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१०८] स्वामामालिनी कल्प।
अनम किछेन अथो-फिर सिद्ध मिट्टीसे अपने अपने वर्ण और सब लक्षणोंसे युक्त आगे लोकपालोंकी दिव्य मूर्तियां बनवावे ॥११॥ वहिरप्येके देशे मंडलमन्वद्विलिख्य च प्राखत ।
तत्रोष्णवारिणा स्नापयेत्पुरा देवदत्तं तं ॥ १५ ॥ सिद्ध मिट्टीकी परिभाषा
अर्थ-बाहर भी पूर्व के समान एक और मंडल बनाकर राजद्वारचतुःपथकुलालकरुवामलूरसरिदुमय तटः
वहां पहले उस साधक देवदत्तको उष्ण जलसे स्नान द्विरदरदवृषभगक्षेत्रगता मृतिका सिद्धा ॥ १२ ॥
करावे ॥१५॥ अर्थ-राजद्वार, चौराहे, कुम्हारके हाथ, उत्तम नदीके
साधारण पूजन दोनों किनारे, हाथी दांत, और बैलके सींगके ऊपरकी मिट्टी सिद्ध मिट्टी कहलाती हैं ॥ १२ ॥
विनयं ज्वालामालिन्युपेतमय हूँ युगं ततः सर्वान् ।
अपमृत्यून् द्विघातं से वं मं देवदत्त मथ रक्ष युगं ।। १६ ।। असितं पीतं लोहितमसितं हरितं शशिप्रभं कृष्णं ।
शांतिं कुरु कुरु सद्वरुणां देवते निज बलिं च गृह्ण युगं । बहुवर्णं सितवर्ण चरुकं गंधादिभिर्युक्त ॥ १३ ॥
स्वाहा मंत्र प्रपठन् निवर्तयेत् समल चरुकेण ॥१६॥ अर्थ-फिर काली, पीली, लाल, काली, हरी, स्वेत
- अर्थ-निम्नलिखित मंत्रको पढ़ता हुआ मलवाली काली, बहुत रंगवाली और सफेद चंदन, गंध आदिसे ।
मूर्तिको चरु देवे ॥ १७ ॥ युक्त ॥ १३ ॥
मंत्र-ॐ ज्वालामालिनि हु२ सर्वाय मृत्यून् घातय२ नव पटलिका सुदत्वा प्रथमायां स्थापयेन्मलप्रतिमां ।
संबं मं देवदत्तं रक्षर शांतिं कुरु कुरु सद्वरुण देवते निज बलिं शेषास्विद्रादीनां प्रतिमान् संस्थापयेत्क्रमशः ॥१४॥
गृहर स्वाहा ।। १७॥ अर्थ-नव पटडियोंको लेकर पहिली पर उस मलवाली
एवं निवर्धयित्वा चरुकं मंत्रेण निक्षिपेन्नद्यां । प्रतिया को और शेप आठों पर क्रमशः इन्द्र आदि आठों लोक
दिग्पालक चरु कैरपि निवर्द्ध येत्स्वेन मंत्रेण ॥ १८॥ पालाची प्रतिमाओं को स्थापित करे ।। १४ ॥
अर्थ-इस प्रकार उस चरुको देकर नदीमें विसर्जिता