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तेनैकेन निवर्द्धयेन्मुखेन्द्रवैरिमंत्रेण । अहरोगमारिपीडामपहरति बलिज्जलेक्षिप्तः ॥ १२॥
अर्थ-इन्द्र वैरि मंत्रसे इनको बलि देकर नलमें फैंकनेसे ग्रह रोग और मारि पीडा दूर होती है ॥ १२ ॥ दधिघृतमित्रेण सुमर्दि तेन शाल्योदनेन तत्कृत्वा । दुईनरदनदंष्ट्र सुसिद्ध वागीश्वरी रूपं ॥ १३ ॥
अर्थ-फिर पिसी हुई सिद्ध मिट्टीमें दही, घी और चांवलोंके जलको मिलाकर उससे तीक्ष्ण नख, दन्त और डाढवाले सिद्ध वागेश्वरीका रूप बनावे ॥ १३ ॥
। तीक्ष्णोन्नतसितदंष्ट्र विलुलितजिव्ह त्रिनेत्रमयनाशं । पिष्टेन कारयेद्विकरालं वागीश्वरी रूपं ॥ १६ ॥
अथ"-फिर तीक्ष्ण उन्नत और श्वेत दाढोंवाली, निकलो हुई, जिह्वावाली, तीन नेत्रवाली, वागेश्वरी देवीके विकराल रूपको पिसी हुई सिद्ध मिट्टोसे बनाये ॥ १६ ॥
रूपेण तेन बहुभक्षचस्बरदीपधूपसहितेन । कुर्यानिवधेनं सकलदोष हृतं खडगमंत्रेण ॥ १७ ॥
अर्थ-इनको, चरु, दीप, और धूपकी बलि खड्ग मंत्र देनेसे संपूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं ॥१७॥ योगनिका दिव्यमहायोगिनिका सिद्धमंत्रेण योगिनी चैव । अन्युजनेश्वरीप्रेतावासिन्यथ शाकिनी देवी ॥ १८॥
अर्थ-दिव्य योगिनी, महायोगिनी, योगिनी । अन्पुजनेश्वरी। प्रेतावासिनी, और शाकिनी देवी॥ १८ ॥ रूपाण्यासां पिष्टेन कारयेद्भक्षसहितबलिचरुकाणि । जिह्वाष्टकमष्टशतं नेत्राणां कारयेत्प्रागवत् ॥ १९ ।।
अर्थ-के रूपोंको पिसी हुई सिद्ध मिट्टीसे आठ जिह्वा और एकसौ आठ नेत्रबाला बनावे ॥ १९ ॥ घंटा पतिकिका माल्यदीप युक्त मंत्रेण। रूपेणे कैकेन प्रतिदिबसं कुरु निवर्धकं ॥२०॥
प्रज्वलितसिद्धवर्तिमुनि दीपं समुजन्वं दद्यात् । जिलाष्टकमक्षणामप्पष्टशतं कारयेच्चान्यत् ॥ १४ ॥
अर्थ-इनके सन्मुख सिद्धबत्ती जली हुई हो, मस्तक पर उज्वल दीपक रक्खा हुआ हो। आठ जीभ और एकसौ आठ आंखें हों॥१४॥
कृश रोश द्योतनगन्धकुसुमबलिमक्षधूपसहितेन । रूपेण तेन कुर्यानिवधनं निशि समस्तदोषहरं ॥ १५ ॥
अर्थ--इनको सुगंधित चंदन धूप और पुष्पोंकी बलि देने से रात्रि में समस्त दोष दूर हो जाते हैं ॥ १५॥
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