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ज्वालामालिनी कल्प।
नवम परिच्छेद ।
[११५ अथ नवम परिच्छेदः
नीराजन विधि परिमदितेन पिष्टेन कारयेत्सर्ववर्णयुक्तानि । प्रवराष्टमातृकानां मुखान्यलंकारसहितानि ॥१॥
___ अर्थ-मलकर पिसी हुई सिद्ध मिट्टीसे सर्व वर्ण युक्त पूर्वोक्त मुख्य अष्ट मात्रका देवियोंके मुख अलंकार सहित बनावे ॥१॥
• ॐ को ज्वालामालिनि ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां द्रीं हां आं को क्षी देवदत्तं सुगंध पुष्पस्नानेन सर्वशांति कुरु२ वषट् पुष्पवृष्टि स्नानं मंत्रः"
एवं विधिना स्नातस्य देवदत्तस्य शिखिमती देवी। श्री सौरभ्यारोग्यं तुष्टि पुष्टिं ददाति सदा ॥ ३३ ॥
अर्थ-ज्वालामालिनि देवि इस प्रकार स्नान किये हुये देवदत्तको सौभाग्य आरोग्य तुष्टि और पुष्टि निरंतर देती है ॥३३॥ आयुर्वर्द्धयति ग्रहपीडामपहरति हति शत्रुभय । नाशयति विघ्नकोटिं प्रशमयति च बहुविधान् रोगान् ॥३४॥
अर्थ-आयुको बढाती है। ग्रह पीडाको दूर करती है। शत्रु भयको नाश करती है। और बहुत प्रकारके रोगोंको शांत करती है ॥ ३४॥ एत ज्वालामालिनोक्त सापमृत्युनाशक। वसुधाराव्यं स्नान करोतु शांतिबिधिनियुक्त ॥ ३५॥
अर्थ-ज्वालामालिनीके द्वारा कहे हुये सब आप मृत्युके नाश करनेवाले इस वसुधारा नामके स्नानको शांति विधि पूर्वक करना चाहिये ॥३५॥ इतिश्री हेवाचार्य प्रणीत अर्थ में श्रीमद् इन्दनन्धि योगींद्र विरचित प्रथमें चालामालिनी कल्पकी, प्राच्य विद्यावारिधि काव्य
सास्य तीर्थाचार्य श्री चन्द्रशेखर शाखो कृत FRP मापाटीकामें "बसुधारा स्नानविध नामक
सष्टम परिच्छेद समाप्त हुना॥८॥
बहुमक्षचरूकमलयजकुसुमाक्षतदीपधूपसहितेन । एकैकेन मुखेन तु निवर्तयेत्प्रतिदिन विधिना ॥२॥
अर्थ-और बहुत प्रकारके भक्ष्प, चरु, चंदन, पुष्प, अक्षत, दीप, और धूपसे प्रतिदिन एक एकके मुखका भोग लगावे ॥२॥ कूट ऊकांत भांत ठकारांबुधि सांत पिंड संभूतैः । मंत्रै निवधयेन्मातृके बलं गृहण गृहण हो मांते ॥ ३॥
अर्थ-ॐ, न्यू, इल्व्यू, खम्ल्यू, मल्ब्यू, उम्ल्व्यू, कन्व्यू, और मन्व्यू, बीजोंमें उस उस मातृकाका पूर्वोक्त क्रमसे नाम लगाकर ।