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चाकामा
नरम
छ
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जोड़े हुए प्रदक्षिणा करनेवाले मंडलके बीचमें बैठे हुए शिष्यको घडोके जलसे स्नान करावे ॥११॥
स्नानाम्बरभूषादिकमुचितं नाम्पस्य तद्गुरो रुचितं । परिधातुमस्य पश्चादन्यद्वस्त्रादिकं देयं ॥ १२ ॥
अर्थ-उस समयके वस्त्र आभूषण आदि गुरुको ही देने उचित हैं। शिष्यको दूसरे वस्त्र आदि देवे ॥ १२ ॥
गंधाक्षतकुसुमसुदीपधूपचरुकै समञ्चयेत्सब । । तदुपरिविचित्रपुष्पै मोहरं मंडपं रचयेत् ॥ ८॥
अर्थ-इन सबकी गंध, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप, और चरुसे पूजा करके इनके ऊपर अनेक प्रकारके पुष्पोंसे शोभित मंडप बनावे ॥ ८॥ सत्यं मंडलमेवं विलिख्य पश्चात्सगंध कुसुमाद्यैः ।
कंकणकर्णामरणांबरादिकरचयेगुरोश्चरणौ ॥९॥ . अर्थ-इस प्रकार इस सत्य मंडलको बनाकर पोछे सुगन्धित पुष्प आदि कर्णाभूषण और वस्त्र आदि देकर गुरुके चरण बनावे ॥ ९॥ मणिकनक रजत सूत्रः पुस्तकमावेष्ट्य दिव्यवस्त्रश्च । शिखिदेवी पदयुगले निधाय गंधादिपिश्च जयेत् ॥ १० ॥
अर्थ-मोने और चांदीके तारोंमें परोई हुई मणियोंकी माला और दिव्य वस्त्रसे पुस्तकको लपेटकर उसे ज्वालामालिनी देवीके चरणोंमें रखकर उसका गंध आदिसे पूजन करे ॥१०॥ कुसु र क्षनांजलि पुटं ललाटहस्तं कृतप्रदक्षिणकं । मंडलमध्यनिवेष्टं घटोदकः स्नापयेच्छिष्यं ॥११॥
देवीमुनिगुरुचरणप्रणतायसुधर्मभक्तियुक्ताय । धृतपुस्तकाय तस्मै विद्यादिना देया ॥ १३ ॥
अर्थ-फिर देवी और मुनिके चरणौमें झुके हुए धर्म तथा भक्ति युक्त धारण किये हुए उस शिष्यको साध्य आदि युक्त विद्या दी जावे ॥ १३ ॥
पर समयाय न देया त्वया प्रदेशा स्वसमय भक्ताय । गुरुविनययुताय सदाचेतसे धार्मिकनराय ॥ १४ ॥
अर्थ-तुम यह विद्या अन्य मतावलम्बीको न देना। किंतु अपने शास्त्रके भक्त, गुरुकी बिनय करने वाले, दयालु, और धार्मिक पुरुषको ही देना ॥ १४॥
अशा-फिर पुष्य और अक्षतोंको हाथों में लेकर हाथ
ऋषिगौस्त्रीहत्यादिष यत्तत्पापं भविष्यति तवापि। यदि दास्यसि परसमयायेत्युक्तवातः प्रदातव्या ॥ १५॥