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ज्वालामालिनी कल्प। अर्थ पूर्व आदि आठों दलोंपर सुन्दर रूपसे लिखे. उसके बीच में छह कोनवाला मोरका भवन बनाकर उसमें मोर बनावे ॥ ३६॥ ऊध्वोऽधोरेफयुक्त यां यी यू यों तथैव यं यः सहितं । पूवादि कोष्ठ मध्ये विलिख्य वाम तदग्रेषु ॥ ३७॥
अर्थ-ऊपर नीचे रेफयुक्त यां यी यं यौं यं यः बीजोंको उनके पूर्व दिशासे आरंभ करवाई ओरको लिखे ॥ ३७॥ षट्कोण भुवन मध्ये य्यू तत्कोष्ठांतरेष्वपि लिखेच्च । समयं ग्रहितव्यो ग्रहः स्फुटं समयमंडलाऽख्येऽस्मिन् ॥३८॥
अर्थ-षटकोण भुवनके भीतर और उस कोठेके भीतर भी व्य' लिखे, यह ही समय ग्रहको पकड़नेका है। अतएव यह समय मंडल है ॥ ३८॥ ) ' रेखा त्रयेण सम्यक् चतुरस्र पंच वर्ण चूर्णेन । -प्राग्वद्विलिख्य मंडलमथ तन्मध्ये शिवं विलिखेत् ॥३९॥
सत्य मण्डल अर्थ-तीन रेखाओंसे पहलेके समान पांच वर्ण के चर्णसे चौकोर मंडल बनाकर उसके बीचमें शिव लिखे ॥ ३९॥। ....
चतुर्थ परिच्छेद।
। ६३ तत्राभ्यन्तर दिग्गत कोठेषु जयादि देवता विलिखेत् । गौर्यादि देवतास्ता श्वेशानाद्येषु कोष्ठेषु ॥ ४० ॥
अर्थ-उसके अंदरके कोठोंमें जयादि देवियोंको लिखे, और ईशान आदि कोठोंमें गौरी आदि देवियोंको लिखे ॥४०॥ आद्या जयाथ विजया तथाऽजितावाऽपराजिता गौरी । गांधारी राक्षस्यथ मनोहरी चेति देव्यस्ताः ॥४१॥
अर्थ-उनमें पहले जया, फिर विजया, फिर अजिता, फिर अपराजिता, फिर गौरी, फिर गांधारी, फिर राक्षसी, और अंतमें मनोहरी देवीको लिखे ॥ ४१ ॥ बाह्येशान दिशि स्थित कोष्ठादिषु कोष्ठकेषु कादीन् विलिखेत् । सत्याख्यमंडलेऽस्मिन् शापयितव्यो ग्रहः सत्यं ॥ ४२ ॥
अर्थ-बाहर ईशान आदि दिशाओंके कोठोंमें कोष्टकके अंदर क आदिको लिखे, इस सत्य नामवाले मंडल में ग्रह अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं ॥ ४२ ॥ इन्द्रादि लोकपालान् मंडल पूर्बादि दिक्षुसंविलिखेत् । मध्येचाह प्रतिमा मन्योन्यारीन्मृगान् परितः ॥ ४३ ॥
अर्थ-इन्द्र आदि लोकपालोंको मण्डलकी पूर्व आदि दिशाओंमें लिखे । मध्यमें श्री भगवान अहंत देवकी प्रतिमा