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४] ज्वालामादिनी कल्प। शास्त्री है, जो मुझे अपने मंत्रकी शक्तिसे छुड़ाये और फिर विकारसे जंभाई लेने लगती ॥८॥
दृष्ट्वा तामिति दुष्टग्रहेण, परिपीडितां मुनीन्द्रोऽसौ । व्याकुलितोऽभूतत्प्रविधानकर्तव्यतामूदः ॥९॥
अर्थ-वह मुनिराज हेलाचार्य उसको इस प्रकार दुष्ट ग्रहसे पीड़ित देखकर किंकर्तव्य विमूढ होकर बड़े दुःखी हुए ॥९॥
प्रथम परिच्छेद । कामार्था लैहिकफलसिद्धार्थ, देविनोपरुद्धासि । किन्तु मया कमलश्रीग्रहमोक्षायोपरुद्धासि ॥ १२ ॥
अर्थ-हे देवि ! मैंने आपको काम अर्थ आदि लौकिक फलोंकी सिद्धिके वास्ते नहीं बुलाया है किन्तु कमलश्रीको ग्रहसे छुड़ानेके लिये बुलाया है ॥ १२ ॥
तस्मात्तद ग्रहे मोक्षं, कुरु देव्येतावदेव मम कार्य। तद्वचनं श्रुत्वासा बभाण, तदिदं कियन्मानं ॥ १३ ॥ LAL अर्थ--इस वास्ते हे देवि ! आप उस ग्रहको छुड़ाकर मेरा इतना कार्या कर दीजिए। उसके बचन सुनकर वह बोली-यदि यही है तो यह कितना काम है ॥ १३ ॥
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तद्ग्रहविमोक्षणार्थ, तद्ग्रहसमीपनीलगिरिशिखरे । विधिनैव वह्नि देवांस, साधयामास मुनिमुख्यः ॥ १० ॥
अर्थ-इसके पश्चात् उन महामुनिने उस ग्रहको छुड़ानेके वास्ते उसके घरके समीप नीलगिरि पर्वतके शिखर पर विधिपूर्वक वह्निदेवी (ज्वालामालिनि) को सिद्ध किया ॥१०॥
दिन सप्तकेन देव्या, प्रत्यक्षीभूतया पुरः स्थितया। मुनिरुक्तः किं कार्य, तवायं वद मुनिरुवाचेत्थं ॥ ११ ॥
अर्थ-सात दिनके पश्चात् देवीने प्रत्यक्षरूपसे सामने आकर उस मुनिसे कहा-हे आर्य ! आपका क्या कार्य है ? मुझे बतलाइये ॥११॥
मुनिने इस प्रकार कहा
मा मनसि कृथाः खेदं, मंत्रेणानेन मोक्षयेत्युक्त्वा । मृदुतरमायस पत्रं, विलिखितमंत्रं ददौ तस्मै ॥ १४ ॥
अर्थ-मनमें खेद मत करो, इस मन्त्रसे छुडालो, यह कहकर उसने कोमल लोह पत्र पर लिखा हुवा मंत्र उस मुनिको दे दिया।
तन्मन्त्रविधिमजानन् , पुनरपि मुनियो बभाणतां देवीं। माऽस्मिन्वेगिन किमप्य, हमतो वितृत्ये तदभि देहि ॥ १५॥
अर्थ--उस मंत्रकी विधिको न जानते हुए उन मुनि