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१
तृतीय पच्छेद ।
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ज्वालामालिनी कल्प।
वामादीन्येतान्येव देवि पाटौ च जघनमुदरं वदनं । शीर्ष रक्ष युगं स्वाहां तान्यात्मांग पचके विन्यस्य ॥ ४॥
अर्थ-इन्हींको वामांगसे आरंभ करके दोनों पग (पैर) जघन उदर (पेट) बदन (मुख) और शीर्ष (शिर) में लगाकर "रक्ष" और "स्वाहा” लगावे जो इस प्रकार हैॐवंग ह्रीं ज्वालामालिनि मम पादौ रक्ष२ स्वाहा । ॐ मरीं ह्रीं ज्वालामालिनि मम जघनं रक्ष२ स्वाहा । ॐ हं रह ज्वालामालिनि मम उदरं रक्षर स्वाहा । ॐसं रौं ह्रौं ज्वालामालिनि मम वदनं रक्षर स्वाहा । ॐ तहः ज्वालामालिनि मम शीर्ष रक्षर वाहा ।
आपादमस्तकान्तं ध्यायेजाज्वल्यमानमात्मानं । भूतोरगशाकिन्यो भित्वा नश्यति दुष्टमृगाः ॥ ५॥
( अर्थ-अपनेको चरणसे मस्तक तक अत्यंत प्रज्वलित ध्यान करे इस प्रकार भूत सर्प शाकिनी और दुष्ट पशु दूर होकर नष्ट हो जाते हैं।
क्षांक्षीं क्षं थे मैं क्षों क्षौं क्षं शः प्राच्यादि दिक्षु विन्यसेत् । मूलादापर्यंता दिशाबंधं करोतीदं ॥ ६॥
__ अर्थ-फिर मूलसे चारों ओर पूर्वादि दिशाओंमें शां क्षी शं क्षौं क्षं और क्षः को रख दिशाबंध करे ॥६॥
आत्मानमभिसमन्ताच्चतुरस्र वज्रपञ्जरमखण्डं । ध्यायेस्पीतं धीमानभेद्यमन्यैरिदं दुर्ग ॥ ७॥
अर्थ-फिर वह बुद्धिमान् अपने चारों ओर चौकोर चन्नमय अखण्ड पिंजरेके समान दूसरोंसे अभेद्य पीत वर्णके दुर्गका ध्यान करे ॥७॥ मंत्रजपहोमकाले नोपद्रवति सुमंत्रिणं कश्चित् । । दुष्टाहो जिघांसुर्नलंघते दुर्गमध्यगतं ॥ ८ ॥
अर्थ-इस दुर्गके बीच में बैठे हुए मंत्रीके पास मंत्र जप तथा होमके समयमें कोई भी दुष्ट ग्रह और मारनेकी इच्छा करनेवाला लांघकर नहीं आ सकता ॥८॥
भूतिषु सप्तभिषु त्रिभू , कोष्टा सर्व दिग्मुखाः।
लेख्या विधान बत्त्येक, चत्वारिंशल्पद प्रमाः ॥ ९॥ REअर्थ-सातों प्रकारके भयोंसे पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले उस वज्रमय पिंजरेमें सब दिशाओंकी पृथ्वी पर तीन कोठे बनाये। और उनमें विधिपूर्वक इकतालीस पद लिखे ॥९॥ अब उन पदोंका विस्तार बतलाया जाता है। नव तत्वान्येक नवपदविंध्योर्लिखेद्विधिक्रमशः। तत्कोण त्रिपद चतुष्कैः द्वादश पिंडान् प्रदक्षणतः ॥१०॥