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मानिकप
पर ऊप छठ व पिंडान् चाष्टौ शेषान् पृथक्क्रमाद्विलिखेत् तथैव प्रणवाद्याभवतत्व नमतिमान्मंत्री ॥ १६ ॥
अर्थ - इसके पश्चात् दूसरे क्रमसे, प, र, घ, ऊ, प, छ, ठ, और, व, पिंडोंको आदिमें ॐ और अंतमें "नमः" लगाकर लिखे ॥ १६ ॥
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सर्वदलाग्रेषु ह्रीं सर्वदलांतरेषु लिखेत् । ॐ नव तत्वं ज्वालिनी नम इत्या वेष्टयेद्वाद्ये ॥
अर्थ- सर्व दलोंके अग्रभागमें, क्रों, और बीचमें, ह्रीं, लिखकर बाहर ॐ ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां ह्रीं ह्रां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्यै नमः ।" मंत्रसे वेष्टित कर दे ॥ १७ ॥
इत्थं कथि तस्यास्य ज्वालिन्याः परम मूलमंत्रस्य । मध्ये ध्यायन्मातृभिरष्टाभिः परिवृतां देवीं ॥ १८ ॥
१७ ॥
अर्थ - इस कहे हुए ज्वालामालिनी के मूलमंत्र के बीच में अष्ट मातृका देवियोंसे घिरी हुई ज्वालामालिनीदेवीका ध्यान करें ॥ १८ ॥
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तृतीय परिच्छद ।
ज्वालामालिनिका ध्यान
अब ज्वालामालिनिदेवीके स्वरूपका ध्यान करनेके वास्ते वर्णन करते हैं।
चंद्रप्रभजिननार्थं, चंद्रप्रभमिन्द्रनंदि महिमानं । भक्त्या किरीटमध्ये, विभ्राणं खोतमांगेन ॥ १९ ॥
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अर्थ- ज्वालामालिनिदेवी इन्द्रोंके प्रसन्न करनेवाली महिमावाले चंद्रमा के समान कांतिवाले भगवान् चंद्रप्रभुकी मूर्तिको भक्तिसे अपने शिर पर मुकुटके अंदर धारण करती
॥ १९ ॥
कुमुददलधवलगात्रां, महिषारूढां समुज्वलाभरणं । श्रीज्वालिनि त्रिनेत्रां ज्वालामाला करालांगी ॥ २० ॥
अर्थ- वह देवी कुमुदके पुष्पके समान श्वेत शरीरवाली, भैंसेके वाहन वाली, उज्वल आभूषणोंवाली, तीन नेत्रवाली और aaat शिखाके समूहसे भयंकर अंगवाली है ।। २० । पाशत्रिशूलकार्मुकरोपण ऊष चक्र फलवर प्रदानानि ।
idr rateष्टमयक्षेश्वरीं पुण्यां ॥ २१ ॥
अर्थ- प्राश, त्रिशूल, धनुष, बाण, मछली, चक्र, फल और वरदान देनेको अपने हाथोंमें धारण करनेवाली पुण्य - स्वरूप आठवीं यक्षेश्वरी है ॥ २१ ॥