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वाहिनी कप
वश्य नमक
रक्तकणवीर विकृतिद्विजदंडी वारुणी भुजंगाक्षी । लञ्जरिका गोवंदिन्ये तद्वटिकाः प्रकृत्य बहूः ॥ २७ ॥
अर्थ - रक्त, कणबीर, विकृति, द्विजदंडी, वारुणी, भुजंगाथी, लञ्जरिका, और गोवंदिनी, इनकी बहुत सी गोलियां
बना कर ॥ २७ ॥
afearfभः सह लवणं प्रक्षिप्य सुभाजने स्वपुत्रेण । परिभाव्य पचेत्पाणमिदं भुवन वशकारी ॥ २८ ॥
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अर्थ - इन गोलियों के साथ एक वरतनमें नमक और अपना मंत्र डाल कर भावित करे तो यह नमक लोकको वशमें करनेवाला होता है || २८ ॥
वश्य तेल (१)
पंचदशा नव चतुः षड् भागान् विकृति भक्त मोहनिका । लञ्जरिकाणां ज्ञात्वाभावस्यायां शनैव्वरि ॥ २९ ॥
अर्थ - शनिवारी अमावस्या के दिन, विकृति पांच भाग, नमक नव भाग, मोहनिका व्यार भाग और लञ्जरिका छह भाग लेकर ॥ २९ ॥
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संपिष्याजापयसा कन्कार्द्धमजापयोयुतं क्कथयेत् । अर्द्धावर्ते का द्वितीयभागं क्षिपेतत्र ॥ ३० ॥
पटक
सम्म परिछेद ।
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अर्थ- सबको बकरी के दूधमें पीसकर आधेका बकरीके दूधमें क्वाथ बनावे | काथके आधा उठ आने पर दूसरा भाग भी उसीमें डाल दे ॥ ३० ॥
मनो द्विगुणं तैलं काथसमं मिश्रितं पचेद्विधिना । वनितामद नाभ्यंगन तैलमिदं त्रिजगतीवश कृत् ॥ ३१ ॥
अर्थ - फिर उसमें बराबर मधु और दुगुना तेल डालकर rest विधिपूर्वक पकाकर तेल बनावे। यह तेल स्त्रियोंके लगानेसे तीन लोकको वशमें कर लेता है || ३२ ॥
वश्य तेल (२)
स्वमेव मृताहि सुखे क्रमुक फलानां दलानि निक्षिप्य । तन्द्रोमयलि संस्थाप्येकांतशुभदेशे ॥ ३३ ॥
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अर्थ- स्वयं मरे हुए सर्पके मुखमें क्रमुक फलके टुकडे डाल कर उसको गोबरले लिपे हुए एकांत उत्तम स्थान में रखकर तान्यादाय दिने त्रिभिरथकनक सुफलवटे समास्थाप्य | गिरिकर्णिकेंद्रवारुण्य नलह लिन्यांगनाचूर्णैः ॥ ३३ ॥
अर्थ-उसको तीन दिनमें और फिर उसको गिरि, efore, इन्द्रवारुणी, और अनल हन्यंगना के चूर्ण ||३३|| मंदारशु निक्षीरैः स्वमूत्र सहितैर्विभावयेद्बहुशः कुलिकोदये शनैश्चवारे कनकधनो स्याग्नौ ॥ ३४ ॥
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