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लागेसे बांधकर फिर इसको चन्दन पुष्प अदिसे पूजे हुए नवीन धड़ेमें रख दे।
सर्व विघ्नहरण यंत्र स्वरगर्भटान्तवेष्टितसम्पुटमध्यगतं नामखण्डशशिवेष्ट्य । टान्तेन च भान्तेन च बेष्ट्य हंसः पदं वलयं ॥ ३५ ॥
अर्थ-नामको क्रमसे ठ के सम्पुट अर्धचन्द्र ठ, और 'म' से वेष्टित करके उसके चारों और " हंसः" पदका बलय बनावे ॥ ३५॥
बहिरमृतमंत्रवलयं दद्यात्स्वरयुक्तषोडशदलाज। मंत्रमिदं घटबुध्ने खटिकाहिम मलयजेबिलिखेत् ॥ ३६॥
अर्थ-उसके बाहर निम्नलिखित अमृत मंत्र और उसके बाहर षोडश दल कमलमें सोलहों स्वर लिखे। इस यंत्रको घड़ेके अंदर खडिया हिम और चंदनसे लिखे ॥ ३६॥
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणि अमृतं स्त्रावय २ सं २ क्लीं २ ब्लू २ द्रां २ द्रीं २ द्रावय द्रावय स्वाहा ॥"
अमृत मन्त्रोऽयं समार्जित भूमितले लोहमयत्रिपादिका परिनिधाय । 'कलशं तं तस्य मुखं कांस्यसवृतेन पिहितव्यं ॥ ३७॥
अर्थ-एक शुद्ध स्थानमें लोहेकी तिपाई पर इस कलशको कांसोके गोल ढकनेसे ढके ।। ३७॥ कांचीद्वय युत मुशलं, जल धौतं सरस मलय जालिमं । सुरभितरकुसुमवेष्ट, तबृतकमस्तके स्थाप्यं ॥ ३८ ॥
अर्थ--उस ढकनेके ऊपर जलसे धोये हुए चंदनसे पुते हुए सुगंधित पुष्पोंसे वेष्टित मूसलको दो कांची (करधनी) सहित रक्खे ॥ ३८ ॥
भूशलोपरि प्रदीप निधाय कांस्यमयभाजनं कलशतले । बहिरर्चयेत्समैनादगंधाक्षतकुसुमचरुकायेः ॥ ३९ ॥ _अर्थ-फिर कलशके नीचे कांसीके पात्रको और मूसलके ऊपर दीपक रखकर उसकी चंदन, अक्षत, पुष्प और नैवेद्य आदिसे पूजा करे ॥ ३९॥ क्ररारिमारशाकिन्युरगनवग्रहपिशाचचोरभयं । अपहरति तत्क्षणादिह तत्सलिलद्रव्यसमासेत्कः॥ ४०॥
अर्थी इस घडेके जलको छिड़कनेसे कर, शत्रु, बीमारी, शाकिनी सर्व नवग्रह, पिशाच और चोरका भय उसी क्षण दूर
आकर्षण यंत्र कूटाकाशमपिण्डमध्यनिलये नाम स्वकीयं पृथक् । दत्वा तत्परिवेष्टितं भपरसत्पिड़ेन गुह्येन च ।।