो जाते हैं ॥ ४३ ॥
पिण्डः स एव विनयादिक स्वपंच तत्वान्वितः सनिरोधः । सर्वेषां ग्रहनानां कुरु सन्निग्रहां स्तथा हृीं फट् घे वे ॥४४॥
"ॐ झल्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं झां झीं श्रं झौं ः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् स्तंभय स्तंभय ताडय २ अक्षीणि स्फोटय २ प्रेषय२ भेदय२ हा हा हाः आं कों क्षीं ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ फट् घे घे । "
यह दुष्ट निग्रह कर्म मंत्र होने पर दुष्ट मुद्रावाला तथा ईसित कर्ममंत्र होनेपर दुष्ट तर्जनी मुद्रावाला होता
॥ ४४ ॥
ॐ कान्त पिण्ड पंच खर युत तल रेफ सहित कपरं च । हा फट् ये सर्व्व ग्रह गल भंगं कुरु युगं घे घे ॥ ४५ ॥
तृतीय परिच्छेद ।
[ ३३
अर्थ — ॐ खल्यू वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं खां खीं खौं ः हा फट् घे वे सर्वेषां ग्रहाणां गल मंगरुर हां कों क्षीं ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ फट् घेघे । यह गलभंग मंत्र है, इसकी खलिन मुद्रा है || ४५ ॥ भक्त्यादि चान्त पिण्ड : पंच कला रेफ युक्त चांत निरोधः । सर्वेषां ग्रह नाम्ना मंत्राणि छिंद फट् फट् घे घे ॥ ४६ ॥
अर्थ — ॐ छन् ज्ञालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ह्रीं कूं छौं छः हाः सर्वेषां ग्रह नाना मंत्राणि छिंद्र छिंद हां aat क्षी ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ फट् वे वे ॥ K यह अंत्र छेदन मंत्र है, इसकी अंत्र छेदन मुद्रा है ॥४६॥
भक्तिसहितेन्दुपिण्डः ब्लींहाः सर्व ग्रहांस्तु पाषाणैः । ताड ताडय भूमौ द्विपातय हूं युगं च फट् घे घे ॥४७॥
अर्थ- ॐ ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ली हा सर्व दुष्ट ग्रहान् तडित्पाषाणे: ताडय २ भूमौ पातय २ हां आं कों क्षीं ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ फट् घे घे ॥
यह ग्रहोंका हनन मंत्र है, इसकी विद्युत् मुद्रा है ॥४७॥ fareer ra पिंडस्तदीयमयतत्वपंचकं निरोधः । सर्वेषां ग्रहनानां कुरु सर्व निग्रहां सु फट् घे घे ॥ ४८ ॥ अर्थ - ॐ क्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं
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३४] चालामाकिनी कल्प।
तृतीय परिच्छेद ।
[ ३५ ब्रांनी व्रवौं वः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् स्तंभय२ स्तोभयर अर्थ-इस सर्व निरोध आप्यायन मन्त्रके द्वारा अक्षत ताडयर ऊक्षीणि स्फोटयर प्रेषय२ दहर भेदय२ बंधयर
। और जलको अभिमन्त्रित करने, अक्षतको मारने और जलसे ग्रीवा भंगय२ अंत्राणि छेदय छेदय हनर हां आं क्रोंक्षी
धोनेसे सब ग्रहोंका विनाश हो जाता है ॥५१॥ ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ फट् घे थे। यह सर्व कार्थक मंत्र है, इसकी तर्जनी मुद्रा है। ॥४८॥ आत्मान्यस्मिन्या प्रति बिम्बे वाद निग्रहे विहिते ।
ग्रह निग्रहो भवेदिति शिखिमद्देवि मतं तथ्यं ॥५२॥ विनयो निर्विष पिंड स्व पंचतत्वं निरोध सहितं च । सर्व ग्रहान् समुद्रे हिर्मजय हूं तथैव फट् फट् घे घे ॥४९॥
अर्थ-इस या अन्य किसी निग्रह मंत्रका प्रयोग करनेसे
ग्रहोंका निग्रह हो जाता है। ऐसा ज्वालामालिनीदेवीका अर्थ-ॐ मन्च्यू ज्वालामालिल ह्रीं झों ब्लू द्रां द्री सिद्धांत है ॥ ५२ ॥ क्रां क्रीं क्रों कः हाः दुष्ट ग्रहान् समुद्रे मजयर हां आं क्रों। पी ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ फट्२ घे घे ॥
ईषनात्रां नालिका मेकै काक्षर सुविच्ययावेष्टय । यह मजन मंत्र है, इसकी मञ्जन मुद्रा है ॥४९॥
जप्तः सप्तोत्तर विंशति मणिभिः त्रिसंध्यमप्यष्टशतं ॥५३॥ निर्विष पिंडः स तव में है ऊं ग्रहानथ समस्तान् ॥
अर्थ-एकर अक्षरका अपने हृदय में अच्छी तरहसे उत्थापय द्वयं नट नृत्य द्वितयं तथा स्वाहा ॥ ५० ॥ ध्यान करके प्रातः दोपहर तथा सार्यकालमें सत्ताईस मणियों
द्वारा एकसौ आठ बार जप करना चाहिये ॥ ५३॥ अर्थ-झमल्व्यू ज्वालामालिनि ह्रीं ह्रीं ब्लं द्रां द्रीं सं तंव में है ऊं सर्वे दुष्ट ग्रहान उत्थापयर नट२ नृत्यर हां आं विषमणिविषमशाकिनीविषमग्रह विषममानुषां सर्वे । क्रों ही ज्वालामानिन्या ज्ञापयति स्वाहा।
निविषतां गत्वा ते वश्याः स्युः क्षोभमेति जगत् ॥ ५४॥ यह अप्यायन मंत्र है, इस ही आप्यायन मुद्रा है ॥५०॥
__ अर्थ-भयंकर सर्प, भयंकर शाकिनी, विषम ग्रह, और सर्व निरोधे वाप्यायन मंत्रेणानेन साक्षतं सलिलं ।
सब विषम मनुष्य निर्विष होकर वशमें हो जाते हैं, और अभिमंत्र्य ताडयत्क्षालयेच कृत निग्रहं स्यात् ॥५१॥
सम्पूर्ण जगतको क्षोभ प्राप्त होता है ॥ ५४ ॥
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३६ ]
ज्वालामाखिनी कल्प
शब्द कशांकुश चरण हैंय नागाचोदिता यथा यांति बुधैः । दिव्या दिव्याः सर्वे नृत्यंति तथैव संबोधनतः ॥ ५५ ॥
अर्थ - जिस प्रकार घोड़े और हाथी, शब्द, शकोड़े, अंकुश और एडसे आगे चलते हैं, उसी प्रकार पंडितोंके शब्द पर दिव्य और अदिव्य सभी ग्रह नाचते हैं ।। ५५ ।।
वाक् तीक्ष्णै र्व्वर मन्त्रैर्मित्वा दुष्टग्रहस्य हृदयं कर्णौ । चिन्तयति बुध स्तोधं करोतु भुवि ।। ५६ ।।
Rat
अर्थ - पंडित पुरुष तीक्ष्ण बाणोंवाले उत्तम मंत्रोंसे दुष्टग्रहके हृदय और कानोंको छेदकर जो जो सोचता है। संसार में वही वही होता है ॥ ५६ ॥
बीजाक्षर ज्ञानका महत्व
तत्कर्म नात्र कथितं कथित्र शास्त्रेषु गारुडे सकलं । तद्भेदमाप्य मंत्री यद्वक्ति पदं तदेव मन्त्रः स्यात् ॥ ५७ ॥
अर्थ- जिस भेदको पाकर मन्त्री जो कुछ कहता वही मन्त्र बन जाता है । वह कर्म यहां नहीं बतलाया गया बल्कि उसका कथन पूर्णरूपसे गारुड शास्त्रमें किया गया है ॥ ५७ ॥
sati कुर्यान्मंत्री कथयतु तदात्म पार्श्व जिनाय । पात्रं निश मय्य वचो यक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥५८॥
तृतीय परिच्छेद ।
[ ३७
अर्थमंत्री उसको जानकर जो जो करना चाहिये वह सब कर करके श्री पार्श्वनाथ भगवानके अर्पण कर दे। ऐसे मंत्रीके वचनको जो सुनेगा उसके लिये वही मंत्र हो जावेगा ।
छेदन दहन प्रेषण भेदन ताडन सुबंध मांध मन्यद्वा । पार्श्वजिनाय तदुक्त्वा यद्वक्ति पदं मंत्र स्यात् ॥ ५९ ॥
अर्थ - वह पुरुष छेदना, जलाना, भेदना, काटना, मारना और बांधना आदि तथा अन्य भी श्री पार्श्वनाथ भगवान् के लिये कह कर जो पद कहता है, वही मंत्र हो जाता है।
दिव्य मदिव्यं साध्यमसाध्यं संबोध्य मप्य संबोध्यं । बीज मबीजम् ज्ञात्वा यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥ ६०॥
अर्थ- वह दिव्य और अदिव्य साध्य और असाध्य कहने योग्य और न कहने योग्य तथा बीज और अबीजको बिना जाने हुए भी जो पढ़ कहता है, वही मंत्र होजाता है ।
भृकुटि पुट रक्त लोचन भयं कराह प्रहास हा हा शब्दः । मंत्र पदं प्रपन्नपि यक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥ ६१ ॥
अर्थ -- वह भौं चढ़ाकर लाल नेत्र किये हुए भयंकर अट्टहास करता हुआ हा हा शब्द करता हुआ अथवा मन्त्र यदको पढ़ता हुआ भी जो कुछ कहता है, वह मन्त्र बन जाता है ॥ ६१ ॥
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१३८ ।
मनकल्प |
चोद्यं वांछति तत्तत्कुरुते द्विष द्विषद्विदं वीजं । तस्माद्वीजं ध्यात्वा यद्वक्ति पदं तदेव मन्त्रः स्यात् ॥ ६२॥
अर्थ- वह जिस जिस कार्यको करना चाहता है, शत्रुको जाननेवाला बीज वही २ कर देता है, इस वास्ते बीजका ध्यान करके जो पद कहा जाता है, वही मन्त्र हो जाता है ॥ ६२ ॥
अति बहला ज्ञान महांधकार मध्ये परिभ्रमन्मंत्री । लब्धपदेश दीपं यद्वक्ति पदं तदेव मन्त्रः स्यात् ॥ ६३ ॥
अर्थ - मंत्री पुरुष अत्यन्त गहन अज्ञानरूपी महा अन्धकार बीचमें घूमता हुआ भी उपदेश रूपी दीपकको पाकर जो कहता है, वही मंत्र हो जाता है ॥ ६३ ॥
न पठतु माला मंत्र देवी साधयतु नैव विधि नेह । श्री ज्वालिनी मतज्ञो यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥६४॥
अर्थ न तौ मालाके ही मन्त्रका पाठ करे और न यहां देवीकी ही विधिपूर्वक साधना करे किंतु श्री ज्वालामालिनी देवीके मतको जाननेवाला पुरुष जो कहता है, वही मन्त्र हो जाता है ॥ ६४ ॥
देव्यपनीयध्यानानुष्ठानहोम रहितोऽपि । श्रीज्वालिनी मतज्ञो यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥ ६५ ॥
नाष
०५।
अर्थ-देवीकी पूजा, जाप, ध्यान, अनुष्ठान और होमसे रहित होने पर भी श्री ज्वालामालिनीदेवीके सिद्धांतको जाननेवाला जो पद कहता है। वही मंत्र हो जाता है ।। ६५ ॥
विनयं पिंडं देवी स्वपंच तत्वं निरोध सहितं च । ज्ञात्वोपदेश गर्भं यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥ ६६ ॥
अर्थ - विनय पिंड देवी स्वपंच तत्वको निरोध सहित जानकर जो पद कहता है, वही मंत्र हो जाता है। अर्थात् निम्नलिखित मंत्र सर्वत्र काम दे सकता है।
“ ॐक्ष्म्न्यू ज्वालामालिनी क्षां क्षीं क्षू क्षों क्षं क्षः हा दुष्टग्रहान् स्तंभय २ ठं ठं हां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ फट् घे थे। "
उपदेशान्मंत्र गति मंत्र रुपदेशवर्जितैः किं क्रियते । मंत्र ज्वालामालिन्य दिकृतकन्पोदितः सत्यः || ६७ ॥
अर्थ - मन्त्र बिना उपदेशके नहीं रह सकते और बिना उपदेश पाये कुछ किया भी नहीं जा सकता किंतु ज्वालामालिनी कल्पके बतलाये हुए मन्त्र पूर्ण रूपमें सत्य हैं ॥६७॥
कर्णाकर्ण प्राप्तं मंत्र प्रकटं न पुस्तके विलिखेत् ।
स च लभ्यते गुरु मुखाद्यत्कः श्री ज्वालिनी कल्पे ॥ ६८ ॥ अर्थ - मन्त्र कर्णसे लेकर कर्णमें ही रक्खे, पुस्तकमें न
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उड़ान 9047
लिखे, जो कुछ भी ज्वालामालिनी कल्पमें है। वह केवल गुरु मुखसे ही सुना जा सकता है ॥ ६८ ॥
वीजोंका कुछ वर्णन
त्रिमूर्ति मूर्तिद्वय मैंद्रयुक्त, पयोधि मैंद्रस्थित मां समेतं । स्त्री रेतसो द्रावक मृत मंद्रा, मुमा हृदुद विधुस्त द्रांद्रीं ॥ ६९ ॥
अर्थ - त्रिमूर्तिवाला कीं, द्विमूर्तिवाला (ल) ऐंद्रयुक्त समुद्ररूप (हं) ऐंद्र (लं ) और लं सहित मंत्र स्त्रीके रजको द्रवित करता है। चंद्ररूप द्रां और द्रीं लक्ष्मीं के हृदयको भेदन करनेवाले हैं ॥ ६९ ॥
शून्यं द्वितीय स्वर बिन्दुयुक्त, स्वरो द्वितीयश्च सबिन्दु रन्यः । मृगेन्द्र विवि द्वश च कूटः, सविष्णु बिन्दु भवेदि तत्वं ॥ ७०
अर्थ- दूसरा स्वर बिन्दुसे युक्त होनेपर शून्य कहलाता है। आं सहित उसीको दुबारा कूट विष्णु और बिन्दु सहित लेनेसे अर्थात् " आंआं क्षः ई अं" यह मंत्र सिंहके मार्गको भी वश में करता है ॥ ७० ॥
कूटशू भपिंडगर्भमपिंड निर्मितकर्णिके
षोडश स्वरकेश रोज्वलशेषपिंडदलाष्टके ।
भासुरे नव तत्व वेष्टित पंकजेश निवासिनां
ज्वालिनीं ज्यातिप्रभामनुचिन्त येत्फल दायिनीं ॥ ७१ ॥
तृतीयपरिच्छे
४१
अर्थ -- एक अष्टदल कमलकी कर्णिका के बीच क्ष्ल्यू बीज रखकर सोलह स्वरोंको परागके स्थान में और अवशेष पिण्डोको आठों दलों पर रक्खे। ऐसे तेजस्वी नव तत्वोंसे वेिष्टित उत्तम कमल में रहनेवालोंको ज्वालामालिनी देवी फलको देनेवाला उत्तम तेज देती है ॥ ७१ ॥
नाभौ क्लीं हृदये च ह्रीं शिरसि च द्रे पादयोः क्षीं गुदेः द्रांकों मूर्द्धन्यज रुद्धतमं कुश मधो यूँ चो परि ब्लू गले ।
जान्यो रथतेन रुद्ध ममलं पाशं स्वनं कर्णयो सर्वो शब्द कशे तनौ च परं भूता कृतौ विन्यसेत् ॥ ७२ ॥
अर्थ – संपूर्ण प्राणीकी आकृतिको कानों जंघाओं, शब्द Hye और शरीर में निम्नलिखित क्रमसे बीजोंको रक्खे। नाभिमें कीं इयमें ह्रीं शरमेंद्र दोनों पैरोंमें क्षीं गुद aria द्रां शिरमें कों दोनों हाथों में कं तथा कों प्यू ऊपर लू गलेमें यू घुटनोंमें अं और टं दोनों कानोंमें टं तथा दोनों जांघों और भूतकी आकृति में सर्वत्र र लगावे ॥७३॥ ॐ ह्रीं रेफ चतु यं शिखि मति वाणान्त मः पिण्ड सं भूतं तत्व पंच के जल युगं तत्प्रज्वलं प्रज्वल ।
सु
ह' युग्मं दद युग्म माम युगलं धूमांध कारिण्यतः
शीघ्र मेद्य मु वशं कुरु वशद्देव्यास्तु मंत्रः स्फुटं ॥७४ अर्थ - ॐ ह्रीं ह्रां ह्रौं ह्रौं ह्रः द्रां द्रों क्कों ब्लू सः जल
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नाना फ
जल प्रज्वल २ हुँ हुँ दद माम् धूमांधकारिणि शीघ्रं एहि अमुकं वशं कुरु । यह वशमें करनेके लिये देवीका मंत्र है ॥ ७४ ॥
अज पिण्ड देवता पंच बाण निज तत्व पंचक निरोधैः । स्वेष्ट निरोध पदैः सह जयति समस्त ग्रहान्मंत्री ॥ ७५ ॥
अर्थ - अजपिण्ड देवता पंचबाण स्वतत्व पंचक निरोध और इष्ट निशेध पदोंसे अर्थात् "क्षल्यू ज्वालामालिनि द्रां द्रीं क्लीं ब्लू सः क्षां क्षीं क्षू क्षौं क्षः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् स्तंभयर ठः ठः हां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्याज्ञापयतिहुँ फट् घे थे।" इस मंत्र से मंत्री सर्व ग्रहों को जीतता है ॥ ७५ ॥ कुछ बीजों का वर्णन
स्वाहा स्वधा च वडपि संवौषट् हूं तथैव घे फट् क्रमशः । शांतिक पौष्टिक वा कर्षण विद्वेष सारणोच्चाटन कृत् ॥७६॥
अर्थ- स्वाहा- शांति करनेवाला, स्वधा - पुष्टि करनेवाला, वषट्-वशीकरण करनेवाला, संवौषट् आकर्षण करनेाला हूँविद्वेषण करनेवाला, वे-मारनेवाला और फट् उच्चाटन करनेवाला हैं ।। ७६ ।।
विनयो ज्वालामालिन्युपेत नव तत्व युत नमस्कारः । एषा प्रदान वद्य ज्ञानमा ज्वालिनी कल्पे ॥ ७७ ॥
तृतीय पारछइ ।
अर्थ-ज्वालामालिनीको विनय और नव तत्ब सहित ही नमस्कार ही देनेकी विद्या है यह ज्वालामालिनी कल्पसे जानना चाहिये || ७७ ॥
10%
विनयादि देवता पिंडतत्वनवकं निरोध शून्य युतं । विश्या कृष्णायुच्चाटन मारण बीजानि मणिविद्या ॥ ७८ ॥
अर्थ - विनयादि देवता पिण्ड नव तत्व निरोध और शून्य सहित वशीकरण आकर्षण, उच्चाटन मारण मा के बीजोंकी विद्या होती है। अर्थात्- "ज्वालामालिनि न्यू हव्यू न्यू यू म्यू
क्ष हा वषट्
यू । ॐ ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ह्रीं आं ह वषट घे घे " इस मन्त्रको वशीकरणउच्चाटन और मारण आदि बीजोंसे युक्त करके भोज पत्रपर लिखकर उक्त लिखित मंत्रकी सत्ताईसकी माला बनाकर उसे प्रातः दो प्रहर तथा सायंकालके समय जपनेसे इच्छित कार्य सिद्ध होते हैं ॥ ७८ ॥
हृदयोपहृदय बीजं कनिष्ठिकाद्यंगुलिषु विन्यसेत । तस्योपर्यो ज्वालिनि जनवश्यं कुरु युगं वषट तत्वमिदं ॥ ७९ ॥ अर्थ- हृदय और उपहृदयके बीजको कनिष्टिका आदि अंगुलियों में रखकर इस मन्त्रका ध्यान करे ।। ७९ ।। “ॐ ज्वालामालिनि मम सर्वजन वश्यं कुरुर वषट् । यह मन्त्र है।
12
यू
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४४।
ज्वालामालिनी कल्प kumaunikams inniwelmmsmNimminenemiamine
DRONACANNOTION NOUNNORINNR
ONIRaowwwIONLINE
1280-11 साधारण विधि वामकर मंत्रमंत्रित निजवेदने नातनोतु जन वश्यं । भीमकरण दश त्रासनानि होमं च विदधातुः ॥ ८॥
अर्थ-मंत्री पुरुष बाएं हाथसे मन्त्रको जाप कर अपने मुखसे उसको पढ़ता जावे और दाहिने हाथसे दश प्रकारके पूर्वोक्त त्रसन और होम करे ॥ ८० ॥
मंत्रजपहोमनियमध्यानविधि मा करोतु मंत्रीति । यद्यप्यत्रसयुक्त' तथापि सन्मंत्र साधन जहातु ॥ ८१॥
अर्थ-मंत्रीको चाहिये कि वह मंत्र जप होम नियम और ध्यानकी विधिको पूर्ण रूपसे करे । यद्यपि उसका यहां विधान साधारण है। तथापि न करनेसे वही मंत्र के साधनको छोड़ देती है ।। ८१॥ एक स्तावद्वन्हिः पुनरपिपवनाहतो न कुर्यातकिम् । एक स्तावन्मत्रो जप होम युतास्य किमसाध्यं ॥ ८२ ॥
अर्थ-यद्यपि अग्नि एक होती है। तयापि उसको हवासे न ऊपका जाने पर वह क्या नहीं करती। उसी प्रकार मंत्र एक ही होता है। तब भी जप और हवनसे युक्त होने पर उसके लिये क्या असाध्य है ? ॥ ८२॥
तृतीय परिच्छेछ ।
४५ तस्मान्मंत्राराधनविधि विधिमिहविधिपूर्वकं करोतु बुधः । नित्य मनालस्य मना यदीष्टसिद्धिं समीपोत ॥ ८३ ।।
अर्थ-इस लिये पंडित पुरुष यदि इष्ट सिद्धि करनी चाहता हो तो मनसे आलस्यको दूर करके मंत्राराधनविधिपूर्वक इष्ट सिद्धि करे ॥ ८३॥ इतिश्री हेलाचार्य प्रणोत अर्थमें श्रीमद इन्द्रनन्दि मुनि विरचित अन्धमें ज्वालामालिनी कल्पकी काव्य साहित्य तीर्थाचार्य प्राच्य विद्यावारिधि श्री चन्द्रशेखर शास्त्रो कृत
भाषाटीकामें "द्वादशाबोजाक्षर विधान" नामक .. का तृतीय परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३॥
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ज्वालामालिनी कल्प। चतुर्थ परिच्छेदः
सामान्यमंडल एकतरौ प्रेतगृहे चतुष्पदे ग्राम मध्ये देशे वा।। नगर वहि भूभागे मंडल मावर्त ये प्राज्ञः ॥१॥ ___ अर्थ-बुद्धिमान् एक वृक्षके नीचे प्रेतके घर (स्मशान)में चौराहे पर ग्रामके ठीक बीचमें या नगरके बाहर मंडल बनावे ॥१॥ ईषानाभि मुखः प्रपतितजलशल्यरहित समभूमौ । हस्ताष्टक प्रमाणं नवखंडं मंडलं प्रवरं ॥२॥
अर्थ-उसका मुख ईशान कोणकी ओर हो। वह मंडल गड्डे जल तथा कंटकरहिन समभूमिमें आठ हाथकी जगहमें बनाया जावे ॥२॥ वर पंचवर्ण चूर्णैः द्वारचतुष्कान्चितं लिखेद्विपुलं । नाना केतु पताका दर्पण घंटान्चितं कुर्यात् ॥ ३॥
अर्थ—उसको पांचों रंगोंके चूर्गों से च्यार द्वारों वाला और उसको अनेक प्रकारकी ध्वजा पताका दर्पण और घंटोंसे सजा देवे ॥३॥
चतुर्थ परिच्छेद । अश्वत्थपत्र विरचित तोरण तत्पुरुष मंडपोपेतं । सकल विदिक्षुनिवेषित मुषलाग्रन्यस्त पूर्णघटं ॥४॥
अर्थ-उसका द्वार पुरुषका प्रवेश करने योग्य बनाकर पीपलका तोरण लगावे और उसकी सब दिशा विदिशाओंमें मुशलके समीप जलसे भरे हुए घड़ोंको रख दे ॥४॥ तस्मिन्प्रच्याधष्ट सुकोठेष्विन्द्राग्निमृत्यु नेऋत् वरुणान् । मारुत धन देशानान् लक्षण युक्तान् लिखेन्मतिमान् ॥५॥
अर्थ-बुद्धिमान् पुरुष उसके पूरब आदि आठ कोठोंमें इंद्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान देवोंको सब लक्षणों युक्त करके लिखे ॥५॥
शक्र पीतं वन्हि वन्हि निभं मृत्युराज मति कृष्णं । हरितं नैऋत मपरं शशि प्रमं वायु मसितांगं ॥६॥
अर्थ-ईद्रको पीला, आग्नका आमक समान, यमका अत्यंत कृष्ण, नैऋतको हरा, वरुणको चंद्रमाके समान, वायुको मटियाला (असित-जो सफेद न हो)॥६॥ धनदं समस्त वर्ण सित मीशानं क्रमेण सर्वान्विलिखेत । गज मेष महिष शव मकरोद्यन्मृग तुरंग बृष बाहान् ॥७॥ ___ अर्थ-कुबेरको सब रंगोंका और ईशानदेवको सफेद बनावे और इनके बाहन क्रमसे-हाथी, मैंढा, भैंसा, शव, मकर, दौडता हुआ मृग, घोड़ा और बैल बनावे ॥ ७॥
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४८ 1
मालिनी कल्प।
गानि दंड शक्त्यसिपाश महा तुरंग दात्र शूल करान् । परिलिख्य लोकपालान मध्ये माता कृतिं विलिखेत् ॥८॥ YE अर्थ - इनके हाथमें क्रमसे बज्र अनि दंड शक्ति तलवार पाश, महातुरंग, दात्रि और शूल देकर इन लोक पालोंके बीच में माताकी आकृति बनावे ॥ ८ ॥
गंधाक्षत कुसुमाद्यैः स्वकीय मन्त्रैः प्रपूजयेत्सर्वान् । सामान्यमंडलमिदं भूतसमुच्चाटने प्रोक्तं ॥ ९ ॥
अर्थ- फिर सबको गंध, अक्षत, और पुष्प आदिसे अपने २ मंत्रोंसे पूजे । यह भूतोंका उच्चाटन करनेवाला सामान्य मन्डल कहा ।। ९ ॥
urs as as कान् पूर्वादिक्षु विनियुक्तान् । क्रमश स्तान् द्वादशविध मन्त्रान् हे लोकपालकात्मद्वारं ॥ १० अर्थ- दो एक, दो एक, दो एक, दो एक इन पूर्व आदि दिशाओं में क्रमशः लगाये हुए बारह प्रकारके मंत्रोंको हे लोकपालो ! स्वीकार करो ॥ १० ॥ द्विर्बंध गंध पुष्पं धूपं दीपाक्षतं बलिं चरु कं ।
गृह दूप होमान्तान् स्वकीय मन्त्रान् बुधाः प्राहुः ॥ ११ ॥
अर्थ- दोनों प्रकारके बंध, गंध, पुष्प, दीप, धूप, अक्षत, बलि, और चरुको दोनों प्रकारके होम ज्वालामालिनी के अंत में अपने मन्त्रोंसे ग्रहण करो ऐसा पंडित कहें ॥ ११ ॥
चतुर्थ परिच्छेद ।
[ ४९
ॐ ह्रीं
स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण
स्वायुध वाहन वधू चिह्न स परिवार हे इन्द्र ! एहिर संवौषट् आह्वाननम् ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं
वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण वायु वाहन वधू चिह्न स परिवार हे इन्द्र ! तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न स परिवार हे इन्द्र ! मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ॥ ३ ॥
ॐ ह्रीं
स्वायुध वाहन वधू चिह्न स इदमर्थ्यं पाद्यं गन्धमतं गृह २ स्वाहा | अर्चनम् ।
स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण परिवार हे इन्द्र ! आत्म द्वारं रक्ष२ पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं
ॐ ह्रीं
यूँ
स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न स परिवार हे इन्द्र ! स्वस्थानं गच्छ२ जयः ३ विसर्जनम् ।
ॐ ह्रीं क्रों झन्यू रक्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न से परिवार हे अग्ने ! एहि एहि संवौषट् । [आह्वाननम् ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं क्रों झन्यू रक्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न स परिवार हे अग्ने ! तिष्ठ२ ठः ठः स्थापनम् ॥
४
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५०]
ज्वालामालिनी कल्प ।
ॐ ह्रीं क्रीं झल्यू रक्तवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे अग्ने ! मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ॥ ३ ॥
PIC
ॐ ह्रीं झयू रक्तवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे अग्ने ! आत्म द्वारं रक्ष२ इदमध्ये पाद्यं गंधमक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं गृहर स्वाहा || अर्चनम् ॥
ॐ ह्रीं वाहन बधू चिह्न ॥ विसर्जनम् ॥
M
न्यू रक्तवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध सपरिवार हे अग्ने ! स्वस्थानं गच्छ२ जः ३
ॐ ह्रीं क्रों झल्यू कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे यम! एहिर संवौषट् । आह्नाननम् । ॐ ह्रीं कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे यम ! तिष्ठर ठः ठः स्थापनम् ॥
ॐ ह्रीं क्रीं झल्यू कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न सपरिवार हे यम मम । सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ॥
ॐ ह्रीं क्रीं शल्यू कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे यम ! आत्मद्वारं रक्ष२ इदमर्घ्य
चतुर्थ परिच्छेद ।
पाद्यं गंमतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं गृह २ स्वाहा ॥ अर्चनम् ॥
ॐ ह्रीं क्रीं झब्यू' कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बघ चिह्न सपरिवार हे यम ! स्वस्थान गच्छर जः जः जः ॥ विसर्जनम् ॥
ॐ ह्रीं क्रों झयू हरिद्वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न सपरिवार हे नैऋते ! एहिर संवौषट्
आह्वाननम् ॥
ॐ ह्रीं क्रों झन्यू हरिद्वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चन्ह सपरिवार हे नैऋते ! तिष्टर ठः ठः स्थापनम्
ॐ ह्रीं क्रीं झल्यू हरिद्वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिन्ह सपरिवार हे नैऋते ! मम सन्निहितो भव भव सन्निधिकरणम् ॥
ॐ ह्रीं क्रों झल्यू हरिद्वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिन्ह सपरिवार हे नैऋते ! आत्म द्वारं रक्षर इदगंमतं पुष्पं दीषं धूपं चरुं बलिं फलं गृह २ स्वाहा "अर्चनम् " ॥ ॐ ह्रीं सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिन्ह सपरिवार हे नैऋते ! स्वस्थानं गच्छर जः जः मः ॥ विसर्जनम् ॥
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५
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॥ आह्वाननम् ॥
ET
आप
चतुथ पारच्छद। ज्वालामालिनी कल्प।
momimicoin
स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे वायो तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रों घन्च्यू झल्यूँ श्वेतवर्ण सव लक्षण संपूर्ण स्थापनम् । । स्वायुध वाहन बधू चिन्ह सपरिवार हे वरुण ! एहिर संवौषट् -
ॐ ह्रीं क्रों खल्ब्यू झन्व्यं कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण
स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे वायो मम सन्निहितो ॐ ह्रीं क्रों घल्व्यू झल्व्यू श्वेतवर्ण सर्व लक्षण भव२ वषट् । सन्निधिकरणम् । संपूर्ण स्वायुध वाहन बधू चिन्ह सपरिवार हे वरुण ! तिष्ठ२ ॐ ह्रीं को खल्ब्यू झन्व्यू कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण ठः ॥ स्थापनम् ॥
स्वायुध वाहन वध चिह्न सपरिवार हे वायो! आत्मद्वारं रक्षर : ॐ ह्रीं क्रों धन्व्यू झल्ब्यू श्वेत वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण इदमयं पाद्यं गंध मक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं
गृह्ण२ स्वाहा । अर्चनम् । स्वायुध वाहन वधू चिह्न सपरिवार हे वरुण ! मम सन्निहितो । भव भव वषट् । सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं क्रों खल्ब्यू झल्व्यू कृष्णवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण
स्वायुध बधूचिह्न सपरिवार हे वायो स्वस्थानं गच्छ२ जः ज: जः । हुक । ॐ ह्रीं क्रों धन्व्यू झन्व्यू श्वेत वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण
विसर्जनम् । स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे वरुण ! आत्मद्वारं रक्षर
ॐ ह्रीं क्रों छम्ल्यू झल्च्यूं समस्त वर्ण सर्व लक्षण इदमयं पायं गंधमक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चलं बलिं फलं
संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिन्ह सपरिवार हे धनद ! एहिर गृह्ण२ स्वाहा । अर्चनम् ।
म संवौषट् । आह्वाननम् । । ॐ ह्रीं क्रों धन्व्यू झल्ब्यू श्वेत व सर्व लक्षण संपूर्ण
ॐ ह्रीं क्रों छम्ल्व्यू झन्यू समस्त वर्ण सर्व लक्षण स्वायुध वाहन बधू चिह्न सपरिवार हे वरुण ! स्वस्थानं गच्छ२ संपूर्ण स्वायुध वाहन वध चिन्ह सपरिवार हे धनद ! तिष्ठ तिष्ठ जा जा जः। विसर्जनम्।
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ठाठः। स्थापनमः ।..... ॐ ह्रीं क्रो खन्यू झल्ब्यू कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण ॐ ह्रीं क्रों छम्ल्व्य झम्व्य समस्त वणे सर्व लक्षण स्वायुध वाहन वधू चिह्न सपरिवार हे ! वायो एहि२ संवौषट् ।। संपूर्ण खायुध वाहन बध चिन्ह सपरिवार हे धनद ! मम
सन्निहितो भव भव वषट् । सन्निधिकरणम् । ॐ ह्रीं क्रों खल्व्यू झल्व्यूं कृष्णवर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण
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ठाठः। स्थापनम् ।
आह्वाननम् । नाव
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ज्वालामालिनी कल्प,
H
EETLEMEReहरयः
ॐ ह्रीं क्रों छम्लव्य झम्ल्व्य समस्त वर्ण सब लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिन्ह सपरिवार हे धनद ! आत्मद्वार रक्ष२ इदमध्य पाद्यं गंधमक्ष पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं गृहर स्वाहा । अचनम् । .. HAP
ॐ ह्रौं को छम्लव्यं झम्लव्य समस्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिन्ह सपरिवार हे धनद ! स्वस्थान गच्छ२ जः जः जः । विसर्जनम् । 0
पाइप ॐ ह्रीं क्रों झम्व्यू श्वेत वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बधूचिन्ह सपरिवार हे ईशान ! एहि२ संवौषट् । आह्वाननम MEERUT
"ॐ ह्रीं क्रों झल्ब्यू श्वेत वर्ण सव लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन बध चिन्ह सपरिवार हे ईशान ! एहिर तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं क्रों इम्ल्यू श्वेत वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधू चिह्न सपरिवार हे ईशान ! मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् |
ॐ ह्रीं क्रों इम्ल्व्यं श्वेत वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध बाहन बधू चिह्न सपरिवार हे ईशान ! आत्म द्वारं रक्षर इदमध्ये पाद्यं गंधमक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चहें बलिं फलं गृह गृह स्वाहा । अचनम् ॥EDMETEpap
ॐ ह्रीं क्रो इम्ल्यू श्वेत वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध
चतुर्थ परिच्छेद ।
(५५ बाहन बधू चिह्न सपरिवार हे ईशान ! स्व स्थानं गच्छर जा जा जः ॥ विसर्जनम् ॥
सर्वतो भद्र मण्डल Itgi रेखात्रयेण परस्पराग्रविद्वेन पंचवर्णेन । . - चतुरस्त्रमष्टहस्तं सविस्तर मंडलं विलिखेत् ॥ १२ ॥
अर्थ-फिर एक आठ हाथके चौकोर विस्तृत मंडलको पांच वर्णकी तीन रेखाओंसे जिनका अग्र भाग आपसमें बिंधा हुआ हो बनावे ॥ १२॥ चतुसृषु दिक्षु द्वे द्वे रेखे दद्यात्तथार्द्ध परिमाणे । । एवं सति षट्कोण दिक्षु विदिक्ष्वपि च चत्वारः ॥ १३॥
अर्थ-चारों दिशाओंमें दोर रेखा आधे परिमाणमें बनावे, इस प्रकार दिशाओंमें छह कोठे और विदिशाओंमें च्यार हो जावेंगे ॥ १३ ॥ अभ्यन्तराष्ट दिग्गत कोष्टेष्वथ मातृका गणं विलिखेत् । स सनयास्यायुध सहिता प्रतियः शेष कोष्टेषु ॥ १४ ॥
अर्थ-विदिशाओंके अंदरके आठ कोठोंमें मातृका गण उनके आसन सहित लिखे और शेष कोठोंमें उनके प्रतिहारोंको लिखे ॥ १४ ॥ Sine अभिणा मा
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SEaru
चतुथ पारच्छद ।
LI चक्र, वाराहीके शक्ति, और पाश ऐंद्रीका बन, चामुण्डाके कपाल और बत्ती, और महालक्ष्मीका परशु अस्त्र है॥१८॥
आठ दंडकरी देवियां मिटर तत्प्रतिहाय्य विजया विजयाप्य जिता अपराजिता गौरी। गांधारी राक्षस्यथ मनोहरी चेती दंडकराः ॥ १९॥
अर्थ-उनके पीछे चलनेवाली क्रमसे जया, विजया, अजिता, अपराजिता, गौरी, गांधारी, राक्षसी और मनोहरी, दण्ड करनेवाली हैं ॥ १९ ॥
१६ _ज्वालामा दिनी कल्प। वा व अष्ट मात्रका गणोंका वर्णन ब्रह्माणी माहेश्वर्यथ कौमारि वैष्णवी च वाराही। एंद्री चामुंडा च महालक्ष्मी मातृका श्वेताः ॥१५॥
अर्थ-ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, ऐंद्री, चामुंडी, और महालक्ष्मी, ये मात्रका गण हैं।
वर पचराग शशिधर विद्रुम नीलोत्पलेन्द्र नौल महा। Lकुलशैल राज बालार्क हंस वर्णः क्रमेणताः ॥ १६ ॥
२. अर्थ-इनके रंग क्रमसे सुन्दर, पद्मराग (लाल), चंद्रमा, मूंगा, नीलकमल, इंद्र ने लमणि, सुमेरुपर्वत, बालसूर्या और हंस हैं। अर्थात प्रत्येक देवको क्रमसे इनके समान रंगवाली बनावे॥ नौरजवृषभमयरा गरुडवराहगजस्तथा प्रेतःnmot मृषक इत्येतासां प्रोक्तानि सुबाहनानि बुधैः ॥ १७ ॥
अर्थ-पंडितोंने इनके बाहन क्रमसे कमल, बैल, मोर, गरुड, वराह, ऐरावत, प्रेत, और चूहा बतलाये हैं ॥ १७॥ भकमलकलशौ त्रिशूलं फलवरदकशौच चक्रमथ शक्तिः । "पाशौ बज्र च कपालबर्तिके परशुरस्त्राणि ॥ १८ ॥
अर्थ-इनमेंसे ब्रह्माके कमल और कलश, माहेश्वरीका त्रिशल, कौमारीके फल और वरको देनेवाला कोडा, वैष्णवीका
बाह्याष्ट दिशवथ कोष्टे बिंद्रादि लोकपालांस्तान् । मिजवाहनानिरूढान् स्वायुधवर्णानितान् विलिखेत् ॥ २० ॥
अर्थ-अब दिशाओं के बाहर आठ कोठोंमें उन इंद्रादि लोकपालोंके अपने२ बाहन पर चढे हुए शस्त्र और वर्ण सहित लिखे ॥ २०॥ARETTE तदुभय पार्थाथ स्थित दिष्टित कोप्टेविंद्रादि लोकपालानां । मेघ महामेघ ज्वाल लोल कालस्थितनीलः ॥ २१ ॥
अर्थ-उन इन्द्र आदि लोकपालोंके कोठेसे ही उनके दोनों तरफसे दो दो प्रतिहारोंको बनाये जो क्रमसे इस प्रकार हैं ॥ २१ ॥
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ज्वालामालिनी कल्प। Angr-m सोलह प्रतिहार
मेष १, महामेघ २, ज्वाल ३, लोल ४, काल ५, स्थित ६, अनील ७,
रौद्रातिरौद्र सजला जल हिमका हिमाचलस्तथा लुलितः । द्वौ द्वौ च महाकालौ नंदीति लिखेत् प्रतिहारौ ॥ २२ ॥
अर्थ–रौद्र ८, (महारौद्र) अतिरौद्र ९, सजल १०, अजल ११, हिमका १२, हिमाचल १३, लुलित १४, महा-- काल १५, और नन्दी १६ ॥ इन प्रतिहारोंको लिखे ॥२२॥
बहिरप्यु दधि चतुष्कं पुनरुपरि सु पुष्पं मंडपं रचयेत् । तोरण माला दप्पेण घंटा ध्वज विरचनं कुर्यात् ॥ २३ ॥
अर्थ-बाहिर चारों समुद्र फिर ऊपर फूलोंके मंडप बनावे, और उसको तोरण, माला, दर्पण, घंटा और ध्वजाओंसे सजावे ॥ २३ ॥ वरबीज पूर मलयजकुसुमाक्षतचर्चितान् धवल वर्णान् । कोणस्थ मूशल मृद्ध सुपूर्ण घटान् स्थापयेद्विधिना ॥२४॥
अर्थ-फिर सुन्दर बीज चंदन पुष्प और अक्षतसे पूजे हुए धवल वण के मुख तक भरे हुए घड़ोंको उनके ऊपर मुशल । रखकर कोनों में रखकर उनकी विधि पूर्वक स्थापना करे ॥२४॥
मंडलमध्ये भूतं विलिव्य संस्थाप्य मृण्मयं चान्यत् । मंडलमध्येप्याग्नेया कोणेष्ठनु क्रमशः ॥ २५ ॥
चतुथ पाउछन् । अर्थ-मंडलके बीचमें दूसरे मिट्टीके जने हुए भूतको लिखकर मंडलके बीचमें आग्नेय आदि कोणोंमें क्रमशः ।। कुर्यास्त्रकोण कंडं कमल्लिका कटहा वृत कण्डानि ।
खदिगंगारक तैल सुपानीयांगार पूर्णानि ॥ २६ ॥ Ir अर्थ-तीन कोणेवाले कुण्ड बनावे और कुण्डोंके चारों ओर कमल्लिका और कडाही रक्खी हों, और वह खैरके. अंबारों. तेल जल और अंगारोंसे पूर्ण हो ॥२६॥
१०२ : इस यंत्रका उपयोग ग्रह नाम रकार वृतं पत्रोपरिलिख्य निक्षिपे हृदये। पिष्ट घटितस्य सिक्थक मयस्य वा भूत रूपस्य ।। २७ ॥
अर्थ-फिर पत्ते पर ग्रहका नाम अमत रूपवाले पिसे हुए मोमसे लिखकर और उसके च्यारों और रकार लिखकर उसे बनाये हुए कुण्डके अपूर्व बोचमें रक्खे ॥ २७ ॥
अन्यच्च ग्रह रूपं पत्रे च पटे पृथक् समालिख्य । रूपस्य सत्य संधिषु रकार पिंडं लिखेन्मांतमान् ॥ २८ ॥
अर्थ-फिर ग्रहके दूसरे रूपको पत्ते और वस्त्र पर पृथकर लिखकर बुद्धिमान् पुरुष उसकी संधियोंमें, रकार, बीज पिण्ड पुरुषको लिखे ॥ २८ ॥
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५०।
ज्वाला कल्प
कुण्डे प्रपूरयेतां कमल्लिकायां पचेच पुतलिकां । पत्र कटि परिघटयेत्पटं तापयेत्कुण्डं ॥ २९ ॥
अर्थ-- फिर कुण्डमें कमल्लिकाको डालकर उस पुतलीको पकावे और पत्तेको कढाही में घोटे तथा वस्त्रको कुण्डमें गरम करे ।
सतत मथ होम मंत्र प्रपठन्निति निग्रहेषु विहतेषु । दाधोऽस्मि मारितोऽहं हतोऽहमिति रोदिति कठोरं ॥ ३० ॥
अर्थ — इसके पश्चात् निरन्तर होमके मंत्र पढ़ता हुआ इस प्रकार निग्रह किये जानेपर ग्रह "मैं जला, खूब चोट लगती है, मैं मरा" कहकर खूब रोता है
1
प्रवेग सप्तदिवसान् त्रीन्वा लोके प्रसिद्ध लाभार्थं । प्रविनत ग्रहंडला द्विनास्वेच्छाया मंत्री ॥ ३१ ॥
अर्थ - पहिले सात दिन या ठीक तीन दिन लोकमें प्रसिद्ध और लाभ पानेके लिये मंत्री पुरुष ग्रहको खूब नचावे ॥ ३१ ॥
पञ्चात्सप्तमदिवसे तृतीय दिवसे दिवा महत्यस्मिन् । fafe नैव स तोभद्र मंडले नर्तयित्वा तं ॥ ३२ ॥
अर्थ- फिर सातवें दिन या तीसरे दिन उसको सर्वतोभद्र मंडल में विधिपूत्र के नचाकर ।
चतुर्थ परिच्छेद ।
कृष्णाष्टम्या मथ तद्भूत तिथौ वा कुजांशाभ्युदये । दुष्ट ग्रहमशुभग्रह लग्ने प्रविसज्ज' ये तज्ज्ञः ॥ ३३ ॥
| ६१
अर्थ — कृष्णपक्षकी अष्टमीको या उस भूतकी तिथिको अथवा मंगलके निकलने पर उस दुष्ट ग्रहको अशुभ ग्रह और अशुभ में छोड़े || ३३ ॥
समय मण्डल
विलाष्ट दल पद्म' विलिख वाहेस्य पंच वर्णेन । चूर्णेन चतुः कोणं विस्तीर्ण मंडल विलिखेत् ॥ ३४ ॥
43.P.
अर्थ-- फिर बडे आठ दलवाले कमलको लिख उस पंच वर्णके चूर्ण से चौकोर बडा मंडल बनावे ॥ ३४ ॥
हरिण वराह तुरं गमगजवृष महिष रममार्जार मुखं । फल वरद हंस युक्त सालंकार सुलक्षण नारीणां ॥ ३५ ॥
अर्थ — फिर, हरिण, वराह, तुरंग, गज, वृष, महिष, करभ (ऊंट), और मार्जारके मुख, तथा फल, और वरको देनेवाले हंससे युक्त अलंकार सहित स्त्रियोंके सुलक्षण ||||३५||
पूर्वाद्यष्ट सु पत्रेष्वनुक्रमात्सुन्दरं लिखेद्रपं । तन्मध्ये षट्कोणं शिखि भवनं शिखिमालिख्य ॥ ३६ ॥
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ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ पूर्व आदि आठों दलोंपर सुन्दर रूपसे लिखे. उसके बीच में छह कोनवाला मोरका भवन बनाकर उसमें मोर बनावे ॥ ३६॥ ऊध्वोऽधोरेफयुक्त यां यी यू यों तथैव यं यः सहितं । पूवादि कोष्ठ मध्ये विलिख्य वाम तदग्रेषु ॥ ३७॥
अर्थ-ऊपर नीचे रेफयुक्त यां यी यं यौं यं यः बीजोंको उनके पूर्व दिशासे आरंभ करवाई ओरको लिखे ॥ ३७॥ षट्कोण भुवन मध्ये य्यू तत्कोष्ठांतरेष्वपि लिखेच्च । समयं ग्रहितव्यो ग्रहः स्फुटं समयमंडलाऽख्येऽस्मिन् ॥३८॥
अर्थ-षटकोण भुवनके भीतर और उस कोठेके भीतर भी व्य' लिखे, यह ही समय ग्रहको पकड़नेका है। अतएव यह समय मंडल है ॥ ३८॥ ) ' रेखा त्रयेण सम्यक् चतुरस्र पंच वर्ण चूर्णेन । -प्राग्वद्विलिख्य मंडलमथ तन्मध्ये शिवं विलिखेत् ॥३९॥
सत्य मण्डल अर्थ-तीन रेखाओंसे पहलेके समान पांच वर्ण के चर्णसे चौकोर मंडल बनाकर उसके बीचमें शिव लिखे ॥ ३९॥। ....
चतुर्थ परिच्छेद।
। ६३ तत्राभ्यन्तर दिग्गत कोठेषु जयादि देवता विलिखेत् । गौर्यादि देवतास्ता श्वेशानाद्येषु कोष्ठेषु ॥ ४० ॥
अर्थ-उसके अंदरके कोठोंमें जयादि देवियोंको लिखे, और ईशान आदि कोठोंमें गौरी आदि देवियोंको लिखे ॥४०॥ आद्या जयाथ विजया तथाऽजितावाऽपराजिता गौरी । गांधारी राक्षस्यथ मनोहरी चेति देव्यस्ताः ॥४१॥
अर्थ-उनमें पहले जया, फिर विजया, फिर अजिता, फिर अपराजिता, फिर गौरी, फिर गांधारी, फिर राक्षसी, और अंतमें मनोहरी देवीको लिखे ॥ ४१ ॥ बाह्येशान दिशि स्थित कोष्ठादिषु कोष्ठकेषु कादीन् विलिखेत् । सत्याख्यमंडलेऽस्मिन् शापयितव्यो ग्रहः सत्यं ॥ ४२ ॥
अर्थ-बाहर ईशान आदि दिशाओंके कोठोंमें कोष्टकके अंदर क आदिको लिखे, इस सत्य नामवाले मंडल में ग्रह अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं ॥ ४२ ॥ इन्द्रादि लोकपालान् मंडल पूर्बादि दिक्षुसंविलिखेत् । मध्येचाह प्रतिमा मन्योन्यारीन्मृगान् परितः ॥ ४३ ॥
अर्थ-इन्द्र आदि लोकपालोंको मण्डलकी पूर्व आदि दिशाओंमें लिखे । मध्यमें श्री भगवान अहंत देवकी प्रतिमा
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HomewomanARANIHING
पंचम परिच्छेद । [६० ले , पंचम परिच्छेद म मा
भूता कम्पन तैल
वालामालिनी कल्प। लिखी हो, जिसके चारों ओर परस्पर विरोधी पशु हों ॥४३॥
एतक्रियावसाने प्रदर्शयेत्समवशरण मंडलमतुलं । नत्वा स्तुत्वा रं प्रविहाय सयाति दृष्ट्वेदं ॥ ४४ ॥
अर्थ-इस क्रियाके पश्चात् अतुलनीय समवशरण मंडलको बनाकर दिखावे, वह ग्रह इसको देखकर नमस्कार तथा तथा स्तुति करके बैरको छोडकर चला जाता है ॥४४॥ इतिश्री हेलाचार्य प्रणीत अर्थमें श्रीमान् इन्द्रनषि मुनि विरचित एप्रन्धमें चालामालिनी कल्पकी, काव्य साहित्य दीर्थाचार्य।
प्राच्य विद्यावारिधि श्री चन्द्रशेखर शाखो कृतः भाषाटीकामें "मंडलाधिकार" नामक चतुर्थ फल
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३ ॥er 1
प्रतिक शुक तुण्डिका खलु शुक
" तुण्डिकाक तुण्डिका चैव ।। सितकिणि हिकाश्व गंधा
भूकष्मांडिंद वारुणिका ॥१॥ अर्थ-पूतिक शुक तुण्डिका काक तुण्डिका सफेद किणिहिका अश्वगंधा भू कूष्मांडि इंद्र वारुणी । कर पूति दमनोग्रगंधा श्रीपयंसकंध कुटज कुकरंजाः।। गो शृङ्गिशृङ्गिनाग सर्प विषमुष्टिकां जीराः ॥२॥
अर्थ-पूति दमन उग्रगंधा श्रीपर्णी असगंध कुटज कुकरंजा गोशूगि शूगिनाग सर्पविष मुष्टिक अंजीर। नाली रुचक्रांगी खरकणी गोक्षुरश्च विष नकुली । कनक वराह्यं कोल्ला अस्थि प्रमश्च लञ्जरिका ॥ ३ ॥
अर्थ-नीलीरुत् चक्रांगी खरकी गोखरू नवलेका विष कनक वराही अंकोल अस्थि प्रभ लञ्जरिका ॥३॥
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ज्वालामालिनी कल्प।
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पाटल काम मदन तरूबिभीत तरूरपि च काकजंघा च । बंध्या, च देव दारु च बृहती हि तयं च सहदेवी ॥४॥
अर्थभगपुष्पि, नागकेशर, शलनखी, पुत्रजीवी, शीहु, एरण्ड, तुलसी, सध्या अपामार्ग। करि करम कर विचूर्णित वृषणाक्षच्छागमूत्रमिश्रेण। तचम्मकारकुन्डांबुनौषधं पेषयेत्सर्व ॥९॥EEP
अर्थ-और गजमद, इन सबका चूर्ण करके बैल और बकरेके मतमें मिलावे । तथा उन सब औषधियोंको चमारके कुन्डके पानीसे पीसे ॥ ९॥ कृत्वा द्विभाग मेकां न्यस्य क्वार्थ प्रगृह्यते मूत्रः। अर्धावत काथे द्वितीय मालोडयेद्भागं ॥ १०॥
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अर्थ-पाटलिका, काम, मदनतरु, भिलावा, काकजंघा, बन्ध्या , देवदारु, बृहती, सहदेवी ।
गिरिकर्णिका च मदिमल्लिका शैलाके हस्तिकर्णाश्च । *स्तुनिम्ब महानिम्बौ शिरीष लोकेश्वरी दान्याः ॥५॥
अर्था-गिरिकर्णिका, नदिमल्लिका, अर्कशैल, हस्तिकर्णी, नीम, महानीम, सिरस, लोकेश्वरी, दान्य । पारितरु महावृक्षो कड़क हारोपयोगिमूलानि । सितक रक्तजपाददिब्राह्मे द्वय कोकि लाक्षश्च ॥६॥
अर्थ-पारिवृक्ष, महावृक्ष, कटक हार, उपयोगि मूल; सफेद और लाल, जपादंदि और ब्रह्मी, कोकिलाक्ष ॥७-६॥
भृगश्च देवदालिकटुकम्पनी सिंहकेशरं चैव।। घोषालिका भक्तौ यति सुन्यतिमुक्तक लताश्च ॥ ७॥
अर्थ-मृग. देवदालि, कटुकंबी, सिंहकेशकर, घोषालिका, अकभक्ति, पतिलता, मुनिलता, अतिमुक्तकलता। भगपुष्पि नागकेशर शार्दूलनखी च पुत्रजीवी च । शीग्र हु तथैरण्ड स्तुलसी सध्यापमाया श्च ॥८॥
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"- अर्थ--उसके दो भाग करके एक भागका काथ मृत्रके साथ तैयार करे, और आधे क्वाथ में दूसरे भागको डबोवे ॥१०॥ केगु करुंजे रंडा कोल्लविभीत द्विनिंब तिल तैलें। सम भागेन गृहीतं क्वाथेनसह क्षिपेक्वाथे॥११॥
अर्थ-कंगु, करंज, एरंड, अंकोल मिलावे. निंब और तिलके तेलको बराबर लेकर क्वाथके साथ काथमें ही डाल दे ॥ ११॥
भूत गृहे भूत दिने भूत महिजात मंडपपाधः । कुजमारे भौमांशाभ्युदये प्रारभ्यते पक्तुं ॥ १२ ॥
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६८]
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ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ-और भूतके घरमें भूतके दिन भूतकी पृथ्वी पर मंडपके नीचे मङ्गल और बुधके अंशके निकलने पर पकाना आरम्भ करे ॥१२॥ कार्यासकांस गोमय रविकर वितिपतित वहिना सम्यक् । खदिर करना शमी निंब समिद्भिः पचेवद्वहुद्भिः॥१३॥
अर्थ-उस क्वाथको सूर्य की किरणोंसे दी हुई अग्निसे कपास, कांस, गोबर, खैर, करंज, आक, शमी और नीमकी लकड़ीसे अच्छी तरह पकावे ॥ १३ ॥ क्षिप ॐ स्वाहा बीजः सकलीकरणं विधाय निजदेहे। तैरेव बीजमंत्रः पक्तुः सकलीक्रियां कुर्यात् ॥ १४ ॥
अर्थ-क्षिपॐ स्वाहा' इन बीजोंसे अपने सकलीकरण । "करके उन्हीं बीज मंत्रोंसे पकानेकी सब क्रिया करें ॥ १४ ॥ तत्सर्वधान्यसम्पलवण घृतैरिंधनान्वितै थुन्यां। आपाकांतं मंत्री होमं कुर्यात् स होममंत्रेण ॥ १५ ॥
अर्थमंत्री पुरुष उस तेलके पकने तक होमके मंत्रोंसे सब धान्य सरसों नमक और घीको कुण्डमें डालर कर होम । करता रहे ॥ १५॥ नीरसभावं गत्वा काथोद स्थल गतो यथा भवति।। भूताकंपनतैलं मृदुपाकगतं तथा सिद्धं ॥१६॥
पंचम परिच्छेद ।
[६९ अर्थ---जब यह काथ निरस होकर जमीन पर रखने जैसा हो जावे, तौ वह मृदु पाकसे बनाया हुआ भूता कम्पन तैल सिद्ध हो जाता है ।। १६॥ भोर हिंगुर्मणिद्धिछलैला हरिताल पलत्रिक कटु त्रितयं । रजनी द्वितीयं सर्पप लशुनं रुद्राक्ष दान्य वचाः ॥ १७ ॥
" अर्थ-हींग, मनसील, इलायची, हरताल, तीन परिमाण पल और त्रिकुट (सोंठ पीपहलका मिर्च) दोनों रजनी (हन्दी) सरसों, लहसुन, रुद्राक्ष, दान्य और बच ॥ १७ ॥
अजमोद लवण पंचकमरिष्ट फलमुदधिफलमथ त्रिवृता । एतानि प्रतिपाकं संदद्यादुतारि तैलेन ॥ १८॥
अर्थ-अजमोद, पांचों नमक, अरिष्टफल, समुद्र फल तथा त्रिवृता इन वस्तुओंको प्रत्येक पाकके साथ तेलमें मिलावे ॥ १८ ॥
पश्चात् खङ्गै रावण विद्या मंत्रेण मंत्रयेन्मंत्री। दश शत वारानेवं विधिनातैः सुसिद्धं स्यात् ॥ १९॥
अर्थ-फिर मंत्री पुरुष उस तेलको खङ्गै रावण विद्या मंत्रसे एक सहस्रवार विधिपूर्वक अभिमंत्रित करै ॥१९॥
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ज्वालामाडिमी कल्प। शाकिन्योऽप स्माराः पिशाचभूतग्रहाच नश्यन्ति । निविषतां यातिविषं तैलस्यामुल्यनस्येन-॥ २०॥ ८२
अर्थ-इस विष तैलकी सुगन्धीसे ही शाकिनी, अपस्मार, पिशाच, भूत और अन्य ग्रह निर्विष हो जाते हैं ॥२०॥ इतिश्री हेलाचार्य प्रणीत अर्थ में श्रीमान् इन्द्रनन्दि मुनि विरचित प्रन्थमें ज्वालामालिनी कल्पकी, प्राच्य विद्यावारिधि काव्य साहित्य तीर्वाचार्य श्री चन्द्रशेखर शास्त्री कृत भाषाटीकामें "भूता कम्पन तेलविधिनामक
पंचम परिच्छेद समाप्त हुला ॥३॥
अथ षष्टमा परिच्छेद
सर्व रक्षा यन्त्र नामावेष्ट्यसकार सान्तल पर ग्लौं युग्म पूर्णदुभिः दिव्य क्ष्माक्षरमस्तकै परिवृतं कोणस्थरान्त वृत्त। बाह्ये षोडश पत्र पद्ममथ तत्पत्रेषु देया स्वराः। काणक्ष्माक्षरादग्गतन्द्र सहितं बाह्येच भमंडलं,
। अर्थ-एक सोलह दलवाला कमल बनाया जावे, उसके प्रत्येक पत्रके ऊपर स्वरोंको लिखना चाहिये। उस कमलके बाहर पत्तोंके कोणों में क्रमसे निम्नलिखित बीज लगाने चाहिये। ___ अ, ए, क, च, त, प, य, श, ह्री, ग्लौं, ग्लों, र पल और स उसकी कणिकामें नामको स. ह. व. ग्लौं ग्लौ और पूर्णचन्द्रसे वेष्टित करे, और सबके बाहर पृथ्वी मंडल बनावे ॥१॥ एतत्तु सर्वरक्षा यंत्रं लिखितं सुगन्धिभिद्र व्यैः । अपहरति रोगपीड़ामपमृत्यु ग्रह पिशाच भयं ॥ २ ॥
अर्थ-यह सर्व रक्षा यन्त्र है। सुगन्धित द्रव्योंसे लिखा जाने पर रोगकी पीडा, अप मृत्यु, भय ग्रह और पिशाचको दूर करता है ॥२॥
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वालामाकिनी कल्प |
यह रक्षक पुत्रदायक यंत्र
अदर हकार कूट सकल स्वर वेष्टितं सत्प्रणम भू । भूमंडल वेष्टितं समभि लिख्य निवेप्सित नाम तद् वहिः ॥ षोडश सत्कलान्वित वकार वृतं शशि मंडला वृतं स्वरयुत यांत वेष्ट्य मिन बिम्बवृतं स्वरयुक्तयावृतं ॥ ३॥
अर्थ-अ द उ ह क्ष सब स्वर और ओं को मंडलाकार लिख उसके अन्दर नाम लिखे -- फिर एक भूमंडल में सोलह स्वरोंको लिखकर उसके चारों ओर वं बीजका मंडल बनावे ॥ ३
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अष्ट दलांबुजं प्रतिदल द्विकलोद्य जमाशका नमः । पाश गजेंद्र बरा होम पदांत सुमंत्र मालिखेत् ॥
जल निधि सप्तकं बहिरपि स्वर युक्त । यकार वेष्टितं पवन त्रितयेन वेष्टितं ॥ ४ ॥
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अर्थ — उसके चारों ओर अष्ट दल कमलका बनाकर प्रत्येक दल में । नमः स्वाहा "
ॐ
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मंत्र लिखकर उसको चारों ओर सात के मंडल उसके बाहर स्वर सहित य कार और उसके बाहर तीन यं के मंडल हों ॥ ४ ॥
षष्टम परिच्छेद
मंत्र मृत्यु जितायं विलिखितं सत्कुकुमाद्यैरिदं । यो से निजकंठबाहुबसने तस्यैह नस्याद् भयं ॥ ..कुठारी भमृत वारिधि नदी चोरापमृत्युद् भवं । रक्षत्या युध शाकिनी ग्रह गणाद बंध्यास्त्रयः पुत्रदं ॥ ५ ॥
अर्थ — जो व्यक्ति इस मृत्युके जीतनेवाले यन्त्रको कुंकुम आदिसे लिखकर कंठ या सुजामें धारण करता है, उसको कुठार, हस्ती, समुद्र, नदी, चोर और अप मृत्युसे होनेवाला भय कभी नहीं होता । यह यन्त्र बंध्या स्त्रीको पुत्र | देनेवाला है। और शस्त्र शाकिनी तथा ग्रह समूहसे रक्षा करता है ॥ ५
वश्य यन्त्र
षांत हकार लांत परिवेष्टित नाम वृतं त्रिमूर्तिना । प्रवर किरातनाम वलयं द्विगुणाष्ट दलांबुजं वहिः || षोडश सत्कला लिखित दलेषु शिरो रहिते खरावृतं । हरपि च त्रिमूर्ति परिवेष्टितमजाधिक वर्ण वेष्टितं ।। ६ ।।
अर्थ-- एक सोलह दल कमलकी कर्णिकामें स, ह, व, कीं, इन चार बीजोंसे घिरा हुआ नाम लिखकर सोलह दलोंमें बिना शिरवाली. सोला कलाएं लिखकर बाहर भी एक मंडल में सोलहों स्वर और उसके बाहर ह्रीं लिखकर के, क्रों से वेष्टित करे ॥ ६ ॥
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ज्वालामानिकप
कुंकुम कर्पूरा गुरु मृग मद रोचनादि मिय्यमिदं । परिलिख्य पत्रे समर्चयेत्सर्वं वश्यकरं ॥ ७ ॥
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अर्थ — इस यंत्र को भोजपत्र पर कंकुम, कपूर, अगर, कस्तूरी और गौरोचन आदिसे लिखकर पूजा करें तो सब वशमें हों ॥ ७ ॥
मोहन वश्य यंत्र
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हरि गर्भ स्थित नाम तत्परिवृतं रुद्रत्रिमूर्त्या हतः । पुटितं से नवकार संगतं वेष्टयन्तु टान्त स्वरैः ॥ बहिरशंबुज पत्र केष्व यजया जंभादि सम्बोधनं । बिलिखेन्मोहय मोहया मुकनरं वश्यं कुरुद्विर्व्वषट् ॥ ७ ॥
अर्थ -- एक अष्टदल कमलकी कर्णिकामें नामको ई ई ई सव व और ठसे घेर कर उसके चारों ओर गोलाकार में सोलहों स्वर लिखे फिर बाहर पत्रोंमें पूर्वादिक्रम आठों निम्नलिखित आठ मंत्र लिखे
अये जये मोहय मोहय अमुकं नरं वश्यं कुरु कुरु वषट् अये जंभे मोहय मोहय अमुकं नरं
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अये विजये मोहय मोहय
अये मोहे मोहय मोहय
अये अजिते मोहय मोहय
अये स्तम्भे मोहय मोहय
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19 19
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षष्टमपरिच्छेद
अये अपराजिते मोहय मोहय अमुकं नरं वश्य कुरु कुरु वपट् । अये स्तंभनि मोहय मोहय
पत्राय मतं तदन्तरगतं ह्रीं ह्रीं च बाधे लिखे
पुनरुक्त मंत्र बलयं श्रीं श्रः पदं तद् वहिः । यंत्र मोहन as संज्ञकमिदं भ्रूज्जे विलिख्यार्थ येत् धतूरस्य रसेन मिश्र सुरभि द्रव्ये भवेन्मोहनं ॥ ९ ॥
अर्थ-पत्रको कोनेमें अंदरकी ओर कों और बाहर दोनों ओर ह्रीं ह्रीं लिखकर गोल मण्डल बनाकर उसमें "श्रां श्रीं श्रीं श्रीं श्रः" बीजोंको लिखे। इस मोहन वश्य नामके यंत्रको भोजपत्र पर धतूरके रस और सुगन्धित द्रव्योंसे लिखनेसे मोहन होता है ॥ ९ ॥
स्त्री आकर्षण यंत्र
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ह्रीं मध्यस्थित नाम दिक्षु विलिखेत् तद्वि दिक्षुप्यजं । बाह्ये स्वस्तिक लांछन शिखि पुरं रेफे बहिः प्रावृतं ॥ तद् वाशिपु त्रिमूर्तिवलयं वन्देः पुरं पावकैः । is a fष्टतम मंडल मतस्त द्वेष्टितं चांकुशैः ॥ १० ॥ अर्थ - एक स्वस्तिकका चिह्न बनाकर उसकी दिशाओं में ह्रीं के मध्य नाम और विदिशाओं में क्रों लिखे, उसके चारों ओर तीन अनि मण्डल रं सहित बनाने। इसके पश्चात् तीन वायु मण्डल यं बीजसे बनाकर यंत्रका क्रों से निरोध कर दे ॥ १०
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माबिनी कल्प
बाह्ये पावका मण्डलं वर युतं मंत्रेण देव्यास्ततो । be वायूनांत्रितयेन वेष्टनमिदं यंत्रं जगत्युत्तमं ॥
श्री खंडा गुरु कू कुमाद्र महिषी कर्पूर गौरोचना । कस्तूर्यादिभिरुदध लिखितं कुर्य्यात्सदा कर्षणं ॥ ११ ॥
अर्थ - इस यन्त्रको भोजपत्र पर श्री खण्ड अगर और कुंकुम आदि महिषी, कपूर, गौरोचन और कस्तूरी आदि से लिखने पर सदा आकर्षण होता है ॥ ११ ॥
लाक्षा पांशु सुसिद्ध सत्प्रति कृती कृत्वा हृदीदं तपोयंत्र स्थापय नाम पत्र सहितं लाक्षां प्रपूर्य्यादरे । मीत्वा योनि ललाट हृत्सुपर पुष्ट क्षस्य सत्कंटकः, रेकi कुण्डतले निखन्य परांबद्धाग्नि कुण्डोपरि ॥ १२ ॥
अर्थ- इस यन्त्रको सिद्ध करनेके वास्ते अपनी इच्छित की दो मूर्तियां लाखकी बनवावे। उस मूर्ति में योनि, मस्तक, हृदय, ओष्ट आदि स्पष्ट रूपसे खुदे हुए हों, फिर उपरोक्त यन्त्रको उन मूर्तियोंके हृदयमें रखकर एक मूर्तिको कुण्ड के नीचे गाडकर दूसरीको कुण्डके ऊपर बांधकर रक्खे || १२ || - लाक्षा गुग्गुल राजिका तिल घृतैः पात्रस्थ नामान्वितैः । संयुक्त लेवणेन तत्सति युक्तः संध्या सु साष्टं शतं ॥ मंत्रेणान् दैवतस्य जुहु वादा सप्तरात्रा tuos रिन्द्राणी मपि चानयेत् क्षितिगत त्रयाकर्षणे का कथा ॥ १३॥
चतुर्थपरिच्छेद ।
अर्थ - और लाख, गुग्गुल, सफेद सरसों, तिल, घी, और नमकसे, संध्या समय पात्रके नामके पीछे स्वाहा लगा लगाकर सात रात्रि तक होम करे, ऐसा करनेसे इन्द्राणी तकका भी पृथ्वीपर आकर्षण होता है। स्त्रीके आकर्षणकी तो क्या बात है ।। १३ ।।
दिव्य गति सेना जिह्वा और क्रोधस्तंभन यंत्र
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नामा लिख्य प्रतीतं कपरपुट गतं टांतवेष्टय चतुर्भिः बज्र विद्धं चतं कुलिशविवारगं वामबीजं तदग्रे ॥ बज्र' चान्योन्यविद्धं परिलिखबहिविष्णुना त्रिः परीतं । ज्योतिश्रांद्रबिंदु हरि कमल जयोः स्तम्भ बिंदुर्लकारे ॥ १४
अर्थ -- नाम को, ख, की पुटमें लिखकर उसको वज्राकार रेखाओंसे बींधकर वज्रके छेदोंके सामने ॐ, बीज लिखे और मध्य में लं लिखे । परस्पर बिंधे हुये इस वज्रके मंडलके ऊपर साथ खां, है.
और ग्लै, बीज भी लिख दे ॥ १४ ॥
तालेन शिला संपुट लिखितं परिवेष्टच पीत सूत्रेण । दिव्य गति सैन्य जिह्वा क्रोधं स्तंभयति कृत पूजं ॥ १५ ॥
अर्थ- इस यंत्र को तालसे दो शिलाओं पर लिखकर दोनों यंत्रोंका मुख मिलाकर पीले धागेसे लपेटे और पूजा करनेसे ! दिव्य गति सेना जिह्वा और क्रोधका स्तंभन होता है ॥ १५॥
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सनी कप
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स्तंभन यंत्र बज्राकाराग्रेरेखानवककृतचतुःपष्टिकोष्टान् लिखित्वा ।
बा बिंदु त्रिदेहं तदनुलिखितदंतश्च लीन्तस्य वान्तः ॥
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-ग्लौं दद्यान्नाम गर्म कुलिशयुगल विद्वततस्त 'द्वि दिक्षु । रान्तं वज्रान्तराले वलय तिमथत त्स्वेन मंत्रेण बाह्ये ॥ १६ ॥ SKE
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अर्थ- बज्राकार रेखाओंके प्रत्येक ओर आठ२ कोठे बनाकर कुल चौंसठ कोठे बनावे। उनमेंसे प्रथम चारों ओर ॐ फिर ह्रीं फिर लीं और फिर भ लिखकर बीच स्थानमें दो बच्चों से बिंधे हुए नामको ग्लौंके अंदर बनाये । और उसकी विदिशाओं में ल लिख देवे। समस्त यंत्रके चारों ओर बाहर निम्न लिखित मंत्र लिख दे ॥ १६ ॥
आवेष्टन मंत्र
"ॐ बज्रक्रोधाय ज्वलर ज्वालामालिनि ह्रीं झीं ब्लें द्रां श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रः देवदत्तस्य क्रोधं गतिं मतिं जिह्वांच हनर दहर पचर विध्वंसय २ उत्कृष्ट क्रोधाय स्वाहा ।" यंत्रभिदं भुवि पलके कुडचे भू विलिख्य तालेन । मंत्रेण पूजितं सत्कुर्य्यादयेप्सितं स्तंभं ॥ १७ ॥
अर्थ- इस यन्त्रको पृथ्वीपर कुड्य पर अथवा भोज पत्र पर ताल से लिखे। और मंत्रसे पूजन करनेसे इच्छानुसार स्तंभन होता है ॥ १७ ॥
षष्टम परिच्छेद ।
जिह्वा स्तम्भन यन्त्र नानः कोणेषु दत्वा ल मय परिवृतं वार्धिना बिंदु नाव्व । लं, बीजे ष्टितं तत्कुलिश वलयितं वेष्टितं व त्रयेण ॥ भूर्जे गौरोचना कुंकुम लिखितमतः कुम्भकाराग्रहस्तान् । मृत्स्नामादाय कृत्वा कृतिमयतदचत्रमास्ये निधाय ॥ १८ ॥
अर्थ- नामके कोनोंमें लं लिखकर उसको बिंदु सहित ब से वेष्टित करे। फिर उसके चारों ओर दो मंडल बनाकर पहिलेको, लं, बीजोंसे और दूसरेको तीन ठ, से भरे इस rashi भोजपत्र पर गौरोचन और कुकुमसे लिखे । फिर कुम्हारके हाथकी मिट्टी लाकर उसे अपने प्रत्यर्थिकी छोटीसी मूर्ति बनाकर उसके मुख यह यंत्र रख दे ॥ १८ ॥
परपुष्टका शराबय ॥
स्वस्तां प्रणिधाय सम्यगथ जंभे मोहिनी संधुजा ॥ स्वाहा मंत्र पदेन पीतकुसुमैरम्यर्च्य यातः पुमान् । प्रत्यर्थि व्यवहारिणो विजयते तजिह्नकाः स्तम्भयेत् ॥ १९ ॥
अर्थ-उस मूर्तिका मुख मजबूत काटोंसे चीरकर उसको दो मिट्टीके शराबोंमें रखकर निम्नलिखित मंत्रसे उसकी पीले पुष्पसे पूजा करता है। उसके विरोधी व्यवहारीका जिह्वा स्तम्भन हो जाता है
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८० ।
माहिती कल्प
मंत्र-ॐ जंभे मोहे अमुकस्य जिह्वा स्तंभयर ठः ठः ठः स्वाहा " ।
गति जिह्वा और क्रोध स्तम्भन यन्त्र नामालिख्य मनुष्यवक्रविवरे तन्द्रांतसांता वृतं । लान्नग्लोत्रिशरीरवेष्टितमतः कोणस्थलं बीजकं || दिक्स्थं क्षीं धरणीतलं च विनर्थं जिह्वा स्तंभिनी मोहसत्मंत्रेणाभितमातनोति गतिजिह्वा क्रोधसं स्तम्भनं ॥२०॥
अ - मनुष्य मुखमें नामको क्रमसे ल ह व ग्लौं और ह्रीं के मध्य में लिखकर उसको रेखासे वेष्टित करके कोनों में लं बीज और दिशाओं में “ ॐ क्षि श्रीं" लिखे। इस यंत्रको " जिह्वा स्तम्भिनी क्षि क्षीं स्वाहा " इस मंत्रसे पूजनेसे गति जिह्वा और क्रोध स्तंभन होता है ॥ २० ॥
ओदनरजनीखटिका संपैष्य तदीयवर्तिकालिखितं । यंत्रमिदपाषाणे तत्पितिं खेष्टसिद्धिकरं ॥ २१ ॥
अर्थ - चांवल हल्दी और खडियाको पीस कर उसकी बत्तीसे इस यंत्र को पाषाण पर लिखे पश्चात् सिद्ध होने पर मुखमें रखने से सिद्धि होती है ॥ २१ ॥
पुरुष वश्य यन्त्र
मध्ये लिख नाम तत्क्रमलवैर्विद्धं क्षतैर्वेष्टितम् । बादाम्बुजं प्रतिदलं स्वाहांतवामादिकां ॥
षष्टम परिच्छेद ।
[ ८१
देवीं गौर्ध्य पराजिते च विजयां जंभां च मोहां जयां वाराहीमजितां क्रमाल्लिख बहिर्व्वामादि * सः पदाः ॥ २२ ॥
अर्थ - एक अष्टदल कमलकी कर्णिकामें क्रं कवी क्ष और मैं बीच में नामको लिखकर आंठों पत्रोंमें पूर्वादिक्रमसे “ॐ गौर्यै स्वाहा " “ॐ अपराजितायै स्वाहा " " ॐ विजयायै स्वाहा” “ ॐ नृभायै स्वाहा " " ॐ मोहाय स्वाहा " “ ॐ जयायै स्वाहा " ॐ वारायै स्वाहा " "ॐॐ अजितायै स्वाहा " मंत्र लिखे। और उसके बाहरके मंडलमें ॐ ज्र सः " "बीजोंको लिखे ॥ २२ ॥ प्रकोप
स्त्रीपुरुषसुरतसमये योन्यां विनि पतितमिंद्रियं यत्नात् । कायसेन ग्रहीत्वा भूमिं परिहृत्य संस्थाप्य ॥ २३ ॥
अर्थ-स्त्री पुरुषकी सुरतके समय योनिमें गिरी हुई इन्द्रियको यत्न पूर्वक कपासकसे पकड़ कर पृथ्वीके अतिरिक्त स्थान पर स्थापित करके ॥ २३ ॥
काश्मीर रोचनादिभिरेतयंत्रं विलिख्य भ्रूज्जदले । • यावक पिहितं तदुपरि विकीर्य्यं सित कोकि लाक्ष बीजरजः ॥
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अर्थ - इस यंत्र को भोजपत्र पर गौरोचन केशर आदिसे लिख कर अग्निसे ढक कर उसके ऊपर श्वेत कोकिलाक्षके बीजोंकी धूल डालें ॥ २४ ॥
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८२]
ज्यालामालिनी कल्प।
जल मिश्र रेतसा तन्निसिंचय सूत्रावृतं कटौ विधृतम् । पुरुष निजानुरक्त करोति पंढ परस्त्रीषु ॥ २६ ॥ (क) ६. अर्थ-उस यंत्रको जलमें मिलाये हुए अपने वीर्यसे सींच कर तागेसे लपेट कर यदि स्त्री अपनी कमरमें बांधै तौ । उस स्त्रीमें अनुरक्त पुरुष दूसरी स्त्रियों के लिये नपुंसक हो जावे ॥२४॥
" कणयवश्य यंत्र ह्रीं मध्ये नाम युग्मं शिखि पुर पुदितं तस्य कोष्टेष वाम। ह्रीं जमे होममन्यत्पुनरपि विनयं हीच मोहे च होर्म ॥२५॥
व ह्रीं तत्कोष्टांतरालेष्ठथ गजवशकद्वीजमन्यतदये। बाहो ही खस्य नानांतरित मथ वहिः धूलिखेत्साध्य नामा ॥२६] -
पीटी परके अंदर ही उसमें अपना और साध्य दोनोंका नाम लिखे, उसके बाहर छह कोण कोठे बनाकर । एकरको छोड़२ कर “ॐ ह्रीं जमे स्वाहा” और “ॐ ह्रीं मोहे
। स्वाहा"-मंत्र लिखे । कोठोंके अंतराल में ह्रीं और कोनोंमें को लिखे। उसके बाहर दूसरे मंडलमें अपने नाम सहित ह्रीं
उसके बाहर दूसरे मंडलमें साध्यके नाम सहित ३ लिखे ॥ २५-२६॥E NEF
कमहिममधुमलयजयावनगौक्षीररोचनागुरुभिः मृगमदसहितेविलिखेत् कणयसुयंत्रं जगदाकृत् ॥ २७ ॥
षष्टम परिच्छेद ।
[ ८३ अर्थ-इस जगत्के वशमें करनेवाले कणय नामके यंत्रको कुकुम, हिम, मधु, मलयज, जौके दूध, गौरोचन, अगर और कस्तूरीसे लिखे ॥ २७॥
शाकिनी भय हरण यंत्र ॥२॥ नाक ॐकारमध्ये पुनरपि वलयं षोडशस्वस्तिकानामाग्नेयं गेहमुद्यन्नवशिखमथ तद्वेष्टितं त्रिकलामिः । दद्याद् बहेः स्य चत्वार्य्यमरपतिपुराण्यं तरालस्थ मंत्रा-: नेतयंत्र सुतं लिखितमपहरेच्छाकिनीमयः प्रभीति ॥२८॥
अर्थ- क्रौं, के बीचमें पअने नामको लिखकर उसके चारों ओर सोलह स्वर लिखे। उसके चारों ओर मंडलाकार स्वस्तिक बीज, ल, ऊ, और द, को लिखकर उसके चारों ओर अग्नि मण्डलमें रं, बीज लिखे। और इसके चारों ओर ही का मण्डल बनाकर उसकी चारों दिशाओं में चार नगर बनाकर उनमें निगम लिखित मंत्र लिखे ॥
पूरब दिशामेंॐ वज्र धरे बंध२ बज पाशेन सर्व मदुष्ट विनायकानां ॐ हवं फट् योगिने देवदत्तं रक्षर स्वाहा ॥
दक्षिणमें-ॐ अमृत धरे घर पर रिशुद्ध ॐ हफट योगिनि देवदत्तं रक्ष२ स्वाहा ॥
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INNAMINAINIMINAINA
- ॐ पक्षि स्वः इवी इवं हू: वं वः हः हंसः जः जः जह पक्षि स्वाहा । क्षःसं: सः हर हु हः । इत्यमृतमंत्रोऽयं ॥३१॥
अमृत मन्त्र
चालामालिनी कल्प।
पश्चिममें554ॐ अमृत धरे डाकिनि गर्भ सुरक्षिणी आत्मबीज है, फट् योगिनि देवदत्तं रक्षर स्वाहा ॥"
उत्तरमें__"ॐरु रु चले हां हां ह्रौं हः क्ष्मां क्ष्मी क्ष्मूक्ष्म क्ष्मः सर्व योगिनि देवदत्तं रक्ष२ स्वाहा ।"
अर्थ-यह यंत्र विधिपूर्वकर लिखा जानेसे शाकिनियोंसे भय नहीं होने देता ॥ २८ ॥
घट यंत्र नाम सकारान्तर्गतमबुधिटान्तावृतं बहिश्च कला। इवलयितमनिलाद्यष्टमावेष्ट्य हंसः पदं वलयं ॥२९॥
अर्था-नामको स, आ, थ, और ठ से क्रमशः वेष्टित करके उसके चारों ओर सोलहों स्वर लिखे । उसकी आठों दिशा
ओंके वायु मंडलमें 'य' बीज और उसके चारों ओरके मंडलमें । 'हंसः' लिखे ॥ २९॥
टांतेन बहिर्वेष्व्यं को प्रों त्री ठस्सु बीज वलयं च ।। भान्तेन सु सम्पुटे ते तद्वलयितममृत मंत्रण ॥ ३०।
अर्थ—उसके बाहरके वलयमें ", क्रों, प्रों, त्री, ठ" बीजोंको लिखकर उसके दोनों ओर म, बीज लिखे और फिर उसके चारों ओर नि लिखित मंत्र लिखे ॥३०॥
“ॐ पक्षि स्वः इवी इवं हवं हंसः जः जाजः पक्षि श्वः सं सं सः हर हुँ ह.". - कमलदलसहित मुख बुनामृतकलशेन वेष्टितं बाह्ये। वं वन्दनदलेषु लिखेत् बुनदलांतर्गतं लं च ॥३२॥
अर्थ-फिर यंत्रको कमल दल मुख पर रक्खे हुए अमृत कलशमें वेष्टित करे। उस कमलके पत्रों के बाहर 'ब' और अन्दर 'ल' लिखे। कूटस्थनालमूले घट यंत्रमिदं विलिख्य भूजंदले । काश्मीररोचनागुरुहिममलयजयावकक्षीरैः ॥ ३३ ॥
अर्थ-उस कमलको नालकी मलमें 'क्ष' बीज लिखे। इस यन्त्रको भोजपत्र पर केशर, गौरोचन, अगर, हिम, मलयज और जौ के दूधसे लिखे ॥ ३३ ॥ सूत्रेण बहिर्वेष्ट्य सिक्थकपरिवेष्टितं ततः कृत्वा । मलयज कुसुमाद्यचितनवपूर्ण घटे क्षिपेन्मतिमान् ॥ ३४ ॥
अर्थ-इस यन्त्रको सिक्थक (मोम) में लपेट कर बाहर
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लागेसे बांधकर फिर इसको चन्दन पुष्प अदिसे पूजे हुए नवीन धड़ेमें रख दे।
सर्व विघ्नहरण यंत्र स्वरगर्भटान्तवेष्टितसम्पुटमध्यगतं नामखण्डशशिवेष्ट्य । टान्तेन च भान्तेन च बेष्ट्य हंसः पदं वलयं ॥ ३५ ॥
अर्थ-नामको क्रमसे ठ के सम्पुट अर्धचन्द्र ठ, और 'म' से वेष्टित करके उसके चारों और " हंसः" पदका बलय बनावे ॥ ३५॥
बहिरमृतमंत्रवलयं दद्यात्स्वरयुक्तषोडशदलाज। मंत्रमिदं घटबुध्ने खटिकाहिम मलयजेबिलिखेत् ॥ ३६॥
अर्थ-उसके बाहर निम्नलिखित अमृत मंत्र और उसके बाहर षोडश दल कमलमें सोलहों स्वर लिखे। इस यंत्रको घड़ेके अंदर खडिया हिम और चंदनसे लिखे ॥ ३६॥
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणि अमृतं स्त्रावय २ सं २ क्लीं २ ब्लू २ द्रां २ द्रीं २ द्रावय द्रावय स्वाहा ॥"
अमृत मन्त्रोऽयं समार्जित भूमितले लोहमयत्रिपादिका परिनिधाय । 'कलशं तं तस्य मुखं कांस्यसवृतेन पिहितव्यं ॥ ३७॥
अर्थ-एक शुद्ध स्थानमें लोहेकी तिपाई पर इस कलशको कांसोके गोल ढकनेसे ढके ।। ३७॥ कांचीद्वय युत मुशलं, जल धौतं सरस मलय जालिमं । सुरभितरकुसुमवेष्ट, तबृतकमस्तके स्थाप्यं ॥ ३८ ॥
अर्थ--उस ढकनेके ऊपर जलसे धोये हुए चंदनसे पुते हुए सुगंधित पुष्पोंसे वेष्टित मूसलको दो कांची (करधनी) सहित रक्खे ॥ ३८ ॥
भूशलोपरि प्रदीप निधाय कांस्यमयभाजनं कलशतले । बहिरर्चयेत्समैनादगंधाक्षतकुसुमचरुकायेः ॥ ३९ ॥ _अर्थ-फिर कलशके नीचे कांसीके पात्रको और मूसलके ऊपर दीपक रखकर उसकी चंदन, अक्षत, पुष्प और नैवेद्य आदिसे पूजा करे ॥ ३९॥ क्ररारिमारशाकिन्युरगनवग्रहपिशाचचोरभयं । अपहरति तत्क्षणादिह तत्सलिलद्रव्यसमासेत्कः॥ ४०॥
अर्थी इस घडेके जलको छिड़कनेसे कर, शत्रु, बीमारी, शाकिनी सर्व नवग्रह, पिशाच और चोरका भय उसी क्षण दूर
आकर्षण यंत्र कूटाकाशमपिण्डमध्यनिलये नाम स्वकीयं पृथक् । दत्वा तत्परिवेष्टितं भपरसत्पिड़ेन गुह्येन च ।।
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बाोव्यष्ट दलाब्ज मष्ट कमले वन्यच पिंडाष्टकं । पत्रेणान्तरितं लिखेत्स्वरयुगं शेषे च पत्राष्टके ॥ ४१ ॥
अर्थ-एक ऐसा अष्ट दल कमल बनावे। जिसके आठों दलोंके बीच में स्थान छूटा हुआ हो। उसकी कर्णिकामें सल्फ्यू हल्ल्यू और मल्व्यू के बीच में अपना नाम लिखकर बाहरके पत्रोंके अंतरालोंमें पूर्वादिक्रमसे शल्यू यल्यू रम्न्च्यूं घल्यू डम्व्यू खल्ब्यू करव्यू और कम्व्यू लिखकर आठों दलोंमें पूर्वादि क्रमसे अ आ आदि दो २ स्वर लिखे ॥४१॥
स्वर युगलस्याधस्ता च्छब्दं पार्श तथा कुश क्षीं च। - दत्वा तेषां चाधः ह्रीं क्लीं ब्लू सः द्रां ह्रीं क्रमादयात् ॥४२॥
अर्थ-और उन स्वरोंके पश्चात् "हां आं क्रों क्षीं ह्रीं क्लीं ब्लू सः द्रां और द्रीं" बीजोंको क्रमसे लिखे ॥ ४२॥ बाणान्पादलान्तरेषु विलिखे च्छब्दं कर्श चांकुशं। क्षी पत्रान गतं लिखे दथ नमः पर्यंत वामादिना ॥ पत्राग्र स्थित बीज बाण शिखनि शीघ्रं तमाकर्षय । तिष्ट द्विम्मम सत्य वादि वरदे मंत्रेण वेष्ट्य वहिः ॥४३॥
अर्थ-इसके पश्चात् इस यंत्रको बाहर निम्नलिखित मंत्रसे वेष्टित करे।
"ॐ हां आक्रों क्षीं ह्रीं क्लीं ब्लू सःद्रां द्रों वाला-
मालिनी देवि शीघ्रं देवदत्तमाकर्षय २ तिष्ठ २ मम सत्य वादि वरदे नमः" ॥४३॥
परम देव ग्रह यन्त्र बाह्ये ह्रीं शिरसावृतं त्रिरथ तद्र खाप्रयोन्या कुते । मध्ये क्लीं उपरिस्थ कोण युगले द्रां द्रींमधो ब्लूलिखेत् ॥ बाह्ये दिक्षु विदिक्षु रान्त धरणी बीजान्वितै द्र पुरं। तद्वाह्ये लिख दिग्वि दिगातल कारांसन्वितं वारिधिः ॥४४॥
अर्थ-बाहर ह्रीं की तीन रेखाओंसे घेरकर मध्यमें की को लिखे । क्लीं के ऊपर दो कोनोंमें द्रां द्रीं और नीचे ब्लें बीजको लिखे। उसके बाहर अष्टदल कमलका इंद्रपुर बनाकर उसमें हीक्लीं बीजको लिखे। उसके आठों दिशाओं में ब्लं लिखे ॥४५॥ देव्या ज्वालामालिन्योक्तमिदं परम देव ग्रह यंत्र । पुण्यार्के शुभतंत्रबिलिख्य भूजें पदे चापि ॥४६॥
अर्थ-देवी ज्वालामालिनीके कहे हुए इस परमदेव ग्रह यंत्रको पुष्य नक्षत्र में भोजपत्र पर सुगन्धित और पवित्र वस्तुओंसे लिखे ॥ ४६॥
वश्य हवन ।। शिखि मद्देवी हृदयोऽपहृदय मंत्रेण पूजितं सततं । जपितं हुतं च सकलं स्त्रीनृपरिपुभूतवश्यकरं ॥ ४६॥
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यामानी
अर्थ — ज्वालामालिनी देवीके हृदय और अपहृदय मंत्रोंके द्वारा पूजन जाप और हवन करनेसे स्त्री, राजा, शत्रु, और भूत वश में हो जाते है ॥ ४६ ॥
मधुरत्रयेण गुग्गुलदशांगपंचांगधूप मिश्रेण । जुहुयात्सहस्रदशकं वशंकरोतीन्द्रमपि कथान्येषु ॥ ४७ ॥
अर्थ — घृत, दुग्ध, शर्करा, गूगल, दशांग और पंचांग धूपको मिलाकर उससे दश सहस्र हवन करनेसे इन्द्र भी वश हो जाता है। औरोंकी तो क्य। कथा है ॥ ४७ ॥
इतिश्री काचार्य प्रणीत अर्थमें श्रीमान् इन्द्रनन्दि मुनि विरचित प्रथमे पाडामालिनी कल्पकी प्राच्य विद्यावारिधि काव्य साहित्य तीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शास्त्रो कृ भाषाटीका में "बश्य यंत्र अधिकार" नामक षष्ठ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ६ ॥
म पार छ ।
अथ सप्तम परिच्छेद
सर्व वशीकरण तिलक
शरपुंखी सहदेवी तुलसी कस्तूरिका च कर्पूरं । गोरोचना गजमदो मनः शिला दमन कश्चैव ॥१॥
L ९१
अर्थ- शरपुंखी, सहदेवी, तुलसी, कस्तूरी, कपूर, गोरोचन, गजमद, मनःशिला, दमनक ॥ १ ॥
जातिशमी पुष्पयुगं हरिकान्ता चेति दिव्यतंत्रमिदं । समभागेन ग्रहीत तिलकं कुरु भुवनवश्य करं ॥ २ ॥
अर्थ – जातिपुष्प, शमीपुष्प और हरिकांता को समभाग लेकर तिलक करनेसे सब लोक वशमें हो जाते हैं, यह दिव्य तंत्र है ॥ २ ॥
लोक वशीकरण तिलक और अंजन
एलालबंगमलयजतगरोत्थलकुष्टकु कुमोशीरः । गौरोचनादिकेशरमनशिला राजिकाकुटजं || ३ ||
अथ - इलायची, लौंग, चन्दन, तगर, कमल, कूट, कुंकुम, उशीर, गौरोचन नागकेशर, मनशिल, राजिका (लखों)
कुटज || ३ ||
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चालामान ५।
IN INDMINIMONIROMONIANRAIN
सप्तम परिच्छेद ।
मुख सुगंधि कर तिलक पावकवर्जितलक्ष्मी सहदेबी कृष्ण मल्लिका तुलसी। हरिकांता नरकंदेश्वरि शीतोशिरपिकाश्च ॥ ८॥
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अर्थ-बिमा अग्निकी लक्ष्मी सहदेवी कृष्णमलिका मालती हार कांता नरकंद इश्वरि शीत शिर पक्की
हिक्का तुलसी पद्मकमिति समभागं मुषारमलिलेन । पुष्पे चन्द्राभ्युदये मुकन्यकापेषयेत्सर्च ॥४॥
अर्थ-हिका, तुलसी और पद्मकको समभाग लेकर पुष्य नक्षत्रमें चंद्रोदय होनेपर शीतल जलसे कन्यासे पिसवावे ॥४॥
तिलकं कुर्यादमुना विदधात्वथवांज तथान्योन्य। है.तिलकखिभवनतिलको गजमदकुनटिशमीपुष्षः॥५॥ . अर्थ-गजमद, कुनटि. शमीपुष्प इसका तिलक तथा अंजन दोनों ही तीन लोकको जीतते हैं ॥५॥
सर्व वशीकरण तिलक नरकन्दपत्रकन्याहिमपयोत्पलमुकेशरं कुष्टं । . हरिकान्तामलयरुहं विकृतिस्तिलको जगद्वशकृत् ॥ ६॥
अर्थ-नरकन्द, पत्रकन्या, हिम, पद्म उत्पल, केशर, कुष्ट, हरिकान्ता, मलयरूह और विकृतिका तिलक सम्पूर्ण जगतको वशमें कर देता है॥६॥
क सर्व वशीकरण तिलक कनकसहजातपुष्पैर्मलनजनृपलोचनामृगमदैश्च । समभागेन ग्रहीतस्तिलकं त्रैलोक्यजनवशकृत् ॥ ७॥ ____ अर्थ-कनक पुष्प, सहजात पुष्प, मलयज, नृपलोचन, और कस्तूरीको ममान भाग लेकर तिलक करनेसे तीन लोक वश में हो जाते हैं।॥ ७ ॥
जातिशमीकुसुमयुगं दमनक गौरोचनापमार्गश्च । काश्मीरकाय्यकमृगमद धतूरकमरुगपत्राणि ॥९॥...
अर्थ-जाति पुष्प शमी पुष्प दमनक गोरोचन अपामार्ग काश्मीरक कार्यक मृगमदधतूरा अरुग पत्र ॥ ९॥
शर पुखकनैति च समभागग्नहीतदिव्य शुभ तंत्रः। पुष्पा संयुक्त र्मुख वासो भवे तिलकः ॥१०॥
अर्थ-शरपड और कनैतिको समान भाग लेकर पुष्य नक्षत्र में तिलक करनेसे मुखमें सुगंधि होती है ॥१०॥
गीकरण अंजन.
सव वशीकरण अंजन लोहरजः शरपुची सहदेवी मोहिनी मयूरशिंखा। काश्मारकुष्टमलयजकप्पू रशमीप्रसनं च ॥११॥
अर्थ-बोहरज शरपुडी सहदेवी मोहिनी मयूरशिखा काश्मीर कुष्ट मलयज कपूर शमी पुष्प ॥११॥
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मलम परिच्छे ।
ommonomNENormaenaMINDHION
जवालामालिनी कल्प। राजावर्तभ्रामकदिवसकरावर्वमदजटामांसि । नृपपूलिकेशचंदन बालागिरिकर्णिका श्वेता ॥ १२ ॥
अर्थ-राजावत भ्रामक दिवस कर आवर्तमद जटामांसी नृपपूलि केशर चंदन बालागिरि श्वेत कर्णिका ॥ १२ ॥ श्रोतोजन नीलांजन सौवीराजन रसांजनान्यपि च ।। पाहि सिंह केशर शार्दूल नखं च विकृतश्च ॥ १३ ॥ अर्थ-श्रोतांजन नीलांजन सौवीरांजन रसांजन पक्ष
FI अहिसिंह केशर शार्दूल नख विकृत ॥ १३ ॥ गौरोचनाऽश्व बंदन हरिकान्ता भृङ्ग तुत्थ मित्येषां । चूर्ण मलक्तक पटले विकीर्य परिवेष्ट्य कुरुवर्ति ॥१४॥
अर्थ-गोरोचन अश्व वंदन हरिकांता मृग और तुस्थके चूर्णको अलक्तक पटल पर बखेर कर लपेट कर बत्ती बनावे ॥ १४ ॥
सूत्रेण पंचवर्णेन परिवृतां भाक्येत तरुक्षीर। कारुक कुच भव पयसा पुनरपितां भावयेत्सम्यक् ॥ १५॥ ___ अर्थ-फिर उस बत्तीको पांच रंगके तागोंसे लपेटकर । वृक्षोंके दूधमें भावित करे और उस बत्तीको कारुकीके दधौ । मावित करे ॥ १५॥
AVRAN वातथा प्रदीपं विबोध्य कपिलाधृतेन सिद्धस्थाने । धतूरभंग मर्दित नवखपजनं द्रियते ॥ १६ ॥ Hamar
र अर्थ-उस बत्तीको सिद्धस्थानमें कपिला गऊके धीमें डालकर दीपक जलावे और फिर धतूरा और भांग मले हुए नए खपेटक पर अंजन बनावे ॥ १६॥
ॐ हरिणी हरिणी स्वाहा मंत्र पठतांजनं दायं । प्रपठं स्तमेव मंत्र करोतु नयनांजनं चापि ॥ १७ ॥
अर्थ- “ॐ हरिणी हरिणी स्वाहा ।"
यह मन्त्र पढता हुआ अंजन बनावे । और इसी मंत्रसे अंजनको आंखोंमें भी लगावे ॥ १७ ॥ सकल जगदेकरंजनमंजनमिदमातनोति सुभगस्त्वं । स्त्रीपुरुषराजवश्यं करोति नयने द्वयं भक्त ॥१८॥
5 अर्थ-इस संपूर्ण जगतके एक ही अंजनको आंखोंमें लगानेसे सुन्दरता बढ़ती है। और स्त्री-पुरुष, तथा राजा तक चशमें हो जाता है ॥१८॥
सुखदायक अंजन भ्रामकहिमनीलांजनबालालक्ष्मीसुमोहिनीभक्ताः। व्याघ्रनखी हरिकांतावरकंदे रोचनायुक्त ॥१९॥
अर्थ-प्रामक, हिम, नीलांजन, बाला लक्ष्मी, सुमोहिनी, भक्ताव्याघ्रनखी, हरिकांता, वर कन्दगौरोचन, और ॥ १९॥
केकिखेत्येतेषामलक्तपटले विलिख्य संचूर्ण। प्रागुक्त विधिसमेतं जनरंजनमनरंजनं तदिदं ॥२०॥
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ज्यालामालिनी कल्प।
सप्तम परिच्छेद। गरि अर्थ-मयूरशिखाका चूर्ण, अलक्तक पटलपर बखेरकर
सर्व वशीकरण अञ्जन पूर्वोक्त विधिसे अंजन बनाये। यह अंजन पुरुषोंको प्रसन्न करनेवाला है ॥ २० ॥
काश्मीरकुष्टमलयजकमलोत्पलकेशरं च सहदेवी।
भ्रामकन्यानृपहरिकांताविकृतिम्मेयूरशिखा ॥ २४ ॥ सर्व सुखदायक अंजन हरिकान्ता केकिशिखा शरपुखी पूतिकेशसहदेव्यः । ..
अर्थ-काश्मीर, कुष्ट, मलयज, कमल, उत्पल, केशर, हिममदराजावते विकृतिः कन्यापुरुषकंदः ॥ २१॥
सहदेवी, भ्राम, कन्या, नृप, हरिकांता, विकृति, मयूरएक अर्थ-हरिकांता, मयूरशिखा, शरपुंक्षी, पूतिकेश, शिखा ॥ २४ ॥ सहदेवी, हिम, मद, राजा, वर्त, विकृति, कन्या, पुरुष, कपररोचनमोहिनीनीलांजनकुकुमं च समभागं । कंद ॥ २१॥
लहर
पूर्वविधियुक्तमंजनमिदमखिलजगदशीकरणं ॥ २५॥ पुरुपाकेशरं पामोहिनीतिसमभागतः कृतं चर्ण प्राविधियुतमंजलमिदमखिलजगदूरंजनं तत्थं ॥२२॥ अर्थ-कपूर, गौरोचन, मोहिनी, नीलांजन और कु'कुमको
समान भाग लेकर पूर्वोक्त विधिसे अंजन सेवन करनेसे सब जगत अर्थ-पुरु पद्मकेशर और पामोहिनोको समभाग लेकर ।
| वशमें हो जाता है ॥ २५ ॥ पूर्वोक्त क्रमसे अंजन बना कर सेवन करे तो समस्त जगतको आनंद हो ॥ २२॥EFER
वश्य प्रयोग (१) सुखदायक अंजनी एरंडकभक्तकरसेन दिवसत्रयेण पृथकृष्णतिलाः । शार्दूलनखिभ्रामकनीलांजनमोहिनसुकप्पर ।। । ।
भाव्याः शुनीपयोनिजमूत्रेणानंगजयवाणाः ॥ २६ ॥ . गौरोचनायुतं विधिवदं जन लोकरंजनकृत् ॥ २३ ॥ अर्थ-शार्दूल, नखि, भ्रामक, नीलांजन, मोहिनी, कपूर
अर्थ-काले तिलोंको, एरण्डक रस, भक्तक रस, कुत्तीका और गौरोचनका पूर्वोक्त विधिसे बनाया हुआ अंजन लोकोंको दूध, और अपने मूत्रमें तीन दिन तक भावित करें तो यह प्रसन्न करता है ॥ २३ ॥
कामदेवकी विजयके बाण बन जावेंगे ॥ २६॥
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वाहिनी कप
वश्य नमक
रक्तकणवीर विकृतिद्विजदंडी वारुणी भुजंगाक्षी । लञ्जरिका गोवंदिन्ये तद्वटिकाः प्रकृत्य बहूः ॥ २७ ॥
अर्थ - रक्त, कणबीर, विकृति, द्विजदंडी, वारुणी, भुजंगाथी, लञ्जरिका, और गोवंदिनी, इनकी बहुत सी गोलियां
बना कर ॥ २७ ॥
afearfभः सह लवणं प्रक्षिप्य सुभाजने स्वपुत्रेण । परिभाव्य पचेत्पाणमिदं भुवन वशकारी ॥ २८ ॥
13F3
अर्थ - इन गोलियों के साथ एक वरतनमें नमक और अपना मंत्र डाल कर भावित करे तो यह नमक लोकको वशमें करनेवाला होता है || २८ ॥
वश्य तेल (१)
पंचदशा नव चतुः षड् भागान् विकृति भक्त मोहनिका । लञ्जरिकाणां ज्ञात्वाभावस्यायां शनैव्वरि ॥ २९ ॥
अर्थ - शनिवारी अमावस्या के दिन, विकृति पांच भाग, नमक नव भाग, मोहनिका व्यार भाग और लञ्जरिका छह भाग लेकर ॥ २९ ॥
श
संपिष्याजापयसा कन्कार्द्धमजापयोयुतं क्कथयेत् । अर्द्धावर्ते का द्वितीयभागं क्षिपेतत्र ॥ ३० ॥
पटक
सम्म परिछेद ।
[ ९९
अर्थ- सबको बकरी के दूधमें पीसकर आधेका बकरीके दूधमें क्वाथ बनावे | काथके आधा उठ आने पर दूसरा भाग भी उसीमें डाल दे ॥ ३० ॥
मनो द्विगुणं तैलं काथसमं मिश्रितं पचेद्विधिना । वनितामद नाभ्यंगन तैलमिदं त्रिजगतीवश कृत् ॥ ३१ ॥
अर्थ - फिर उसमें बराबर मधु और दुगुना तेल डालकर rest विधिपूर्वक पकाकर तेल बनावे। यह तेल स्त्रियोंके लगानेसे तीन लोकको वशमें कर लेता है || ३२ ॥
वश्य तेल (२)
स्वमेव मृताहि सुखे क्रमुक फलानां दलानि निक्षिप्य । तन्द्रोमयलि संस्थाप्येकांतशुभदेशे ॥ ३३ ॥
Jos
अर्थ- स्वयं मरे हुए सर्पके मुखमें क्रमुक फलके टुकडे डाल कर उसको गोबरले लिपे हुए एकांत उत्तम स्थान में रखकर तान्यादाय दिने त्रिभिरथकनक सुफलवटे समास्थाप्य | गिरिकर्णिकेंद्रवारुण्य नलह लिन्यांगनाचूर्णैः ॥ ३३ ॥
अर्थ-उसको तीन दिनमें और फिर उसको गिरि, efore, इन्द्रवारुणी, और अनल हन्यंगना के चूर्ण ||३३|| मंदारशु निक्षीरैः स्वमूत्र सहितैर्विभावयेद्बहुशः कुलिकोदये शनैश्चवारे कनकधनो स्याग्नौ ॥ ३४ ॥
7 7.'*
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१००।
ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ-मंदारके दूध, कुत्तीके दध और अपने मत्रमें, बहुत प्रकारसे भावना दे। फिर शनिश्चर वारको कुलिकाका उदय होनेपर धतूरेके ईधनकी आगमें ॥३४॥
गुजा सुगन्धिका कनकबीजचूर्णाहिकृतितिलतलैः। रद्ध पितानि भाजनविवरेणानंगशस्त्राणि ॥ ३५॥
अर्थ-गुजा, सुगन्धिका और कनकबीज सर्प कृति तथा काले तिलोंके तेलके साथ पकाकर सेवन करे। यह तेल कामदेवका शस्त्र है ॥ ३५॥
वश्य तेल (३) गोबंधिनींद्रवारुण्यवनीदरकर्णिका सुगंधिनिका । खरकर्णीत्येतेषां चूर्णौः सहपुगशकलानि ॥ ३६ ॥
अर्थ-गोबन्धिनी, इंद्रवारुणी, अवनी, दरकर्णिका, सुगंधिनिका और खरकर्णीके चर्ण के साथ पूग फलके हुकडोंको ॥ ३६ ॥ उन्मतकभांडगता न्यात्मसुमूत्रेण रक्त करवीरद्रघरासभीशुनीकुचपयसा भाव्यानि तानि पृथक् ॥ ३७॥
अर्थ-उन्मतकके बरतनमें रखकर अपने मूत्र, रक्तकरवीरका रस, गधी और कुत्तीके दूधसे पृथक् पृथक् भावित करे ॥ ३७॥
__ सप्तम पारच्छन् । उन्मतबीजगुखासुगन्धिकासप्पंकृतितिलतैलैः। कनकेन्ध नाग्नि सद्ध पितानि कुसुमास्त्र शास्त्राणि ।। ३८॥
अर्थ-फिर उसको उन्मतकके बीज, गुजा, सुगन्धिका सर्प, कृति और तिलके तेलोंके साथ कनकके इंधनकी अग्निपर पकाकर तेल बनावे । यह तेल कामदेवका शस्त्र होता है ॥३८॥
वश्य प्रयोग (२) कन्येद्वारुणिनागसप्पपातालगरुडरुद्रजटाचूर्णयुतैः क्रमुकफलान्यात्ममलैंर्विपुलकनकफले ॥ ३९ ॥
अर्थ-कन्या, इंद्रवारुणि, नागसर्प, पाताल, गरुड़ और रुद्रजटाके चूर्ण के साथ क्रमुकफल अपने पांचों मल और बडे धतूरेके फलको ॥ ३९ ॥ संभाव्य शुनिदुग्धप्लुतानि सद्ध पितानि पुनः।। जैत्रास्त्राणि मनोजस्येत्युक्त गांगपति गुरुणा ॥ ४० ॥ ___अर्थ-कुत्तीके दुग्धमें मावित करके धूपमें सुखानेसे यह कामदेवके विजयी शस्त्र बन जाते हैं। ऐसा गांग पति गुरुने कहा है॥४०॥
कामबाण चूर्ण रुद्रजटा सितगुज्जा लखरिकाः संनिधाय सर्यास्ये। दिवस त्रिभिरादाय प्रचूर्णक्षिपये स्वमलैः॥४१॥
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ज्वालामालिनी ३५
ANINNRAINRIm mon
अर्थ-रुद्रजटा, श्वेत गुखा और लडरिकाको सप्पंके मुखमें रखकर तीन दिनके पश्चात् निकालकर सबका चूर्ण करे। और अपने पांचों मलोंमें डाल दे ॥४१॥ गोमय लिप्से हरि निकंदे परिभाव्य पाचयेद्विधिना । चूमदं सकलजगद्वश्वकरं कामबाणारख्यं ॥ ४२ ॥
अर्थ-किर इसके गोबरले लिपे हुए हरिनिकंद में भावित करके विधिपूर्वक पकाये । यह समस्त जगतको वशमें करनेवाला कामबाण नामका चूर्ण है ॥ ४२ ॥
दशरारिक चर्ण कनकेन्द्रवारुणीखर कर्णिकात्रिसंध्यानां । विस्फोटनलज्जरिकाद्विजदंडीनां वहिर्व टिका ॥४३॥
अर्थ-कनक, इंद्रवारुणी, खर कणिका और त्रिसंध्या, बिस्फोटन, लञ्जरिका और द्विजदडीके साथ सबकी गोली बनाकर ॥ ४३ ॥ भांडे निधाय तस्मिन् पृथकर मरीचलवणसर्षप गुठी। धान्याजमोदचर्णकहरितकक्रमुकपिप्पल्यः ॥ ४४ ॥
अर्थ-बरतनमें रक्खे और उसीमें पृथक२ मिरच, नमक, सरसों, सोंठ, धान्य, अजमोदका चूर्ण हरीतक, क्रमुक और पीपलको ।। ४४॥
शप्रम परिच्छेद । भाव्याः स्वमलैः सम्यक् तद्ध पै द्ध पिताः पृथक् पृथगिति च । दशरारि काभि धानाः सकलजगवश्यकारिण्यः ॥ ४५ ॥ - अर्थ-अपने मतोंमें भावित कर२ के सुखावे । यह सब जगतको वशमें करनेवाले दशरारिक नामवाले चूर्ण हैं ॥४५॥ Kavi योनिशोधक लेप
द्विरदमदकुष्टमृगमदकप्पू रोन्मतपिप्पली काम। रुद्रजटामधुसैंधवनागरमुस्तासुयष्टीकं ॥ ४६॥
अर्थ-गजमद, कूठ, मृगजद, कपूर, उन्मत्त, पिष्पलि, काम, रुद्र, जटा, मधु, सैंधव, नागरमोथायष्टीक ॥४६॥ सूरणटंकणपिप्पलिशरपुखीमातुलिंगचणकोष। महकाम्लसमेतं भगनिजर्जरकारणं लिप्तं ॥४७॥
अर्थ-सूरण, टंकण, पिप्पलि, शरपुखी, मातुलिंगी, चने, सहकार और आंवला लेथे जानेसे योनिका संशोधन करते हैं ॥४७॥ कप्पू रैलामाक्षिकलञ्जरिकायुक्तपिप्पलीकामं । भगनिजैरं प्रकुर्यात् कुरुटिकाक्षीरसंयुक्त ॥ ४८ ॥
अर्थ-कपूर, इलायची, माक्षिक, लज्जरिका, पिप्पलि और कामको कत्तीके दूध में पीसकर लेप करनेसे योनि संशोधन होता है ॥४८॥
सन्तानदायक औषधि शिषफणीफलचव्यचित्रकमहीकूश्मांडिनिःपर्णिकाः ।
मकामा
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१०४
कल्प
का महाकाखल्यन्विता ॥
४९ ॥
पाठा लक्ष्मणिकेत्य शून्य सितगोदुग्धेन विष्टापिचेत् । पुष्पवस्व सहिता पुत्रं लभेत ध्रुवं ॥ अर्थ-शिप, फणी, फल, चव्य, चित्रक, मही, कूष्मांडी, निःपर्णी, ब्रह्मी, दर्दुर, श्वेतवराही, खली, पाठा और लक्ष्मणकाको गऊके दूध में पीसकर सेवन करनेसे वंध्या स्त्री भी ऋतुकालमें पति संगम करनेसे निश्चयपूर्वक पुत्रको पाती है ॥ ४९ ॥ पीत्वामृतोपधमिदं दिवसचतुष्टयमुभावपि स्थित्वा । निर्व्वत्यैकदेशे भुजेयातां मधुरमन्नं ॥ ५० ॥
अर्थ — इस अमृत औषधिका पान करके दम्पति चारदिन तक ठहरकर उत्तम स्थानमें भोग करे मधुर अनको खावे ॥५० स्नात्वा चतुर्थदिवसे स्वमतृ संकल्पमाप्यनिशिवनतानि । पुत्री पुत्रं लभते वामेतरपार्श्व संसृप्ता ॥ ५१ ॥
अर्थ- चौथे दिन स्नान करके स्त्रियां अपने पतिके संकल्पसे उसकी दाहिनी ओर सोकर पुत्र और बाई ओर सोकर पुत्रियोंको पाती है ॥ ५१ ॥
इनिश्री हेटाचार्य प्रणेत अर्थ में श्रीमत् इन्दनदि मुनि बिरचित प्रथमें व्याडामालिनी कल्पकी, area fam काव्य
साहित्य तीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शाखा कृत भाषाटीका "वश्य अधिकार" नामक सप्त परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ७ ॥
अम परिछेद |
अथ अष्टम परिच्छेदः
[ १०५
वसुधारा स्नानके स्थानकी विधि ईशानाशाभिमुखाबुपात संयुक्तरम्यशुचिदेशे सम्माज्जिते कपिलागोमयदधिदुग्धघृतमूत्रैः॥१॥
अर्थ - एक पवित्र स्थानमें ईशान कोणकी ओर मुख करके पहले जल डाल कर फिर उस स्थानको कपिला गौके गोबर, दहीं, दूध, घी, मूत्रसे, साफ करे ॥ १ ॥ नामकला पुर्णेन्दुसमेतं मध्ये विलिख्य तस्य वहिः । कोकनद कुमुद कुबल रक्तोत्पलजलजकुसुमयुतं ॥ २ ॥
अर्थ - इसके पश्चात् उस स्थानके मध्य में नामको "आं ई ऊं ए" बीजों के बीचमें लिखे। और उसके चारों ओर कुमुद, लाल कमल, नील कमल, और श्वेत कमल, अपने पुष्पों सहित ॥ २ ॥
चाहुबलबला कासारसकल हंस मिथुनसंयुक्तं ।
कर्कटक कूर्म्म दद्दर ऊषमकरतरतरंगतं ॥ ३ ॥
अर्थ - चकवा, बगुला, बलाका, सारस, सुन्दर हंसों के
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अष्टम परिच्छेद ।
ज्वालामालिनो कम्प। युगल, केकडा, कछवा, मैंडक, मछली, और नाकेको चंचल नलकी तरंगोंसे युक्त ॥३॥ चर्णेन पंच वर्णेन परिविलिखेद्विपुलपअिनिखंड। तवहिरपि चतुरस्रमंडलमालिख्य विधिनैव ॥ ४ ॥
अर्थ-और बडे२ कमल समूहोंसे युक्त पंचवर्ण चूर्णसे । बनावे । और उसके चारो ओर विधिपूर्वक एक चौकोर मंडल बना देवे ॥४॥ कोणेषु सत्यमलयजककुमकुसुमार्चितान धवल वर्णान् । सहिरण्या पूर्ण घटान् विधाय वरवीजपूरमुखान् ।। ५।।
अर्थ-उस मंडलके कोनोंमें चंदन कुकुम और पुष्पोंसे पूजा किये हुए श्वेतवर्णवाले, स्वणयुक्त और सदर बीजोंसे मुख तक भरे हुए घडोंको रक्खे ॥ ५॥ तदुपरि विधाय सत्पुरुषमंडपं तस्य मध्य देशेतु । चक्री कृत रंध्रनवर्क बिलंबमानं घटं बद्धा ॥ ६ ॥
ना कार्य करनेके पश्चात , उस मंडलके ऊपर सुदर मडप तान देवे। और उसके बीच में एक ऐसा घडा लटका दे। जिसमें गोलाकार बराबर२ नौ छिद्र हों॥६॥
मृत्युञ्जयाख्ययंत्र नामसमेतं विलिख्यं भृर्जदले। सिक्थक्वेष्टितमेतत् सहिरण्यं निक्षिपेत्कुम्भे ॥ ७ ॥
अर्था-फिर भोजपत्रपर मृत्यजय नामके यंत्रको नाम सहित लिखकर और मोमसे लपेटकर सुवर्ण सहित उस घडे में डाल दे॥७॥
मृत्सदेवीसौम्याक्षीरतरुत्वकसुवर्णहरिकान्तापक्कोशीरहरिद्रा काश्मीरकुसुमानि ॥ ८॥ ____ अर्थ-फिर मिट्टी, सहदेवी, धवाले वृक्षोंकी छाल, सुवर्णलता, हरिकांता, पका हुआ उशीर, हलदी, दूब और केशरके कूल ॥ ८॥ मलयसहागुरुचंदनमित्येतान्यंबना समापिष्य । पंच दशभिश्च मंत्रः प्रत्येक मंत्रयेक्रमशः ॥ ९॥
अर्थ-लाल चंदन और सफेदचंदनको जलसे पीसकर पन्द्रह मंत्रोंमेंसे प्रत्येकसे पृथक् पृथक् अभिमंत्रित करे ॥ ९ ॥ एकैकोनोद्वर्तनकेन समुदत्यो देवदतं तं । मूम्पपतितैम्म लैस्तैः पुतलिकां कारयेदेकां ॥ १० ॥
अर्थ-और एक एक करके प्रत्येकसे उस साधक देव दत्तका उबटन करके उबटन करने में जो मल नीचे गिरे उसे पृथ्वीपर न गिरने देकर उससे एक मूर्ति बनावे ॥ १० ॥ प्रवराष्टदिशापालकपुतलिकाः स्वस्वर्णसंयुक्ताः। लक्षण युक्त दिव्या वकारयेसिद्ध मृतिकया ॥ ११ ॥
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१०८] स्वामामालिनी कल्प।
अनम किछेन अथो-फिर सिद्ध मिट्टीसे अपने अपने वर्ण और सब लक्षणोंसे युक्त आगे लोकपालोंकी दिव्य मूर्तियां बनवावे ॥११॥ वहिरप्येके देशे मंडलमन्वद्विलिख्य च प्राखत ।
तत्रोष्णवारिणा स्नापयेत्पुरा देवदत्तं तं ॥ १५ ॥ सिद्ध मिट्टीकी परिभाषा
अर्थ-बाहर भी पूर्व के समान एक और मंडल बनाकर राजद्वारचतुःपथकुलालकरुवामलूरसरिदुमय तटः
वहां पहले उस साधक देवदत्तको उष्ण जलसे स्नान द्विरदरदवृषभगक्षेत्रगता मृतिका सिद्धा ॥ १२ ॥
करावे ॥१५॥ अर्थ-राजद्वार, चौराहे, कुम्हारके हाथ, उत्तम नदीके
साधारण पूजन दोनों किनारे, हाथी दांत, और बैलके सींगके ऊपरकी मिट्टी सिद्ध मिट्टी कहलाती हैं ॥ १२ ॥
विनयं ज्वालामालिन्युपेतमय हूँ युगं ततः सर्वान् ।
अपमृत्यून् द्विघातं से वं मं देवदत्त मथ रक्ष युगं ।। १६ ।। असितं पीतं लोहितमसितं हरितं शशिप्रभं कृष्णं ।
शांतिं कुरु कुरु सद्वरुणां देवते निज बलिं च गृह्ण युगं । बहुवर्णं सितवर्ण चरुकं गंधादिभिर्युक्त ॥ १३ ॥
स्वाहा मंत्र प्रपठन् निवर्तयेत् समल चरुकेण ॥१६॥ अर्थ-फिर काली, पीली, लाल, काली, हरी, स्वेत
- अर्थ-निम्नलिखित मंत्रको पढ़ता हुआ मलवाली काली, बहुत रंगवाली और सफेद चंदन, गंध आदिसे ।
मूर्तिको चरु देवे ॥ १७ ॥ युक्त ॥ १३ ॥
मंत्र-ॐ ज्वालामालिनि हु२ सर्वाय मृत्यून् घातय२ नव पटलिका सुदत्वा प्रथमायां स्थापयेन्मलप्रतिमां ।
संबं मं देवदत्तं रक्षर शांतिं कुरु कुरु सद्वरुण देवते निज बलिं शेषास्विद्रादीनां प्रतिमान् संस्थापयेत्क्रमशः ॥१४॥
गृहर स्वाहा ।। १७॥ अर्थ-नव पटडियोंको लेकर पहिली पर उस मलवाली
एवं निवर्धयित्वा चरुकं मंत्रेण निक्षिपेन्नद्यां । प्रतिया को और शेप आठों पर क्रमशः इन्द्र आदि आठों लोक
दिग्पालक चरु कैरपि निवर्द्ध येत्स्वेन मंत्रेण ॥ १८॥ पालाची प्रतिमाओं को स्थापित करे ।। १४ ॥
अर्थ-इस प्रकार उस चरुको देकर नदीमें विसर्जिता
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बारामालिनी कल्प।
म पबिपछे छ कर दे और आगे दिक्पालोंके चरुको भी इस मंत्रसे
अर्थ-पुष्प और अक्षत दोनों हाथोंमें लेकर मस्तक पर देकर ।। १८ ॥
हाथ रक्खे हुए उस मंडलकी प्रदक्षिणा देकर सामने मख ॐ कूट पिण्ड शिखिनी संमं हं च देवदत्तस्य ।
करके उसके मध्य में बैठ जावे ॥२२॥ शांति तुष्टिं पुष्टिं कुरु युगं रक्ष युगलं च ॥ १९ ॥
वसुधारा मन्त्र दिग्देवते बलि गृहण मंत्र सराब होमान्तं ।
ॐ वसुधारदेवते ज्वालामालिनि जल २ विजल विजल एवं निवर्ध्य विधिना बलिं क्षिपेत्स्वदिति जल मध्ये ॥२०॥
| सुजल २ हेमर शीतल २ देवि कोटिभानु चन्द्रांशु कुरु२ हूँ व्य ज्वालामालिनि संबं में हं देवदत्तस्य शांति त्रिभुवनसंक्षोभिणि क्षा क्षी सूक्षौं क्षः देवि त्वं आत्मपरिवार तुष्टिं पुष्टि कुरु२ रक्ष२ दिग्देवते बलिं गृह २ स्वाहा।
देवता सहिते देवदत्तस्य तुष्टिं पुष्टिं शीघ्र वर देहि२ सद्धम्मश्री
बलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धि कुरु२ सर्वोपद्रवमहाभयं नाशयर इत्यष्ट दिग्पालक विवर्धन
सर्वाप मृत्यून घातय२ शीघ्रं रक्षर नव ग्रहा एकादशस्था सर्वे अर्थ-विधिपूर्वक सुन्दर जलमें विसर्जित कर दे। फलदा भवन्तु हां ह्रीं है हो हः स्वाहा सर्व वश्यं कुरुर मंत्र-ॐक्ष्च्यू ज्वालामालिनि संव में है देवदत्तस्य ।
क्रौं क्रौं वं मंहं सं तं स्वाहा ।" 'शांतिं तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु रक्ष२ दिग्देवते बलिं गृह२ स्वाहा ।" वसुधार मंत्रमिदं प्रपर्टस्तीर्थोदकं च गौमत्रं ।
"गव्यानि पंचतकं दधि त्रिमधुरं तथा क्षीरं ।। २३ ।। दिव्याम्बरभूषाकुसुममलजालं कृतोतमशरीरः। उत्थाप्य तत्प्रदेशाव्रजतु ग्रहपादुकोरूढः ॥ २१ ॥
अर्थ-इस वसुधारा मंत्रको पढता हुआ तीर्थों के जल,
-गौमत्र, और गऊके पांचों गव्य तक्र,दही, त्रिमधुर, दूध ॥ २३॥ अर्थ-फिर दिव्य वस्त्र आभूषण पुष्प और सुगन्धि । आदिसे अपने शरीर पर शोभित करके वहांसे उठकर खडाऊँ । वर पंच पल्लवोदकमपि च प्रक्षिप्य लंबमान घटे। पर चढ कर चले ॥ २१ ॥
-संस्थाप्यावस्थं तं पश्चाद्गंधोदक दद्यात् ॥ २४ ॥ कुसुमाक्षतांजलिपुटोललाटहस्तः प्रदक्षिणीकृत्यः । ३६ अर्धा-पांचो उत्तम पत्ते और जलको उस लटकते हुए जमा-तन्मंडलं ततोसाबभिमुखमुपविश्व तन्मध्ये ॥२२॥ - घडे में डालकर फिर उसको नीचे रखकर गंधोदक देवे ॥२४॥
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११२ :
मनकल्प
पिष्टमयानि नवग्रहरूपाणि स्वर्णवर्णयुक्तानि । तान्यात्मवचनच रुकस्योपरिसंस्थापयेत् प्राग्वत् ।। २५ ।।
अर्थ - फिर पिसे हुए द्रव्य के स्वर्ण वर्णवाले, नवग्रहोंके रूप बनवा कर उनको पूर्ववत् अपने चरुके साथ स्थापित करे ||२५||
reat मास्करभौमपीत बुधसुरगुरु शशांक शुक्तौ । श्वेतच शनिश्चरराहुकेतवः कृष्णवर्णाः स्युः ॥ २६ ॥
अथ:---
-सूर्य और मंगलको रक्त वर्ण, बुध और गुरुको पीत वर्ण, शुक्र और चंद्रमाको श्वेत वर्ण तथा शनैश्वर राहु और केतुको कृष्ण वर्णका बनावे ॥ २६ ॥
सुरभितर मलयजाक्षतकुसु मोज्वलदीपधूपसंयुक्तः । चकैर्निवेदयेतैः क्रमेण तं स्वेतमंत्रेण ॥ २७ ॥
अर्थ - फिर अत्यन्त सुगन्धित, चंदन, अक्षत, पुष्प, उज्वल दीपक, धूप और चरुको लेकर उनको निम्न लिखित मंत्रसे दे ॥ २७ ॥
नवग्रह मन्त्र
ॐ ज्वालामालिनि सर्वाभरणभूषिते ग्लौं २ हक्कर क्लर ल२ ल२ सर्वमृत्यून् हनर त्रासय त्रासय हूँ हूँ २ हंसः फट् घेर सर्व रोगान् दहर हनर शीघ्रं देवदत्तं रक्ष२ नवग्रह देवते बलिं गृह २ २ स्वाहा ।
अष्टप परिच्छे
एवं निवर्धficer तं चरुकं निक्षिपेनदी मध्ये | स्नानोद्भवमंडल के वरेणसहितेन मंत्रेण ॥ २८ ॥
अर्थ - इस प्रकार स्नान के पश्चात् उस मंडल में इस मंत्रसे चरु, देकर नदीमें विसर्जित करदे ॥ २८ ॥
स्नानान्तरमथ वस्त्रालंकाररत्न कलशाद्यं । नान्यस्य तत्प्रदेयं स्वयं ग्रहीतव्यमात्मयोग्यमिति ॥ २९ ॥ अर्थ- स्नान के पश्चात् वस्त्र अलंकार और रत्न कलश | आदिको दूसरे के लिये न देवे क्योंकि वह अपने योग्य होते हैं | परिदातुमकतु दत्वांवर भूषिताम्बरभूषणादि तस्यान्यत् । पश्चादन्यत्र शुचौ देशे संभाजिते चतुष्कयुते ॥ ३० ॥
अर्थ- किन्तु अपने दूसरे वस्त्र आभूषण आदि दे सकता है। इसके पश्चात् चौक पूरे हुए अन्य पवित्र स्थानमें ॥ ३० ॥ धातु ततः पश्चात् ग्रीवायामस्य देवदत्तस्य । रोगाय मृत्युहति विद्यां मृत्युञ्जयां सद्यः ॥ ३१ ॥ अर्थ- इस देवदत्तकी गर्दनमें रोग अपमृत्युको नष्ट करनेवाले मृत्युञ्जय नामके यंत्रको बांधे ॥ ३१ ॥ धौतसितवत्रपिहिते पट्टकपीते निवेद्य विधिनैव । अतिसुरभिपुष्पवृष्टि स्नानेन स्नापयेन्मंत्री ॥ ३२ ॥ मुख्य स्नान
अर्थ — मंत्री इस प्रकार उसको श्वेत वस्त्र ढके हुए पीले परंडे पर विधिपूर्वक बैठाकर अत्यंत सुगंधित जलसे निम्नलिखित मंत्र से स्नान करावे ॥ ३२ ॥
८
११३
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ज्वालामालिनी कल्प।
नवम परिच्छेद ।
[११५ अथ नवम परिच्छेदः
नीराजन विधि परिमदितेन पिष्टेन कारयेत्सर्ववर्णयुक्तानि । प्रवराष्टमातृकानां मुखान्यलंकारसहितानि ॥१॥
___ अर्थ-मलकर पिसी हुई सिद्ध मिट्टीसे सर्व वर्ण युक्त पूर्वोक्त मुख्य अष्ट मात्रका देवियोंके मुख अलंकार सहित बनावे ॥१॥
• ॐ को ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां द्रीं हां आं को क्षी देवदत्तं सुगंध पुष्पस्नानेन सर्वशांति कुरु२ वषट् पुष्पवृष्टि स्नानं मंत्रः"
एवं विधिना स्नातस्य देवदत्तस्य शिखिमती देवी। श्री सौरभ्यारोग्यं तुष्टि पुष्टिं ददाति सदा ॥ ३३ ॥
अर्थ-ज्वालामालिनि देवि इस प्रकार स्नान किये हुये देवदत्तको सौभाग्य आरोग्य तुष्टि और पुष्टि निरंतर देती है ॥३३॥ आयुर्वर्द्धयति ग्रहपीडामपहरति हति शत्रुभय । नाशयति विघ्नकोटिं प्रशमयति च बहुविधान् रोगान् ॥३४॥
अर्थ-आयुको बढाती है। ग्रह पीडाको दूर करती है। शत्रु भयको नाश करती है। और बहुत प्रकारके रोगोंको शांत करती है ॥ ३४॥ एत ज्वालामालिनोक्त सापमृत्युनाशक। वसुधाराव्यं स्नान करोतु शांतिबिधिनियुक्त ॥ ३५॥
अर्थ-ज्वालामालिनीके द्वारा कहे हुये सब आप मृत्युके नाश करनेवाले इस वसुधारा नामके स्नानको शांति विधि पूर्वक करना चाहिये ॥३५॥ इतिश्री हेवाचार्य प्रणीत अर्थ में श्रीमद् इन्दनन्धि योगींद्र विरचित प्रथमें चालामालिनी कल्पकी, प्राच्य विद्यावारिधि काव्य
सास्य तीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शाखो कृत FRP मापाटीकामें "बसुधारा स्नानविध नामक
सष्टम परिच्छेद समाप्त हुना॥८॥
बहुमक्षचरूकमलयजकुसुमाक्षतदीपधूपसहितेन । एकैकेन मुखेन तु निवर्तयेत्प्रतिदिन विधिना ॥२॥
अर्थ-और बहुत प्रकारके भक्ष्प, चरु, चंदन, पुष्प, अक्षत, दीप, और धूपसे प्रतिदिन एक एकके मुखका भोग लगावे ॥२॥ कूट ऊकांत भांत ठकारांबुधि सांत पिंड संभूतैः । मंत्रै निवधयेन्मातृके बलं गृहण गृहण हो मांते ॥ ३॥
अर्थ-ॐ, न्यू, इल्व्यू, खम्ल्यू, मल्ब्यू, उम्ल्व्यू, कन्व्यू, और मन्व्यू, बीजोंमें उस उस मातृकाका पूर्वोक्त क्रमसे नाम लगाकर ।
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माहिती कल्प |
"मातृके बलिं गृह र स्वाहा " मंत्र से बलि देवे । एकैकमपि निवर्धनमनेकदोषापहारि भवति नृणां । एवं निवर्धयित्वा जलमध्ये तं बलिं दद्यात् ॥ ४ ॥
११६
अर्थ -- एकर को ही बलि देनेसे पुरुषोंके अनेक दोष नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार करके उस बलिको जलमें विसर्जित करदे ॥ ४ ॥
काली च महाकाली मालिनी लान्या तथैव कंकाली । सत्काल राक्षसीवरजंधे श्री ज्वालिनी तैब ॥ ५ ॥
अ- काली, महाकाली, मालिनी, कंकाली, कालराक्षसी, अग्निरूप वरजंघा ॥ ५ ॥
विकरालीवैतालीत्येतासां दिव्यदेवतानां तु । कृत्वा मुखानि लक्षणयुतानि सत्सिद्धमृतिकया ॥ ६ ॥
अर्थ - विकराली और बैताली इन दिव्य देवियोंके लक्षण सहित मुख सिद्ध मिट्टी से बनावे || ६ |
तीक्ष्णनखदंष्ट्राग्राणि वृतनयनानि लुलितानि जिह्वानि । कुसुमाक्षत मलयजदी पधूपबहुभक्षयुक्तानि ॥ ७ ॥
अर्थ — इसके तीक्ष्ण नख, और डाट, गोलनेत्र, और जीभ निकली हुई हो। इनका भक्षं पुष्प, अक्षत, चंदन, दीप और धूप होता है ॥ ७ ॥
प्रतिदिवस कारयेविवर्धनकं ।
प्रारभ्य चतुर्दश्यां नवदिवस सप्तमी यावत् ॥ ८ ॥
अर्थ – इनमें से प्रत्येकके मुख में प्रतिदिन बलि दे । यह प्रयोग चतुर्दशी से प्रारम्भ करके नव दिन अर्थात् सप्तमी तक किया जाता है ॥ ८ ॥
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वृद्धिकर मशुभनाशं कृत्वा नीराजनं शुचिमंत्री ।
शतर मुखरिपु मंत्रेण तु जलमध्ये तं बलिं दद्यात् ॥ ९ ॥
अर्थ - पवित्र मंत्री वृद्धिके करनेवाले, अशुभका नाश करनेवाले, नीराजनको करके शत रिपुमंत्रसे जलमें बलि देवे ।
वीरेश्वराश वटुकः पंचशिराविज्ञनयकश्च महा । कात्येषां मुखानि पिष्टेन कार्याणि ॥ १० ॥
अर्थ – विरेश्वराश, वटुक, पंचशिरा, विन नायक और महा कालके मुखको भी पिसी हुई सिद्ध मिट्टीसे बनावे |
उग्राणि लोचनत्रय युतानि मूर्द्धस्थ दीप्तदीपानि । बहुभक्षकुसुम मलयज सुगन्धधूपश्च सहितानि ॥ ११ ॥
अर्थ - इनके उग्र तीन नेत्र, शिरपर चमकते हुए दीपक और बहुत प्रकारका भक्ष, पुष्प, चन्दन और सुगन्धित धूप हो ॥ ११ ॥
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तेनैकेन निवर्द्धयेन्मुखेन्द्रवैरिमंत्रेण । अहरोगमारिपीडामपहरति बलिज्जलेक्षिप्तः ॥ १२॥
अर्थ-इन्द्र वैरि मंत्रसे इनको बलि देकर नलमें फैंकनेसे ग्रह रोग और मारि पीडा दूर होती है ॥ १२ ॥ दधिघृतमित्रेण सुमर्दि तेन शाल्योदनेन तत्कृत्वा । दुईनरदनदंष्ट्र सुसिद्ध वागीश्वरी रूपं ॥ १३ ॥
अर्थ-फिर पिसी हुई सिद्ध मिट्टीमें दही, घी और चांवलोंके जलको मिलाकर उससे तीक्ष्ण नख, दन्त और डाढवाले सिद्ध वागेश्वरीका रूप बनावे ॥ १३ ॥
। तीक्ष्णोन्नतसितदंष्ट्र विलुलितजिव्ह त्रिनेत्रमयनाशं । पिष्टेन कारयेद्विकरालं वागीश्वरी रूपं ॥ १६ ॥
अथ"-फिर तीक्ष्ण उन्नत और श्वेत दाढोंवाली, निकलो हुई, जिह्वावाली, तीन नेत्रवाली, वागेश्वरी देवीके विकराल रूपको पिसी हुई सिद्ध मिट्टोसे बनाये ॥ १६ ॥
रूपेण तेन बहुभक्षचस्बरदीपधूपसहितेन । कुर्यानिवधेनं सकलदोष हृतं खडगमंत्रेण ॥ १७ ॥
अर्थ-इनको, चरु, दीप, और धूपकी बलि खड्ग मंत्र देनेसे संपूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं ॥१७॥ योगनिका दिव्यमहायोगिनिका सिद्धमंत्रेण योगिनी चैव । अन्युजनेश्वरीप्रेतावासिन्यथ शाकिनी देवी ॥ १८॥
अर्थ-दिव्य योगिनी, महायोगिनी, योगिनी । अन्पुजनेश्वरी। प्रेतावासिनी, और शाकिनी देवी॥ १८ ॥ रूपाण्यासां पिष्टेन कारयेद्भक्षसहितबलिचरुकाणि । जिह्वाष्टकमष्टशतं नेत्राणां कारयेत्प्रागवत् ॥ १९ ।।
अर्थ-के रूपोंको पिसी हुई सिद्ध मिट्टीसे आठ जिह्वा और एकसौ आठ नेत्रबाला बनावे ॥ १९ ॥ घंटा पतिकिका माल्यदीप युक्त मंत्रेण। रूपेणे कैकेन प्रतिदिबसं कुरु निवर्धकं ॥२०॥
प्रज्वलितसिद्धवर्तिमुनि दीपं समुजन्वं दद्यात् । जिलाष्टकमक्षणामप्पष्टशतं कारयेच्चान्यत् ॥ १४ ॥
अर्थ-इनके सन्मुख सिद्धबत्ती जली हुई हो, मस्तक पर उज्वल दीपक रक्खा हुआ हो। आठ जीभ और एकसौ आठ आंखें हों॥१४॥
कृश रोश द्योतनगन्धकुसुमबलिमक्षधूपसहितेन । रूपेण तेन कुर्यानिवधनं निशि समस्तदोषहरं ॥ १५ ॥
अर्थ--इनको सुगंधित चंदन धूप और पुष्पोंकी बलि देने से रात्रि में समस्त दोष दूर हो जाते हैं ॥ १५॥
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अर्थ-इनके सन्मुख घंटा पताका और माल। आदि रखकर सिद्ध मंत्रसे चरुकी बलि प्रतिदिन पृथकर देनी चाहिये ॥२०॥
पुरुषातीतायुवर्षे संख्यया तंदुलांजलिनादाय । तत्पष्टेन कुर्याद्ग्रहरूपं लक्षणसमेतं ॥ २१ ॥
अर्थ-पुरुषकी बीती हुई आयुके वर्षोंकी संख्या प्रमाण चांवलोंकी अंजुलिको लेकर उसको पीस कर लक्षण सहित ग्रहोंका रूप बनावे ॥ २१॥ तुद्रुपं बहुबलिभक्षगंध समाल्यदीपधूपयुतं । अग्ने निधाय तस्या तुरस्य नव पटलिका तस्थ ॥ २२ ।।
अर्थ-उनको अपने सन्मख पटडों पर स्थापित करके गंध उत्तम माला दोप और धूपकी बहुत प्रकारको बलि देवे ॥२२॥ खड्गै रावण विद्या मुच्चैरुचारयन्मंत्री। पुष्पैत्रिवर्ध्य पूर्व स तंदुलै गृहमुखं हन्यात् ॥ २३ ॥
अर्थ-फिर मंत्री खडगै रावण विद्याका जोरसे उच्चारण करता हुआ पहले पुष्षोंकी बलि देकर फिर उनके मुख पर चांवल मारे ॥ २३ ॥ रूपेण तेन पश्चान्निवयं विधिना जलस्यमध्ये तु। दद्यालि निशयां समस्त दोषान् हरत्याशु॥२४॥
अर्थ-फिर उस रूपको रात्रि में विधिपूर्वक बलि देकर जलमें स्थापित कर देतौ समस्त दोष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥ २४॥
यह ज्वालामालिनीदेवीकी कही हुई इस प्रकारकी "नीराजनविधि " ग्रह, भूत, शाकिनी और अपमृत्युके भयको शीघ्र ही दूर करती है।॥ २५ ॥ इतिश्री हेलाचार्य पणोत अर्थ में श्रीमद इन्द्रनन्दि योगी विरचित ग्रन्थमें व्याळामालिनी कल्पकी, प्राच्य विद्यावारिधि काव्य साहित्य तीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शस्रो कृत भाषाटीकामे "नीराजन विधि , नामक
बम पच्छेद समाप्त हुना॥९॥
CAT
MI
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दशम परिच्छेद।
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ReRINAMANPRAMINARMINMMANITORINIMINiwomansar
को अथ दशम परिच्छेदः
शिष्यको विद्या देनेकी विधि ईशानदिगभिमुखजलनिपातयुतशून्यजिनगृहोद्देशे। अपतित गोमय गोमूत्र विहित सम्माजिते रम्ये॥१
अर्थ-जिन मंदिरके एक स्थानमें ईशान कोणकी ओर द्वार बनाकर पहिले जल छिड़ककर फिर उसे पृथ्वी पर न मिलेर गोबर और गौमत्रसे लीप पोतकर शुद्ध करे ॥१॥
चूर्णेन पंचवर्णेन समानहस्तायतं चतुष्कोणं । रेखा त्रयेण विधिना सत्याख्यं मंडलं विलिखेत् ॥ २॥ ___अर्थ-फिर वहां पर पंच वर्ण चर्णसे समान हाथ लंबे चौड़े चौकोर निम्नलिखित सत्य नामवाले मंडलको तीन । रेखाओंसे विधिपूर्वक बनावे ॥ २ ॥
तस्यवहिर्वारिनदीभ्रांतावर्तो भिजलचराकीणां । पश्चिमदिशिजल मध्ये रूपं वर्णस्यलिखितव्यं ॥३॥
अर्था-उसके बाहर पश्चिम दिशामें समुद्र बनावे, जिसमें नदियोंका जल आ रहा हो लहरें उठ रही हों और जलचर मरे हुए हों फिर उस समुद्र में वरुणका रूप बनावे ॥३॥
मलयजकुसुमाक्षतचर्चितान् सितान् वीजपूरपिहित मुखान् । पूर्णघटान् सहिरण्यान् तत्कोणचतुष्टये दद्यात् ॥४॥
अर्थ-उस मण्डलके चारों कोनोंमें चंदन, पुष्प और अक्षतसे पूजे हुए बीजोंसे मुखतक भरे हुए हिरण्य सहित चार श्वेत घडोंको रखे ॥४॥ सौवर्ण रौप्यं वा पदयुगलं कारयेनतेव्या : अभिषिच्य पंचगव्यैः दधिघृतसत्क्षोरगंधजलैः॥ ५ ॥
अर्थ-फिर वहांपर देवीके चरण सुनहरे या रौप्य वर्णके बनाकर उनका पंच गव्य दही घी दूध गंध और जलसेअभिषेक करे ॥५॥ मंडल हक्षिणदेशे पदयुगलं पूजितं निवाय तयो। नैऋत्यादिषु दिवस्यान्वय चरणद्वयानि लिखेत् ॥ ६ ॥
अर्थ-इन चरणोंको मंडलकी दक्षिण दिशामें बनाकर पूजा करे और दूसरे चरण नैऋत्य आदि दिशाओंमें बनावे ॥६॥
अहत्पद कमल युगं मंडलमध्ये बिलिख्य चर्णेन । कोणेषु सिद्धसूर्यपदेशकमुनिपदयुगानि लिखेत् ॥ ७ ॥
अर्थ-मंडलके मध्यमें चूर्णसे भगवान अर्हन देवके. चरण बनावे । और कोनोंमें सिद्ध सूरि उपदेशक और मुनियों के. चरण बनावे ॥७॥
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१२४ ।
चाकामा
नरम
छ
।
जोड़े हुए प्रदक्षिणा करनेवाले मंडलके बीचमें बैठे हुए शिष्यको घडोके जलसे स्नान करावे ॥११॥
स्नानाम्बरभूषादिकमुचितं नाम्पस्य तद्गुरो रुचितं । परिधातुमस्य पश्चादन्यद्वस्त्रादिकं देयं ॥ १२ ॥
अर्थ-उस समयके वस्त्र आभूषण आदि गुरुको ही देने उचित हैं। शिष्यको दूसरे वस्त्र आदि देवे ॥ १२ ॥
गंधाक्षतकुसुमसुदीपधूपचरुकै समञ्चयेत्सब । । तदुपरिविचित्रपुष्पै मोहरं मंडपं रचयेत् ॥ ८॥
अर्थ-इन सबकी गंध, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप, और चरुसे पूजा करके इनके ऊपर अनेक प्रकारके पुष्पोंसे शोभित मंडप बनावे ॥ ८॥ सत्यं मंडलमेवं विलिख्य पश्चात्सगंध कुसुमाद्यैः ।
कंकणकर्णामरणांबरादिकरचयेगुरोश्चरणौ ॥९॥ . अर्थ-इस प्रकार इस सत्य मंडलको बनाकर पोछे सुगन्धित पुष्प आदि कर्णाभूषण और वस्त्र आदि देकर गुरुके चरण बनावे ॥ ९॥ मणिकनक रजत सूत्रः पुस्तकमावेष्ट्य दिव्यवस्त्रश्च । शिखिदेवी पदयुगले निधाय गंधादिपिश्च जयेत् ॥ १० ॥
अर्थ-मोने और चांदीके तारोंमें परोई हुई मणियोंकी माला और दिव्य वस्त्रसे पुस्तकको लपेटकर उसे ज्वालामालिनी देवीके चरणोंमें रखकर उसका गंध आदिसे पूजन करे ॥१०॥ कुसु र क्षनांजलि पुटं ललाटहस्तं कृतप्रदक्षिणकं । मंडलमध्यनिवेष्टं घटोदकः स्नापयेच्छिष्यं ॥११॥
देवीमुनिगुरुचरणप्रणतायसुधर्मभक्तियुक्ताय । धृतपुस्तकाय तस्मै विद्यादिना देया ॥ १३ ॥
अर्थ-फिर देवी और मुनिके चरणौमें झुके हुए धर्म तथा भक्ति युक्त धारण किये हुए उस शिष्यको साध्य आदि युक्त विद्या दी जावे ॥ १३ ॥
पर समयाय न देया त्वया प्रदेशा स्वसमय भक्ताय । गुरुविनययुताय सदाचेतसे धार्मिकनराय ॥ १४ ॥
अर्थ-तुम यह विद्या अन्य मतावलम्बीको न देना। किंतु अपने शास्त्रके भक्त, गुरुकी बिनय करने वाले, दयालु, और धार्मिक पुरुषको ही देना ॥ १४॥
अशा-फिर पुष्य और अक्षतोंको हाथों में लेकर हाथ
ऋषिगौस्त्रीहत्यादिष यत्तत्पापं भविष्यति तवापि। यदि दास्यसि परसमयायेत्युक्तवातः प्रदातव्या ॥ १५॥
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१२६1
ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ-यदि तुम यह विद्या अन्यमतावलम्बीको दोगे तो, तुमको, ऋषि, गऊ, और स्त्रीकी हत्याका पाप लगेगा यह कह कर उसको विद्या दे देवे ॥ १५ ॥
छितिजलपवनहताशनयजमानाकाश सोम सूर्यादीन् । ग्रहतारागण सहितान् साक्षीकृत्वा स्फुटं दद्यात् ॥१६॥
दशम परिच्छेद ।
[१२७ अर्थ-कवियोंको बनानेके शास्त्र में चतुर, जिनेंद्र मगवानके मार्गके योग्य क्रियाओंसे पूर्ण व्रत, समिति, और गुप्तियोंसे रक्षित, मार्गके योग्य क्रियाओं श्री हेलाचार्य मुनि जयवंत हों ॥ १९ ॥ एवं क्षितिजलधिशशांकांबरताराकुलाचलास्तावत् । हेलाचार्योक्तार्थे स्थेयाच्छीज्वालिनीकल्पे ॥ २०॥
अर्थ-इस प्रकार श्री ज्वालामालिनी कल्पमें श्री हेलाचार्य के कहे हुए अर्थको, पृथ्वी, जल, चंद्रमा, आकाश, तारे और कुलाचल, पर्वत स्थिर रक्खें ॥ २० ॥
इतिश्री हेलाचार्य प्रणीत अर्थ में श्रीमत् इन्द्रनमिन मुनि विरचित प्रन्धमें गालामालिनी कल्पकी, प्राच्य विद्य दावि काव्य साहित्य तीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शस्रो कृत भाषाटीका में "साधन विधि नामक दशम परिच्छेद समाप्त हुआ ॥०॥
अर्थ-उस समय पृथ्वी, जल, पवन, अग्नि, यजमान, आकाश, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, और तारागण आदिको साक्षीसे उसको विद्या दे देवे ।। १६॥ त्वां मां शिवनद्देवी, हेलाचायं च लोकपालांश्च । साक्षीकृत्य मयं, तुम्यं दत्तेति खलु वाच्यं ॥ १७ ।।
अर्थ-तुमको मैंने ज्वालामालिनीदेवी, हेलाचार्य और । लोकपालोंकी साक्षीसे यह विद्या दी उस समय यह कहे ॥१७॥ साधनविधिना देया विधिना शिष्येण साधनाधिना देया। विधिनाग्रहीतविद्या शिष्योऽसौ सिद्ध विद्यः स्यात् ॥ १८ ॥
अर्थ-यह विद्या शिष्थको साधन और उसकी विधि । सहित देनी चाहिये। यह शिष्य विधिपूर्वक विद्या पाकर तुरंत ही विद्याको सिद्ध कर लेगा ॥१८॥ कविकरणसमयमुख्ये जिनपति मार्गो चितक्रियापूर्णः । व्रतसमितिगुप्तिगुप्तो हेलाचार्योंमुनिन्जयति ॥ १९ ॥
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वशम परिच्छेद।
[१२९ "वश्य तंत्राधिकार" नाम सप्तम परिच्छेदमें श्लोक संख्या (५१) "वसुधारास्नान विधि" नाम अष्टम परिच्छेदमें श्लोकसंख्या (३५) "नीराजनविधि" नाम नवम परिच्छेदमें श्लोकसंख्या (२५) "साधन विधि" नाम दशम परिच्छेदमें श्लोकसख्या (२०) सम्पूर्ण ग्रंथकी श्लोक संख्या तीनसौ अडसठ (३६८)
इतिश्री मालामालिनी कल्पको काव्य साहित्य तीर्थाचार्य प्राच्य विद्यावारिधि श्री चंद्रशेखर शास्त्री कुन
भाषाटोका समाप्त हुई।
१८]
खनाल मालिनी का श्री चंद्रनाथाय नमः । श्री अनंतनाथाय नमः। " मंत्रि लक्षण" प्रथम परिच्छेदे पद ग्रंथाः पंच त्रिंशत् (३५) ग्रहाधिकार द्वितीय परिच्छेदे पद ग्रंथाः दा विंशति (२२)। द्वादश बीजाक्षर विधान तृतीय परिच्छेदे पदग्रंथात्रयशीति (८३) मंडलाधिकार चतुर्थ परिच्छेदे पद ग्रंथाश्चतुश्चत्वारिंशत् (४४) भूताकंपन तैल विधि पंचम परिच्छेदे पद ग्रंथाः विंशति (२०) वश्य यंत्राधिकार षष्ट परिच्छेदे पद ग्रंथाः सप्त चत्वारिंशत् (४७) वश्य तंत्राधिकार सप्तम परिच्छेदे पद ग्रंथाः एक पंचाशत् (५१) बसुधारास्नान विधि अष्टम परिच्छेदे पद ग्रंथा: पंच त्रिंशत् (३५) नीराजन विधि नवम परिच्छेदे पद ग्रंथाः पंच विंशति (२५) साधन विधि दशम परिच्छेदे पद ग्रंथाः विंशति (२०) उभेय ग्रंथ ४५१ मंत्र गदवरददावे श्रीः श्री: अर्थ:-"मन्त्रिलक्षण"वाले प्रथम परिच्छेदमें श्लोकसंख्या (३५) "ग्रहाधिकार" नामवाले द्वितीय परिच्छेदमें श्लोक संख्या (२२) । "द्वादश वीजाक्षर विधान" नामवाले तृतीय परिच्छेदमें
श्लोक संख्या (६९) 'मंडलाधिकार" नामवाले चतुर्थ परिच्छेदमें श्लोक संख्या (४४) । 'भृतार्कपन तैल विधि' नाम पंचम परिच्छेदमें श्लोकसंख्या (२०) 'वश्य तन्त्राधिकार' नाम षष्टम परिच्छेदमें श्लोक संख्या (४७)
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१३०
ज्वालामालिनी वरूप ।
दशम परिच्छेद।
। १३१ अथ ज्वालामालिनी विधि
प्रौ पः पन्च्यूं आत्मरक्षां कुरु२ ह्रौं फट्स्वाहाः” इदं मंत्र २१ वार
पढे, वपु रक्षाकारयेत् जाप्य होमा कर्षणं कृत्वा स्तोत्रं पठनीयं चतुर्दशी पुष्पार्के उपवासं कृत्वा जाप १२००० त्रिसंध्यं
बस्वाभरणे नाह्वाननं दत्वा एक पूर्जा १४ द्विपूर्वा १४-१५ अर्थ रात्री एवं ४८००० एकासनेनेदं मंत्राक्षरेण "क्षांक्षी ऑक्षों
त्रिपर्वा त्रयोदशी चतुर्दशी अमावस्या इति ज्ञात्वा स्थापनीयं कृष्ण क्षः रून्यू र र र र र र शवन्मदेय२ नाशं कुरु२ स्वाहा" ॥
पक्षे झां झी मुझौं झःझल्ब्यू अंजसंचकार अचुक भूषणानि
संग्रहातां संग्रहातांर सन्निधिकरणं प्रातरुत्थाय करणीयं आं क्रों अनेन होमं कुर्यात्
ही इदं मंत्रेण विसर्जनं कुर्यात् कुमारी भोजन दानं पश्चात् भोजन ह्रीं क्लीं ब्लू छां छीं छ' छौं छः छम्न्च्यूँ ख ख ख क्रियते सर्वकार्य सिद्धिः॥ खादय२ शत्रुन् भस्म कुरु२ स्वाहा" ।
॥ इति संधि सूत्र प्रथम संधि समाप्तम् ॥ जाप्य होम विधि
अर्थ-चतुर्दशी पुष्य नक्षत्रके सूर्यमें उपवास करके निम्न चतर्भज मति महिषवाहन पीतवर्ण अंशुक रक्तवर्ण उज्वल लिखित मंत्रका एक आसनसे प्रातःकाल मध्याह्न काल सायंकाल भषणं महिष श्यामवर्ण तस्याभरण पीतवर्ण खङ्ग त्रिशूल पाशआर अद्धरात्रि बारह२ हजार जप करे । अर्थात च्यारों समय में शरासना युधं उत्तमासनेन स्थापितं तस्याग्रे जाप्यं रक्त पीत्त ४८०००पूर्ण करे ॥ मंत्र यह हैउज्वल फलानि मध्प रा लवंग जाप्यं ॥
ॐ शांक्षी खूशौं क्षः क्षल्ब्यू रर र र र र र शत्रून्मर्दय२
मर्दय नाशं कुरु२ स्वाहा।" होम विधि
जाप और होम की विधि षोडशांगुल कुडं चतुरस्र अवगाहित मध्ये होमं पंचामृत
पहिले देवीकी एक मूर्ति बनाये, मूर्तिमें निझ लिखित दशांगपूपैः खीर खांड नालिकेरैः शरीर संस्कार विस्नान पीत
विशेषताएं रक्खे-च्यार भुजाएं, महिषकी सवारी, शरीरका रंग जलेन हां ह्रीं ह्र हो ह्रः हल्ल्यू अनेन सप्त वाराभि मंत्र शिखा
पीला, देवीके वस्त्रोंका रंग लाल, उज्वल आभूषण, महिषका रंग रक्तां बरं धार्यते पीतासने पद्मासनेन उपावशत् "पात्राभूषाम, उसके आभूषणोंका रंग पीला, देवीके चारों हाथों में क्रमसे
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१३२] वालामालिनी काप। खड्ग, त्रिशल, पाश और धनुषबाण हो ॥ ऐसी देवीकी मूर्तिको उत्तम आसनसे स्थापित करके उसके आगे जप करे । जपके समय लाल, पीले और उज्वल पुष्प तथा अक्षत और काले, नीले, पीले तथा उज्जल फल और लौंग रक्खे ॥
___दशम परिच्छेद। [१३३ यह प्रातःकाल उठकर करे । और- 'आं क्रों ह्रीं'
इस मंत्रसे विसर्जन करे। फिर कुमारिको जिमाकर स्वयं भोजन करे।
होम विधि सोलह अंगुल लम्बे चौडे तथा गहरे हवनकुण्डमें पंचामृत दशांग धूप, खीर, खांड और नारियलसे हवन करे ।
पहिले पीले जलसे स्नान कर ले। फिर:
___ " ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः हल्ब्यू"
इस मंत्रसे सात वार अभिमंत्रित करके शिखा बंधन करे.. लाल कपड़े पहिने, पीले आसन पर पद्मासनसे बैठे। फिरः-- 'प्रां प्रीं प्रौं प्रा फ्ल्यू आत्मरक्षां कुरु२ ह्रौं फट् स्वाहाः।
इस मंत्रको इक्कीस वार पढकर शरीर रक्षा करे और इसके । पश्चात् जाप होम आकर्षण करके स्तोत्र पढे।
। वस्त्र और आभरणसे आह्वानन करके पहिले तेरह फिर चार और फिर पन्द्रह वार करके त्रयोदशी चतुर्दशी और अमावस्या जानकर कृष्णपक्षमें स्थापना करे। मंत्र यह है:
झांझो झझौं झः इस यू अंज संचकार अंचुक भूषणानि संगृह्यतार सन्निधिकरणं ।"
(इति संधिसूत्र प्रथम संधि समाप्त)
अथ मन्त्राकर्षण द्वितीय विधि जमव्यू हं ह्रीं ह्रीं क्लीं ब्लू देवान् नागान् यक्षान् गंधर्वान् ब्रह्मान् भूतान् व्यंतरान् सर्व दुष्टग्रहान् आकर्षय२ ॥
बनेन मंत्रेण आवेशनं स्थापनं । "हां ही है हौं हः ज्वलर ररररररर" अनेन मंत्रेण होम कुण्डमध्ये मरिचाणि निक्षिपेत् ।
"देवग्रहान् नागग्रहान् यक्षग्रहान् गन्धर्वग्रहान् ब्रह्मग्रहान् राक्षसग्रहान् भूतग्रहान् व्यंतरग्रहान् सर्वदुष्टाहान शतकोटिदेवतान् सहस्रकोटि पिशाचान् दह२ पचर छिन्द२ मिन्दर हां हु हुँ फट् स्वाहा
अनेन मंत्रेण देवीशक्त्या देववशीकरणं शाकिनी डाकिनी शत्रग्रहान् अनेन मंत्रण होमं कुर्यात सहस्र १२००० शत्रुनाशं । अनेन मंत्रेण गजेन्द्रनरेन्द्रसर्वशत्रुवशीकरणं पूर्वमंत्र स्मरणीयम् ।
इति ज्वालामालिनी स्तोत्र साधन मंत्रविधि सम्पूर्णम् ।।
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MINIMIRRORISMANANDMINIMINIANMAMINARIANRAINITIONARomamaANARoomso
अथ भाषा अर्थ "जम्न्व्यू हिं ह्रीं ह्रीं क्लीं ब्लू देवान् नागान् गन्धर्वान् ब्रह्मान भूतान् व्यन्तरान् सर्वदुष्टग्रहान् आकर्षय२ ॥"
इस मंत्रके द्वारा बुलावे और स्थापना करे। फिरः"हां ही है हौं हः ज्वल ज्वल र ररररररर" इस मंत्रके द्वारा होमकुण्डमें मिरचोंको डाले । फिर
"देवग्रहान् नागग्रहान् यक्षग्रहान् गन्धर्वग्रहान् ब्रह्मग्रहान राक्षसग्रहान् सर्वदुष्टग्रहान् शतकोटिदेवतान् सहस्रकोटिपिशाचान दह२ पचर छिन्द२ भिन्द२ ह्रां हुँ हुँ फट् स्वाहा।"
___ इस मन्त्रके द्वारा देव शक्तिसे देवताओं, शाकिनी, डाकिनी, और शत्रुग्रहोंको वशमें करो इस मंत्रसे १२००० होम करे तौ शत्रु नाश हो, इस मंत्रसे गजेन्द्र, नरेन्द्र और सब शत्रुओंको वशमें करे । और पूर्व मंत्रको स्मरण रक्खे ।
इति बालामालिनी स्तोत्र साधन मंत्र विधि सम्पूर्णम्।।
दशम पारच्छद। ज्वालामाला कराले शशिकरधवले पन पत्रायताक्षी । ज्वालामालिन्य भीष्टे प्रहसितवदने रक्षमा देवि नित्यम् ॥१॥ हां ह्रीं है हौं महेचेक्षण रुचिरूचिरां गांग दै देव में है। व संतं बीज मंत्रकृत सकल जगतक्षेम रक्षाभि धाने ॥ क्षांक्षी vधे समस्त क्षितितहमहिते ज्वालिनी गैद्र मर्ने । ः क्षों क्षौं क्ष क्षः बीजै रहितदशदिशाबंधने रक्ष देवि ॥२॥ हकारारावथोरभ्रकुटिपुटहटद्रक्तलोलेक्षणानि । ज्वाला विक्षेपलक्षक्षपित निजविपक्षोदयार्ण रक्षे । भास्वत्कांचीकलापे मणिमुकुटहटज्ज्योतिषां चक्रवालथंचचंडाशु मन्मंडल सगर जया पादिके रक्ष देवि ॥३॥ ॐ ह्रीं कारोपयुक्त र र र र र र रां ज्वालिनी संपयुक्तम् । ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां द्रीं सरेफ विपद मल कला पंच कोद्भासिह ह धू धू धूमांधकारिण्यखिलमिहजगदेवि देह्याशु वश्यम् । षो मे मन्त्र स्मरंतं प्रतिभयमथने ज्वालिनी मम वत्वम् ॥४॥ ॐ ह्रीं क्रों सर्व वश्यं कुरुर सर संक्रामणो तिष्ठ । हूँ हूं हूं रक्ष रक्ष प्रबल बल महा भैरवा राति भीते ॥ द्रां द्रींद्र द्रावय र हन फट् फट् वषट् बंध बंध । स्वाहा मंत्र पठतं त्रिजग दभिनुते देवि मां रक्ष रक्ष ॥५॥ हं झं झवीं वीं स हंसः कुवलयबकुले भूरसंभूत धात्रि । वीं झूह पक्षि हं हं हर हर हर हुँ पक्षिपः पक्षि कोपः॥
अथ ज्वालामालिनी स्तोत्र प्रारंभ श्रीमदत्योरूगेंद्रामर मुकुटतटालीटपादार विन्दे । माद्यन्मातंगकुम्भस्थलदलनपटश्रीमृगेंद्राधि रूढे ॥
बहमे तमाम पाठ विद्यानुवाद घाय ४ श्लोक १६४ से भागेसे लिखा गया है।
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म
छह
हाथीके समान अलि ) और वरदान चक्र, धनुष, बाण
वं झं हंसः परं झसर सर सर ए सत्सुधा वीज मंत्र
र्जालामालिनि स्थावर विष संहारिणि रक्ष रक्ष ॥ ६॥ एघेहि होकारनादै बल दनल शिखा कल्प दीर्घोय केशझामास्यैती वलत्रै विषम विष धरालं कृतैस्तीक्ष्ण दंष्ट्रः । भतः प्रेतैः पिशाचैः स्फुट घटित रुपा बाधितो ग्रोप सग्गेम् । धूलीकृत्य स्वधाना धन कुच युगले देवि मां रक्ष रक्ष ॥७॥ को को शाकिनीनां समुपगत मत ध्वंसिनी नीर जास्ये। ग्लो क्ष्म वं दिव्य जिह्वा गति मति कुफ्ति स्तंभिनी दिव्य देहे । फट फट् सर्व रोग ग्रह मरण भयोच्चाटिनी घोर रूपे। आंक्रां थीं मंत्र रूपे मद गज गमने देबि मां पालयत्वं ॥८॥ इत्थं मंत्राक्षरोत्थं स्तवन मनुपमवहि देव्याः प्रतीतम् । विद्वेषोच्चाटन स्तंभन जन वशकृत पाप रोगापनोदि ॥ प्रोत्सप्पे जंगम स्थावर विषम निष ध्वंसनं स्वायुवा रोग्य । धैर्यादीनि नित्यं स्मरति पठति यः सोऽश्नुतेऽभीष्टसिद्धिम् ॥९
अर्थ- इस प्रकार यह मंत्राक्षरोंसे निकाला हुआ ज्वालामालिनीदेवीका अनुपम स्तोत्र है। जो इसको नित्य स्मरण करता है और पढ़ता है वह अपनी इच्छित सिद्धिको पाता
सीमोनसे विद्वेषण उच्चाटन स्तोमन और वशीकरण होते हैं। यह पाप तथा स्थावर और जंगम विषको नष्ट करता है। तथा आयु आरोग्य और ऐश्वर्य आदिको देता है ॥९॥ F-10 इतिभो चाहामारिनी स्तोत्र समाप्तम् ।'
। १३७ अथ ज्वालामालिनीकी अन्य साधन विधि पाश त्रिशूल ऊष चक्र धनुः शरा च,
सन्मातुलिंग फल दान कराष्ट हस्ता। मातङ्ग तुङ्ग महिषाधिप वाहयाना,
सा पातु मां शिवमति शरदिंदु वर्णा ॥१॥ अर्थ-पाश, त्रिशूल, मछली, चक्र, धनुष, बाण, मातुलिंग (बिजौरा फल ) और वरदान सहित आठ हाथोंवाली हाथीके समान ऊंचे भेसे पर चढ़कर चलनेवाली। और शरत् कालके चंद्रमाके समान वर्णवाली ज्वालामालिनी मेरी रक्षा करे ॥१॥ द्रां द्रीं सुबीज सुख होम पदांत मंत्र,
राज्यालिनी प्रमुख गै मम पाद नाभि । वक्षस्थलाननशिरांसि च रक्ष रक्ष,
त्वं देव्यमीभि रति पंच विधैः सु मंत्रैः ॥२॥ अभी-उत्तम बीज द्रां ह्रीं की आदिमें सुख (ॐ) लगाकर ज्वालामालिनी मम पादौ नाभि वक्षः स्थलं आननं शीर्ष रक्षर पदोंके पश्चात् अंतमें होम (स्वाहा) पद सहित पांच सुन्दर मंत्रोंसे शरीरकी रक्षा करे ॥२॥
मंत्रोद्धार ॐद्रां द्रीं ज्वालामालिनि मम पादौ रक्ष२ स्वाहा ।
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HINMANN
AINMUNAINMAINMMANOMANIMAHARANAMANARANUARMINARAINIMINARUmore
११३८ । स्वालामालिना कल्प।
दशम परिच्छेद ।
[१३९ ॐद्रां द्रीं ज्वालामालिनि मम नामि रक्षर स्वाहा ।
मन्त्रोद्धार ॐद्रां ह्रीं ज्वालामालिनि मम वक्षः स्थलं रक्ष२ स्वाहा । ॐद्रां द्रीं ज्वालामालिनि मम आननं रक्षर स्वाहा ।
'ॐ ज्वालामालिनी द्रां द्रीं क्लीं ब्लूहीं आं हां क्रों क्षीं नमः ॐ द्रां द्रीं ज्वालामालिनि मम शीर्ष रक्ष२ स्वाहा ।
ताम्बूल कुंकुम सुगन्धि विलेपनादीन् । कूटाक्ष पिंड प्रथ शून्य भपिंड युग्मं,
यः सप्तवार मभि मंत्र्य ददाति यस्यै ॥ तद्वेष्टितं भपर पिंड कलत्रि देहैः।
सातस्य वश्य मुपयाति निजानुलेपात् । बाह्यष्ट पत्र कमलं परघादि पिंडान् ।
स्त्रीणां भवे दभिनवः स च कामदेवः ॥५॥ -विन्यस्य तेषु परतो नव तस्त्र वेष्ट्यं ॥३॥
अर्थ-इस मंत्रको सिद्ध करनेवाला पुरुष तांबूल ककुम अर्थ-कटाक्षर पिंड शून्य पिंड दो। भ, य, र, पिंडसे और सुगन्धित लेप आदिको इस मन्त्र से सातबार मन्त्रित करके वेष्टित करके त्रिकल त्रिदेह (स्वरों)से वेष्टित करे । उसके पश्चात् । जिसको देता है। वह स्त्री या पुरुष सेवन करते ही साधकके. आठ पत्रोंमें य र ध आदिके पिंडोंको लिखकर बाहर नव बशमें हो जाते हैं। यह साधक स्त्रियोंके लिए नया कामदेव तत्वोंसे वेष्टित करे ॥३॥
बन जाता है ॥५॥ हा मां पुरोद्विप वशीकरणं तदने,
मायाक्षरं प्रणव सम्पुट मा विलिख्य, क्षी वीजकं शिखि मती वरपंच बाणैः।
बाह्येनि सम्पुट पुरंरर कोण देशे। मंत्रा नमोन्त विनयादिक लक्ष जाप्यं,
तद्वेष्टितं शिखि मतीवर मूल मन्त्रा, होमेन देवि वरदा जपतां नराणां ॥४॥
दायाति देव वनितापि खरानि तापात् ॥६॥ मूल मंत्र
अर्थ-माया अक्षर (ही) को प्रणव (ॐ) के संपुटमें अर्थ_हां आं द्विप वशीकरणं (क्रों) क्षों के पश्चात् । लिखकर बाहर अग्नि मण्डलोंका संपुट बनाकर उनके कोनोंमें देवीका नाम और पांच बाण सहित मन्त्रके आदिके विनय । "" बीज लिखे । सबसे बाहर ज्वालामालिनी देवीके मूल (ॐ) और अंतमें नमः लगाकर एक लक्ष जप करके होम । मन्त्रसे वेष्ठित करके तेज अनिकी आंच देनेसे देवताओंकी भी करनेसे देवी जप करनेवाले पुरुषोंको वर देती है ॥ ४ ॥ स्त्री आ जाती है ॥६॥
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R५०
पालामा उनो कल्प।
दशम परिच्छेद।
। १४१
आकर्षण यन्त्र
प्रातमस्तक सनिवेशित करो नित्यं पवेद्यः पुमान् श्रीसौभाग्य मनोभि वांच्छित फलं प्रामोत्य सौ लीलया ॥९॥
॥ इति श्री ज्वालामालिनी देवो सोत्र विधान ।।
अर्थ-यह पंडित मल्लिषेणका बनाया हुआ ज्वालामालिनीदेवीका स्तोत्र शांति करता है। भयको दूर करता है। सौभाग्य और संपत्तिको उस पुरुषके लिये करता है जो इसका प्रातःकालके समय, प्रतिदिन सिर पर हाथ जोडकर पाठ करते हैं ॥९॥
वशीकरण यंत्र विधान पत्राष्ट काम्बु रुह मध्य गत त्रिमर्ति,
शेषाक्षराणि च विलिख्य दलेषु देव्याः। माया वृतं मध समन्वित भांड मध्ये,
निक्षिव्य पूजयति द्वादशमेति साध्याः ॥७॥ अर्थ-अष्ट दल कमलकी कर्णिकामें त्रि मर्ति (ही) लिख कर देवीके शेष अक्षरोंको आठ दलोंमें लिखे । और हींसे बेष्ठित कर दे । इस मंत्रको मधुरक्त बरतनमें रखकर जो इसका पूजन करता है, उसके वशमें इच्छित स्त्री पुरुष हो जाते हैं ॥७॥
__स्त्री द्रावण ध्यान रामा वरांग वदने स्मर वीज कंत्त,
तस्योर्द्ध भाग तल भाग गतं त्रिमति । पार्श्वद्वये च पुन रेवल पिंडमेक,
ध्यायेदुभतं द्रव मुपैति नदीव नारी ॥८॥ अर्थ स्पीके योनि प्रदेशमें स्मर बीज (कीं) शिर और पैरमें, हीं, और दोनों करवटोंमें एवल पिंड (ब्ले) का ध्यान करनेस स्त्री तुरंतही द्रवित हो जाती है ॥ ८॥ इत्यं पंडित मल्लिषेण रचितं श्री ज्वालिनी देविका स्तोत्रं शांतिकरं भयाप हरणं सौभाग्य संपत्कर
अथ ज्वालामालिनीकी तीसरी साधन विधि पाश त्रिशूल कामुक रोपण ऊष चक्र फल वर प्रदानकरा॥ महिषारूढाष्ट भुजा शिखि देवी पातु मां साच ॥१॥ __ अर्थ-पाश, त्रिशूल, धनुष, बाण, मछली, चक्र, फल और वर प्रदान मुक्त आठ हाथोंवाली, भैंसे पर चढी हुई वह देवी ज्वालामालिनी मेरी रक्षा यरें ॥१॥ पत्थमुक्तरूपां तां मुखांतां ज्वालिनी तथा । आचरं नूप चाराणां पंचकं साध कोच्चयेत् ॥ २॥
अर्थ-साधक पुरुष उस देवी ज्वालामालिनीको एक पत्रके ऊपर२ कहे हुए रूपवाली लिखकर उसका पांचों उपचारोंसे पूजन करे ॥२॥
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१४२ ]
वालामालिनी कल्प
ब्रह्मावशिष्ट पिण्ड ज्वालिनी नव तत्व पूर्व मेहि युगं । स्वाहा संवौषडिति ज्यालिन्या ध्यान मंत्रोऽयं ॥ ३ ॥
अर्थ - ब्रह्म (ॐ) शेष पिंड ज्वालामालिनी नवतस्व तथा दो वार 'एहिर' के पश्चात् स्वाहा और संवौषट्युक्त मंत्र ज्वालिनीदेवीका ध्यान मंत्र है ॥ ३ ॥
ध्यानमन्त्र या आह्वानन मन्त्रका उद्धार
ॐ न्यू, मल्यू, घन्यू, मल्यू, खल्ब्यू, बल्ब्यू, ल्यू, कल्ब्यू, सम्पूर्णेन्दु स्वायुध वाहन समेते स परिवारे हे ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ग्लू' द्रां द्रीं हां आं क्रों क्षीं एहिर स्वाहा । संवौषट् ।
क्ष ह म म पिंड ज्वालिनि नव तत्वेन्वेष मन्त्रमुच्चार्य । स्वनिधन पद समुपेत खितये संस्थापना दीनां ॥ ४ ॥
अर्थ-क्ष, इ, भ और म, अक्षरोंके पिंड ज्वालामालिनी देवी और नव तत्वोंका उच्चारण करके अपने अन्तके पदों सहित स्थापना आदिके मंत्र बनते हैं ॥ ४ ॥
उक्त्वा मुमंत्र मंत्र नश्यत् संदर्श्यत् संदर्भ्य योनि मुद्रां च । ब्रूयाद्वि सृष्टि समये महा महिष वाहने तं ॥ ५ ॥
अर्थ – इन उपरोक्त मंत्रोंको बोलता हुआ विनोंको नाश करता हुआ योनि मुद्राको बार बार दिखलाकर अन्तमें। " महामहिषवाहने " यह पद भी कहे ॥ ५ ॥
दशम परिछेद ।
स्थापना मन्त्रका उद्धार
ॐ न्यू यू यू मम्यू धवल वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध, वाहन, समेते, सपरिवारे ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां द्रीं हां कों क्षीं तिष्ठ२ ठः ठः । स्थापनम् ।
[ १४३
सन्निधिकरण मन्त्रका उद्धार
ॐ यूयू यू मन्यू धवल वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध महा महिष वाहन समेते सपरिवारे ज्वालामालिनि, द्रां द्रीं क्लीं ग्लू, ह्रीं, हां, आं क्रों, क्षीं, मम सन्निहितो भव भव वषट् । सन्निधिकरणं ।
पूजन मन्त्रका उद्धार ॐ न्यूह
भन्यू मल्यू धवल वर्ण सर्व
लक्षण संपूर्ण स्वायुध महा महिष वाहन समेते सपरिवारे ज्वालामालिनि द्रां द्रीं क्लीं ब्लू ह्रीं ह्रां आं ज्ञीं इद मध्ये पाद्यं गंधमक्षेतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं कलं बलिं गृद्ध र नमः ।
अर्चना मंत्र ।
विसर्जन मंत्र का उद्धार
ॐ यू यू यू म्म्न्यू धवल वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध महामहिष वाहन समेत स परिवारे ज्वालामालिनि, द्रां द्रीं क्लीं, ब्लू, ह्रीं, हां, आं, क्रों, क्षीं, स्वस्थानं
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१४४ । ज्वालामालिनी कल्प। गच्छ गच्छ पुनरागमनाय जाज: जः ॥ विसजनम् ।।
अथ ब्राह्माद्यष्ट देवतानां पूजा ब्राह्मो आदि जाठों देखियों का पंचोपचार क्रम। ब्राह्मयादि देवता नांतु पूजा पिंडः सम ध्रुवं । ब्रामथादि यादिभिः सम्यक् कुर्यातनामतः सुधीः ॥१॥
ब्राझी आदि देवियोंका पूजन भी उनके नामसे पिण्ड लगाकर पंडित पुरुष करे॥
ब्राह्मी देवीका पूजन
महानन मंत्र। ॐ ह्रीं क्रों यल्व्यू पमराग वर्णे सर्व लक्षण सम्पूर्णे स्वायुध वाहन समेते स परिवारे हे ब्रह्माणि एहिर संवौषट आह्वाननम् । ___ॐ ह्रीं क्रों यन्व्य पराग वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेते स परिवारे हे ब्रह्माणि विष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं क्रों टम्ल्यू पाराग वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेत स परिवार हे ब्रह्माणि मम सन्निहितो भव । भव सन्निधिकरणम् ।
दशम परिच्छेद । ___ॐ ह्रीं क्रों यल्व्यू पद्मराग वर्णे सर्वलक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे ब्रह्माणि इदमध्यं गंधमक्षतं पुष्पं दीप धूपं चरुं फलं बलिं गृहर स्वाहा । अर्चनम् ।
ॐ ह्रीं क्रों यल्व्य पाराग वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेत सपरिवारे हे ब्रह्माणि स्वस्थानं गच्छ २ नः जाजः (विसर्जनम् )।
॥ इति ब्राह्मीदेवी पूजन ।। निज पिंड देह वर्णाख्या योगादष्ट भावमापन्ना । पंचोपचार मंत्रै मातृः सं प्राय॑ये देभिः ॥२॥
अर्थ-अपने देह पिंडके वर्ण नामयोग और आठों भावों सहित पंचोपचार मंत्रोंसे उन माता ॐ का पूजन करे ॥२॥
माहेश्वरीदेवीका पूजन ॐ ह्रीं क्रों मल्व्यू शशधरवणे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध बाहन समेते सपरिबारे माहेश्वरि एहि एहि संवौषट् । आह्वाननम् ।
ॐ ह्रीं क्रों मल्ब्यू शशधरवणे सर्वलक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेते स परिवारे माहेश्वरि तिष्ठ तिष्ठ टः ठः । स्थापनम् । ___ॐ हीं को मन्व्यू शशधरवणे सर्व लक्षण पूर्णे स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे माहेश्वरी मम सन्निहिता भव भव वषट । सनिधिकरणम् ।
ॐ को
..
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।
१४६ ।
ॐ ह्रीं शरवर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवार माहेश्वरि इदमध्ये गंधमक्षतं पुष्पं दीपं धूपं च फलं बलिं गृह गृह स्वाहा | अर्चनम् । वर्णे सर्वे लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे माहेश्वरि स्वस्थानं गच्छर जः जः जः । (विसर्जनम् ) ।
ॐ ह्रीं
कौमारीदेवीका पूजन
ॐ ह्रीं क्रीं प्रवाल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेत सपरवारे हे कौमारि एहि२ संत्रौषट् (इत्याह्वाननम् ) ॐ ह्रीं वा वर्णे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध बाइन समेते सपरिवारे हे कौमारि तिष्ठ२ ठः ठः । स्थापनम् । ॐ ह्रीं क्रीं प्रवाल बर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्त्रायुध वाहन समेते सपरिवारे हे कौमारि मम सन्निहिता भव भव वषट् । सन्निधिकरणम् । ॐ ह्रीं क्रीं प्रवाल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे कौमारि इदमध्ये गंधमतं पुष्पं धूपं दीपं च फलं बलिं गृह २ स्वाहा । अर्चनम् ।
ॐ ह्रीं क्रीं प्रवाल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे कौमारि स्वस्थानं गच्छर जः नः जः । विसर्जनम् ।
दशम परिछेद
वैष्णवीदेवीका पूजन
ॐ ह्रीं यूँ नीलोत्पल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेते स परिवारे हे वैष्णव एहि२ संगोषट् । इत्याह्वाननम् ।
[ १४७
ॐ ह्रीं को न्यू नीलो मल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वैष्णवि तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं क्रों झब्यू नीलोप्पल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वैष्णव मम सन्निहिता भवर वपट् । सनिधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं क्रों न्यू नीलोतल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वैष्णव इदमध्ये गंधमतं पुष्पं च फलं बलिं गृह २ स्वाहा । अर्चनम् ।
ॐ ह्रीं क्रो झन् नीलोतल वर्णे सर्वे लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वैष्णव स्वस्थानं गच्छ जः जः नः । विसर्जनम् ।
वाराहीदेवीका पूजन
ॐ ह्रीं को खल्यू इंद्रनील वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वाराहि एहि २ संघौषट् । इत्याह्वाननम् । ॐ ह्रीं क्रीं खन्यू इंद्रनील वर्णे सर्वे लक्षण संपूर्ण स्वायुध
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lammam
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वशम परिच्छेद ।
[१४९ १४८] वालामालिनी कल्प।
वाहन समेते सपरिवारे हे ऐंद्री स्वस्थानं गच्छ२ जःज: जः। वाहन समेते सपरिवारे हे वाराहि मम सन्निहिता भवर वषट् । सनिधिकरणम् ।
चामुण्डा देवीका पूजन ॐ ह्रीं क्रों खल्ब्यू इंद्र नौलवणे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वाराहि इदमध्ये गंधमक्षतं दीपं ।
ॐ ह्रीं क्रों कल्च्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध धूपं चरूं फलं बलिं गृह्ण २ स्वाहा । अचेनम् ।।
वाहन समेते सपरिवारे हे चामुण्डे एहि२ संवौषट् । आह्वाननं। ॐ ह्रीं क्रों खल्व्यू इंद्रनीलवणे सर्वे लक्षण संपूर्णे स्वायुध
___ॐ ह्रीं क्रों कन्व्यूं हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे वाराहि स्वस्थानं गच्छ२ जः जः जः।
दि स्वस्थानं गच्छ२ जः जः जः। वाहन समेते सपरिवारे हे चामुण्डे तिष्ठ२ ठठस्थापनम् । विसजनम् ।
___ॐ ह्रीं क्रों कन्व्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध ऐद्रीदेवीका पूजन
वाहन समेते हे चामुण्डे अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् । ॐ ह्रीं क्रों भव्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध
ॐ ह्रीं क्रों कल्ब्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे ऐंद्री ऐहि२ संबौषट् । आह्वाननम् ।
वाहन समेते सपरिवारे हे चामुण्डे इदमयं गंधमक्षतं पुष्पं दीपं ॐ ह्रीं को भल्व्यू हंस वणे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध
धूपं चरूं फलं बलिं गृह्ण२ स्वाहा । अर्चनम् । वाहन समेते सपरिवारे हे ऐंद्रो तिष्ठर ठः ठः । स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं क्रों कन्व्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वणे सर्व लक्षण संपूर्णे खायुधा वाहन समेते सपरिवारे हे चामुण्डे स्वस्थानं गच्छ २ जःजः जः। वाहन समेते सपरिबारे हे ऐंद्री मम समिहिता भव२ वषट् । विसर्जनम् । सन्निधिकरणम् ।
महालक्ष्मीदेवीका पूजन ॐ ह्रीं को भल्ब्यू हंस वणे लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन
महालक्ष्मी एहि२ संवौषट् । आह्वाननं । समेते सपरिवारे हे ऐंद्री मम समिहिता इदमध्ये गंधमक्षतं ।
ॐ ह्रीं क्रों कल्ब्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध पुष्पं दीपं धूपं चरूं फलं बलिं गृहर स्वाहा । अर्चनम्।
वाहन समेते सपरिवारे हे महालक्ष्मि तिष्ठर ठः ठः। स्थापनम् । ॐ ह्रीं क्रों भव्य हंस वर्णे सब लक्षण संपूर्णे स्वायुध
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सामानों कप।
दशम परिच्छेद ।
(१५१
ॐ ह्रीं क्रों कल्ब्यू हंस वर्षे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे महालक्ष्मि मम संहिता भव२ वषट् ।। सन्निधिकरणम् ।
ॐ ह्रीं क्रों कन्व्यू हंस वर्णे सर्व लक्षण संपूर्णे स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे महालक्ष्मि इदमयं गंधमक्ष पुष्प दीपं च फलं बलिं गृह्ण२ स्वाहाविसर्जनम् ।
बालेको वह माता ज्वालामालिनीदेवी पास आकर संपूर्ण शुभ और अशुभ फलको कहती है ॥३॥ मंत्र जप होम नियम ध्यान विधि मा करोतु सन्मंत्री। यद्यप्यत्र समुकं तथापि सन्मंत्र साधनं त जहातु ॥ ४ ॥
अर्थ---यद्यपि अग्नि एक होती है। तथापि उसको हवासे क्यों न उबका जावे। उसी प्रकार यद्यपि मंत्र एक ही होता है। तब भी जप और हवनसे युक्त होने पर उसके लिये क्या असाध्य है।
शिष्यको विद्या देनेकी विधि शान्यक्षतर्मन्डलमाविलिरव्य, विहस्तमानं चतु रस्र कं तव । जिनेन्द्रबिंब शिखिदेवतायाः, सुवर्णपादौ च निवेश्य तत्र ॥५॥
अर्थ-सांठीके चांवलोंसे दो हाथ लंबा चौडा चौकार मंडल बनाकर उसमें जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमा और ज्वालामालिनी देवीके चरणोंकी स्थापना करे ॥ ५॥
अष्टोत्तर शतपूर्ण रटोतर, शतक भक्ष दीपायैः। जिन शिखि देवी पदयोः, पूजा गुरु भक्तितः कार्या ॥६॥
- । इति ब्राह्मादि अष्ट देवनानां पंचोपचार कमः। ज्वालिन्या सन्निधौ देव्या। मूल विद्यामिमा सुधीः । लक्षमेकं जपेत्पुष्पै। संवृतैररुण प्रभः ॥ १॥
अर्थ-बुद्धिमान पुरुष ज्वालामालिनिदेवीके सन्मुख मल मंत्रका लाल पुष्पोंसे एक लाख जप करे ॥१॥
तनिष्टान निशायां हिम ककुम लघु पुरादिभि ,व्यैः। रचिताभि गलिकाभिः जुयाद युतं यथा विहितं ॥२॥
अर्थ-फिर रात्रिके समय हिम (चंदन), कुकुम (केशर) लघुपुरा (शुद्ध गूगल) आदि द्रव्यों की गोली बनाकर उनसे । दश सहस्र हवन करे ॥ २॥
अम्बादेवी सन्निहिता शुभमशुभं यथा फलं निखिलं। संपादये दभिमतं साधन विधि संग्रहीत विद्यस्य ॥३॥
अर्थ-इस प्रकार इस साधन विधिसे विद्या सिद्ध करने
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अर्थ-फिर उन भगवान और देवीके चरणोंकी एकसौ आठ सुपारी और एकसौ आठ नैवेद्य दीप आदिसे गुरुमें भक्ति लगाकर पूजा करे ॥६॥
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कलेन ।
हमारा का चंद्रादयः साक्षिणा इत्यथोक्ता हिरण्य निक्षिप्त घटस्य तोयैः। दद्यात्ततः साधक सव्य हस्ते विद्या प्रदता भवते मयेति ॥७॥
अर्थ-"चन्द्रमा इत्यादिकी साक्षी करके मैं तुमको यह विद्या देता है" यह कहकर शिष्य के बाएं हाथमें सोनेके कलशमेंसे जलकी धारा डाले ॥ ७॥
श्री जैन धर्मानु रताय विद्या, त्वया प्रदेयेति च भाषणीयं । मिध्यादृशे दास्यसि लाभ तश्चेत् ,
प्रामोति गौ ब्राह्मण घात पाप ॥ ८॥ अर्थ-"फिर उससे कहे" तुम यह विद्या जैन धर्म में अनुरक्त पुरुषको ही देना । यदि मिथ्यादृष्टिको दोगे तो तुमको 'गौ" और ब्राह्मणकी हत्याका पाप लगेगा ॥८॥
इति शिष्यको विद्या देनेकी संतबिधि ।
कुविद्यानकाय स्वत्पाद पंकजाश्रय निषेवनी देवि शासन देवते त्रिभुवनजनसंक्षोभिण त्रैलोक्य शिवाय कारिणि स्थावर जंगम विष मुख संहारिणि विष मोचिनि सर्बाभिचार कर्माय हारिणि परविद्योच्छेदिनी पर मंत्र यंत्र प्रणाशिनि अष्ट महा नाग कुलोच्चाटिनि काल दंष्ट्र मृतकोच्छायिनि सर्वरोग प्रमोचिनि ब्रह्मा विष्णु रुद्रो रगेन्द्र चन्द्रा दित्य ग्रह नक्षत्रोल्पात भय मरणमय पीडा संमर्दिनि त्रैलोक्य महते विश्वलोक वंश करे भुविलोक हितं करे महा भैरवे भैरव शस्त्रोपधारिणि रौद्र रौद्र रूप धारिणि प्रसिद्ध सिद्ध विद्याधर यक्ष राक्षस गरुड गन्धर्व किन्नर किम्पुरुष दैत्यो दैत्योर गेंद्र पूजिते ज्यालामाल कराल दिगन्तराले महा महिष वाहिनि खेटक कृपाण त्रिशूल शक्ति चक्र पाश शरासन शंख विराजमान पोडशार्दू भुजे एहिर हल्ब्यू ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लू ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः ह्रीं देवान् आकर्षप२ नाग ग्रहान् आकषपर यक्ष ग्रहान् आकर्षय २ गंधर्व ग्रहान् आकर्षयर ब्रह्म ग्रहान् आकर्षयर राक्षस ग्रहान् आकषपर भूत ग्रहान् आकर्षय २ व्यंतर ग्रहान् आकर्षय २ सर्व दुष्ट ग्रहान् आकर्षय२ कड कड कम्पाय२ शीर्ष चालय२ गात्रं चालय२ बाहु चालय २ पादं चालयर सर्वांगं चालपर लोलयर धनु२ कंपयरः शीघ्रमवतारय२ गृह्ण२ ग्राह्य २ अबोडय२ आवेशयर जल्ब्यू ज्वालामालिनि ह्रीं ह्रीं क्लीं ब्लू ह्रां ह्रीं ज्वल २ रररर घगर घूमांध कारेण ज्वलर ज्वलन शिखेदेव
ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय शशांक शंख गौक्षीर हार धवल गात्राय घाति कमानमूलोच्छेदनाय जाति जरा मरण विनाशनाय संसार कांतारोन्मूलनाय अचिंत बल पराक्रमाय अप्रतिहत महा चक्राय त्रैलोक्य वशंकराय सर्व सत्व हितं कराय सुरासुरोरगेंद्र मुकुट कोटि घटित पाद पीठाय त्रैलोक्य नाथाय देवाधि देवाय अष्टादश दोष रहिताय धर्म चक्राधीश्वराय सर्व विघ्न हरणाय सर्व विद्या परमेश्वराय
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१५४ ]
दानो कप
ग्रहान् दहर यक्ष ग्रहान् दहर नाग ग्रहान् दहर गंध ग्रहान् दह दह ब्रह्म ग्रहान् महर राक्षस ग्रहान दहर भूत ग्रहान् दहर व्यंतर ग्रहान दहर सर्व दुष्ट ग्रहात्र दहर शत कोटि देवान् दहर सहस्र कोटि पिशाचानां राज्ञे दहर घेर स्फोटय स्फोटय मारय२ धगर वगित मुखे ज्वालामालिनि ह्रां ह्रीं हूँ
ह्रः स शत्रु ग्रह हृदयं दहर पचर छिंदर मिंद मिंद हः हः हा हा स्फुटयर घे घे अल्थ्यू क्षां क्षीं क्षू क्षौं क्षः स्तंभय २ मन्यू भ्रां श्रीं श्रीं भ्रः ताडय ताडय मल्यू ग्रां श्रीं प्रू प्र त्रः नेत्रे स्फोटयर दर्शयर फल्यू यां याँ यूं यो यः प्रेषय२यू घांघों घ्रः जटरं भेदयर डम्ल्यू ड्रां ड्रड्रड्रड्रः मुष्टि बंधेन बंधयर खन्यू खां खीं खं खौं खः ग्रीवां भंजय २ म्यू ह्रां ह्रीं ह्रौं छः अंत्रान छेदयर ढां द्रीं हूं ह्रः महा विद्युत्पाषाणा नर बल्ब्यू श्रीं श्रत्रः समु मजवर हव्यू हा ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः सर्व डाकिनी मर्दय २ सर्व योगिनी स्तर्जय २ सर्व शत्रन ग्रासय २ ख ख ख ख ख ख ख खादय २ सर्व दैत्यान् ग्रासयर सर्व मृत्युन नाशय र सर्वोपद्रवान् स्तंभय २ जः जः जः दह दह पच पच घरुर परुर खड्ग रावणम् विद्यां घातय २ चंद्रहास खङ्गेन छेदयर भेदयर डरुर छरुर हरुर फुटरु घे घे आंकों क्षां क्षीं क्षौं ज्वालामाविनी आत्यति स्वाहा ।
अयं पटित संसिद्ध श्री ज्वालन्याथि दैवत ।
माछ
१५५
माला मंत्रः प्रजाप्पा है, गृहरोग विषादिहृत् ॥ १ ॥
अर्थ – यह श्री ज्वालामालिनीदेवीका माला मंत्र केवल पढनेसेही सिद्ध हो जाता है। इसका जप इत्यादि करनेसे ग्रहरोग और विष आदि नष्ट होते हैं ॥ १ ॥
इतिम्रो नामानि माछा मंत्रम् |
ज्वालामालिनी वश्य मंत्र
"ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं ह्रीं क्लीं ळू द्रां द्रीं हंसः यहीं ज्वालामालिनी देवदत्तस्य सर्वजन वश्यं कुरु स्वाहा । "
नित्य २१ दिन जपै रक्त विधानेन सर्वजन वश्यं वार ७-२१-१०८ अवीर मंत्र सिरपर नाखे स्त्री-पुरुष वश्य होंय, सवा पैसेकी सोरनी बांटे ॥
अथ श्री चंद्रप्रभ स्तवनम्
ॐ चन्द्र प्रभु प्रभाशीषी, चन्द्र शेखर चंद्रजं । चंद्र लक्ष्यांक चंद्रांक, चंद्र बीज नमोस्तुते ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं चंद्रप्रभः, ह्रीं श्रीं कुरु कुरु स्वाहा | इष्ट सिद्धि: महारिद्धि, तुष्टि पुष्टि करोद्भवः || २ || द्वादश सहस्र जतो, बांछितार्थ फलप्रदः ।
महता त्रिसंध्यं जप्तवा, सर्व व्याधि त्रिनाशकः ॥ ३॥
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ज्वाळमानी कल्प
दशम परिच्छेद ।
। १५७ युक्त यथा । संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाचिक. चलिका, पैशाचिक, अपभ्रंश ।
संस्कृतनमो महासेन नरेन्द्र तनुज, जगद् जन लोचन मुंग सरोज । शरद्भव सोम सम द्युति काय, दया मय तुभ्यमनंत सुखाय ॥१ सुखी कृतु सादर सेवक लक्ष, विनिर्जित दुर्जय भाव विपक्ष । सुरासुर बंद नमस्कृत नंद, महोदय कल्प महीकर कंद ॥२॥
प्राकृत -
सुरा सुरेन्द्र सहिता, श्री पांडव नृप स्तुतः -श्री चंद्रप्रभु तीर्थेशः, श्रियो चंद्रो ज्वलां कुरुः ॥४॥ श्री चंद्रप्रभु विद्येयं, स्मृता सद्य फल प्रदा। भवाब्धि व्याधि विध्वंसी, दायिनी मे वर प्रदा॥५॥
इन मंत्र रूप चंद्रप्रभ त्रं ममाप्तम् । विधि पूर्वक ए मंत्र साधे, ज्वालामालिनी स्तोत्र नित्य पढे, सर्व कार्य सिद्धि कारक मंत्रोयम् ।
श्री चंद्रप्रभु स्वामी स्तवनम् देवैः स्तुष्टुवे तुष्टैः, सोम लांछित विग्रहः,
दद्याच्चंद्रप्रभः प्रीतिः, सोम लांछित विग्रहः ॥१॥ येषा पूजा विधिः कर्मा, जनहत्कमलालयः,
तेजिनाः पातुवो भव्य, जनहृत्कमलालयः ॥२॥ कुतीथिं सार्थेन दुरा, सदं भोग्या निरंजनः,
श्रुतं सेवेत मोहाग्नि, सदं भो ज्ञानि रंजनः ॥३॥ पीतु गीर्वाः कृत्वा विद्यो, परमा कमलासना,
यत्प्रभोवा जनै लै भे, परमा कमलासना ॥४॥
इति श्री चंदामु स्वामी सवनम् अथ श्री चन्द्रप्रभ स्वामी स्तवनम् मौक्तिक दामादि वृत बद्ध षट भाषा रचना चमस्कृति
जयनिरसिय तिहुयण जं तुभंति,
जय मोह महीकह बन नन्दंति । जय कु'द कलिय समदंत यंति,
जय जय चंद्र प्यह बंद कति ॥३॥ जय पणय पाणि गण कृप्यरूरक,
जय जगडिय अपयड कसय परक । जथ णिम्मल केवल नाण गेह,
जय जय जिणिंद अप्पडि मदेह ॥४॥ शौच सेनोविगद दुह देहु मोहारि केदय,
दलिद गुरु दुरिद मध विहिद कुमुद क्खयं । नावतं नमदिजो सदट नद वत्सलं,
लहदि निश्चदि गदि सोददं णिम्मलं ॥५॥
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दशम परिच्छेद ।
[१५९
१५८ 1
चालामालिनी कल्प। मागधी-- असुल सुल विलसन लनाय सेविव पदे,
नमिल जय जंतु तुदिनसिव पुल पदे । चलन पुल निलद सिंसालि सलसी लुदे,
देहि महसा मिवं सालि सासद पदे ॥६॥
तलिता खिलतो सतया सतनं,
मदना नल नील मनान गुणं । नलिना रुण पात तलां पमते,
जिननो इधतं सशिवं लभते ॥ ७॥ चूलका पैशाचिककल नालिक नातुल सच्च हलं,
चलनो कल चालु यशप्प सलं। लल नाचन कीत कुनं लुचिलं,
चिन लावम हंस मला मिचिलं ॥ ८॥ अपभ्रशसासय सुख निहाणु नाहन दिठो जेहिं तउं 'पुन बिहूण उजाणु निफल जं मुतिहं नर पशुहं ॥ ९॥ निम्मल तुह मुह चंदुजे पहु पिकाखुइं पसरिसिउं इय निरूवय आणं दुतिह मुनि सामी विष्फुरइ ॥१०॥
द्वयं सम संस्कृतं हारि हार हर हास कुंद संदर देहा भय । केवल कमला केलि निलय मंजुल गुण गण मय ।। कमला रुण करचरण चरण भर धरण धबल। बल सिहिर मणि संगम विलास लाल समल मवदल ॥ ११ ॥ भव नव दव जल वाह विमल मंगल कुल मंदिर। वाम काम कर केलि हरण हरिधर गुण बंधुर ॥ मंदर गिरी गुरु सार सबल कलि भू रूह कुंजर ।
देहि महोदय मेव देव सग केवलि कुंजर ॥ १२ ॥ इति जगदभिनंदन जन हृदि चंदन चंद्र प्रम जिन चंद्रवर। पड़ भाषा भिष्टत मम मंगल युत सिद्धि सुखानि विभो बिस्तर।।१३
॥ इति श्री शिन प्रभ सूरि कृन चंद्रप्रभ समितिबन ममाप्रम् ।। ॐ नमो भगवते चंद्रप्रभाय चन्द्रन्द्र महिताय,
चंद्र प्रभावमिति सर्न मुख रंजिनी स्वाहा। प्रभाते उदक मभि मंत्र्य मुखं प्रक्षालयेत् ,
सर्वजन प्रियो भवति । ___अथ चंद्रप्रभु मंत्र ॐ नमो भगवते चंद्रप्रभ जिनेंद्राय,
चंद्र महिताय कीर्ति मुख रंजिनी स्वाहा ॥ चंद्रप्रभ जिन स्यास्प, शरचंद्र समुद्यतैः। मंत्रो नेक फल: सिद्धि, मावास्यऽयुत जाप्यतः ॥१॥
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जगालामाकना कर।
अर्थ-शरत्कालीन चंद्रमाके समान कांतिवाले श्री चंद्रप्रभ भगवानका यह मंत्र दश सहस्त्र जपसे सिद्ध होकर अनेक फल
C
atmane
Marate
Tom
मनोज
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तमने दक्षिणे वामे, पृष्टे च सं जपेत्क्रमात् । वद्यमानं जिनं ध्यायेत्, शक्रार्क श्रींदु चक्रिमिः ॥ २॥ __अर्थ-इस मंत्रको क्रमसे भगवान्के आगे दाहिने बाएं और पीछे जप करे फिर उन भगवान्का ध्यान इंद्र सूर्य लक्ष्मी चंद्रमा और चक्रवर्ति रूपसे करे ॥२॥
जपोस्य सर्व मप्यर्थ, साधये दमि बांछितं । विनिहंति च निःशेष, मभिचारोद्भवं भयम् ॥३॥
अर्थ-इस यंत्रका जप सब इच्छा किये हुए प्रयोजनोंको सिद्ध करता है। और सब मारण आदि अनुष्ठानोंसें पैदा हुए भयोंको नष्ट करता है ॥३॥
अभिषेको गव्यैर्वा, क्षीर तरु त्वक् कुषा सलिले । वातोय ; संजप्तः, क्षुद्र ग्रह हृद्भवेदमुना ॥४॥ ___अर्थ--उन भगवानका गौ के दूध अथवा दूधवाले वृक्षोंकी छालके बनाए हुए जल अथवा केवल जलसे अभिषेक कर के जप करनेसे सब क्षुद्र ग्रह नष्ट हो जाते हैं ॥४॥
॥ इति श्री चंद्रप्रभ स्तवनम् ॥
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रक्षक यंत्र-परिच्छेद तीन श्लोक २५ से २८.
पृ० २५
इति उबाबामालिनी करुन कम्पूर्णम्।
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[२]
सामान्यतंडल।
सर्वतोभद मंडल
दुकावलि
रंदु कोरि
इदंत्रिकोण कुंड
वंश कुंड
सर्वतो भद्र मण्डल चतुर्थ परिच्छेद, श्लोक १२ से १४
चथुर्थ परिच्छेद, श्वोक १०-११
पृ० १५
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सर्व रक्षा यंत्र॥९॥
॥ बह रक्षक पुत्र दायक यंत्र॥2॥
परिच्छेद ६ श्लोक १-२
परिच्छेद ६ श्लोक ३ से ५
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________________
श्रीभ्रूः
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यंत्रम४
पृ०७१
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परिच्छेद ६ श्लोक ८-९
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सः
परिच्छेद श्लोक ६ से ७
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________________
[<]
॥ स्त्री आकर्षण यंत्र ॥ ५॥
परिच्छेद ६ श्लोक १०-१३
पृ० ७५
[९]
॥ दिव्य गति सेना जिन्हा और क्रोधसंभन यंत्र ॥
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है मैं है में एक है
परिच्छेद ६ श्लोक १४-१५
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पृ० ७७
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________________
[१०]
[११]
॥निव्हा स्तंभन यंत्र
संमन यंत्र दह दह पच पच विध्वंसब विध्य उलष्ट
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ह: ataस्य क्रोधंगतिमति जिव्हांच हन हन
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क्रोधाय स्वाहा ॥ ॐबजू गोधाम ज्वल ज्वल
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Yeur uotes
परिच्छेद ६ श्लोक १६-१७
परिच्छेद ६, श्लोक १८-११
पृ० ७९
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________________
[१२]
[१३]
गति जिव्हा और क्रोध स्तंभन यंत्र॥
पुरुषवश्य यंत्र॥
/अंजमामेका
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ॐ क्षिक्षी
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नियमावली
—
ॐ
मनिलामा
विजयसाह
माज
परिच्छेद ६, श्लोक २०-२१
परिच्छेद ६ श्लोक २२-२४
पृ०८१
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________________
॥ ॥
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नबरे से
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विवस्त यस
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मला नहीं मा
सरबर है।
मदम
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नरबरज
मदत
परिच्छेद ६ ला २५-२७
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तर व देवी नरत भू
नवदेही नदमय श्रृं
पृ० ८२
ॐ घरभर विशुद्ध ऊं हूं कहू बोनि देवद
रक्ष रक्ष स्वाहा
॥शा किसी भय दशा यंत्र ॥२॥
ॐ परेश निगर्भ सुरक्षित हुँक योगिनी देवदनं
स्वाहा
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[१५].
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ॐ
फ्र
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परिच्छेद ६ श्लोक २८
क
देन दतं रक्ष रक्षा हा
ॐ रुरुच ड्रॉ ही हूँ हैःक्ष्मी हमे क्ष्मः सर्व योगिनि
पृ० ८३
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________________
॥सवें विघ्न हरायंत्र
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परिच्छेद ६ श्लोक २९-३४
परिच्छेद ६ श्लोक ३६ से ४०
पृ० ८६
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________________
[ १९
॥प्ररमदेव ग्रह यंत्र॥
पाक यंत्र
A
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परदे नमः
बममा
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परिच्छेद ६ श्लोक ४१ से ४३
पृ००८
परिच्छेद ६ श्लोक ४४ से ४६
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________________
[२०]
[२१]
का
काकबंध
संवीबद
माकबंय
ह
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३६
SUBS
उवाला मालिका
आकर्षण
ज्वालामालिनी विधि।
पृ० १३०
आकर्षण मंत्र।
पृ०१३३
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________________
दर्शमशमि
( बामदेहिबार
कावाहिश वाहन
/A कोट्यश
निकादेजक पुनान् देहिर दुन्नभय।
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वशीकरण यंत्र।
माल्य
KHERART-PER NeeYSeeth
भीभू नाम:
ज्वालामालिन्यै नमः यू Jaमनमः नमः
बालामालिनीना ज्यालामा My प्रो कीबोलिन्यै नमः । बनदुमन मनोभी एल्यू, ही
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[२२]
ऊँनी वाला मालिन्य हों को ही शीला दाद्री नमः
वि मंत्र नित्य जपै पुष्यैः काया
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महान मंत्रशास्त्र
भैरव पद्मावती कल्प
लिनी कल्प रहित ७५ मनचाहे विधान व सार्थ
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MIRAHARITRINA
पद्मावतीदेवीकी दक्षिणकी धातुकी एक मूर्ति श्री मल्लिषेणमूरिकृत इस मन्त्रशास्त्रमें ४६ यन्त्रों सहित व हिन्दी अर्थ सहित है जिसमें १०० प्रकारकी मनचाही सिद्धयां प्राप्त करने के विधान हैं भूल्य ४) सिर्फ थोडी ही प्रतियां शेष हैं। तुर्त मंगालें ।
-दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत SURAT.
भी चंद्र प्रसकी अधिष्ठात्री देवी) कि एक प्रतिमा जी, मदरास म्युझीयमके
यामा कति प्रेमानन्द शाह एम.
लय, गांधीचौक सूरत
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________________ कविराज श्री इन्द्रनन्दीजी कृत ज्वालामालिनी कल्प 23 यंत्र, मंत्र व साधनविधि सहित 75 मनचाहे विधान व सार्थ TERRASAR 20A लिनीदेवी (श्री चंद्रप्रभुको अधिष्ठात्री देवी) 19851इंदुस्तानकी धातुकी एक प्रतिमाजी, मदरास म्युझीयमके -महान शोधक डॉ. उमाकांत प्रेमानन्द शाह एम. ए. पी. एच. डी. आदि बडौदा / प्रकाशक-दिगंबर जैन पुस्तकालय, गांधीचौक सूरत