Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । । K +A + + ++ बारहवाँ भाग। अंक १. जैनहितैषी। IREEममा पौष २४४२. जनवरी १९१६. Anna Asastanasanay S सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ द्वेषी । प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, हैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥5 वैर विरोध न हो मतभेदतै, हों सबके सब बन्धु शुभैषी। "भारतके हितको समझें संब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥5 Resesprosesservus Town महाकार भगवान्। ( सोहनी ) धन्य तुम महावीर भगवान, लिया पुण्य अवतार जगतका, करनेको कल्याण ॥१॥ बिलबिलाट करते पशुकुलको, देख दयामयप्राण। परम अहिंसा-मय सुधर्मकी, डाली नीव महान ॥२॥ ऊँच नीचके भेदभावका, बढ़ा देख परिमाण । सिखलाया सबको स्वाभाविक, समता तत्त्व प्रधान ॥३॥ मिला समवसृतमें सुर नर पशु, सबको सम सम्मान। समता औ उदारताका यह, कैसा सुभग विधान ॥४॥ अन्धी श्रद्धाका ही जगमें, देख राज्य बलवान । कहा, “ न मानो विना युक्तिके, कोई वचन प्रमाण" ॥५॥ जीव समर्थ स्वयं, करता है स्वतः भाग्यनिर्माण। यों कह स्वावलम्ब स्वाश्रयका, दिया सुफलप्रद ज्ञान ॥६॥ इन ही आदर्शोके सम्मुख, रहनेसे सुखखान । भारतवासी एक समय थे, भाग्यवान गुणवान ॥७॥ For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmm देशहित । (लेखक, श्रीयुत बाबू खूबचन्दजी सोधिया बी. ए. एल. टी. । ) भारतवर्षकी सभ्यता अत्यंत प्राचीन भी है; परंतु क्या इससे यह बात भी प्रमाहै । जिस समय पश्चिमी यूरोपकी सुसभ्य णित नहीं होती है कि व्यक्तिगत, स्वतंत्रता जातियाँ निरी असभ्य और जंगली दशामें उस समय इस देशमें कितनी बढ़ा चढ़ी थी थीं, उससमय भारतमें सभ्यताकी उन्नत- ‘और प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी इच्छानुपताका फहरा रही थी । यद्यपि हम लोगोंको सार अपने विचारों और सिद्धांतोंको कायम उपर्युक्त बातपर पूरा विश्वास था; परंतु हम कर सकता था ? विचारस्वातंत्र्य, और दुनियाके सामने इस बातको प्रमाणित नहीं वचनस्वातंत्र्य, जो कि वर्तमान सभ्यताके पाये कर सकते थे । हर्षका विषय है कि आज- समझे जाते हैं, हमारे देशमें उस समय कलकी वैज्ञानिक खोजोंने इस कमीको पूरा अपनी चरम सीमातक पहुँच चुके थे। कर दिया है। पुरातत्त्वविभागकी खोजों प्रो. रामानन्द चटर्जी ने अपनी 'Indian और हमारे इतिहास और पौराणिक साहि- Shipping' नामक पुस्तकमें नाना प्रमात्यके मथनसे ऐसे ऐसे प्रमाण मिले हैं और णोंसे यह बात भलीभाँति सुबूत की है कि मिल रहे हैं कि जिनके द्वारा इतिहासज्ञोंने नाविक विद्या और समुद्रप्रवासमें हमारे सबत कर दिया है कि सभ्यताके उस जमा- पर्वज भलीभाँति दक्ष थे। बड़े बड़े व्यापारी नेमें, भारतमें ऐसा कोई व्यापार, विज्ञान और · जंगी जहाज बनाना उन्हें और कला नहीं, जिसमें उन्नति न की गई भलीभाँति मालूम था । उक्त प्रोफेहो। हम इस भारी और महत्त्वपूर्ण खोजके सर सा० ने धार्मिक साहित्यमेंसे भी लिए भारत सरकार और यूरोपीय विद्वानोंके कई सबल प्रमाण उक्त कथनकी पुष्टिमें दिये ऋणी हैं। हैं। समुद्रप्रवासके विरोधियोंको उक्त पुस्तक ___ जरा हिंदुस्थानके नाना दर्शन, भिन्न भिन्न अवश्य देखना चाहिए । अध्यापक महाशधर्म और संप्रदायोंकी ओर तो दृष्टि डालो। यने यह भी दिखाया है कि सिर्फ हमारा ये एक दूसरेसे कितने विभिन्न हैं ? भिन्न भिन्न समुद्रीय व्यापार ही बहुत चढा बढ़ा न था; धर्मोंके होनेसे हमारा जातीय बल अवश्य परंतु हमें उपनिवेश बसानेके फायदे भी घट गया है और देशमें आपसी फूट और मालूम थे। जावा, सुमात्रा प्रभृति देशोंमें लड़ाई झगड़ोंके कई कारणोंमेंसे एक यह हिन्दू जातिकी वस्तियोंके भग्नांश आज भी For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAHALAKERALHALKATIHATALABER देशहित । नजर आते हैं । अध्यापक प्रफुल्लचन्द्रराय बदले अवगुण मोल लिया । ऐसा क्षुद्र देशामहाशयने प्राचीन भारतके रासायनिक ज्ञान भिमान जिसके कारण हम आलस्यमें मग्न हो और प्रक्रियाओंका इतिहास लिखकर दि- जायें और स्वप्नकी दशाको सत्य समझने खाया है कि इस विषयमें भी हमारा लगे नितान्त अनिष्टकर होगा। देशमें ऐसे ज्ञान , उस समय बहुत चढ़ा लोगोंकी कमी नहीं है जो सिर्फ इसी ऐंठमें बढ़ा था । अंकगणितके मूल तत्त्व, अकड़े फिरते हैं कि किसी समय हम दुनि. संख्यालेखनकी दशमलवप्रणाली—जिसके याके गुरु थे। ये लोग हमेशा निठल्ले रहबिना गणित शास्त्रमें कोई उन्नति होना कर भी सोचते हैं कि हमारा दुख और दारिद्र संभव ही न थी-भारतमें ही प्रचलित थी इन्हीं विचारोंके भरोसे मिट जायगा । भला और यहीसे दूसरे देशोंको गई । हमारा मृत- इन बेचारोंकी मूर्खताका भी कुछ ठिकाना प्राय आयुर्वेद आज भी हमारे पूर्वजोंकी है! इनकी दशा ठीक उसी मनुष्यकी नाई कीर्तिको बढ़ा रहा है । सुश्रुत, चरक आदि है जो शराबके नशेमें मतवाला होकर पासमें ग्रंथोंसे परिचित मनुष्य दावेसे कह सकता लँगोटी न होते हुए भी अपनेको दुनियाका है कि शरीरविच्छेदकिया ( Surgery) में राजा समझता है । भाइयो, स्वप्नकी, दशाको भी हमें खूब अभ्यास था। शिल्प, चित्र- त्यागकर ज़रा वर्तमानको भी देखो। विद्या और यंत्रविद्यामें भी हमारे यहाँ अच्छी उन्नति हो चुकी थी । पुरानी भारी भारी वर्तमानमें हमारी अवस्था बहुत ही खराब तोपें, बँदीकी कटारें और अजंटाकी गफाओं- है। हमारे मानसिक, नैतिक और शारीरिक के चित्र इन सब कलाओंके मृतप्राय नमने बलका अधःपतन हो चुका है । देशमें गरीबी हैं । व्यापारके विषयमें इतना ही कहना बस इतन इतनी बढ़ गई है कि सौमें से ७५ मनुहोगा कि सत्रहवीं सदीके अंत तक स्वतः प्यार । प्योंको दो बार भोजन भी मिलना कठिन है । इंग्लेंड भी हमारे देशसे कपड़ा पाता था। " फिजूल खर्चीने हमारा गला ऐसा फँसाया है ' कि हममें उठनेकी भी ताकत नहीं है। सारांश यह है कि सभ्यताके विषयमें शौकीनी और तड़क भड़क इतनी बढ़ गई भारतवर्ष किसी समय दुनियाका गुरु था। है कि ऋण लेकर भी हमें इनको पूरा करना हमें इस बातका अभिमान अवश्य होना पड़ता है । साहसने हमसे पूर्ण विदा ले ली चाहिए; परंतु क्या सिर्फ इतना होनेसे ही हम है । व्यापारमें नुकसान ही पड़ेगा और देशहितैषी कहे जा सकेंगे? नहीं नहीं, यदि नौकरी सरीखा उत्तम व्यवसाय दूसरा नहीं हमारे देशाभिमानकी ‘इतिश्री' सिर्फ घमंडमें है, इन नीच विचारोंने हमारे हृदयमें अधिही हो गई, तो जानना चाहिए कि हमने गुणके कार कर लिया है। हानिकारक रीति रिवाज़ों For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AINITIATIMATILITAM जनहितैषी के हम दास हैं । हम भलीभाँति जानते हैं इस समय हमारी स्थिति सच पूछो तो कि ये रीति रिवाज हमें नुकसान पहुंचा रहे बहुत अच्छी है । कुछ समयसे हम विचार हैं; परंतु हममें उनको दूर करनेकी हिम्मत ही भी करने लगे हैं। शिक्षाप्रचार और व्यानहीं है। हमारा सामाजिक संगठन बिल्कुल पार म पारमें भी थोड़ा बहुत उद्योग होने लगा है । सड़ गया है । दुर्व्यसनके पंजेमें हम इतने , २ सबसे बड़ी भारी फ़ायदेकी बात तो यह है ' कि हम अँगरेज़ जातिके शासनमें हैं। परफस है कि हमार नवयुवक मा लकार मात्माकी बड़ी भारी कृपा है कि हम दुनिसहारे बिना नहीं चल सकते । स्त्रियोंको याकी सबसे बढ़ी चढ़ी जातिके शासनमें हैं। तो हमने पशुओंसे भी नीच बना रक्खा है। भारत और इंग्लेंडका संबंध-इससे बढ़कर अज्ञानके अंधकारमें हम डूबे हुए हैं । जिस सम्बन्ध तो हो ही नहीं सकता। हमारा कर्तव्य तरफ़ देखो दुर्दशा मुँह बाये खड़ी दीखती है। है कि अगरेज़ोंके सहवास और शिक्षामें रहकर ऐसी हालतमें हमारा क्या कर्तव्य है ? अपनेको सुधारें । यदि हमने इस समय भी उन्नति न की, तो फिर ऐसा मौका न मिलेगा। सुखसे दुःख और दुःखसे सुख यह प्र हमें यह भलीभाँति याद रखना चाहिए कि त्येक मनुष्यका अनुभव है । इतिहास भी " ब्रिटिशकी जड़ न्याय है। अँगरेज़ोंका उद्देश्य इस बातका साक्षी है कि किसी भी जातिके ' है कि वे हमारी गिरी हुई जातिको उबारेंगे। सब दिन सरीखे नहीं हो सकते । उन्नतिके ब्रिटिश राज्यनीतिज्ञ भली भाँति जानते हैं बाद अवनति और अवनतिके पश्चात् उन्नति, ! कि इंग्लैंड द्वारा हिन्दुस्तानका उत्थान, यह यह सृष्टिका नियम है । जिस अदृष्टने हमें बात दुनियाके इतिहासमें सोनेके अक्षरोंमें आज तक जिलाया है उसी अदृष्टके भरोसे, ' लिखी जायगी । हमें राज्यप्रबन्धकी छोटी उसी भविष्यकी आशाके भरोसे हमें कर्तव्य - तव्य छोटी बातों पर आधिक ध्यान न देना चाकरते रहना चाहिए । सघन जंगलमें रास्ता , म त हिए । ब्रिटिश जातिके हम ऋणी हैं । हमें भूले हुए मनुष्यका एक मात्र सहारा आशा इस समय शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए ही है। इस समय निराशा और निरुत्साह- . - और ब्रिटिश जातिके गुणोंको सीखना की हवा हमें अपने हृदयमें नहीं लगने , देनी चाहिए । कई आलसी मनुष्य समयके । फेरको ही रोते हैं और भविष्यको निराशा- देशाभिमानका मतलब अपने गिरे हुए मय बताते हैं। यथार्थमें ये लोग जैसा देख जीवनका पुनर्सस्कार है, अपने बल-मानसिक रहे हैं वैसा ही बता रहे हैं । निरुद्योगी मनुष्यों- शारीरिक और नैतिक-को बढ़ाना है, समाजने कब कब आशाका सहारा लिया है ? संस्कार, शिक्षाविस्तार, राजकीय आन्दोलन, For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशहित। देशहित। मातृभाषाका उद्धार और शिल्प व्यवसाय और इसीके साथ ही दूसरोंकी उन्नतिका इन सबको एक साथ बढ़ाना है । समाज- उपाय । यदि कोई चाहे कि बिना एक दूसरेका संगठन ही ऐसा होता है कि बिना चारों की सहायता लिये इतना भारी कार्य सम्पा. तरफ संस्कार किये उसकी दशा अच्छी दन किया जासकेगा तो यह नितान्त भ्रम नहीं होसकती । जिस प्रकार यदि तुम्हारे ही है । इस लिए परस्पर भ्रातृभावको बढ़ाशरीरका एक अंग भी अस्वस्थ हो तो सारा कर सम्मिलित शक्ति द्वारा कार्य करो। जो शरीर अस्वस्थ होजाता है, उसी भाँति हमें लोग अन्यान्य क्षेत्रोंमें काम कर रहे हैं, उयाद रखना होगा कि हमारी राजनैतिक नसे सहानुभूति रक्खो और यथाशक्ति उनके उन्नति, बिना समाजसुधार, शिक्षाविस्तार कार्यमें सहायता दो । याद रक्खो, गिरीइत्यादि हुए बिना नहीं होसकती । तथा हुई जातिको सुधार लेना सहज बात नहीं है। हमारी आर्थिक उन्नति भी इसी भाँति बिना वर्षों और शताब्दियों तक प्रयत्न करना शिक्षा और समाजसंस्कारके होना संभव होगा । निराशारूपी पिशाच बार बार आकर नहीं । सारांश यह है कि साथ साथ तुम्हारे कानोंमें मंत्र फॅकेगा । उससे सावधान हमें चारों तरफ उन्नति करनी होगी । हम रहो और उसे पास भी न फटकने दो। लोगोंमें जो अकसर झगड़े हो जाया करते हैं, और आपसमें सहानुभूति नहीं रहती, उसका हम लोगोंमें बड़ा भारी दोष यह है कि कारण यही है कि हम समाजकी बनावट हम एक दूसरेके कार्यसे सहानुभूति नहीं और उसके नियमोंसे अनभिज्ञ हैं। हम दिखा सकते । मान लीजिए कि कोई व्यक्ति जानते हैं कि हमारी अवनतिका कारण - समाजसुधारके काममें प्रवृत्त है और दूसरा सिर्फ एक ही है और उसीका योग्य उप ' शिक्षाके क्षेत्रमें काम कर रहा है। अकसर चार करनेसे हमारी उन्नति हो सकेगी। ' देखनेमें आता है कि ऐसे दो व्यक्तियोंमें ' आपसमें बिल्कुल सहानुभूति नहीं है-एक यह बात सर्वमान्य है कि समाजका उ. दूसरेकी निन्दा करते हैं । होना तो चाहिए त्थान कोई साधारण काम नहीं है-कोटि यह कि एक दूसरेको यथासंभव सहायता कोटि मनुष्योंको दुखके गहरे दलदलसे दें; क्योंकि दोनोंके कार्योंका अंतिम उद्देनिकालकर सुखी बना देना, यह कोई एक दो श्य एक ही है। उपर्युक्त उदाहरण हजारोंअथवा दस मनुष्योंका काम नहीं है । इस- मेंसे सिर्फ एक ही है। ऐसे बीसों दृष्टान्त के लिए हमें सम्मिलित शक्तिसे कार्य लेना आपको प्रतिदिन मिलेंगे । यही कारण है कि पड़ेगा । प्रत्येक व्यक्तिको साथ साथ दो काम हम सम्मिलित शक्तिका उपयोग करनेसे करना होंगे-पहला तो स्वयं अपनी उन्नति वञ्चित रहते हैं और इसी लिए हमारी कई For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - अथवा योग्य फल नहीं दे सकतीं । उपयोगी संस्थायें या तो नष्ट होजाती हैं अवस्थाका ढोल पीटते फिरना ही नहीं; परंतु अपने अवगुणोंका परिष्कार करना भी है । ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसमें गुण और दोष - दोनों विद्यमान न हों; चाहे वह कितनी ही उत्तम क्यों न हो। हमारी सामाजिक अवस्थाओंका परिष्कार होना आवश्यक है । हमारे कई जातीय दोष इतने ख़राब हैं कि जबतक वे दूर न किये जायँगे उन्नति हो ही नहीं सकती । इनमें पहला और सबसे भारी तो अकर्मण्यता है पीछा किया है कि राजासे लेकर रंक तक इसके फँदेमें फँसे हुए हैं । भाग्यको हमने इतना प्रबल मान रक्खा है कि मानों हम बिल्कुल मुर्दा हों । हम यह नहीं जानते हैं कि भाग्य हमारे ही द्वारा बनाया गया है। जिस प्रकार चितेरा अपनी इच्छानुसार खिलौने बना सकता है और बने हुओं को मिटा सकता है, उसी तरह हम भी अपने भाग्यको बुरा या अच्छा बना सकते हैं । । इस राक्षसने हमारा ऐसा । उपर्युक्त दोषका कारण यह विदित होता है कि हमारा मानसिक क्षेत्र बहुत ही संकुचित है । हम इस बातका विचार ही नहीं कर सकते कि अमुक कार्यके लिए कितने साधनोंकी आवश्यकता है । कूपमंडूकवत् हम यही समझते हैं कि जो कुछ विचार हमारे हैं वे ही सत्य हैं। विभिन्न विचारके आदमियोंसे हम तत्काल ही लड़ पड़ते हैं सारी उच्च शिक्षाका मूल मंत्र यही है कि विचारोंकी भिन्नताके कारण हमें झगड़ने की कोई आवश्यकता नहीं; उल्टा हमें प्रसन्न होना चाहिए। क्योंकि हमने कमसे कम इतना तो जान लिया कि अमुक विषय पर दूसरे मनुष्य के विचार क्या हैं । विचारोंको उन्नत बनानेकी चेष्टा करना हर एक व्यक्तिका कर्तव्य है । देशाभिमानका मतलब सिर्फ अपने गुणोंको देखना ही नहीं, सिर्फ अपनी उन्नत उन लोगोंको ईर्ष्यासे मत देखो जो तुमसे बढ़े हुए हैं। बड़ी बड़ी पदवियाँ, विशाल इमारतें, सुन्दर बाग बगीचे, सुनहरे रुपहले रथ, बड़े बड़े हाथी घोड़े ये सब क्या हैं ? ये किसको लुभाते हैं ? क्या उसको जिसके पास मौजूद हैं ? नहीं, किंतु उसको जिसके पास नहीं हैं । जिसके ये चीजें हैं, जो इनको नित्यप्रति काम में लाता है उसके लिए ये सस्ती और साधारण चीजें हैं। इनके कारण उसे किसी प्रकारका विशेष आनन्द नहीं होता । जैसा कुछ भाव उस मनुष्यका होता है जिसके पास इतने बहुमूल्य पदार्थ नहीं है वैसा ही भाव उसका होता है। जैसी वेपरवाईसे मैं और आप अपने अपने झोपड़ोंमें चले जाते हैं वैसी ही वेपरवाई से वह अपनी कोठियों और महलों में जाता है। उनमें जो नक्काशी और चित्रकारीका काम हो रहा है अथवा वहाँ जो बढ़िया बढ़िया सामान रक्खा हुआ है उसकी तरफ़ उसका ध्यान भी नहीं जाता। यह ठीक ही है । इन चीज़ोंकी तरफ क्या ध्यान जायगा जब मनुष्यों की दृष्टि उन पदार्थों पर भी नहीं पड़ती जो सुन्दरतामें अपना सानी नहीं रखतीं । इस जगतसे बढ़कर, सूर्य चन्द्रमा और तारागणसे बढ़कर, क्या कोई चीज़ सुन्दर, मनोहर और विशाल हो सकती है ? कदापि नहीं । फिर बतलाइए कितने मनुष्योंकी दृष्टि इनपर पड़ती है और कितने इनपर विचार करते हैं । ( एडीसन ) For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना और सामायिकका रहस्य । अनुवादक, श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा। suz दान, शील और तपके संबंधमें हमने कर सकता है। भावनाका राज्य स्थूल पृथ्वीविचार किया, और यह भी देखा कि जीव- पर नहीं; किन्तु सूक्ष्म पृथ्वीपर-मानसिक जगनके साथमें इनका कितना गाढा संबंध है। तमें है, जहाँ मनुष्यको-पथिकको-एकाकी इन तीनों तत्त्वोंको प्रत्येक मनुष्य बहुत सर- निस्सहाय होकर विचरना पड़ता है और लतासे समझ सकता है और आचरणमें भी इसही हेतुसे यह पथ दुर्गम जान पड़ता है। ला सकता है। इनका पालन न करनेवाली यह पथ चाहे विकट हो या सरल; परन्तु व्यक्ति नीरोग निदोष और पवित्र नहीं बन इसमें कुछ सन्देह नहीं है कि यह मार्ग सकती और न समाजके लिए उपयोगी ही बड़ा ही आनन्ददायक है और आत्माकोबन सकती है। इतना ही नहीं बल्कि भावी जो कि मन और बुद्धिसे परे हैजीवनमें सुखी होनेकी आशा भी उसे छोड़ पानेकी अन्तिम सीढ़ी है। · भावना' देनी पड़ती है। परन्तु इन तीनोंसे भी विशेष तत्त्व कैसा गहन और विशाल है, महत्त्वके एक तत्त्वका हमें और विचार करना इसका बहुत कुछ अनुमान, सामान्यतया है कि जिसका प्रत्येक मनुष्यके अन्दर होना इसके जो अर्थ होते हैं उनसे किया जा कठिन है। यह तत्त्व भावना है। यह मन सकता है । ध्यान, मनन, चिन्तवन, शोधन, और बुद्धिसे संबंध रखता है। इसके रहस्यको सूक्ष्मगवेषण, पूर्व स्मरण, प्रत्यक्षज्ञान समझनेके लिए मानसशास्त्र (Psychology) ( hool ( Perception or cognition ) 311 के अभ्यासकी और तीव्र कल्पनाशक्ति- १ - इसके अर्थ हैं । ऐसे अनेक कार्योंके करनेवाले की आवश्यकता है, और आगे बढ़नेपर उच्च - तत्त्वका विवेचन थोड़े कर जाना असम्भव र मनोबलकी भी ज़रूरत पड़ती है । इसी लिए । - है और इस Science तथा Metaphysics इस भावनाके विस्तृत क्षेत्रमें बहुत ही विषयमें अल्पज्ञोंका दम मारना भी अनु : के समान गहन विषयसे संबंध रखनेवाले भाग्यवान् पुरुष क्रीड़ा कर सकते हैं। दान, चित है। इस लिए यहाँ केवल इस विषयकी शील और तप, इन तीनोंको पालन कर चुकने- गहनता- जिसको. जैनियोंका अधिकांश पाला मनुष्य-इस भव या परभवमें इस भाग नहीं जानता-कुछ अंशोंमें, बताई है। मंजिलके मार्ग पर बहुत कुछ चल चुक- अब इस भावनाकी अंगभूत धार्मिक क्रियानेवाला मनुष्य--'भावना' के क्षेत्रमें प्रवेश- ओंके संबंधमें कुछ कहा जाता है। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WHAARRIAMARRITAMAADHAN जनहितैषी प्रत्येक मनुष्यको, मैत्री भावना, करुणा इस गुणसे-इस भावनासे-भावना भानेवाले भावना, प्रमोद भावना और माध्यस्थ्य मनुष्यमें भी उन गुणोंका अंश प्रविष्ट होता भावना सेवन करनेकी विधिसे परिचय है और वह भी वैसा ही बन जाता है । होना चाहिए और तदनुसार आचरण भी अधम जनोंकी नीच प्रवृत्ति देखकर माध्यस्थ्य करना चाहिए । समान गुण और समान विचार भावना भाना चाहिए । इसका यह अभिप्राय रखनेवाले मनुष्योंके साथ मैत्री भावना, है कि न उनकी प्रवृत्तियोंसे प्रमुदित होना अज्ञानी और दुखीकी तरफ़ करुणा भावना, चाहिए और न द्वेष ही करना चाहिए। सम्प्रति अपनेसे विशेष ज्ञान-गुण-शक्ति आदि धा- इस भावनाका बहुत ही बुरा अर्थ किया रियोंमें प्रमोद भावना और अधम मनुष्योंकी जाता है । निन्दा या स्तुतिके सिवा जैसे तरफ माध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिए। संसारमें अन्य कोई तत्त्व जीवित ही न हो, समान गुण और विचारके धारकोंसे मित्रता इस भाँतिसे लोग धर्मके बहाने यह कहकर रखनेसे पारस्परिक विचार विशेष विकसित चुप होते दिखाई देते हैं कि जनसंहारक होते हैं और दोनोंकी आत्मिक शक्तियाँ वृद्धिको प्रवृत्तियोंके आचरण करनेवालोंके प्रति क्षमा प्राप्त होती रहती हैं। दिखाकर 'माध्यस्थ्य ' भावनाका चिन्तवन करना चाहिए । इस समझने लोगोंको बहुत दुखी और अज्ञानियोंके प्रति करुणा त करुणा- हानि पहुँचाई है । यदि ऐसी नपुंसकता ही भाव रखनेसे उनके दुःख और अज्ञान नष्ट धर्म है, तो फिर करुणाभावना बतानेकी करनेमें प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा होती है । अन्तमें क्या आवश्यकता थी ? अपराधी या पापी परिणाम यह होता है कि न्यूनाधिक रूपसे भी एक मनष्य है-आत्मा है । उसको उन दुखियोंके दुःख और अज्ञानियोंके अनिष्ट आचरणों में प्रवृत्त देखकर उसपर बन्धु अज्ञान मिटने लग जाते हैं, उनकी आत्मिक आत्माकी भाँति करुणा करना चाहिए, जिससे उत्क्रान्तिका मार्ग भी साफ़ हो जाता है उसका अन्तरात्मा सीधे मार्गपर आ जावे। यदि और इस भावना और सहायताको करने- सर्वथा उत्तम पथका पथिक नहीं बने तो भी वाला मनुष्य भी उन्नत होता है। वह मार्गकी भीषण भयङ्करतासे तो बहुत कुछ विशेष ज्ञान-गुण-शक्ति आदिके धारण- बच सकता है । मान लो कि यदि ऐसा न करनेवालोंसे ईर्ष्या न कर उनकी उत्क्रान्तिको भी हुआ तो भी उससे होनेवाली हानिसे अन्य देख, प्रमोद-उल्लास-संतोषका अनुभव करना मनुष्योंको बचानेका प्रयत्न करना भी 'करुणा' और उसकी अधिकाधिक उन्नतिकी इच्छा का ही विषय है । इस प्रकारसे कृत कर्तव्यके करना साधारण बात नहीं है। अतिशय द्वारा उस ही समय यदि मनुष्यको,चाहे वह काउदार हृदयके बिना यह नहीं हो सकती। ल्पनिक हो या वास्तविक, कष्ट पहुंचे तो उसके For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पE भावना और सामायिकका रहस्य। लिए मनमें हर्ष विषाद न कर उदासीन भावसे आत्मा नियत समयमें चाहे उटपटांग या रहना, ‘माध्यस्थ्य' भावना कहलाती है। माध्य- अनावश्यकीय कार्य करे, चाहे उन शत्रुस्थ्य भावनाका अनुयायी कभी यह चिन्तवन न ओंको जो चिरकालसे संतप्त करते आये हैं, करेगा कि पापी दखी हो और न वह पापीको जडसे नाश कर दे । इसके द्वारा दोनों ही किसीकी शान्तिमें या उन्नतिमें ही बाधक देख कार्य हो सकते हैं। कौनसा करना चाहिए सकेगा । इस विषयपर बहुतसी बातें विचार- और कौनसा नहीं, यह उसकी पसंदगी पर णीय हैं; किन्तु उनके लिए अभी अवकाश निर्भर है और इसी पसंदगी पर उसका सदानहीं है। का दुःख या सुख आश्रित है । ___ भावनाकी निर्मलता और पुष्टिके लिए इसी हेतुसे परदुःखभंजक जैनशास्त्रोंने जो सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध महान् गुरुओंने 'अनर्थदण्डविरति ' व्रतका उपआदि क्रियायें बताई हैं उनके संबन्धमें अब देश प्रत्येक शस्त्रधारी अर्थात् मनुष्यको हम कुछ व्यावहारिक बातोंका विचार करेंगे। दिया है । पैसेके समान वस्तुयें, जो कि यहीं । ये तीनों क्रियायें वास्तवमें बहुत मह- रहनेवाली हैं, या अन्नादि वस्तुयें, जो कुछ ही त्त्वकी और लाभप्रद हैं। इस बातको माने- समय पीछे विष्ठाका रूप धारण करनेविना तर्कशास्त्र, मानसशास्त्र और व्यवहार वाली हैं। इनकी प्राप्ति या उपभोगमें ही आत्मा शास्त्रके वेत्ताओंका भी काम न चलेगा। इस शस्त्रका हर समय उपयोग न करता इन तीनोंके संबन्धमें यहाँ केवल कुछ खास रहे और क्रोध, मान, माया, लोभके-जो कि खास बातें ही बताई जायँगी। इनकी फिला- एक क्षण मात्रके लिए ही सुखोत्पादक हैंसफी इतनी गहन है कि पूर्णतया विचार किया उत्पन्न करने या इनको स्थायी बनानेके जाय तो इन पर बड़े बड़े ग्रंथ लिखे जा प्रयत्नमें ही इस शस्त्रको काममें न लाता सकते हैं। यह हमें अवश्य मानना पड़ेगा रहे, इसी लिए विश्वगुरुओंने ' अनर्थदण्डकि इस समय जो ग्रंथ प्राप्त हैं वे बुद्धिवा- विरति' व्रतका उपदेश दिया है । इसके दको तृप्त करनेके लिए काफ़ी नहीं हैं। कारण अपने हितको नाननेवाले पुरुष अपने ___ आत्मा महान् कार्य सम्पादनके लिए, शस्त्रका विशेष उत्तम या चिरस्थायी लाभया अनन्त या असंख्य भवोंको मिटाने लिए दायक कार्यके करनेमें उपयोग करने लगते मनुष्यशरीररूपी समर्थ शस्त्र प्राप्त करता हैं। इस सब प्रकारके निष्प्रयोजन कार्यों, है। यह शस्त्र किसी नियत समय तक ही शब्दों, और विचारोंसे पृथक् रहनेकी आज्ञा रहनेवाला है, या यों कहिए कि अमुक समय करनेवाले व्रतको पूर्णतया समझने या समतकका ही यह परवाना है । इस शस्त्रसे, झानेका शायद ही कहीं प्रयत्न किया जाता For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SatuRATHIBAARIDATIOLTINAMAALIBAITLE जैनहितैषी १० हो। जो जीवात्मा इस व्रतको समझनेमें द्वारा अपने पिताके घरमें-स्वाध्यायमें-- भाग्यशाली हुआ होगा, वह तो बाइविल- जानेका मंत्र बताया है जिसे 'सामायिक व्रत' वर्णित उड़ाऊ ( अपव्ययी ) लड़केकी भाँति कहते हैं। यों ही कहेगा कि:-" मेरे पिताके बहुतसे यहाँ मझे स्पष्ट करके कहना चाहिए बंगले हैं; मैं वहाँ जाऊँगा, अब विशेष समय कि दरसे सामायिक एक सामान्य घर सा तक क्षुधाकी पीड़ा न सहूँगा।" उड़ाऊ दिखाई देता है, तो भी यदि यों कहा होनेसे-व्यर्थ कार्योंमें पैसा व्यय करनेसे - जिसे जाय कि उसमें सहस्रों बँगले समा रहे हैं अन्न भी मिलना कठिन हो गया था, उस तो अत्युक्ति नहीं होगी, न्यूनोक्ति भले ही लडकेको अन्तमें जिस भाँति बापके घरकी हो जाय । सामायिकमें जब सारी तर्कनाओंकी आवश्यकता हुई और वहीं उसने बंगले' र वहा उसन 'बगल' त्याग कर कायोत्सर्ग किया जाता है, उस देखे; उस ही भाँतिसे जो मनुष्य अपने समय ऐसे आनन्दभवन दिखाई देते हैं शरीररूपी हथियारका, तथा समय, बुद्धि बुद्ध जिनका वर्णन करना लेखनी या जिह्वाकी और धन आदिका दुरुपयोग करता है उसे शक्तिसे परे है। दिखावेके हेतु, अंधश्रद्धाभी अन्तमें 'शक्तिहीन' 'साधनहीन' बन अपने पिताके गृहकी ओर-परमेश्वरके स्मरण के लिए या अंगीकृत नियम पालनेके हेतु जो सामायिक करते हैं मेरी समझमें वे इस की ओर-'आत्मभावनाकी ओर' फिरनेकी " छोटेसे घरमें छिपे हुए सहस्रों सुन्दर बंगले आवश्यकता पड़ती है। किन्तु यह आवश्यकता बहुत देरीसे होती है, इस कारण कदापि न देख सकेंगे। जिन्होंने अपने मन सार्थक नहीं होती है, क्योंकि पितृगृह या , - वचन और कायाकी शक्तिको व्यर्थ न उड़ा आत्मचिन्तवन तक जा पहुँचनेकी अब उसमें १ देकर उसे अपने कोषमें संचित रक्खा होगा शक्ति ही नहीं रहती है । इधर उधरकी उन्ह उन्हें सामायिक सचमुच ही आनन्दका सागर दौड़ धूपमें व्यर्थ ही अपनी शक्तिके नाश जान पड़ेगा। कर देनेसे अब वह दूरवर्ती 'बापके घर' प्रथम सोपान परसे छलाँग मारकर या 'स्वस्वरूपमें'-जिसमें सहस्रों महल और अन्तिम सोपान पर पहुँच जानेकी इच्छा आनन्दागार बने हुए हैं-किस भाँतिसे पहुँच रखनेवाले लोग बड़ी भारी भूल करते हैं। सकता है ? उदाहरणार्थ किसी ऐसे मनुष्यको लो, जिसने इसी हेतु महान्गुरु श्रीमहावीरने प्रथ- निरन्तर विषयसेवनमें रत रहकर अपना म ही शक्तिका दुरुपयोग न करनेके लिए शरीर निःसत्व बना लिया है, जिसने प्रत्येकका 'अनर्थदण्डविरति' नामी महामंत्र सिखाया बुरा चिन्तवन और तन्दुल मच्छकी भाँति है । उसके पश्चात् उन्होंने संचित शक्तिके अहर्निशि कुतर्क करते रहनेसे अपने मनको For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASHIRAIMILAIMARATITIOAALAAMRATIOAMIARY भावना और सामायिकका रहस्य। नमस्का की चंचल और रोगी बना लिया है, जिसने यद्वा स्वादको चखने जायगा जिसका वह हर समय तद्वा, व्यर्थ बोल बोलकर जिह्वाको निकम्मी आस्वादन करता रहा है। हम ऐसे चल चित्त'बनलिया है, या यों समझो कि जिसने अपने वाले व्यक्तिको बे-लगाम घोड़ेका सवार कहेंगे । इन तीनों शस्त्रोंपर जंग चढ़ा लिया है, ऐपा यह तो हमने अभ्यन्तर प्रवृत्तिका विचार मनुष्य ( यथाशक्ति आचरित आठ व्रतों किया; किन्तु क्या बाह्य कायोत्सर्गकी क्रिया द्वारा ) उस जंगको साफ किये विना, भी वह ठीक कर रहा है ? कायाको पीडित सामायिक-जिसमें मन वचन और कायकी कर पाषाणवत् बनानेके लिए और सब प्रकारके जागृति अथवा उग्र शक्तिकी आवश्यकता प्रमादोंको दूर करनेके लिए, जो कायोत्सर्ग पड़ती है-करने बैठा है। यह प्रायः लोग किया जाता है, उसके किसी एक आसनको जानते हैं कि सामायिकमें कायोत्सर्ग करना धारण करने पर भी क्या वह मूर्तिवत् बैठ सपड़ता है। उसने भी कायोत्सर्ग किया है। कता है ? विषयसेवन या अन्य निकम्मे कार्यों के यह भी ठीक है कि उसके कायोत्सर्गके बाह्य द्वारा जिसने अपनी शारीरिक स्थितिका नाश कृत्य सब यथाविधि दिखाई देते हैं । वह कर दिया है वह कदापि मूर्तिवत् न बैठ पद्मासन लगाकर बायें हाथकी हथेली पर सकेगा ।क्षणमें पैर दुखने लगेंगे, कमरमें तकदाहिने हाथकी हथेली टेक नासाग्रदृष्टि लगाये लीफ होगी और क्षणमें दम घुटने लगेगा। बैठा है। किन्तु इस समय क्या वास्तवमें कभी खाँसी चलने लगेगी, कभी डकार आवेगी वह चौरासी लक्ष जीवयोनिसे क्षमा करने और कभी छींक होगी । ये सब रुक ही कैसे करानेका ध्यान कर रहा है ? लोकका स्वरूप सकते हैं जब कि वह उनको अपने और तीर्थङ्करोंके प्रकाशकी कल्पना करनेकी अधिकारमें रखनेवाली शक्तिका पहलेहीसे क्या उसमें शक्ति है ? और क्या वह ऐसा नाश कर चुका है ? क्या बच्चा कभी सहही कर भी रहा है ? उससे पूछो तो सही स्रों रुपयोंके व्यापारका कार्य चला सकता है ? कि इस समय वह किसी चन्द्रवदनीका तब स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है मधुर शब्द तो नहीं सुन रहा है ? या तोड़ोंसे भरी हुई तिजोरी तो नहीं देख रहा है ? कि सामायिक करनेका अधिकारी कौन है ? अथवा अपना नये खरीदे हुए घरका दृश्य यह बात मैं मानता हूँ कि मैं कोई बड़ा भारी तो नहीं देख रहा है ? जो ज्ञानी नहीं, न मैं मानस शास्त्रका ही पारगामी अनर्थदण्डविरति व्रतका पालन न कर- हूँ जिससे इसके लिए कोई नियम निर्माण नेसे-उस व्रतको नहीं समझनेसे— चंचल कर दूं। मैं ज्यादासे ज्यादा यह कर सकता और रुग्ण हो रहा है वह चित्त कदापि हूँ कि सर्व साधारणके सामने अपने विचारोंआज्ञानुसार न चलेगा । वह तो उसी को प्रगट कर दूं। मेरे मतानुसार तो अनर्थ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmm जैनहितैषीTriminimittitititifi दण्डविरमण व्रतके पालक ही शुद्ध सामा- शुद्ध होगा और वे सामायिक करनेके यिक कर सकत हैं। मैं न किसीका सामायिक योग्य बनेंगे । इतना ही करके मत पाठका बोलना बंद करना चाहता हूँ और न ठहरो; किन्तु आजकल अज्ञानतासे लोगोंको जो कोई दो घड़ीके लिए एकान्तमें बैठकर व्रतपालन करना अशक्य और भयंकर आरम्भ समारम्भका परित्याग करता है जान पड़ता है, अतः उनको ज्ञान कराके उसका विरोधी हूँ। मेरा तो केवल इतना इस व्यर्थे खयालको उनके मस्तकमेंसे निकही कहना है कि जिसकी शक्ति और शस्त्र लवाओ, उन्हें व्रतोंका व्यावहारिक स्वरूप परतंत्रताकी बेडीमें जकड़े हुए हैं वह समझाओ और पश्चात् सामायिकके चढ़ते उतआत्मा सामायिकके सदृश क्रियाकारक रते दर्जे बताओ। Active ( न कि निष्क्रिय Passive ) सम' यानी समता-समभाव-चित्तका समव्रतमें कैसे प्रवेश कर सकता है ! जिस तोलपन ( Equilibrium of mind ) बन्दीके हाथ पैर हथकड़ियों और बेड़ियोंसे और 'आय' यानी लाभ । अर्थात् जिससे जकडे हुए हैं वह चाहे तो बन्दी बनाने- आत्माको स्वभावकी प्राप्ति हो उसे सामावालेको मुँहसे गालियाँ दे सकता है; किन्तु यिक कहते हैं । इसको निवृत्ति कहते हैं, तलवार चलानेका कार्य किसी भॉति नहीं तथापि मैं इसकी व्याख्या प्रवृत्तिकी भांति कर सकता। ध्यान, कायोत्सर्ग और सामा करता हूँ। इससे मैं यह बताना चाहता हूँ यिक इन क्रियाओंमें बड़े भारी पुरुषार्थकी . कि सामायिक किसी मुर्दा या निद्रस्थ दशाका आवश्यकता है । ये Active क्रियायें नाम नहीं है, किन्तु शरीर और मनके रोध हैं । अतः जिस आत्माकी शक्ति चारों और विभक्त हो गई है, वह कदापि र करनेकी Acivity क्रिया actionका नाम है। इनको आचरणमें नहीं ला सकता । तथापि स सामायिककी यह व्याख्या मुझे बहुत ही जिनको सामायिक करनेकी इच्छा होती है सुन्दर मालूम होती है:उनसे यह कदापि मत कहो कि ' तुम इसे समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभभाषना। मत करो, किन्तु सामायिक क्रियारूपी बोनी' आरौिद्रपरित्यागः, तद्धि 'सामायिक' व्रतं॥ करनेके पहले, आवश्यक भूमिशुद्धिकी प्राप्तिके सामायिक समताको ( कि जिसमें लिए यथाशक्ति पाँच व्रतोंका अर्थात् हिंसा, झूठ, स्थिति स्थापकता और स्थिरताके गुणोंका कुशील, चोरी और परिग्रहके त्यागका और समावेश होता है ) विकसित करती है, अनर्थदण्डविरमण व्रतका अंगीकार कराओ (और इन गुणोंसे आत्मिक लाभके उपरान्त और छोटेसे लेकर बड़े तक सब कार्योंमें उनका व्यवहारमें भी अकथ्य लाभ होता है), प्राणी आचरण करना सिखाओ । इससे उनका हृदय मात्रमें अपने आपको देखना सिखाती है, For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना और सामायिकका रहस्य । इंन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रहका अभ्यास कराती है, शुद्ध और शुभ भावनाओंमें रमण करनेकी आदत डलवाकर सूक्ष्म प्रदेशों में विचरना सिखाती है, वाणी और शरीर के व्यापारमें उपयोग रखकर प्रवृत्ति करना बतलाती है । इसका परिणाम यह होता है कि हम बहुतसे अनावश्यकीय संकटोंसे बच जाते हैं । आगे हम सामायिकके भिन्न भिन्न अंगोंका विचार करेंगे: इस प्रकार पहले पाठमें समर्थ आत्माओंका स्मरण किया, अपनी कल्पना शक्तिके द्वारा उनका दर्शन किया-पश्चात् दूसरे पाठमें हम उनको भावपूर्वक तीनवार नमस्कार करके, उनके प्रति, सत्कार सन्मान पर्युपासन आदि अनेक प्रकारसे भक्ति तथा बहुमान प्रद १३ र्शित करते हैं। इससे उनके उच्च गुणोंमें हम तल्लीन होते हैं और उन गुणोंका अंश खींचते हैं। ' सामायिक में सबसे पहले णमोकार मंत्र पढ़ा जाता है । इस मंत्र संसार के सारे उपकारी मनुष्योंका स्मरण होता है। जड़ देहकी बेड़ीसे छूटे हुए सिद्ध, छूटनेकी स्थितिमें पहुँच चुकनेवाले अरहंत, छूटने के इच्छुक, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु इन सबका स्मरण करनेसे इनकी भव्यमूर्तियाँ अपनी कल्पना शक्तिके सामने आजाती हैं । जब यह ज्ञान होता है कि हमारा आत्मा महान् शक्तिशाली आत्माओंकी छायामें - शरणमें आया है तब हममें बहुत कुछ साहस और शान्ति आती है और ४८ मिनिट तक मनको वशमें रखनेके जिस व्रतमें हम बँधते हैं उस व्रतको बराबर पालनेके लिए हम शक्तिशाली होते हैं। इन कृत्योंसे अपने हृदय स्थलको जोतकरपोलाकर - बोने योग्य बनाकर अगला कर्म जगतमें उद्योत करनेवाले पुरुषोंकी प्रार्थना' किया जाता है। इसमें सागरसदृश गम्भीर 'सिद्धों' से सिद्धि माँगी जाती है । जैनधर्मकी यह महत्त्वाकाँक्षा विशेष ध्यान देने योग्य है । जैनधर्म किसी परमेश्वरकी चापलूसी करके थोड़ी भूमि या कुछ सोने चाँदी के टुकड़े माँगनेका सिद्धान्त नहीं सिखाता; किन्तु यह तो सबको परमेश्वर बननेकी ही महत्त्वाकाँक्षा करनेकी प्रेरणा करता है । इस धर्मकी प्रार्थना सेवकाईकी या किसी करद राजाकी पदवी प्राप्त करने के लिए नहीं है; किन्तु जिनकी प्रार्थना की जाती है उन महाराजके तुल्य महाराज - परमेश्वरके सदृश परमेश्वर बनने के लिए है । प्रार्थनाके शब्दोंमें उन परमेश्वरोंको1 सिद्धोंको चन्द्रके समान शीतल और उसके साथ ही सूर्य जैसा तेजस्वी प्रकाशमय ज्ञान - मूर्ति वर्णन किया है कि जिनके गुणोंकी फिर द्वितीय कर्ममें सर्व प्रकारके, एकेन्द्रीसे पंचेन्द्री पर्यन्त जीवोंकी हमारे द्वारा जो हानि हुई है उसके लिए हम अपनी निन्दा करते हैं- क्षमा माँगते हैं, उन्हें ने जो हमें हानि पहुँचाई है उसे भुलाकर उन्हें क्षमा करते हैं और फिरसे ऐसा न होने की भावना भाते हैं - कल्पना करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARNATAKALAMITRALIALITIHAR जैनहितैषी १४ कल्पना, प्रार्थना करनेवालेके मन और बुद्धिको पहले वचन और कायासे पाप न करनेकी चन्द्र सूर्य सदृश बनानेमें कारण होती है। प्रतिज्ञा कर सामायिक करे । जब इसका पूर्ण फिर सामायिक अंगीकार की जाती है। अभ्यास हो जावे-सब तरहसे इसका पालन वास्तविक और पूर्ण सामायिक नव कोटि किया जा सके; तब दूसरी प्रतिज्ञा- कायासे होना चाहिए । यानी मन वचन और कायासे और वचनसे अनुमोदन न करनेकी-लेवे । इस कोई पाप करे नहीं, करावे नहीं और करते- भाँतिसे छह प्रतिज्ञायें कर सामायिक किया को अच्छा समझे नहीं । इस प्रकार नवों करे । जब ये छह भली भाँतिसे पाली जा सकें, रीतिओंसे पापोंसे दूर रहनेका व्रत लिया तब मनसे पापकर्म न करने और न करानेकी जाता है और यही सम्पूर्ण सामायिक है। प्रतिज्ञा लेना प्रारम्भ करे। इस तरह जब सामा परन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि यिक आठ प्रकारसे निर्विघ्नतया-सरलतासे होने इससे कम दर्जेकी सामायिक हो ही नहीं लगे, तब नवी कोटि यह है कि किसीको पापसकती। करोड़ रुपयेकी पूँजी रखनेवाला कर्म करते देखकर या जानकर उसको अच्छा मनुष्य करोडका व्यापार कर सकता है और न समझनेकी-अनुमोदन न करनेकी-प्रतिज्ञा दो सौकी पूँजीवाला दो सौका । किन्तु अंगीकार करे । इस तरह करनेसे न कुछ दोसौकी पूँजीवालेको भी व्यापार करनेका कठिनता जान पड़ेगी और न अन्धाधुन्ध उतना ही स्वत्व है जितना कि करोड़की सामायिक करनेका ही रिवाज रह जायगा। पूँजीवालेको । उसे केवल इतना ध्यान रखना शास्त्रानुसार नवकोटि सामायिक पाठके पढ़नेमें चाहिए कि छोटे व्यापारमें छोटी ही प्रतिज्ञायें इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि जितनी करे, और उनको सम्पूर्णतया पालन करे; क्रियायें हम पाल सकें उतनी ही पाठमेंसे अन्यथा उसकी बात हलकी हो जायगी और बोलें-प्रतिज्ञा करें । प्रत्येक मनुष्यके लिए समय पड़ने पर उसे जेलमें भी जाना पड़ेगा। एकही तरहका सामायिक पाठ भी नहीं होना इसी भाँतिसे यदि करोडपति भी करोड़की चाहिए । उक्त कोटिके क्रमके अनुसार प्रतिज्ञा कर उसे पूरी न करेगा तो अपनी साख सामायिक पाठ भी निर्माण होने चाहिएँ । खोकर आखिर उसे भी जेलमें जाना पड़ेगा। यह भी कह देना आवश्यक है कि संस्कृत ऐसी सैकड़ों बातें प्रत्यक्ष देखी जाती हैं। और मागधीके प्रचलित सामायिक पाठ वर्तसामायिकमें भी ऐसा ही समझना चाहिए। मान सर्वसाधारण समाजके लिए सर्वथा निरु जितनी जितनी क्रियायें पाली जा सकें पयोगी हैं। यह सब मानते हैं कि जिस भाषामें उतनीहीको स्वीकार करनेकी प्रतिज्ञा करनी हम विचार करते हैं, जिस भाषाको बोल. चाहिए और उसीके अनुसार पाठ बोलना कर हम अपना सारा व्यवहार चलाते हैं, जो चाहिए। देशकी भाषा है वही भाषा ध्यान, प्रार्थना, For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना और सामायिकका रहस्य । 1 पूजन आदि क्रियाओंके करनेमें काम आवे तब ही भली भाँति - एकाग्रतासहित सब क्रियायें हो सकती हैं । प्रत्येक शब्दके उच्चारण, पाठ, और विचार के साथ साथ दूसरी जो सैकड़ों अनुवर्गणायें ( Associa - tions ) स्वभावतः चली आती हैं, वे ऐसी भाषाके बोलनेसे कि जिसके शब्द समझमें नहीं आते हैं, या समझने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है, आनी बंद हो जाती हैं । अतः जिस भाषा में हम विचार करते हैं उसही भाषामें सामायिक पाठका भी उच्चारण करना चाहिए, स्मरण करना चाहिए। ऐसा करने पर ही सामायिक तल्लीनतापूर्वक हो सकेगी । यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि सामायिक तल्लीन - ताका दूसरा - पर्यायवाची शब्द है । सामायिक यह किसी पाठका नाम न होकर मान - सिक स्थितिका नाम है अतः ऐसी मानसिक स्थिति उत्पन्न करनेके लिए जो शब्द - समूह उपयोगी हो उसे ही काममें लाना चाहिए । वर्तमानमें जो सामायिक पाठ १५ प्रचलित है, वे प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, बुन्देलखण्डी, ब्रज और मारवाड़ी भाषाओंकी खिचड़ी हैं। ऐसे पाठोंका प्रचलित रहना - जिसको किसी देशके भी लोग भली भाँति नहीं समझ सकते हैं, कदापि ठीक नहीं हो सकता । ऐसे पाठको कई वर्षोंसे लाखों मनुष्य बिना किसी भाँतिका परिवर्तन किये किस प्रकार पढ़ते रहे हैं, यह विचार जैनविचारनेताओंके प्रति उत्पन्न होनेवाली मेरी सम्मान-बुद्धि को रोक देता है । यह स्थितिचुस्तता Conservatism ( मुर्दापन ) का चिह्न है । इसलिए मैं आग्रहपूर्वक कहूँगा कि आत्मविद्या, मानसशास्त्र और कुछ अंशोंमें हिप्नोटिज्म auto sugge stions वाले विभागके ज्ञानकी सहायता से सामायिकके पाठ, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बँगाली, कनड़ी, पंजाबी और अँगरेज़ी आदि सब भाषाओं में बनानेका प्रयास करना चाहिए। इसके लिए पूर्ण अवकाश भी है और इसकी आवश्यकता भी है । (अपूर्ण) ( गुजराती जैनहितेच्छुसे ) तुम्हारा जीवन चाहे कितना ही छोटा और नीचा क्यों न हो तुम्हें चाहिए कि उसका स्वागत करो और उसे आनन्दपूर्वक व्यतीत करो । उससे दूर मत हटो, उसे बुरा मत समझो और उसकी निन्दा मत करो । वह इतना बुरा नहीं है जितने तुम | जब तुम बहुत धनी होते हो तब यह बहुत निर्धन मालूम होता है । दोष हूँढनेवाले स्वर्ग में भी न मानेंगे । वे वहाँ भी दोष निकालते ही रहेंगे । अपने जीवनसे प्रेम करो, चाहे वह कितना ही तुच्छ हो । गरीबसे गरीब घरमें भी तुम्हें कुछ घंटे आनंददायक मिलेंगे । प्रकृतिकी सुन्दरतासे अमीर, ग़रीब दोनों एकसा लाभ और आनन्द उठा सकते हैं । सूर्यास्तकी सुन्दरता जैसी गुरी - बोंके झोपड़ों में मालूम होती है वैसी ही अमीरोंके महलोंमें भी मालूम होती है । संतोषी आदमीको झोपड़ी में भी वैसा ही आनंद मिलता है जैसा महलोंमें । ( थारो ) For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ले० -श्रीयुत पं० उदयलालजी काशलीवाल । ) स्वर्गीय पं० भागचन्दजीने एक भजनमें अनेक देवोंका स्वरूप बतलाकर कहा है: श्रीअरहंत परम वैरागी - दूषनलेश प्रवेश न जिनमें । भागचन्द्र' इनको स्वरूप यह, अब कहो पूज्यपनो है किनमें ॥ पंडित भागचन्दजीने उक्त भजनमें देव विषयकी चर्चा करके सत्यार्थदेवपना अरहंत भगवानमें ठहराया है । वह इसलिए कि उनमें किसी प्रकारका दोष नहीं है। वे वीतराग हैं । और और देवोंसरीखा उपासकोंके हृदय में सरागभाव मोहभाव पैदा करनेका उनमें कोई चिह्न नहीं है । तब यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि जैनधर्मकी मंशा प्रतिमा-पूजनसे पूजकोंके हृदयमें वीतरागता या शान्ति पैदा करना है यदि उसकी यह मंशा न होती तो उसे इस प्रकारकी निष्परिग्रह वीतराग प्रतिमाओंके बनानेकी ज़रूरत न पड़ती । और और लोगोंकी तरह वह भी ' भूषणवस्त्र-शस्त्रादि इसके पहले कि हम इस विषयपर विचार युक्त' प्रतिमाओं की स्थापना कर लेता । इस करें, यह बतला देना बहुत आवश्यक सम- बातसे कोई इंकार नहीं कर सकता कि झते हैं कि प्रतिमा-पूजनसे जैनधर्मकी क्या जैसा पदार्थ सामने होता है, या जैसेका मंशा है और क्यों इस विषयको उसने ध्यान आराधन किया जाता है हृदयमें उसी .. महत्त्व दिया । तरहका प्रतिबिंब पड़कर परिणाम भी फिर उसी तरहके होते हैं । उदाहरण के लिए कल्पना कीजिए कि हमारी आँखोंके सामने एक . सुन्दर स्त्रीका चित्र है । उसे देख हृदयमें भी कुछ न कुछ विकार उत्पन्न हो जायँगे - हमारे परिणामों की गति बदलना स्वाभाविक है । उसीतरह यदि हम किसी योगी-महात्मा के दर्शन करते हों, तो हमारे भावोंमें शान्ति होती जान पड़ेगी । भावोंका यह परिवर्तन प्रायः सामनेकी वस्तुको देखकर हुआ करता है । पर यह स्मरण रखना चाहिए कि यह बात उन्हीं लोगोंके लिए है जो निरालम्ब ध् नहीं कर सकते । या यों कह लीजिए कि स्वतंत्ररूपसे आत्मस्मरण करनेकी जिन्हें योग्यता प्राप्त नहीं है । मोक्षमार्गके दो भेद हैं - एक निश्चय और दूसरा व्यवहार । पहले मार्गके उपासक योगी-माहात्मा होते हैं । उनकी आत्मशक्तियाँ इतनी विकाशको प्राप्त हो जाती हैं उनका मन इतना स्थिर हो जाता है कि वे स्वतंत्ररूपसे आत्मध्यान 1 । ८ अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य है या नहीं ? • For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य है या नहीं? ) कर सकते हैं और इसी लिए वे प्रतिमापूजन सीढी है । जब यह सिद्ध हो गया कि प्रतिआदि न भी करें तो उनके लिए कोई हानि मा-पूजनसे जैनधर्मकी मंशा प्राणियोंको शान्ति नहीं । दूसरे मार्गके उपासक गृहस्थ लाभ कराना है, तब यह देखना चाहिए कि हैं । वे सारे दिन घरगिरिस्तीके काम-धन्दोंमें उसकी इस मंशाको प्रतितिष्ठित प्रतिमायें ही लगे रहते हैं। उन्हें अपने भावोंके पवित्र क. पूरा कर सकती हैं या अप्रष्ठित प्रतिमाओंसे रनेके साधन बहुत कम मिलते हैं। इस लिए भी काम चल सकता है ? हमने जहाँ तक उन्हें घरगिरिस्तीके कामोंसे सारे दिनमें जितना इस विषयपर विचार किया है, हमारा विश्वास कुछ थोड़ा या बहुत समय मिले, उसमें वे इस बातसे इन्कार नहीं करता कि अप्रऐसा अभ्यास करें, जिससे दिनोंदिन उनके तिष्ठित प्रतिमायें भी शान्ति प्राप्त करनेकी भावोंमें पवित्रता बढ़ती जाय और धीरे धीरे साधिका हैं । हमें प्राप्त करना है वीतरागतावे भी स्वतंत्ररूपसे आत्म-ध्यान कर शान्ति और यह जैसी ही प्रतिष्ठित प्रतिमासकें। इसी विकाश या उन्नतिका साधन ओंके ध्यानादिसे हो सकती है वैसी ही प्रतिमाराधन है। इसे छोड़कर प्रतिमा-पूजनसे अप्रतिष्ठित प्रतिमाओंसे भी। तब हम नहीं कह जैनधर्मका और कोई मंशा नहीं जान पड़ता। सकते कि केवल प्रतिष्ठित प्रतिमाके पूजनको . ही इतना महत्त्व क्यों दिया गया ? ___ रही प्रतिमापूजनके महत्त्वकी बात, सो यह स्पष्ट है कि शान्ति सभी चाहते हैं और हमने इस विषयका जिकर समाजके एक दुःख या आकुलतासे सब घबराते हैं । यह दो विचारशील विद्वानोंसे भी किया । वे भी ऊपर लिखा जा चुका है कि योगियोंके दर्श- हमारे इन विचारोंके बहुत अंशोंमें अनुकूल नसे भावोंमें शान्ति पैदा होती है, इस लिए हुए । उन्होंने प्रतिष्ठित प्रतिमाको महत्त्व कि वे स्वयं भी शान्त हैं। तब यह कहनमें भी देनेका कारण केवल प्रसिद्धि बतलाया। कोई हर्ज नहीं कि उन्हीं तपस्वी ध्यानी उन्होंने इस विषयमें उदाहरण दिया कि यदि योगियोंकी सी वीतराग शान्त मूर्तियाँ भी हृदय गवर्नमेंट किसीको ‘ रायबहादुर' आदिकी पर अपनासा प्रतिबिम्ब डालकर उसमें वैसी ही पदवी प्रदान करती है तो उसके समाचार शान्त भावनायें पैदा करेंगीं। यही कारण है कि पेपरोंमें प्रगट किये जाते हैं, सर्वसाधारण जैनधर्मने अपनी प्रतिमाओंको बहुत शांत बनाया तक उसकी खबर पहुँचाई जाती है और है। क्योंकि जैनधर्मका अन्तिम ध्येय ही यह है उत्सव आदि किये जाते हैं । यह सब क्यों ? कि संसारके जीवमात्र कर्मोंसे मुक्ति लाभकर विचार करनेसे निष्कर्ष निकलता है कि परम शान्ति प्राप्त करें । उसी परम शान्तिके केवल प्रसिद्धके लिए । अन्यथा जिसे पदवी मार्ग पर चलनेकी यह प्रतिमा-पूजन पहली दी गई, उसे गुपचुप एक पत्र द्वारा सूचना दे For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैनहितैषी - देनेसे, कि तुम्हें गवर्नमेंट ने अमुक पदवी प्रदान की, काम चल सकता था । इसी तरह काम तो चल सकता था अप्रतिष्ठित प्रतिमाओसे भी, पर सर्वसाधारण पर प्रतिमापूज - नका अधिक प्रभाव पड़े और जैनधर्मकी प्रभावना हो, इन सब बातोंके लिए प्रतिष्ठाका मार्ग चलाया गया । हमें भी इस कथनमें तथ्य जान पड़ता है और ऐसा होना असंभव भी नहीं। कारण जैनधर्म सरीखा वीतरागता - प्रिय धर्म इन बाह्य आडम्बरोंको पसन्द नहीं कर सकता । उसे प्रतिमापूजनसे जो वीत - रागता इष्ट है वह अप्रतिष्ठित प्रतिमासे भी प्राप्त हो सकती है। तब वह क्यों एक नया भार अपने सिर उठाने चला ! तब यह प्रश्न उठता है कि एक तो यह प्रथा बहुत पुरानी है और दूसरे यदि अप्रतिष्ठित प्रतिमाओंसे ही जैनधर्मकी प्रतिमापूजनकी मंशा सिद्ध हो सकती थी तो फिर आचार्योंने प्रतिष्ठापाठ वगैरह ग्रन्थोंको बनाया और क्यों श्रावकोंको प्रतिष्ठाके नेका उपदेश दिया ? क्यों कर यद्यपि इस प्रश्नका समाधान ऊपर कहे गये प्रतिमापूजनके प्रभावसम्बधी कथनसे बहुत कुछ होजाता है तो भी इस प्रश्न के उत्तर पर एक और रीति से हम विचार करते हैं । यह जो कहा गया कि प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करना पुरानी प्रथा है, इस पर हमारा यह कहना है कि हो सकता है यह प्रथा पुरानी हो; परंतु यह मान लेनेके लिए हम बाध्य नहीं कि प्रतिष्ठाविधि सदासे चली आती हो । क्योंकि कई ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं। कि जिनसे अप्रतिष्ठित प्रतिमाका पूजा जाना भी सिद्ध होता है । हम इस बातको सप्रमाण सिद्ध नहीं कर सकते कि जैनधर्ममें प्रतिष्ठाविधिका ब सूत्रपात हुआ, पर यह बतला सकते हैं कि जैनधर्ममें एक ऐसा भी युग बीत गया है, जिसमें कि अप्रतिष्ठित प्रतिमायें भी पूजी मानी जाती थीं और इस विषयका उल्लेख हम स्वयं आगे चल कर करेंगे । दूसरे यह कहा गया कि ' तो आचार्यों ने प्रतिष्ठा ग्रन्थोंको क्यों रचा और क्यों प्रतिष्ठा - दिके करनेका उपदेश किया । ' इस पर हमारा कहना यह है कि हम यह नहीं कहते कि आचार्योंने प्रतिष्ठा वगैरहका उपदेश देकर या उस सम्बन्धके ग्रन्थोंको रचकर कोई बुरा काम किया हो । परन्तु हम जिस प्रतिष्ठापद्धतिकी चर्चा कर रहे हैं वह कितनी पुरानी है इस विषयका पता लगाना चाहते हैं । और इसी लिए हमें अधिक से अधिक पुराने जमानेके सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक होगा । 1 इस विषयके निर्णय करनेके दो साधन हो सकते हैं - एक साहित्य और दूसरा इतिहास । साहित्यकी दृष्टिसे जब हम विचार करते हैं तो हमें यह निःसंकोच कह देना पड़ेगा कि इस प्रतिष्ठाके सम्बन्धका इस समय जितना साहित्य उपलब्ध है, वह सब इतना पुराना For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य है या नहीं ? नहीं जिससे हम विश्वास कर सकें कि प्रतिष्ठाविधि बहुत पुरानी है । इस समय आर्शाघर, नेमिर्चेन्द्र, अकलंक ( दूसरे ), इन्द्रनन्दि, एकॅसन्धि, आदि जितने विद्वानों और मुनियोंके प्रतिष्ठापाठ मिलते हैं वे सब विक्रमकी ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दि के बाद के हैं । हमें यह देखकर बड़ा विनोद होता है कि अब भी हमारे यहाँ विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दिके बने ग्रन्थ जब मिलते हैं तब प्रतिष्ठां सरीखे एक आवश्यक विषयके ग्रन्थ उस समयंके बने क्यों प्राप्त नहीं ? इसका कोई कारण होना चाहिए । कुछ लोगों का कहना है कि पहले शास्त्रोंके लिपिबद्ध करनेकी प्रथा बहुत कम थी । इस लिए सब विषयोंके ग्रन्थ तब नहीं लिखे गये थे । यह ठीक है कि शास्त्रोंके लिखनेकी प्रथा पहले कम थी, पर यह प्रश्नका सन्तोषजनक उत्तर नहीं । कुन्द - कुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, आदि आचार्योंके ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पर प्रतिष्ठासम्बन्धके इतने पुराने ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं, तब इससे भी अधिक पुराने समयकी तो हम बात ही क्या कहें । हमारे । १आशाधरका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दि है २ नेमिचन्द्र ( गोम्मटसारके कर्ता ) का समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दि है । ३ प्रतिष्ठापाठ शायद दूसरे अकलंकका है । अकलंक प्रतिष्ठापाठके प्रारंभमें नेमिचन्द्रके प्रतिष्ठापाठका उल्लेख है, अतएव ये दूसरे अकलंक ग्यारहवीं शताब्दि के भी पीछेके हैं । ४-५ इन्द्रनंदि और एकसंधिका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दि है । - सम्पादक । १९ इस पर यह बाधा दी जा सकती है कि तब पुरानी प्रतिष्ठित प्रतिमायें क्यों देखी जाती हैं ? इसका उत्तर यह है कि विक्रमकी समकालीन या उनके सौ दोसौ वर्ष बादकी प्रतिष्ठित प्रतिमायें अबतक देखने में नहीं आई हैं और यदि किसी सज्जनने कहीं देखीं हों तो उन्हें उसका उल्लेख करना चाहिए। और कदाचित् कहीं हों भी, तो उससे यह सर्वथा सिद्ध नहीं हो सकता कि प्रतिष्ठा करना उस समयके लिए आज जैसा आवश्यक ही समझा जाता हो । क्योंकि अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूजे जानेके भी कई प्रमाण और युक्तियाँ दी जा सकती हैं । इतिहास दृष्टि से विचार करने पर भी इस विषय में विशेष तथ्य नहीं निकलता । ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण अबतक प्रगट नहीं हुआ कि जिससे प्रतिष्ठा - विधि दो हजार वर्ष से पुरानी ठहराई जा सके । पर ऐसे प्रमाण कई मिलते हैं जो जैनधर्मको उक्त अवधिसे पुराना सिद्ध करते हैं । हमारे कहने का मतलब यह है कि प्रतिष्ठा विधि बहुत पुरानी नहीं । जैनधर्ममें एक समय अप्रतिष्ठित प्रतिमायें भी पूजी जाती थी । हमारा यह कथन उल्लिखित बातों से बहुत कुछ पुष्ट होता है । इसके सिवा अहम कुछ ऐसी युक्तियाँ भी पेश करते हैं जो हमारे कथनको और भी सुदृढ़ करती हैं । १ - कई स्थानों पर ऐसी प्रतिमायें अब भी मौजूद हैं, जिन पर प्रतिष्ठा वगैरहका For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी कोई साल संवत् नहीं और जो बहुत समयसे हुआ कहा जाय तब तो अप्रतिष्ठित प्रतिमा भी अबतक पूजी जा रही हैं। जैसे बड़वानीमें पूज्य ठहर ही जायगी और यदि यह कहा बावनगजाकी प्रतिमा और कुंडलपुर जाय कि उन्हें पुण्यबन्ध नहीं हुआ तो यह ( दमोह) के पहाड़में उकेरी हुई महावीर बात जैनधर्मके सिद्धान्तसे विरुद्ध पड़ती है। भगवान्की प्रतिमा। क्योंकि उसकी तो सारी इमारत ही भावोंपर २-जमीनमेंसे कई प्रतिमायें ऐसी निकल- खड़ी हुई है और इससे कोई इंकार नहीं ती हैं जिनपर कोई संवत् वगैरह नहीं होता कर सकता । और जिन्हें अधिक श्रद्धाल लोग चौथे काल- ४-प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित प्रतिमाको की बतला देते हैं। हमारे विश्वासके अनसा- पूजनसे प्रतिमाके सम्बन्धसे जो भाव होते हैं.. र ऐसी प्रतिमायें अप्रतिष्ठित ही पूजी उन भावामें कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। जाती थीं। ५-यशस्तिलके आठवें अध्यायमें एक __३-शास्त्रोंमें यह लिखा बतलाया जाता जगह लिखा हुआ है किहै कि कोई अप्रतिष्ठित प्रतिमा हो और यह यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां | रूपं लेपादिनिर्मितम् । मालूम न हो कि वह अप्रतिष्ठित है, और सौ तथा पूर्वमुनिच्छायाः वर्षतक बराबर पुजती चली जाय तो फिर वह पूज्याः संप्रति संयताः ॥ भी पूज्य हो जाती है । हमारे विश्वासके अ- इसका मतलब यह है कि जैसे लेप आदि नुसार यह अप्रतिष्ठित प्रतिमाके साथ सौ वर्ष द्वारा बनी जिनभगवान्की प्रतिमा पूज्य है, तक पुजते रहनेका सम्बन्ध पीछेसे जोड़ा उसी तरह प्राचीन कालके मुनियोंकी छायागया है। पहले अप्रतिष्ठित प्रतिमा भी पूजी को धारण करनेवाले इस समयके मुनि भी जाती थी। यह आग्रह ही न था कि प्रति- पूज्य हैं। इसमें लेपकी बनी प्रतिमाका जिकर ष्ठित प्रतिमा ही पूजी जाय । यदि ऐसा न है। हमारी समझमें लेप प्रतिमासे भीतोपर हो तो बड़ी भारी बाधा आकर उपस्थित होती चित्रकारीकी बनी हुई प्रतिमासे ग्रन्थकारका है। कल्पना कीजिए कि किसीने एक अप्रति- मतलब है। क्योंकि लेप-प्रतिमाका ष्ठित प्रतिमाका पूजना भूलहीसे आरंभ कर बनना इसी रूपसे संभव हो सकता है। दिया । वह प्रतिमा कोई चालीस पचास वर्ष- तब ऐसी प्रतिमाओंकी भी प्रतिष्ठाविधि होगी तक पुजती चली गई । तब यह बतलाइए यह हमारे ध्यानमें कम आता है* | हम तो कि चालीस वर्षतक जिन जिन लोगोंने उस - १ परन्तु प्रतिष्ठापाठोंमें कागज आदिपर बनी हुई प्रातमाका पूजा उन्ह उनक भाक्त मानक प्रतिमाओं ( चित्रों ) की भी प्रतिष्ठाविधि मौजूद है अनुसार पुण्य-बन्ध हुआ या नहीं ? यदि -सम्पादक। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KUNDAMAm A ILY अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य है या नहीं? प्रतिष्ठा की, इसका सामान्य अर्थ स्थापित करना, विराजमान करना, होता है। ऐसे शब्दोंको देखकर यह ख़याल कर लेना कि ये प्रतिष्ठापाठकी विधियोंके हम यह कहनेमें, कि अप्रतिष्ठित प्रतिमा भी अनुसार प्रतिष्ठित की गई हैं, ठीक न होगा । उपलब्ध पूज्य है, कुछ हानि नहीं देखते। प्रतिष्ठापाठ ग्याहरवीं बारहवीं शताब्दि के पहलेके नहीं हैं। परन्तु इनका बारीकीसे अध्ययन करनेसे मालूम हो ___७-अकृत्रिम प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा नहीं सकता है कि ये किन ग्रन्थोंके आधारसे बने हैं होती। और इनके पहले प्रतिष्ठायें किस विधिसे होती थीं। इस विषयका निर्णय करनेवालोंको श्वेताम्बर सम्प्रऊपर जिस विषयकी चर्चा की गई है दायके और वैदिक सम्प्रदायके प्रतिष्ठापाठोंका भी वह बिलकुल नया है और जहाँतक हमें तुलनात्मक पद्धतिसे अध्ययन करना चाहिए । विश्वास है हमारे भाइयोंको यह पसन्द भी आश्चर्य नहीं जो बौद्धसम्प्रदायके भी प्रतिष्ठापाठ रहे न आयगा।पर हमने इस विषयको इस लिए हों और शायद अब भी मिलते हों। प्रतिष्ठापाठ अधिक पुराने नहीं मिलते हैं, केवल इसी कारण यह नहीं चर्चाया है कि इसमें जो कुछ कहा गया समझ लेना कि ग्यारहवीं शताब्दिके पहले प्रतिष्ठाहै वह सब निर्धान्त है। केवल एक विषयपर विधि नहीं थी, या प्रतिष्ठायें नहीं होती थीं, निर्धान्त अपने विचार प्रगट किये हैं। समाजके वि- नहीं हो सकता। हाँ, यह संभव है कि इन प्रतिष्ठा. द्वानोंसे प्रार्थना है कि वे इसकी विशेष चर्चा . पाठोंके पहले जो प्रतिष्ठायें होती होंगी, वे इतने आडम्बरसे न होती होंगी और विधि भी इतनी जटिल न होगी । इस विषयका खास तौरसे अध्ययन करनेवालोंके द्वारा और भी अनेक बातोंचाहिए। का पता लग सकता है। तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओंमें पहले चिह्न थे या नहीं, नहीं तो इनका प्रचार कबसे • सम्पादकीय नोट-इस लेख पर विद्वानोंको हआ, पार्श्वनाथकी प्रतिमापर फण और आदिनाथकी विचार करना चाहिए। इसके लिए बड़े परिश्रमकी और प्रतिमापर लम्बे स्कन्धपर्यन्त लटकते हुए केश, ये छानबीन करनेकी ज़रूरत है। मथुराकी जनप्रतिमायें कचसे बनना शुरू हुए, यक्षयक्षियोंकी मूर्तियोंका सबसे अधिक पुरानी हैं। वे लगभग १८०० वर्षे पहलेकी बनना अरहंतकी प्रतिमाओंके साथ कबसे चला, हैं । उनपर जो लेख हैं, उनमें प्रायः यह लिखा हुआ मथुरामें जो आयागपट मिले हैं, वे क्या हैं, उनका है कि अमुकके उपदेश अमुकने प्रतिमा बनवाई प्रचार पीछे क्यों न रहा, उनके साथ जो नग्न स्त्रियोंया स्थापित कराई। यह किसी भी लेखसे स्पष्ट नहीं की मूर्ति रहती थीं, सो क्या हैं, आदि । आशा है होता कि उनकी प्रतिष्ठा करवाई गई। एक बात और कि विद्वानोंका ध्यान इस ओर जायगा और उनके है जिसका खयाल इस विषयपर विचार करते समय द्वारा पं. उदयलालजीके खड़े किये हुए इस प्रश्नरखना चाहिए । प्रतिष्ठित कराई, या प्रतिमाकी का यथार्थ निर्णय हो जायगा । For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसेन । ( लेखक-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।) जैनहितैषीकी गत श्रावण और भाद्रपद इस विषयमें हमारा अभिप्राय यह है मासकी युग्मसंख्यामें ( भाग ११, अंक कि हरिभद्रसूरिने अपने धर्मबिन्दुमें जिन १०-११ ) · आचार्य सिद्धसेन ' के सिद्धसेनका मत दिया है वे जैन नहीं; विषयमें संपादकका एक नोट निकला अन्यधर्मी हैं। सिद्धसेनके पहले जितने .. है । उसका मतलब यह है कि आदिपु- आचार्योंके नाम हैं वे सब अन्यधर्मी होनेसे राण और हरिवंशपुराण आदिके कर्ताओंने सिद्धसेन भी अन्य ही हैं । धर्मबिंदुके प्रजिन सिद्धसेनाचार्यका उल्लेख किया है वे सिद्ध टीकाकार श्रीमुनिचद्रसूरि ( जिनका कब और कहाँ हुए इसका कोई पता नहीं । स्वर्गवास विक्रम संवत् ११७८ में हुआ अभी तक यह खयाल था कि, ये वे ही था ) ने भी इन्हें । परतीर्थी , लिखा है। सिद्धसेन होंगे जो श्वेतांबरसंप्रदायमें : दिवा- परतीर्थी शब्दका वही अर्थ है जो ' एकांतकर' के विशेषणसे प्रसिद्ध हैं। परंतु अब वादी' का है । टीकाकारका उल्लेख इस इसमें कुछ संदेह होने लगा है । संदेहका प्रकार हैकारण प्रेमीजीने हरिभद्रसूरिके धर्मबिन्दु- “अथैतस्मिन्नेवार्थे परतीर्थिकमतानि द. को लिखा है । इस ग्रंथके चौथे अध्याय- श स्वमतं चोपदयितुमिच्छुः 'नियम एवामें दीक्षा लेने योग्य मनुष्यका वर्णन करते यमिति वायुः' इत्यादिकम्; 'भवन्त्यल्पाऽपि असाधारणगुणाः कल्याणोत्कर्षसाधकाः' हुए ग्रंथ-कर्ताने वाल्मीकि, व्यास, सम्राट, इत्येत्पर्यन्तं सूत्रकदम्बकमाह । वायु, नारद, वसु, क्षीरकदंबक, बृहस्पति, अध्याय ४ सूत्र ९ । विश्व और सिद्धसेन इन दश आचार्योंके “ इत्थं परतीर्थिकमतान्युपदर्य, स्वमतमत दिये हैं और उनको ठीक न बतला- मुपदर्शयन्नाह ।” अध्याय४ सूत्र २३॥ कर अंतमें अपना मत दिया है। सिद्धसेनका तथा स्वयं सिद्धसेनके मतको प्रदर्शित कमत सबसे पीछे दिया है और अंतमें अपना। रनेवाले ' सर्वमुपपन्नमिति सिद्धसेनः । इससे मालूम होता है कि ये सिद्धसेना- ( अध्याय ४, सू० २२ ) इस सूत्रके व्याचार्य हरिभद्रसे पहले हो गये हैं और ख्याताने, सिद्धसेनको नीतिकार और शास्त्रसंभवतः उनके संप्रदायके नहीं किन्तु विशेषका बनानेवाला-सिद्धसेनो नीतिदिगंबर संप्रदायके थे।" कारशास्त्रकृद्विशेषः-लिग्वा है । इससे For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aatum DITILLALALITALLELORE आचार्य सिद्धसेन । निश्चित है कि ये सिद्धसेन जैनसंप्रदायके को जागृत करती हैं-इस विशेषणसे सिद्धसेन आचार्य नहीं परन्तु अन्यमतके अचार्य हैं। महाकवि होने चाहिए । दिवाकर सिद्धसेनमें __ अब रही बात यह कि पुराणस्मृत सिद्ध- ये दोनों बातें घटती हैं। वे महावादी भी सेन कौन हैं ? हमारी समझमें तो, ये वे ही थे और महाकवि भी थे । बड़े बड़े आचासिद्धसेन हैं, जिन्हें श्वेतांबराचार्योंने दिवा- योंने इनको, इन्हीं विशेषणोंसे विशिष्ट लिखा करके प्रतिष्ठित-पदसे विभूषित लिखा है, हैं। भद्रेश्वर नामके एक विद्वान् आचार्य जिन्होंने ' सम्मतितर्क' और 'न्यायावतार' बहुत पहले हो गये हैं। उन्होंने प्राकृतजैसे अपूर्व तर्कशास्त्र लिखकर जैन-साहि- भाषामें ' कथावली ' नामका एक महान् ग्रंथ त्यमें अभिवनतर्कप्रणालीको प्रविष्ट किया लिखा है। उसके अन्तिम भागमें कितने एक है और जो उज्जयिनीके महारान विक्रमा- प्रभावक और प्राचीन आचार्योंके जीवनदित्यकी सभाके - क्षपणक' नामसे प्रसिद्ध चरित लिखे हुए हैं । सिद्धसेनसूरिका भी रत्न थे। पुराणों में दिये हुए विशेषण उन्हींमें कुछ थोडासा हाल लिखा है। इनके प्रबंधके चरितार्थ हो सकते हैं। पुराणों में कैसे विशे- प्रारंभहीमें इन्हें महावादी और महाकवि षण लिखे गये हैं, इस आकांक्षाके शमनार्थ लिखा है। यथाहम यहाँ पर वे दो श्लोक उद्धृत करते हैं जो "उज्जेणीए नयरीए महावाई महाकवी आदिपुराण और हरिवंशपुराणमें मिलते हैं:- य सिद्धसेणो नाम साहू।" "प्रवादिकरियूथानां केशरी नयकेशरः। चरितग्रन्थोंके सिवा तात्त्विकग्रन्थोंमें भी सिद्धसेनकवि याद् विकल्पनखराङ्कुरः॥” इन्हें ऐसी ऐसी महती उपाधियोंसे विभूषित -आदिपुराण। किया है । हरिभद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, य"जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः। : बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः" -हरिवंशपुराण। न्यामें इन्हें कहीं महावादी, कहीं महामति, आदिपुराणके दिये हुए-प्रवादीरूप हा- कहीं वादिमुख्य, और कहीं तर्कविशुद्धबुद्धि, थियोंके लिए नयस्वरूप केसर और वि- इत्यादि नाना विशेषणोंसे उल्लिखित किया है। कल्परूप तीक्ष्ण नखोंके धारण करनेवाले वास्तवमें ये थे भी ऐसे ही सम्माननीय, केशरी-सिंह-विशेषणसे सिद्धसेन बडे भारी इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं । इनके बनाये तार्किक-वादी होने चाहिए और हरिवंशपुराण- हुए सम्मतितके, न्यायावतार और स्तुतियाँ के लिखे हुए-जगत्में प्रसिद्ध है बोध जिन आदि ग्रन्थ इस बातकी प्रतीति करा रहे हैं। का ऐसे वृषभ-आदिनाथ (!) के समान श्वेताम्बर-संप्रदायके पूर्वाचार्योंमें, कितने सिद्धसेनकी स्वच्छ सूक्तियाँ सज्जनोंकी बुद्धि- एक शास्त्राय विचारोंके विषयमें थोडासा परंतु For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनहितैषी - प्रशस्य मतभेद था । इस भेदके कारण आचार्य - गण दो दलमें बँट गये थे। जिनभद्रगणि · क्षमाश्रमण आदि आचार्य ' सैद्धान्तिक ' पक्षके समर्थक थे और सिद्धसेनसूरि ' तार्किक' मतके संस्थापक थे । जिनभद्रगणिके मतके पोषक आचार्य 'सैद्धान्ति' कहे जाते हैं और सिद्धसेनसूरिके मत- पोषक ' तार्किक या ' सिद्धसेनीय' कहे जाते हैं । हमारे विचारसे, शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें ' सिद्धसेनीयाः' और ' सैद्धसेनाः ' ऐसे जो उदाहरण " नाम दु: । १ । १ । १ । " इस सूत्रकी व्याख्यामें दिये हैं, वे इसी आशयको लेकर दिये गये हैं । + विवादास्पद विषयोंमें, केवलज्ञान और केवलदर्शन मुख्य हैं। सिद्धान्तपक्षी आचार्योंका कथन है कि सिद्धान्तों- आगमोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों पृथक् पदार्थ माने गये हैं । इस लिए सर्वज्ञको ये दोनों उपयोग क्रमशः होते हैं । तर्कवादी सिद्धसेन कहते हैं कि, नहीं यह बात तर्कसे सिद्ध नहीं होती । केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों पृथक् पदार्थ नहीं, एक ही हैं। तर्कसे यही * " क्रमोपयोगवादिनां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानां, ** * यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमिति वादिनां च महावादिश्रीसिद्धसेनदि - वाकराणां साधारण्यों विप्रतिपत्तयः ॥ " - ज्ञान बिन्दु, यशोविजयोपाध्याय । + अमोघवृत्तिके ‘षड्नयानाडुः सिद्धसेनीयाः सैद्ध सेना: ' इस उदाहरणसे मालूम होता है कि सिद्धसेन और उनके अनुयायी छह नय मानते थे, सात नहीं । - सम्पादक । 1 सिद्ध होता है । जो केवलज्ञान है वही केवल . दर्शन है । इस मतको तर्कसे खूब पुष्ट किया है । इनके तर्क बड़े बलिष्ठ और प्रौढ़ हैं । इस लिए इनका नाम तार्किकतयां प्रसिद्ध हुआ । इनके मतका समर्थन करनेवाले विद्वान् तार्किक, सिद्धसेनीय या सैद्धसेनके विशेषणसे उल्लिखित किये जाते हैं। विद्वानों का मत है कि जैन साहित्य में जो तर्कशास्त्र प्रविष्ट हुआ है वह इन्हीं की बदौलत । इनके पूर्वमें जैनोंका खास कोई तर्कशास्त्र नहीं था । पिछले आचार्योंने जो तर्कशास्त्र रचे हैं वे इन्हींके बनाये हुए मार्ग के ऊपर अवलंबित हैं । डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषणने, मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहासकी जो पुस्तक ( History of the Mediavel School of Indian Logic. ) लिखी है, उसमें सिद्धसेन सूरिके विषयमें लिखा है कि— “ऐतिहासिक कालके सबसे पहले न्याय - शास्त्रको नियमबद्ध लिखनेवाले जैन लेखक सिद्धसेन दिवाकर मालूम होते हैं । इनसे पहले शायद जैन न्यायका कोई खास ग्रंथ मौजूद नहीं था । उस समय न्याय की बातें धर्म और सिद्धान्त ग्रंथों में ही गर्भित थीं । इन्होंने ही सबसे पहले न्यायावतार नामक न्यायग्रंथ बनाकर न्यायशास्त्र की स्थापना की । यह छोटासा ग्रंथ केवल ३२ श्लोकोंका है । ( जैनहितैषी, भा० ९, अं० ३. ) इन उल्लेखोंसे यह सिद्ध होता है कि सिद्धसेन दिवाकरको जो महावादी आदि 1 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सिद्धसेन । ट उपाधियाँ दी जाती हैं वे यथार्थ हैं । जैसे प्रचण्ड तार्किक थे कवि भी वैसे ही उत्कृथे । इनका बनाया हुआ ' कल्याणमन्दिर - स्तोत्र' पढ़कर कौन सहृदय आनन्दित नहीं होता ? भक्तिरस से ओत-प्रोत भरे हुए उसके प्रत्येक काव्यसे किस अर्हद्भक्तका हृदय परमात्मा के परम-गुणोंमें लीन नहीं हो जाता कल्याणमन्दिर जैसी अनेक स्तुतियाँ इनकी बनाई हुई उपलब्ध हैं जिनमें अर्हद्देवकी अनेक प्रकारसे स्तवना की गई है । उपर्युक्त न्यायावतारको भी इन्हीं स्तुतियोंमें की एक स्तुति समझना चाहिए | ? " जगद्विश्रुत हेमचन्द्राचार्यने अपने सिद्ध - हेम-शब्दानुशासनमें उत्कृष्टता दिखाने के लिए 'अनुसिद्धसेनं कवयः ( तस्मादन्ये हीना इत्यर्थः ) का उदाहरण लिखकर सिद्धनको सर्वोत्कृष्ट कवि बतलाया है । और अपने ‘ अयोगव्यवच्छेदस्तवन' के प्रारंभ में सिद्धसेनसूरिकी स्तुतियोंकी प्रशंसा करके 'उनके सामने अपनी कृतिको 'अशिक्षितालापकला ' बतलाया है । इन प्रमाणों से यह भलीभाँति ज्ञात होता है कि सिद्धसेनदिवाकर प्रखर वादी भी थे और महाकवि भी थे । पुराणस्मृत सिद्धसेन मी वादी और कवि थे । परन्तु दिगंबर संप्रदायका साहित्य इस विषयमें बिलकुल चुप है कि वे कौन थे और कब हुए हैं । यह भी संभव नहीं कि ऐसे सामर्थ्यवान् महा. त्माको समाज विस्मृत कर दे । यदि सिद्ध ४ २५ सेन दिगंबर संप्रदाय में हुए होते और पुरागोल्लिखित विशेषण उनमें चरितार्थ होते, तो उनका कुछ न कुछ इतिहास दिगंबर साहित्यमेंसे अवश्य ही मिल आता । स्वामी कुंदकुंद, अकलंक, विद्यानंद आदि परमदिगंबरा - चार्योंके विषयमें, सत्य तथा कल्पित परंतु थोड़ा बहुत हाल मिल ही आता है । परंतु सिद्धसेन के विषयमें उक्त पुराणोंके सिवा, किसी विश्वसनीय ग्रंथ में, शायद नामोल्लेख भी न होगा । इससे यह अनुमान कि पुराणस्मृत सिद्धसेन, दिवाकरके अतिरिक्त और कोई नहीं; ठीक मालूम होता है । डा० सती - शचन्द्रका भी यही मर्त है । संभव है कि संप्रदायभेदके कारण बहुत से पाठक हमारे इस निर्णयसे सहमत न होंगे । कारण कि पुराणकार दिगंबर संप्रदायके धुरंधर आचार्य थे और दिवाकर श्वेतांबर संप्रदायके प्रभावक पुरुष थे । (यद्यपि उस समय दिगंबर - श्वेतांबरका भेद नहीं हुआ था; परंतु उनकी कृतियाँ और जीवनवार्तायें श्वेतांबर संप्रदाय में अधिक प्रचलित होनेके कारण वे श्वेतांबर माने गये हैं । ) दिगंबर संप्रदाय के आचार्योंद्वारा, श्वेतांबरीय आचार्यकी इस प्रकार प्रशंसा किया जाना, तो असंभवसा प्रतीत होता है; परंतु पूर्वयह आजकलकी परिस्थितिके अवलोकनसे १ - जिनसेन सूरिने अपने आदिपुराण में ( ई० संप्रदाय के थे - जिक्र किया है । ( जनहितैषी, सन् ७८३ में ) सिद्धसेन दिवाकरका - जो कि श्वेतांबर भा० ९ अं० ३ ) For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TALIMALINITIALLAHABAD जैनहितैषी कालीन इतिहासका ध्यानपूर्वक निरीक्षण श्रीमद् यशोविजयोपाध्याय जैसे तार्किकने करनेसे मालूम होता है कि उस समय भी-जिनका अस्तित्व ऐसे समयमें था कि यह हाल न था। उस समयके विद्वान् जब सांप्रदायिक विरोध चरम-शिखर ऊपर गुणानुरागी अधिक होते थे। सांप्रदायिक चढ़ा हुआ था- अपने ग्रन्थोंमें इस आग्रहसे वे इतने लिप्त न थे जितने कि प्रकारके कृतज्ञतासूचक वाक्य लिखकर अर्वाचीन कालमें देखे जाते हैं । संप्रदायान्तर- अपना गुणानुरागत्व स्पष्ट प्रकट किया है । के गुणी पुरुषोंका भी उचित आदर पूर्वके प्रवचनसारके रचयिता परम दिगंबराचार्य विद्वान् किया करते थे। दिगंबर साहित्य- स्वामी कुंदकुंदको, उन्होंने एक जगह का विशेषालोकन न होनेके कारण हम कह महर्षिके महत्त्वदर्शक विशेषणसे उल्लिनहीं सकते कि उसमें ऐसे उदाहरण मिलते खित किया है और अपने कथनकी पुष्टिमें हैं या नहीं; परंतु, श्वेतांबर-साहित्यमें तो प्रवचनसारकी एक गाथाको उद्धृत किया ऐसे माध्यस्थ्यसूचक अनेक दृष्टांत दृष्टि- है । उपाध्यायजीका समय ऐसा विग्रह-पूर्ण गोचर होते हैं । हरिभद्र और हेमचंद्र जैसे था कि उस समयके बहुत से विद्वान् श्वेतांबरशिरोमणि आचार्योंने भी अपने ग्रंथोंमें समान सिद्धांतवालोंको भी-अपने ही अनेक स्थलों पर समुदायके अवांतरभेद-शाखाविशेष-वालों'तथा चोक्तं महात्मना व्यासेन ।' को भी तुच्छ शब्दोंसे स्मरण किया ( अष्टक ४-५.) करते थे; तो फिर दिगंबर जैसे विभिन्न संप्र'तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः।। दायके परम पोषक आचार्यको श्वेतांबर( योगदृष्टिस० १००) समाजका एक महान् नेता, ' महर्षि ' की महती उपाधिसे उल्लिखित करे, यह श्रद्धा'भगवता महाभाष्यकारेणावस्थापितम्। , पतम् ।' सक्त सांप्रदायिकोंकी दृष्टिमें कैसे ठीक ( काव्यानुशासन, अध्या० ३.) अँच सकता था ? उपाध्यायजी इस बातइस प्रकारके बहुमानदर्शक वाक्योंद्वारा को अच्छी तरह जानते थे, अतः उन्होंने वेदव्यास और पतञ्जलि जैसे वैदिकाचार्यों- उस जगह ऐसा मार्मिक उल्लेख कर दिया की भी प्रशंसा की है ! परमाईत महाकवि कि जिससे किसीको ' ननु-नच ' करनेश्रीधनपालने अपनी तिलकमंजरी-आख्या- का मौका ही न मिले । लिखा है कियिकाकी पीठिकामें अनेक वैदिक कवियों- “न चैतद्गाथाकर्तुर्दिगंबरत्वेन महर्षिकी स्तुति की है । आप्तमीमांसाके: रचयिता : त्वाभिधानत्वं न निरवद्यमिति मूढधिया प्तिमामासाकः रचायता शङ्कनीयं, सत्यार्थकथनगुणेन व्यासादीस्वामी समन्तभद्रकी स्तुति के अनेक पद्य नामपि हरिभद्राचार्यैस्तथाभिधानादिति श्वेताम्बर ग्रन्थों में यत्र तत्र मिलते हैं। स्वयं दृष्टव्यम् ।” (योगावतारद्वात्रिंशिका, २०) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AATALIM म Cum A LAMILLITERALLAHARIA आचार्य सिद्धसेन । initititiminiliffinfunny फिर पाठक इन उल्लेखोंसे समझ सकते हैं आग्रही बत निनीषति युक्तिं, कि उच्चकोटिके विद्वान् सांप्रदायिक दुराग्रह तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा । के फंदेमें नहीं फंसे रहते हैं । वे सत्यके पक्षपातरहितस्य तु युक्तिउपासक होते हैं, अतः उन्हें जहाँ कहीं ___ यंत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् ॥ सत्य दिखाई देता है, वे झट उसे अपना लेते हैं । वे सत्यका प्रकाशन और गुणी पुरुषोंका गुणगान सदा ही किया करते हैं। सम्पादककीय नोट-यद्यपि अभी इस - बातके सिद्ध करनेके लिए और भी पुष्ट प्रमाणोंकी जो व्यक्ति जितनी योग्य होती है उसका जरूरत है कि आदिपुराण और हरिवंशपुराणमें जिन उतना आदर, वे अवश्य करते हैं। चाहे वह सिद्धसेनका उल्लेख किया गया है वे न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनदिवाकरसे भिन्न नहीं हैं। अभी तक इससे जिनसेन जैसे उच्चतर विद्वान् सिद्ध र यह बात केवल अनुमानसे सिद्ध की गई है। खोज नेसे दिगम्बरसस्प्रदायके ग्रन्थों में शायद इनका विशेष सेन दिवाकर जैसे जैन-प्रभावककी-श्वेतांबर परिचय मिल जाय और उससे सिद्ध हो जाय कि वे दिगम्बरप्रदायके ही थे । तो भी, जब तक ऐसा सिद्ध न हो जाय तब तक मुनि महाशयका यह कथन ठीक जान पड़ता है कि सिद्धसेन दिवाकर उस समय सिद्धसेनकी एक कृतिहीको-कल्याणमादर- हए हैं जब जैनधर्ममें दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद स्तोत्रको-दिगंबर समाजने अपना लिया है। ही न हुए थे। विक्रमकी सभाके नौ रत्नोंमें जिन वह उसका नित्य पाठ करती है। इसके 'क्षपणक' का उल्लेख है, वे 'सिद्धसेन दिवाकर' को छोड़ अन्य नहीं हो सकते । सिद्धसेनके उपलब्ध अंतमें जो कुमुदचंद्र नाम है वह दिवाकर प्रथोंमें भी शायद कोई ऐसी बात नहीं है जिसे हीका है,यह प्रमाणोंसे निश्चित हो सकता है। केवल दिगम्बर या श्वेताम्बर ही मानते हों। उनके पाठक, हमारे जो विचार थे वे हमने ग्रन्थ दोनों सम्प्रदायका एकरूपसे कल्याण कर सकते हैं। संभव है कि उनके ग्रन्थोंका प्रचार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ही विशेष रहा हो और इस कारण वे श्वेताम्बर सम्प्रदायके ही आचार्य गिने जाने लगे हों। सिद्ध हो जाय कि पुराणस्मृत सिद्धसेन, इधर दिगम्बरोंमें उनके ग्रन्थोंका प्रचार न रहनेसे वे उन्हें भूल गये हों और इस कारण उनके साहित्यमें दिवाकर सिद्धसेनसे भिन्न हैं तो हमें इस उनका विशेष उल्लेख न मिलता हो-केवल भगवज्जिमें कोई आग्रह नहीं । हम अपने विचारको नसेन जैसे परिचितोंने ही उनका स्मरण किया हो। परिवर्तित कर सकते हैं। विद्वान् वही कह- यह भी संभव है कि भगवज्जिनसेनने उनके अविलाता है जो यक्तिके अनकल अपने विचारों- रोधी ग्रन्थोंपरसे उन्हें दिगम्बर समझकर, अथवा श्वेताम्बर समझकर भी — गुणाः पूजास्थानं गुणिषु को चलाता है, न कि विचारानुकूल युक्ति- न च लिङ्गं न च वयः ' की उदार नीतिके अनुसार को खींचनेवाला । हरिभद्रसूरिने लिखा है कि- स्मरण किया हो । For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOOOOO999909:0G:00:0GOOGGOOOreo IARRH मेरा प्यारा हिन्दुस्तान । ले-श्रीयुत सय्यद अमीर अली ( मीर) 0288ceeeeee00302c22eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee ॐ दयानिधे, हे अन्तर्यामी । परमपूज्य सब जगके स्वामी ॥ यद्यपि दिखते नहीं कहीं हो । सच पूछो तो कहाँ नहीं हो ?॥ गावें सब मिल दो, वरदान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥१ भेद-बुद्धि हम जावें भूल । सभी हमारे हों अनुकूल । करें न नाहक बैर-विवाद । समझें पातक पर-अपवाद ॥ मूल मंत्र यह लेवें मान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥२ हिन्दू-बौद्ध-जैन हों आर्य्य । चाहे ब्रह्मो-यवन-अनार्या ॥ चाहे भारतीय ईसाई । समझें आपसमें सब भाई ।। सुधामयी मिल छेड़ें तान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥३ जननी जन्म-भूमि है एक । उसके हम सब पुत्र अनेक ॥ पालें अपना अपना धर्म । रहें समझते लेकिन मर्म ॥ और रखें मनमें अभिमान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ ४ ऊँच-नीच गुणहीमें माने । सबको अपना भाई जानें ॥ सबके सुखदुखको निज मानें । व्यर्थ बातको कभी न तानें ॥ पढ़ें मंत्र कल्याणनिधान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ ५ विद्याका खोलें भण्डार । उस पर तन-मन दें बलिहार ॥ चाहे पढ़ने जायँ विदेश । भूलें पर नहिं यह उपदेश । _ 'मैं भारतका हूँ सन्तान । __ मेरा प्यारा हिन्दुस्तान' ॥६ Meeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee® eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIMALAImmmmmmmmmITION मेरा प्यारा हिन्दुस्तान । ceeeeeeeeeeeDDSS@@@@@0000000000000BDece® මළපළලිහිණි:මාළමනලලලලලලලලලලලල පිළිම ॐ कहते हैं ऐसा विद्वान । नहीं एकका हिन्दुस्तान ॥ C इस पर सबका स्वत्व समान । हिन्दू किंवा हो कृस्तान ॥ सब मिल गाओ मङ्गलगान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥७ P विधवा बाल अशक्त अनाथ । इन सबका पकड़ें हम हाथ ॥ अन्न-वस्त्रका देवें दान । और सिखावें जीवन-ज्ञान ॥ जिससे उन्हें रहे यह ध्यान। मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥८ .स्वावलम्बका हो अवलम्ब । पर-हितमें नहिं करें विलम्ब ॥ भारत-जननीके हो दास । सेवें चरणकमल सुखवास ॥ जपा करें यह मंत्र महान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥९ 'ऐसी सुमति वृद्ध नर पावें । कन्याओंका दिल न दुखावें ॥ विधवाओंको ब्याहें ! तभी योग यह लोग सराहें । बूढ़ी जोड़ी गावे गान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ १० ॐ करें न कोई बाल-विवाह । खूब पढ़ावें दे उत्साह ॥ 9 देश-भक्तिका हो अभिमान । आत्म-शक्तिसे हों बलवान ॥ उनको हो यह निश्चय ज्ञान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ ११ करें स्वदेशी वस्तु पसन्द । कला-कुशलता पड़े न मन्द ॥ करें नित्य नव आविष्कार । पावें फिर पहला सत्कार ॥ तब कहनेका हो अभिमान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ १२ मादक द्रव्योंका व्यवहार । छोड़ें, सीखें शिष्टाचार ॥ दया-धर्मके हों अवतार । करें न हिंसा, पर-अपकार ॥ भरे रहें इस ध्वनिसे कान। मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ १३ - सौत-द्वेषका भाव छोड़कर । श्री-वाणी सद्भाव जोड़कर ॥ @ रहें यहाँ निज सदन बनाकर । बाहरके ले जाय मनाकर ॥ @eeeeeeeeeee:e:e:eeeeeeeeeeeeeee @eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IMITI जैनहितैषी &000000000000000000000000000 ऐसा सुन्दर वास-स्थान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥१४ ॐ आधि-व्याधिका होवे नाश। रोग-शोकसे हो अवकाश ॥ घर घरमें हो सौख्य-निवास । बाल-वृद्ध में सुमति-विकास ॥ कहा करें हो बुद्धि-निधान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥१५ ॐ चमक जाय भारत-व्यापार । ग्राहक आकर सेवें द्वार ॥ धान्य और धन हो भरपूर । फूट-काल-कण्टक हों दूर ॥ हो कुबेर सा विभव-निधान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ १६॥ रत्न-प्रसूता धरा यहाँकी । वसुधा अति उर्वरा यहाँकी॥ स्वास्थ्य-दायिनी हवा यहाँकी । पाण-दायिनी दवा यहाँकी ॥ ऐसा है बल-गौरववान। मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥१७ सद्य दुग्ध-दधि-घृत मिलता है। धान्य वारि नियमित मिलता है। नाद यहाँ रत्नाकर करता। विमल सलिल नदियोंमें बहता॥ सब देशोंमें महिमावान। मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥१८ महज्जनोंकी लीला-भूमि । आत्म-ज्ञान, गुण-शीला. भूमि ॥ कञ्चन-मणि-रत्नोंका आकर । सकल जगतके लिए सुधाकर ॥ देता है सद्विद्यादान। मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ १९ इसकी महिमा अकथ अमेय । उपमा स्वयं स्वयं उपमेय ॥ देवगणोंका भी यह ध्येय । श्रेयोंसे भी उत्तम श्रेय ॥ कल्प-वृक्ष सम देता दान। मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥ २० @ दे इस नम्र विनय पर ध्यान । 'एवमस्तु' कह दो भगवान ॥ जिससे सुधर जायँ सब काम । होवे 'मीर' देश सुख-धाम ॥ गाया करे प्रजा यह गान । मेरा प्यारा हिन्दुस्तान ॥२१ ©20eeeeeeeee:ee:2:00e0e0e000000 2002eeeeeeeee00022000eeeeeeCCEC0002006eeeeee® DOOOGGGOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOutOGGG000000 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैन सिद्धान्तभास्कर | ( समालोचना ) विक्रमादित्य संवत् । यह पाँच पृष्ठका लेख श्रीयुक्त बाबू परेशचन्द्र वन्द्योपाध्याय एम. ए. का लिखा हुआ है और अपूर्ण है । जबतक यह पूरा प्रकाशित न हो जाय, तबतक इसके विषयमें विशेष कुछ नहीं कहा जासकता । इसमें यह सिद्ध करनेका प्रारंभ किया गया है कि विक्रमादित्य वास्तव में हुए हैं और उन्होंने शकोंको पराजित करके सासे ५७ वर्ष पहले अपना संवत् चलाया है । शाका सम्वतकी उलझन । दूसरी तीसरी संयुक्त किरणका यह लेख १६ पेजका है; परन्तु अपूर्ण है । आगे पूरा होगा या नहीं, भगवान् जानें। चौथी किरणमें तो सम्पादक महाशयने इसे पूरा करनेकी कृपा नहीं की, रही आगेकी किरणें, सो कब निकलेगीं, इसका अनुमान करनेका हम जैसे इति - हासानभिज्ञको अधिकार नहीं । इस लेखका नाम तो है, ‘शाकासंवत्की उलझन '; परन्तु इसमें विचार किया गया है ' विक्रमसंवत् ' पर ऐसा क्यों किया गया, यह शायद लेखके शेष भागमें बतलाया जाय । इस लेखमें अनेक देशी विदेशी विद्वानोंके मत देकर यह लाया गया है कि विक्रम या विक्रमादित्य नामका कोई राजा जिसने कि विक्रमसंवत् चलाया हो ईसासे ५७ वर्ष पूर्व या अबसे लगभग १९०० - २००० वर्ष पहले हुआ ही नहीं है । कुछ राजा ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने ! विक्रमकी उपाधि धारण की थी; परन्तु वे बहुत पीछे हुए हैं । इसके सिवाय आज तक जितने प्राचीन शिलालेख, दानपत्र, आदि मिले हैं, उनमें एक भी ऐसा नहीं है जिसमें विक्रम संवत्की शुरूकी छह सात शताब्दियों का उल्लेख हो । सबसे पहला लेख विक्रम संवत् ८९८ का है जिसमें संवत् के साथ विक्रमपद जुड़ा हुआ है। जब कि चन्द्रगुप्त, अशोक, कनिष्क, हुविष्क, खारवेल आदि प्राचीनसे प्राचीन राजाओं के लेख और उल्लेख मिलते हैं तब क्या कारण है कि विक्रमका उल्लेख नहीं मिलता ? उनका उल्लेख नहीं मिलता है, इससे मालूम होता है कि ईसवी सन्से ५७ वर्ष पहले कोई विक्रमादित्य नामका राजा हुआ ही नही । प्रो० मेक्समूलरका मत है कि उज्जैनीके राजा हर्ष विक्रमादित्यने ईस्वी सन् ५४४ में कोरूरके युद्धमें म्लेच्छौको हराकर उस विजयके उपलक्ष्यमें अपना संवत् चलाया और इस नव स्थापित संवत्को उन्होंने ६०० वर्ष पहले माननेके लिए सबको बाध्य किया । कोई कहते हैं कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ही विक्रमादित्य था । किसीका मत है कि मालवगणका संवत् ही पीछे बदलकर विक्रम कर दिया गया । पर ईसाकी पाँचवीं छठी शता ब्दिके पहले विक्रमादित्यको मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं । सम्पादक महाशयको भी यही मत पसन्द है । वे लिखते हैं- “ हम यह अवश्य कहेंगे कि इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि विक्रमादित्य ईसाकी छठी शताब्दिमें राज्य करते थे । इनके सामयिक बड़े बड़े कवि और For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ .NETITIATILIAALILITr पी जैनहितैषी iftiinfinitiiiiii लेखकोंने जो अपने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिख हैं, संभव है कि आगे कोई न कोई बलिष्ठप्रमाण छोड़े हैं वे आज बड़ी पूज्य श्रद्धासे समाहत मिल जावे और विक्रमादित्यका ठीक समय होकर पढे जाते हैं।" इस विश्वासके कारण निश्चित हो जाय । अनेक विद्वान् इस समस्यापर जिन एक दो विद्वानोंने विक्रमको ईसाके ५७ विचार कर रहे हैं और सफलताकी ओर बहुत वर्ष पहले सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है. उन- कुछ अग्रसर भी हुए हैं। का नाममात्र खण्डन भी सम्पादक महाशयने भगवजिनसेनाचार्य और कर दिया है। पर हमारी समझमें विक्रमका अस्तित्व ईसासे ५७ वर्ष पहले सिद्ध करनेमें जो असफ कविवर कालिदास । लता हो रही है उससे कहीं अधिक असफलता भास्करकी प्रथम किरणमें सम्पादक महाशविक्रमको अपने समयसे सौ दो सौ या छह सौ यने यह लिख मारा था कि जिनसेन और वर्ष पीछे ले जानेमें हो रही है। इस बातका ठीक कालिदास समकालीन थे और कालिदासको ठीक उत्तर कोई भी नहीं देता है कि जिस नीचा दिखलानेके लिए जिनसेनने मेघदूतपिछले राजाने अपनी यादगार कायम रखनेके वेष्टित पार्श्वभ्युदयकी रचना की थी। वास्तलिए अपने नामके संवत्को छह सौ वर्ष पहलेसे वमें यह एक भ्रम था, इस लिए सहयोगिनी शुरू किया, उसने इसमें क्या लाभ सोचा होगा सरस्वतीक सुविज्ञ सम्पादकने एक लेख लिखकर और उसकी इस आज्ञाको सारे देशने मान कैसे बतलाया कि यह निर्मूल कल्पना है। जिनसेन लिया होगा ? और इतना बड़ा पराक्रमी राजा और कालिदास समसामयिक हो नहीं सकते। ऐसे झूठे कृत्यमें प्रवृत्त ही क्यों हुआ ? उस परन्तु इतिहासके महासागर सेठजी यह कैसे समयके पहलेके और पीछेके अनेक राजाओंने मान लें कि उनके गंभीर मस्तकमें रत्नोंके सिवाय अपने अपने संवत् अपने समयसे चलाये कूड़े कर्कटको भी स्थान मिल सकता है ? बस, थे, फिर अकेले उसीने ऐसा क्यों आपकी बुद्धिका ज्वार आगया और उसके किया ? इसमें उसको लाभ क्या था ? परिणामरूप यह लेख प्रकाशित होगया । इसयदि कोई कहे कि अपना संवत् प्राचीन कहलाने में आपने यह बतलाया है कालिदास नामके लगे इस इच्छासे उसने ऐसा किया होगा, तो कई कवि हुए हैं । एक कवि विक्रमायह ठीक नहीं । यह कोई भी बुद्धिमान् दित्यकी सभाका रत्न बतलाया जाता है; परन्तु और यशोभिलाषी राजा नहीं चाह सकता कि विक्रम नामके किसी राजाका छठी शताब्दिके मुझे लोग मेरे समयसे छहसौ वर्ष पहले मानने पहले पता ही नहीं लगता । अत एव कालिदास लगें। इससे तो उलटी उसकी वर्तमान कीर्तिका भी छठी शताब्दिके बादका कवि है। पाठकोंको घात होता है। जब तक इस शंकाका समाधान यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि इसके पहन हो जाय, तबतक विक्रमादित्यका समय लेका विक्रम संवत् सम्बन्धी लेख भी इसी अभिआजसे १९७२ वर्ष पहले ही मानना पड़ेगा। प्रायसे लिखा गया है कि कालिदासको किसी आज यदि शुरूकी शताब्दियाके विक्रमसंवत्- तरह ईस्वी सन्के पहलेका सिद्ध न होने दिया सूचक लेख या ग्रन्थादि नहीं मिलते हैं तो जाय। कालिदासके समयनिर्णयके सम्बन्धमें क्या हुआ ? खोजें हो रही हैं, अन्वेषण हो रहे आपने देशी विदेशी ३४ विद्वानोंके मतोंका For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARITALIRALAAAAAAAAAAAAAEET . जैनसिद्धान्तभास्कर । उल्लेख किया है और उसका यह निष्कर्ष निकाला जिनसेनस्वामीने पाश्वर्वाभ्युदय काव्यकी है कि कालिदासके समयके सम्बन्धमें जब रचना अमोघवर्ष प्रथमके समयमें की है और विद्वानोंकी इस तरह भिन्नभिन्न कल्पनायें हैं, अमोघवर्षका राज्यकाल शक संवत् ७३७ या तब हमारी कल्पना निर्मूल क्यों ? यहाँ हम यह ईस्वीसन् ८१५ से आरंभ होता है। अतः पाश्र्वाभी कह देना चाहते हैं कि उक्त ३४ मतोंमें भ्युदय ८१५ से पहलेका नहीं हो सकता । इस 'मत' कहने योग्य तो दो चार ही हैं, शेष बातको भास्करसम्पादक भी मानते हैं। अब सब उनके अनुवादक, अनुधावक अथवा उन्हींकी इसके साथ कालिदासके समयको मिलाइए। बातंको प्रकारान्तरसे कहनेवाले हैं । कुछ लोग १ यदि विक्रमको छठी शताब्दिमें ही मानें, तो भास्करसम्पादकके समान ऊँटपटाँग हाँक- भी उनकी सभाका रत्न कलिदास दो सौ वर्षके नेवाले भी हैं! आपने ऐसे लोगोंके भी मत दे बाद अमोघवर्षकी सभामें उपस्थित नहीं हो डाले हैं जो कालिदासको भोजप्रबन्धके सकता। आधारसे ग्यारहवीं शताब्दिका कवि मानते हैं ! दें क्यों नहीं, मतोंकी संख्या अधिक २ बीजापुर जिलेके आयहोली ग्रामके जैनदिखलाकर लोगोंकोभय ही तो दिखाना है; परन्तु मंदिरमें जो जैन रविकीर्तिका शिलालेख है, यह मालूम न हुआ कि कालिदासके समयके विषयमें वह शक संवत् ५५६ या ईस्वी सन् ६३४ का मतान्तर दिखलानेसे कालिदास और जिनसेन लिखा हुआ है और इसमें किसीको सन्देह भी की समकालीनता कैसे सिद्ध हो गई ! १०-११ नहीं है। ये रविकीर्ति अपनेको कालिदास पेज रंग डाले; पर यह एक जगह भी नहीं . और भारविके समान कीर्तिशाली कवि बतलाते लिखा कि उक्त दोनों विद्वानोंका समय एक कैसे हैं -'स जयति कविरविकीर्तिः कविताहो सकता है। पहली किरणमें आपने प्रतिज्ञा श्रितकालिदासभारविकीर्तिः'। इससे सिद्ध की थी कि “ अगामी किरणमें हम दोनोंकी है कि कालिदास ईस्वी सन् ६३४ से भी समकालीनता पूरे प्रमाणके साथ सिद्ध करेंगे, पहले हो चुके थे, अतः उनके साथ जिनसे( पृष्ठ ४६)। परन्तु इस लेखमें तो वे परे नका साक्षात् कदापि नहीं हो सकता । प्रमाण पेश नहीं किये गये । इसके बाद चौथी ३ बाणभट्टने अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक किरण भी निकल गई , परन्तु उसमें भी नदा- काव्य हर्षचरितमें कालिदासका उल्लेख किया है रद । सच तो यह है कि न समकालीनता सिद्ध और बाणभट्टका समय ईसाकी छही शताब्दिका हो सकती है और न आप कर सकते हैं । कुछ अन्त और सातवींका प्रारंभ माना जाता है। लोग ऐसे पुरुषार्थी होते हैं जो अपनी असत्य इस विषयमें किसीका मतभेद भी नहीं है । अतः कल्पना पर भी अपनी योग्यताकी जिला चढ़ाकर कालिदासका समय छठी शताब्दिसे पहले निकुछ समयके लिए सत्यके सदृश दिखला देते विवाद है जो जिनसेन स्वामीसे कई सौ वर्ष हैं; परन्तु अफसोस है कि आप यह भी नहीं पहले चला जाता है। कर सकते हैं ! साथ ही बड़े ही दुःखकी बात यह ४ यह ठीक है कि कालिदास नामके कई है कि आप अपने भ्रमको स्वीकार करनेकी भी कवि हो गये हैं; परन्तु मेघदूतके कर्ता कालिशक्तिको खो बैठे हैं ! दासका समय तो छठी शताब्दिके बाद जाही For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनहितैषी - नहीं सकता और इस कारण जिनसेनसे उनका की प्रशंसाके गीत गाये हैं । गीत इस लिए कि साक्षात् होना असंभव है । इस लेख भरमें प्रशंसा और संस्कृत शब्दोंकी भरमार के सिवाय विशेष तथ्यकी बात कोई नहीं है । शिल्पकलाका जनक भारतवर्ष ही है, वेदादि ग्रन्थोंमें मूर्तिपूजाका स्पष्ट उल्लेख है, आदि बातोंके लिए प्रमाण देनेकी ज़रूरत जो नहीं दिये गये । परिशिष्ट शिलालेख । ५ योगिराज पण्डिताचार्य चौदहवीं शताब्दिके बादके विद्वान् हैं । उनकी उस कथापर विश्वास नहीं किया जा सकता जिसमें वे का - लिदास और जिनसेनका साक्षात् हुआ बतलाते हैं । जिनसेन जैसे ऋषि विद्वान यह निरी मिथ्या बात कभी नहीं कह सकते कि मेघदूतकाव्य पुराने काव्यमेंसे चुराया गया है । जैनधर्मकी प्रभावना इस तरह के छलसे कदापि नहीं हो सकती और न ऐसी प्रभावनाको पण्डिताचार्य और सम्पादकाचार्य पद्मराजजीको छोड़कर और कोई ठीक ही मान सकता है। पार्श्वाभ्युदयके अन्तके दो श्लोकोंमें जिनसेन स्वामी स्वयं यह बात स्वीकार करते हैं कि इस पार्श्वकाव्यको मैं मुनिराज विनयसेनकी प्रेरणासे कालिदासके मेघदूतकाव्यको वेष्टित करके बनाया उन्होंने यह तो कहीं नहीं कहा कि मैंने कालि दासका गर्व गलित करने के लिए इसकी रचना की है ! अतः दोनोंके साक्षात्की कथा पण्डि - ताचार्यजीकी मनगढन्त कल्पना है और यह उसी प्रकारकी है जैसी कल्पनायें बल्लालकविने अपने भोजप्रबन्धमें कालिदाससे लेकर अपने समयतक के तमाम बड़े बड़े कवियोंको भोजकी सभामें उपस्थित करके की है । 1 यह एक शिलालेख है । इसका लेखक मंगराज नामका प्रसिद्ध कवि है जो शक संवत् १३५५ के लगभग हुआ I 'कर्नाटक कविचरित ' के लेखानुसार वह होयसल देशान्तगत कलहल्लि राज्यके स्वामी विजयेन्द्रका पुत्र था । कनड़ी में इसके बनाये हुए छह ग्रन्थ उपलब्ध हैं । उसके बनाये हुए इस लेखमें सब मिलाकर ७८ पद्य हैं जो बहुत ही सुन्दर शब्दालङ्कार अर्थालङ्कार दोनोंसे युक्त हैं । ' इन्स्क्रप्शन एट् श्रवणबेलगोल ' नामक पुस्तक पर से यह उद्धृत किया गया है । कविने इसे श्रुतकीर्ति, चारुकीर्ति, पाण्डितयति, और श्रुतमुनि इन चार प्रसिद्ध विद्वानों की यादगार कायम रखनेके लिए लिखा है । प्रारंभ के २१ श्लोकों में महावीर भगवान् से लेकर अकलङ्कसूरितकके मुख्य मुख्य आचार्योंका उल्लेख किया गया है। और इसके बाद अन्ततक के श्लोकों में पूर्वोक्त चार मुनियोंकी प्रशंसा और उनके समाधिमरणका उल्लेख है । अन्तिम श्रुतमुनिकी निषद्या या समाधिस्थलपर यह लेख संभवतः अब भी मौजूद है । यदि सिद्धान्तभास्कर के सम्पादक महाशय इस लेख के विषयमें इतना सा परिचय भी दे देते, तो भास्करके हिन्दीपाठक उनके बड़े ही कृतज्ञ होते । परन्तु वे ऐसा क्यों करने लगे ? भयंकर घटाटोप दिखलानेके सिवाय उनका यह समकालीनता सम्बन्धी लेख भी अधूरा है जो चौथी किरणके निकल जानेपर भी पूरा नहीं किया गया है । जान पड़ता है सेठजी अभीतक समकालीनता के पूरे प्रमाण संग्रह नहीं कर सके हैं ! भारतवर्षीय प्राचीन शिल्पकला इस तीन पेजके अधूरे लेखमें- जो अभीतक पूरा नहीं किया गया है - भारतके प्राचीन शिल्प - For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an IIIIIIIIIIIIII जैनसिद्धान्तभास्कर । CiftififtififtiiiiifinitiuinttrintTTER और कोई लक्ष्य भी हो तब न ! पाठक कछ लाभ इसका अर्थ यह है कि " वह बढ़ाभारी मुउठावें या नहीं, इससे उन्हें मतलब नहीं। निसंघ, अविरुद्ध आचरणवाले चार भेदोंके हमारे पाठक कहेंगे कि लेखका हिन्दी भावान- · कारण ऐसा शोभित हुआ जैसे भगवान् जिनेन्द्र वाद भी तो साथहीमें दे दिया है, फिर और अपने परस्पर समानरूप चार मुखोंके कारण परिचय देनेकी क्या आवश्यकता थी ? उत्तर शोभित होते हैं।" कविका भाव यह है कि यद्यपि यह है कि वह भावानुवाद आपके पूर्वपरिचत दर्शन करनेवालोंको जिन भगवान्के चारों ओकाव्यतीर्थ पं० हरनाथ द्विवेदीका किया हुआ है। रसे बिलकुल एक सरीखे चार मुख दिखलाई तब यह आशा कैसे की जा सकती है कि पड़ते हैं; परन्तु वास्तवमें उनका एक ही मुख उसको बेचारी हिन्दीके पाठक समझ लेंगे ! होता है। उसी तरह वह मुनियोंका संघ यद्यपि __ अनुवादके विषयमें अधिक कहनेकी अवश्यकता देव, नन्दि, सिंह, सेन इन चार भेदोंमें बँट नहीं है। पाठक हरिशंपुराण और पद्मपुराणकी गया, परन्तु वास्तवमें उसका चारित्रकी भिन्नप्रशस्तिके अनुवादमें काव्यतीर्थजीके अनुवाद- तासे रहित एक ही रूप था। कौशलका नमूना देख चुके हैं। ठीक वैसा ही इसका अर्थ काव्यतीर्थ महाशय इस प्रकार ऊँटपटाँग, असम्बद्ध, अनर्थक और मूर्खतापूर्ण करते हैं--" इसके बाद श्रीमान् योगी जिअनुवाद इस लेखका भी हुआ है । यह तो नेन्द्र भगवान् अविरुद्ध वृत्तिवाले चार संघोंको किसी तरह समझमें भी नहीं आता कि कवि पाकर परस्पर समान चार मुखके ऐसे उन्हें किसका वर्णन कर रहा है । जहाँ जहाँ मूलमें समझकर शोभने लगे।" मालूम नहीं अकलं. यस्य, तस्य, यः, सः आदि सर्वनाम आये हैं कके समयमें ये योगी जिनेन्द्र भगवान् कहाँसे अनुवादमें उनको ‘जिसके, तिसके, जो, सो' और कैसे आ गये ! सेठ पद्मराजजीको यह आदि पर्यायवाची शब्द धर दिये हैं; परन्तु ऐतिहासिक तत्त्व अवश्य मालूम होगा । यह स्पष्ट करनेकी कृपा कहीं भी नहीं की है कि श्रीमान श्रतमानकी प्रशंसामें कवि कहता है:'वह' या 'वे' कौन हैं जिनका वर्णन हो रहा है। कोई कोई पद्य बहुत ही साधारण हैं; परन्तु का त्वं कामिनि कथ्यता श्रुतमुनेः कीर्तिः किमागम्यते । उनके अनुवादमें भी गोलमाल किया गया है । इस ब्रह्मन्मप्रियसन्निभो विषयमें अधिक न कहकर अब हम अनुवादके दो मुनिबुधः संमृग्यते सर्वतः ॥ चार नमूने देकर इस विषयकी आलोचनाको नेन्द्रः किं स च गोत्रभित्समाप्त करेंगे। धनपतिः किं नास्त्यसौ किन्नरः। - १९ वें श्लोकमें अकलंकदेवका स्वर्गगमन शेषः कुत्र गतः स च द्विरशनो वर्णन करके और यह कह करके कि उनके अ ___ रुद्रः पशूनां पतिः ॥५२॥ न्वयमें देवनन्दि आदि संघ हुए कवि कहता है:- अर्थात्-"ब्रह्माजीने किसी स्त्रीको आई हुई देखकर स योगिसंघश्चतुरप्रभेदाना पूछा-हे कामिनि, कह तू कौन है ? (उत्तर) साध भूयानविरुद्धवृत्तान् । मैं श्रुतमुनिकी कीर्ति हूँ। ( प्रश्न ) यहाँ क्यों बभावयं श्रीभगवानजिनेन्द्र आई है ? ( उत्तर ) हे ब्रह्मन्, मैं अपने प्यारेके श्चतुर्मुखानीव मिथस्समानि ॥ सदृश विद्वानको सब और ढूँढती फिरती हूँ। For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAITHILIM जैनहितैषीTimitm PAHIRTHIO (प्रश्न) क्या तेरे प्यारे श्रुतमनिके समान इन्द्र अर्थात्-जिनके शरीरको छकर जानेवाली नहीं है ? ( उत्तर ) नहीं, वह तो गोत्रभिद् हवा भी रोगको शान्ति कर देती है क्योंकि (पर्वतोंका हनन करनेवाला) है। ( प्रश्न) एक बार बल्लाल नरेशके शरीरमें जो रोग उठा क्या कुबेर भी उसके सदृश नहीं है ? (उत्तर) था, वह इसी तरह शान्त हो गया था-उनको नहीं, वह तो किन्नर ( कुत्सित नर ) है । (प्रश्न) बतलाइए कि दवाईसे क्या लाभ होगा ? तो फिर शेष (धरणेन्द्र ) कहाँ गया ? वह तो अभिप्राय यह कि जिनका शरीर ही दवाईरूप था, उसके सदृश होगा ? ( उत्तर ) नहीं, वह तो उन्हींको जब रोग हो गया है, तब और दवाई द्विजिह्व ( दो जीभोंवाला या चुगल ) है । क्या काम देगी ?॥३०॥ मुनिमहाराजने बुद्धिबलसे (प्रश्न ) और महादेव ? ( उत्तर ) वह तो विचार किया कि अब समाधिमरण करना ही पशुपति है।" श्रेयस्कर है, अर्थात् यही सबसे बड़ी ओषधि अब इसका काव्यतीर्थका किया हआ. गोल- है और तब समाधिपूर्वक उन्होंने अपने रोगादि माल, वेदभाषामें लिखा हआ भावार्थ भी पढ- आपत्तियोंके स्थान शरीरको छोड़कर विभवलीजिए:-“हे कामिनि! त कौन है ? क्या श्रतः शाली देवशरीरको प्राप्त किया। अर्थात् चारुमुनिकी कीर्ति त इधर आ रही है ? क्या त कीर्ति स्वामीका स्वर्गवास हो गया। . इन्ट है. नहीं यह तो गोत्रभिद् है । कुबेर तो ३०३ पद्यमें जिन बल्लालनरेशका उल्लेख नहीं है ? किन्तु यह किन्नर नहीं मालूम पड़ता है, वे विष्णुवर्धन राजाके भाई थे। कर्नाटक है। ब्रह्मन् ! मैं अपने ऐसे किसी विद्वान् मुनिको कविचरितसे मालूम होता है कि वे चारुकीर्ति चारों तरफ़ खोज रहा हूँ।" लीजिए, अन्ततक पण्डिताचार्यके समकालीन थे। पहुँचते पहुँचते द्विवेदीजीकी कृपासे वह कामिनि " पुरुष बन गई और अपने सदृश मुनिको अब इन पयोंकी हरनाथी या काव्यतीर्थी टीका ढूँढ़ने लगी । धन्य अनुवादकजी ! और धन्य देखिए:-" जिनके शरीरके सम्पर्क मात्र हीसे वा सम्पादकजी !! ___ सब किसीके रोगोंको शान्ति हो जाती थी। लोग श्रीचारुकीर्ति मुनि जब बीमार हुए और क कहा करते थे कि बल्लालराजकी कृपासे रोग इस कारण उन्होंने समाधिमरण करनेका निश्चय " छूटा है, दवासे क्या ? मुनिने समाधिपूर्वक किया, उस समयका वर्णन करते हुए कवि अनेक आपदका स्थान इस विनश्वर शरीरको छोड़कर दिव्य शरीरको पाया।" इससे बढ़कर कहता है: अनुवाद और कौन कर सकता है ? कवि मुनिकी एषां शरीराश्रयतोऽपि वातो कृपासे रोग छूटना बतला रहा है; पर अनुवादक रुजः प्रशान्ति विततान तेषाम् । राजाकी कृपासे रोग छुड़ा रहे हैं। दोनों पद्योंका बल्लालराजोत्थितरोगशान्तिरासीरिकलैतत्किमु भेषजेन ॥ ३० अनुवाद आपने तीन वाक्योंमें किया है, पर क्या मुनिर्मनीषाबलतो विचारितं मजाल जो एक वाक्य दूसरे वाक्यसे ज़रा भी समाधिभेदं समवाप्य सत्तमः। सम्बन्ध रखता हो ! द्विवेदीजीका प्रत्येक वाक्य विहाय देहं विविधापदां पदं वर्णाश्रम धर्मका पालन करता हुआ नजर विवेश दिव्यं वपुरिद्धवैभवम् ॥ ३१ आता है !! For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A SAM TMAITHAARAATMANAILALBAMAHARITRA वस्तु नीचे क्यों गिरती है। iiimfinitintifiutiffifinitiminimi G DIYE अनुवादकी खूबियाँ दिखलानेके लिए इससे दूसरी तीसरी किरणकी समालोचना समाप्त अधिक स्थान रोकना अच्छा नहीं । जो पाठक हो चकी। इस किरणके प्रायः सब ही लेखोंपर संस्कृत जानते हों उनसे हमारी प्रार्थना है कि . क हम विचार कर चुके । सम्पादकीय टिप्पणी वे इस शिलालेखके अनुवादका प्रत्येक वाक्य मूलसे मिलान करके देखें और द्विवेदीजीके MA और पुस्तक पर्यवेक्षण लेखोंपर विचार करनेकी पाण्डित्यकी तथा सेठ पद्मराजजीके प्रचण्ड विशेष आवश्यकता नहीं जान पड़ती । आगामी सम्पादकत्वकी प्रशंसा करनेका पुण्य सम्पा- अंकसे भास्करकी अन्तिम किरणकी आलोचना दन करें। शुरू होगी। ०६९ HIAEHINITALIजापान LAHANPAEVAVIVIBITAPETITNENTINENTER EMAATMA वस्तु नीचे क्यों गिरती है ? CHHET लेखक-श्रीयुक्त बाबू निहालकरणजी सेठी एम. एस. सी. विद्यार्थी-मास्टर साहिब, सब कोई कहते यही कहते हैं कि यह तो वस्तुका स्वभाव ही हैं कि जड़ पदार्थ बिना किसीकी सहायताके है कि नीचे गिर पड़े। अथवा बिना बलके एक स्थानसे दूसरे स्थान मा०-अच्छा आन तुम्हें यही बात समतक नहीं जा सकता-यह बात कुछ ठीक झावेंगे । यदि वस्तुका स्वभाव ही नीचे गिर नहीं जान पड़ती । यह पैंसिल हाथमेंसे छोड़ जानेका होता है तो गुब्बारा ऊपरको क्यों देने पर अपने आप ही नीचे गिर पडती है, जाता है ? पक्षी आकाशमें कैसे उड़ते हैं ? इसको तो कोई सहायता नहीं देता। पतंग क्यों घंटों वायुके मध्य डटा रहता है ? मास्टर-नहीं, तुम भूलते हो । यह स्वयं वि०-गुब्बारा तो हलका होता है। पक्षी नहीं गिर पड़ती । इसको नीचेकी ओर खस- अपने परोंके बलसे उड़ते हैं और पतंगको कनमें अवश्य सहायता मिलती है । कोई न हवा ऊपर स्थित रखती है। कोई निःसन्देह इस पर बल लगा कर इसे मा०-इसका तो अर्थ यह हुआ कि नीचेकी ओर खींचता है। ऊपरकी ओर बल लगानेसे वस्तु ऊपरकी वि०-बाह साहिब, कोई भी तो दिख- ओर भी जासकती है। लाई नहीं देता । इसके कोई तागा भी नहीं वि०-इसमें तो कोई नई बात न हुई । बँधा है जो कोई कहीं गुप्त स्थानसे बैठा बैठा जिधर बल लगावेंगे उसही ओर तो वस्तु खींच रहा हो और पिताजी इत्यादि सब चली जायगी। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAImmmmmmmmam जैनहितेषी मा०-यह तो ठीक परन्तु यह बताओ लड़के दोनों ओरसे खींचते हैं, परन्तु जब कि ऊपरकी ओर उठानेके लिए कितने तक बल बराबर होता है वह नहीं खिसकता बलकी आवश्यकता है? और बहुत अधिक बल लगाने पर कुछ खिवि०-यह तो मैं क्या जानूँ ? सकता है। मा०-इतना तो बतला सकते होकि यदि मा०-इसही प्रकार जब तक तुम ऊपरकिसी वस्तुको ऊपर उठावें तब अधिक बलकी की ओर इतना बल लगाओ जो नीचेकी आवश्यकता होगी अथवा जब उसे समतल ओरके बलसे कम हो तब तक तो वह वस्तु पत्थरपर रखकर खिसकावें ? हिल नहीं सकती। हाँ, जब उससे अधिक वि०-उपर उठानेमें अवश्य अधिक बल बल लगाओ तब निःसन्देह उठ सकती है। लगेगा, क्योंकि एक मन भारको मैं उठा तो वि०-परन्तु यह तो बताइए कि नीचे नहीं सकता किन्तु खिसका अवश्य सकता हूँ। कौन बल लगा रहा है ? मा०-जब पदार्थ वही है और उतनाही मा०-जब इतना समझे हो कि वस्तु पर है फिर एक दिशामें बल लगानेसे खिसके नीचेकी ओर बल लग रहा है तो पैंसिलका और एकमें नहीं, इसका क्या कारण ? नीचे गिर पड़ना क्या आश्चर्यकी बात है ? वि०-मैं तो कुछ नहीं जानता। हाँ, अब यह प्रश्न अवश्य है कि बल कौन मा०-अच्छा यही बतलाओ कि यदि लगा रहा है । क्या तुमनें चुम्बक देखा है ? दो सेर भारको ऊपर उठाकर हाथमें रक्खे वि०-हाँ, आपने उस दिन दिखलाया रहो तो तुम्हें बल लगाना पड़ता है या नहीं? था। वह सुईको अपनी ओर खींच लेता है। वि०-बल न लगावें, तो नीचे न मा०-अर्थात् सुई पर वह अपनी ओर गिर पड़े ? बल लगाता है। मा०-तो बल लगानेपर भी वस्त एक वि०-अवश्य-नहीं तो सुई अपने स्थानस्थानपर स्थित रह सकती है ? बल लगानेसे से हिलती ही क्यों ? तो उसे जिधर बल लग रहा है उसही मा०-क्या चुम्बकमें और सुईमें किसी दिशामें खिसकना चाहिए। तुम ऊपरकी ओर तार, तागे इत्यादिसे कुछ सम्बंध था ? बल लगा रहे हो परन्तु वह खिसकती नहीं, वि०-नहीं, वे तो सर्वथा पृथक् थे। इससे यही स्पष्ट होता है कि नीचेकी ओर चुम्बककी आकर्षणशक्ति ही सुईको खींच भी बल लग रहा होगा। लेती थी। वि०-हाँ, यह बात तो ठीक जान पड़ती मा०-फिर यदि इस वस्तु पर नीचेकी है। यहाँ जब रस्सा खिचवाया जाता है तब ओर बल लगता है अथवा यह नीचेकी For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु नीचे क्यों गिरती है ? ओर आकृष्ट हो जाती है, तो क्या आश्चर्य है ? चल जायगा । क्या तुम जानते हो कि स्प्रिंग(Spring Balance ) किसे का कांटा वि०- परन्तु यह लोहेकी तो है नहीं और कहते हैं ? न नीचे कोई चुम्बक ही है । मा० To - पृथ्वी भी एक प्रकारका चुम्बक है उसमें विशेषता यह है कि वह प्रत्येक वस्तुको खींच लेती है; केवल लोहेहीको खींचे, यह बात इसमें नहीं । वि० - यह तो बड़ी विलक्षण शक्ति है । इस शक्तिके मान लेनेसे अवश्य वस्तुका नीचे गिरना तो समझमें आजाता है; परन्तु यही कारण है ऐसा अभी विश्वास नहीं होता । मा० - यदि और कुछ प्रमाण मिले तब तो विश्वास होगा ? अच्छा यह बताओ कि चुम्बक सुईको कितनी दूरसे खींच सकता है? वि०—थोड़ी दूरसे अधिक दूरी होनेपर बल बहुत कम होजाता है और उस बलसे सुई नहीं खिंच सकती । मा०–तो ज्यों ज्यों उनका अंतर बढ़ता जाता है त्यों त्यों आकर्षणका बल घटता जाता है । यदि यही बात पृथ्वी और इस दो सेरकी वस्तु में हुई तो ? वि०-तब तो कुछ विश्वास होसकता है; परन्तु यह आप कैसे नाऐंगे ? क्या कोई ऐसा मी स्थान है जहाँ पृथ्वीका आकर्षण न रहे ! वहाँसे छोड़नेपर वस्तु पृथ्वीपर न गिरेगी ? मा० - नहीं, ऐसी जगह ढूँढने की कोई आवश्यकता नहीं है, उसके बिना भी काम ३९ वि० - वही एक सुईदार कांटा जिसपर लटकानेसे वस्तुका भार सुई बतला देती है । मा० - अच्छा यह लो काँटा, इससे इस वस्तुको तौलो तो । वि ० - यह तो पूरे दो सेर है । मा० - अब इसे मंसूरी पहाड़पर ले जाकर काँटेसे तौलें तो कितनी निकलेगी ? वि० - इतनी ही दो सेर । वहाँ तौलो या यहाँ तौलो, फरक ही क्या है ? इसी मा० - नहीं, अवश्य कुछ कम निकलेगा । वि०- यदि कम होगा तब तो अवश्य पृथ्वीका आकर्षण पाया जायगा । अबकी बार जाऊँगा तब अवश्य तौल कर देखूँगा । परन्तु यदि वास्तव में ऐसा ही है तो अद्भुत बात है । यदि कोई व्यापारी यहाँ से 1 वस्तु खरीदकर पहाड़ पर बेचे तो उसे तो तौलमें ही घाटा रह जावे । मा०- नहीं, घाटे जितना तो फरक कढ़ाचित् ही निकले; परन्तु कम अवश्य निकलेगा यदि ऐसे ही काँटेसे तौलें । वि० – क्यों ? सोनेकीसी बहुमूल्य वस्तुमें तो थोड़ा अंतर भी बहुत है । परन्तु यह आपने क्या कहा ? क्या यह ऐसे ही काँटोंकी विशेषता है ? मा०- ० - नहीं, बात यह है कि साधारण तराजूमें वस्तुपर पृथ्वीका बल कितना है For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - ४० यह नहीं नापसकते । केवल इस बलकी और बाँटों पर जो बल पृथ्वी लगाती है उसकी तुलना की जाती है। पहाड़ पर जानेसे इस वस्तुपर पृथ्वीका बल घट जायगा तो बाँटोंपरका बल भी तो कम हो जायगा -उन दोनोंहीका भार घट जायगा और साधारण तराजू से वे दोनों वहाँ भी बराबर निकलेंगे । वि [० - अच्छा, इस कॉंटेमें एक ही वस्तुका भार नापा जाता है और तराजूमें एक वस्तुके भारकी बाँटोंके भारसे तुलना की जाती है । अब समझमें आया। किन्तु क्या भार भी घट बढ़ सकता है ? I मा० - जब भार पृथ्वीके आकर्षणके बलका ही नाम ठहरा तो उसके बदलनेमें क्या आश्चर्य है ? हाँ, वस्तु उतनीकी उतनी ही रहती है । दो सेर गेहूँ के दाने गिनलो, ले जानेसे दानोंकी गिनती में अंतर नहीं होगा-प्रत्येक दानेकी लम्बाई मुटाई में भी अंतर न होगा; परन्तु भार अवश्य कम हो पहाड़पर जायगा । वि०-जो परमाणु थे वे थोड़े ही कहीं चले जावेंगे, केवल दूरीके कारण पृथ्वीका आकर्षण कम हो जायगा । एक बात और · बताइए । क्या जिसप्रकार सुई भी चुम्बकको अपनी ओर खींचती है, उसही प्रकार यह वस्तु भी पृथ्वीको अपनी ओर खींचती है ? मा० - इसमें क्या संदेह है, यह तो संसारका नियम ही है । यदि कोई तुम्हें खींचता है तो तुम भी उसे खींचोगे । यदि तुम किसीपर प्रेम रक्खोगे तो वह भी तुमपर प्रेम रक्खेगा । वि०- फिर पृथ्वी उसकी ओर क्यों नहीं जाती ? मा० - सुईकी ओर चुम्बक क्यों नहीं आता ? क्या जिस बलसे यह वस्तु खिंच जाती है उतने ही बलसे पृथ्वीके समान बड़ी वस्तु भी खिंच सकती है ? वि०–हाँ, सो तो सत्य है; परन्तु पृथ्वी तो इन्हीं लोहा पत्थर इत्यादिसे बनी है । फिर यदि यह वस्तु पृथ्वीको खींच लेती है तो लोहे के टुकड़ेको अथवा पत्थर इत्यादिको भी तो खींच लेगी । मा० - अवश्य । वि०- परन्तु ऐसा तो कभी सुना नहीं गया कि एक पत्थरका टुकड़ा दूसरे टुकड़ेको खींच ले । मा० - सुना नहीं गया, इसका कारण तो यह है कि ऐसी बारीक बात जानने की किसे फिक्र है ? इसके अतिरिक्त जब सारी पृथ्वीने बल लगाया तब तो इस वस्तुपर इतना बल लगा कि हम हाथसे उठा सकते हैं । यदि केवल एक छोटासा लोहेका टुकड़ा ही आकर्षण करे तो बताओ उसका बल कितना थोड़ा होगा ? इतना थोड़ा बल नापना साधारण मनुष्यका कार्य नहीं । वि०-थोड़ा तो अवश्य होगा; किन्तु फिर भी क्या कोई उपाय नहीं ? For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु नीचे क्यों गिरती है ? मा० - उपाय क्यों नहीं ? क्या वैज्ञानिक इतनीसी बात के लिए इस महान् प्रश्नको यहीं छोड़ देते ? कई प्रकारके प्रयोग किये हैं, परन्तु मैं तुम्हें सबसे सरल उपाय ही बतलाता हूँ । 1 कोई दो दो फुट ऊँचे पत्थरोंपर एक बहुत बड़ा सीसेका टुकड़ा रक्खा गया। इसकी लम्बाई चौड़ाई और ऊँचाई लगभग पाँच पाँच फुटके थी । नीचे के दोनों पत्थर किनारे पर थे जिससे कि उन दोनोंके बीचमें बहुत जगह बच गई थी। इस सीसेके टुकड़ेके ऊपर ही एक बहुत अच्छी तराजू ऐसे लटकाई गई कि उसके पलड़े इस सीसेसे कोई दो इंच ऊपर रह गये । ठीक इन पलड़ोंके नीचे दो सूराख सीसेके टुकड़ेमें कर दिये गये और उनमें होकर एक एक तार पलड़ोंसे लटका दिया गया । जहाँ ये तार सीसेसे टुकड़े के नीचे निकले वहीं एक एक पलड़ा और बाँध दिया गया । इस प्रकार दो दो पलड़े इस तरा - जूकी दोनों ओर हो गये । एक एक तो सीसे के ऊपर और एक एक नीचे । इस अवस्थामें देख लिया गया कि तराजू ठीक है | अब एक ओरके ऊपरवाले पलड़े में एक लोहेका टुकड़ा रख दिया गया, और दूसरी ओरके नीचेके पलड़ेमें बाँट रक्खे गये और डंडी सीधी कर ली गई। अब लोहेके टुकड़े - को उठाकर नीचे के पलड़े में रक्खा और बाँटों को ऊपर-तो मालूम हुआ कि बाँट अधिक भारी हैं-डंडी बाँटोंकी ओर झुक गई है । ६ ४१ वि०- यह अंतर तो ऊपर नीचे ले जानेहीसे होगया होगा । इसमें सीसेके टुकड़ेने क्या किया ? मा० - नहीं, सीसेके टुकड़ेको हटाकर यही प्रयोग करनेसे कुछ भी अंतर नहीं मालूम हुआ । केवल पाँच सात फुट ऊपर नीचे करनेसे भारमें इतना अंतर नहीं हो सकता । वि०- परन्तु इससे यह कैसे जान पड़ा कि सीसेका टुकड़ा लोहे के टुकड़ेको खींचता है I मा० - इस अंतरका कारण यही होस - कता है कि जब लोहा ऊपर था तब सीसा उसे नीचे खींचता था और बाँटोंको ऊपर खींचता था । इस कारण लोहपर जो नीचेकी ओर बल लग रहा था वह पृथ्वीके बलका और सीसे के बलका योग था । और बाँटों पर जो बल नीचे की ओर लग रहा था वह पृथ्वीके बलसे कुछ कम था; क्योंकि सीसा उन्हें ऊपरको खींच रहा था । इस प्रकार लोहेका भार कुछ अधिक होगया था और बाँटोंका कुछ कम । अर्थात् यद्यपि वास्तवमें ( सीसा न होता तो ) बाँट लोहेसे भारी थे तो भी बराबर जान पड़ते थे; परन्तु जब लोहेको नीचे रख दिया और बाँटोंको ऊपर, तब लोहेका भार कम होगया और बाँटोंका अधिक । बाँटों का भार पहले ही अधिक था, अब तो अंतर द्विगुण होगया । I वि०- युक्ति तो बहुत अच्छी है । इस प्रकार जितना अंतर मालूम होगा वह वास्त For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRAILERY ३२ IITR जैनहितैषी वमें सीसे और लोहेके बीच जो आकर्षण कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक दूसरी वस्तुको अपनी .. है उसका चौगुना हो जायगा। क्योंकि प्रथम ओर खींचती है; पृथ्वीहीमें कोई विलक्षबार लोहेका वास्तविक भार तो कम और णता नहीं। बाँटोंका अधिक था, अंतर लोहे और सीसेके मा०-वास्तवमें यही बात है । इस नियआकर्षणसे द्विगुण था और अंतिम अंतर मके आविष्कर्ता महात्मा न्यूटनने इसे यों इसका भी द्विगुण । लिखा है-" संसारका प्रत्येक परमाणु प्रत्येक मा०-बहुत ठीक । देखा न बातकी बातमें दूसरे परमाणुको अपनी ओर खींचता है।" चौगुणा करके नाप लिया। वैसे तो सीधा इसे गुरुत्वाकर्षण कहते हैं । इतना उपाय यह था कि साधारण तराजूके एक जानकर वे चुप हो जाते यह उनके स्वभा. पलडेमें बाँट रखते और एकमें लोहेका टुकड़ा- वके विरुद्ध था। उन्होंने इस सम्बंधी और बराबर करके लोहेवाले पलड़ेके नीचे सीसा भी नियम जान लिये और उन नियमोंद्वारा रख देते, परन्तु ऐसा करनेसे अंतर इतना चंद्रमा तारे इत्यादिका आकाशमें विना सहारे थोड़ा होता कि ऐसे तराजूसे नहीं नापा स्थित रहना, नियत मार्गमें भ्रमण करना जा सकता था। इत्यादि ज्योतिषसम्बंधी अनेक बातोंका पता वि०-क्या ऐसा कोई तराजू नहीं बनाया लगा लिया और आज उनके दिये हुए गया जिससे इसे भी नाप ले ? हिसाब अक्षरशः सत्य प्रमाणित होकर जन मा०-क्यों नहीं ? अब तो ऐसा अच्छा समाजको बहुत लाभ पहुंचा रहे हैं। जिस तराजू बन गया है कि जिसमें इतने बड़े प्रकार तुम्हें पैंसिल गिरने पर आश्चर्य हुआ सीसेके टुकड़ेकी भी आवश्यकता नहीं होती। उस ही प्रकार उन्हें वृक्ष परसे सेव गिरते बहत छोटे छोटे टुकड़ोंका आकर्षण भी नापा देख आश्चर्य हुआ था, परन्तु अंतमें उस जास -~-~~n छोटीसी बात हो जित पारागुननि वि०-वह तो बहुत आश्चर्यजनक तराजू रात देखते आते थे-उन्होंने ऐसे विश्वव्यापी होगा । हाँ, इससे तो यह प्रमाणित हो गया नियमका आविष्कार कर डाला । and annasasanay कलम कहे कानमें। ( कवि, श्रीयुत पं० गिरिधर शर्मा । Konsuunasosuusas जड़से उखाड़के सुखाय डालें मोहि, मेरे स्याही माहिं बोर बोर करें मुख कारो मेरो, 'प्राण घोट डालें धर धुआँके मकानमें। ___करों मैं उजारो तो हू ज्ञानके जहानमें । मेरी गाँठ काटें मोहि चाकूसे तराश डारें, परे हू पराये हाथ तजौं न परोपकार, . अंतरमें चीर डारें धरें नहीं ध्यानमें ॥ चाहे घिस जाऊँयों कलम कहे कानमें ।। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखी-संसार। भारतीय समाजोंमें किसी समय स्त्रियोंका अत्याचार ही नहीं समझते । वे इस बातको भी एक विशिष्ट स्थान था और वे बहुत ही माननेके लिए भी तैयार नहीं हैं कि पुरुषआदरणीय समझी जाती थीं । यत्र ना- समाज स्त्रियोंके साथ जो व्यवहार करता है, र्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। जहाँ उसकी अत्याचार संज्ञा भी हो सकती है। स्त्रियोंका आदर होता है वहाँ देव निवास उनकी समझमें वह अत्याचार नहीं, किन्तु करते हैं। इत्यादि वाक्योंसे-जो यहाँके स्वाभाविक तथा धार्मिक व्यवहार है । यही प्राचीन साहित्यमें मिलते हैं-इस बातकी क्यों, जो स्त्रियाँ इन अत्याचारोंकी लक्ष्य हैं, अच्छी तरह पुष्टि होती है। स्त्रीपुरुषकी जिनपर रातदिन ये अत्याचार होते हैं, वे भी अर्द्रागिनी, सहधर्मिणी, सहचारिणी मानी तो इन्हें अत्याचार नहीं कहती हैं और गई है, इससे भी उसके अधिकार और इन्हें खुशीसे सहन करते रहना अपना आदरकी कल्पना हो सकती है। परन्तु अब धर्म समझती हैं ! अभ्यास ऐसी ही वह बात नहीं रही है । इस समय स्त्रीकी चीज़ है । अभ्यास पड़ जानेसे कष्टका भी प्रतिष्ठा पैरोंकी जूती से बढ़कर नहीं है। कष्ट रूपमें अनुभव नहीं होता है । अमेअपने आदरणीय स्थानसे पतित होकर अब रिकाके नीग्रो लोगोंका हृदय सैकड़ों वर्षों की वह. पुरुषोंकी केवल दासी है। पुरुषोंको गुलामीके अभ्याससे ऐसा बन गया था कि अधिकार है कि वे स्त्रियोंपर चाहे जैसे उन्हें वह गुलामी ही अच्छी मालूम होती थी। अत्याचार करते रहें; उनके अत्याचारोंको जिस समय उन्हें स्वाधीनता दी गई उस समय रोकनेका स्त्रियोंको कोई अधिकार नहीं है- वह उन्हें भयावनी और पहलेकी गुलामी उनको सिर्फ यही अधिकार है कि वे उन प्रार्थनीय जान पड़ती थी। यही हाल हमारी अत्याचारोंको चुपचाप सहन करती रहें ! स्त्रियोंका भी है। पुरुषोंकी ओरसे स्त्रियोंपर जो अत्याचार * * * * * . होते हैं वे अब इतने रूढ हो गये हैं, समा- स्त्रियोंके विषयमें जब कभी कोई चर्चा जकी दृष्टिको उनके देखनेका इतना अभ्यास होती है उस समय हम यह भूल जाते हैं हो गया है कि अधिकांश लोग-जिनमें कि स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं । उनके भी हृदय, हजारों पढ़े लिखे भी शामिल हैं-उन्हें बुद्धि, विवेक, सुखदुःखके अनुभव करनेकी For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHARMAHARATALIANAMINATALAIAI LI ४४ जैनहितैषी शक्ति आदि बातें हैं और वे भी मनुष्यस- नहीं कर सकता है और प्रौढ़ पिता अपनी माजकी एक अग हैं । इन बातोंके भूल जा- जवान बेटीपर अपना हार्दिक प्रेम व्यक्त नहीं नेसे ही पुरुष उन पर अत्याचार करता है कर सकता है। हम किसी वयस्क पुरुषको और उनके प्रकृतिदत्त सत्वोंकी पायमाली किसी स्त्रीके साथ बातचीत करते देखते ही, करनेमें जरा भी नहीं हिचकता। चाहे वह बातचीत कितनी ही अच्छी क्यों _ न हो, तरह तरहकी आशंकायें और कुतर्कहमारे पिछले साहित्यमें स्त्रीनिन्दाकी भर. नायें करने लगते हैं । करें क्यों नहीं, हम मार है । जहाँ देखिए वहाँ स्त्रियोंकी निन्दा।। न्दा स्त्रियोंके संसर्ग आलाप आदि सभीको ही जो संभव है कि उक्त साहित्यके लेखकोंने स्त्री- निन्दनीय समझते हैं। निन्दासे कुछ लाभ सोचा हो और शायद * * * * * किसी अंशमें उससे लाभ हुआ भी हो; परन्तु इस स्त्रीनिन्दाका एक परिणाम यह भी हम उसे नहीं जान सकते; हाँ, हानि हम हुआ है कि पुरुष अपने दोषोंका अनुभव अवश्य अनुभव कर रहे हैं । इस निन्दाने करना भूल गया है । वह यह सोच ही नहीं स्त्रियोंको अपने पूज्य पवित्र और महनीय सकता कि जब कोई स्त्री पतित होती है तब आसनसे बहुत ही नीचे गिरा दिया है और उसमें उस स्त्रीके सिवाय पुरुषका भी कुछ पुरुषसमाज उन्हें आदर श्रद्धा और स्नेहकी दोष होता है या नहीं । यह ठीक है कि दृष्टिसे देखना भूल गया है । उसकी दृष्टिपर अग्निके संसर्गसे घृत पिघलने लगता है, परन्तु इस निन्दाका इतना प्रभाव पड़ चुका है कि इसमें केवल अग्निका स्वभाव ही कारण नहीं अब वह उसमें प्रशंसाके दर्शन ही नहीं कर है, घृतकी दुर्बलता द्भवता भी कारण है। सकता । पवित्रसे पवित्र स्त्रीके सामने आते ही घीकी जगह पत्थर या लोहा हो, तो उसमें पुरुषके हृदयमें 'कामश्चाष्टगुणः स्मृतः- इतना विकार नहीं हो सकता । यदि पुरुष स्त्रीके अठगुणे कामके वेगका स्मरण हो अपनी आँखोंपरसे इस स्त्रीनिन्दाके विकारको आता है और तब उसके लिए उसे विकार- दूर करके देख सके तो उसे मालूम हो कि रहित दृष्टि से देखना असंभव हो जाता है। इस विषयमें स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुष ही अधिक उसकी समझमें स्त्री एक विलासकी सामग्रीके निन्दनीय हैं। भारतके किसी भी समाजका सिवाय और कुछ नहीं है। मानों संसारमें स्त्रीसमुदाय अपने समाजके पुरुषसमुदायकी एक कामवासनापूर्ण पाशविक सम्बन्धके अपेक्षा बीसों गुणा पवित्र और चरित्रवान् सिवाय बहिन भाई, माता पुत्र, सखा सखी है। बुरीसे बुरी स्त्री उतनी दुश्चरित्र नहीं हो आदिके पवित्र सम्बन्ध हो ही नहीं सकते सकती जितना कि एक मनचला पुरुष होता हैं। यही कारण है कि आज हमारे देशका युवा है। सच तो यह है कि सौमें नव्वे स्त्रियोंको अपनी युवती बहिनके पवित्र स्नेहका उपभोग दुश्चरित्रताके मार्ग पर ले जानेवाले पुरुष ही For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री-संसार। ४५ होते हैं। ये पुरुष ही उनकी अज्ञानता, स्वदारसन्तोषी या एकपत्नीव्रतका धारण भोलेपन, अदूरदर्शिता, हृदयकी कोमलता करनेवाला बनना भी आवश्यक है । यदि आदि बातोंसे लाभ उठाकर उन्हें पापके पुरुषसमाज इतना समझने लगे तो वह स्वयं कुएमें ढकेल देते हैं। यदि आज पुरुषसमाज सदाचारी बन जाय और उसके साथ साथ सदाचारी और संयमी बन जाय तो स्त्रीसमाज स्त्रियाँ भी अपने चरित्रको सुरक्षित रख सकें। तो स्वभावतः सदाचारी है, उसके सुधारनेमें पुरुषोंकी जिन सभाओंमें आज स्त्रियोंके पातिजरा भी देर न लगे । परन्तु यह तब हो व्रतसम्बन्धी व्याख्यान होते हैं, उनमें यदि जब पुरुष स्त्रीनिन्दा करना छोडकर अपने पुरुषोंके 'एकपत्नीव्रत' पर जोर दिया हृदयका टटोलना और उसके साथ स्त्रीहृद- जाय, तो बहुत कुछ लाभ हो सकता है। * * * * * यका मिलान करना सीखें। " पुरुष स्त्रियोंकी निन्दा जी खोलकर पुरुषसमाज स्त्रियोंको सदाचारिणी पति र कर चुके हैं। जितनी निन्दा हो चुकी है, उससे अधिक और हो नहीं सकती। अब परायणा बनानका निरन्तर प्रयत्न करता स्त्रियोंकी वारी है । सौभाग्यसे अब स्त्रियाँ रहता है। आजकलकी सभा समितियोंमें भी शिक्षिता होने लगी हैं। उन्हें चाहिए कि इस विषयमें खूब ही व्याख्यान दिये जाते हैं। अब वे भी पुरुषोंके इस अत्याचारका बदला यहाँतक कि जिस सभामें केवल पुरुष ही वक्ता . चुकानेके लिए कटिबद्ध हो जायँ । इस और श्रोता होते हैं उसमें भी पातिव्रतके कार्यमें उन्हें विशेष श्रम न करना पड़ेगा और आदर्श स्त्रियोंके चरित्रके जोशीले और उनका यह कार्य अनुचित भी व्याख्यान दिये जाते हैं । आप जानते हैं नहीं कहा जा सकता । क्योंकि इस समयका कि इसका कारण क्या है ? यह नहीं कि पुरुषसमाज वास्तवमें ही निन्दाके योग्य है । पुरुष स्त्रियोंको समाजका कोई अंग समझते उसकी जितनी निन्दाकी जाय उतनी थोड़ी हों या उनके सुख दुखकी उन्हें विशेष है। इससे स्त्रीसमाजको लाभ भी होगा। वे चिन्ता हो । स्त्रियाँ परुषोंकी गलाम हैं- पुरुषोंके छल कपटोंको जानने लगेंगी और दासियाँ हैं । जैसे एक मालिक चाहता उनसे बचे रहनेका प्रयत्न करने लगेंगी।" है कि मेरा नौकर सदाचारी हो, वह ये एक स्त्रीके वाक्य हैं । एक स्त्रियोपयोगी सदाचारी होगा तो मेरा काम अच्छी मासिक पत्रमें उसकी सम्पादिकाने इन्हें लिखा तरह करेगा-मझे कोई भय नहीं रहेगा, था । पुरुषोंकी लज्जा रखनेवालीं और उनको उसी तरह स्वार्थी परुष चाहता है कि मेरी स्त्री चरित्र सिखानेवाली कोमल स्त्रियोंके द्वारा ऐसा पतिव्रता हो तो वह मेरी गुलामी अच्छी होना हम उचित नहीं समझते हैं-( यद्यपि तरह कर सकेगी । वह यह नहीं समझता है पुरुष इस शासनके सर्वथा योग्य है )-परन्तु कि स्त्रीको पतिव्रता बनानेके साथ साथ मुझे पुरुषोंको सावधान कर देना हमारा कर्तव्य है। Jain Education international For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और स्वावलम्बन। ___ कवि, श्रीयुक्त प० गिरिधर शर्मा। (तुकहीन) आज्ञा प्रभो दो मुझको, तुम्हारी ___ सेवा करूँ मैं, रह सावधान । होवे न जो संयमका विघात, चारित्रमें अन्तर त्यों न आवे" || श्रीमन्महावीर खड़े हुए थे, ___ ध्यानस्थ हो, जंगलमें मनोज्ञ । आया वहाँ एक गँवार ग्वाला, जहाँ तहाँ गो-कुलको चराता ॥ (२) सो छोड़ गोवृन्द चला गया, यों_ विचार, “ नंगा यह है खड़ा ही। जाने न देगा इनको कहीं भी, मैं शीघ्र ही लौट सँभाल लूँगा" ॥ श्रीवीरने वाक्य सुरेन्द्रके ये, . . सुनें, जरा सा मुसकाय बोले । " स्वात्मावलम्बी जनको सुरेन्द्र, साहाय्य आवश्यक ही नहीं है । परन्तु लौटा तब ढोर पाये नहीं वहाँ, खोज लगा लगाने । फिरा सभी ठौर, पता न पाया, पीछा महावीर समीप आया ॥ जो ढोर देखे उसने वहाँ पै, ___ मूंदे हुए दृक् करते जुगाली। उत्पात भारी करने लगा वो, त्यों गालियाँ खूब लगा सुनाने ॥ सहायता दे जन हीनको तू, __पराश्रयी या बलहीनको तू । मुझे न आवश्यकता जरा भी, दे छोड़ चिन्ता इस देहकी तू ॥ (१०) आत्मार्थके साधनमें पराई, सहायता ले, नहिं वीर ऐसा । आवे करोड़ों दल बाँध विघ्न, उन्हें महावीर हटा रहेगा ॥ (११) डटा रहे जो प्रतिकूलतामें, __ जिसे हिलावें नहिं विघ्नवाधा । न साम्य जावे जिसका कभी भी, __ है वीरका मार्ग महेन्द्र ऐसा ।। (१२) हुआ नहीं, है नहिं, औ न होगा, __परावलम्बी अरहंत कोई। दे आत्मसामर्थ्य मुझे दिखाने, . सुरेश, जा तू अपने ठिकाने "॥ आया तभी इन्द्र, उसे निवारा, __ कहा, " अरे ये नहिं चोर भाई । छोड़ा इन्होंने सब राजपाट, त्रैलोक्यके नाथ मुनीन्द्र हैं ये " ॥ विनीत होके फिर देवराज, श्रीवीरसे यों कर जोड़ बोला। " असह्य, वर्षों, उपसर्ग होंगे, ये जान मेरा मन काँपता है ॥ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी A.M.Mal भगवान् महावीर और स्वावलम्बन । इन्द्रः-भविष्यति द्वादशाब्दान्युपसर्गपरम्परा । तां निषेधितुमिच्छामि भूत्वाहं पारिपार्श्वकः ॥ महावीर -नापेक्षां चक्रिरेऽर्हन्तः, परसाहायिक क्वचित् । नैतद्भूतं भवति वा, भविष्यति जातुचित् । यदर्हन्तोऽन्यसाहाय्यादर्जयन्ति हि केवलम् ॥ केवलं केवलज्ञानं प्राप्नुवन्ति स्ववीर्यतः। स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् ॥ (चित्राधिकारी श्रीयुक्त मेघजी हीरजीके सौजन्यसे मुद्रित ।) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादशाहकी दुलहिन। लेखक, श्रीयुत कुँवर कन्हैयाजू। (१) किरणोंकी छायामें निस्तब्ध भावसे श्रवण करते सिन्धके बादशाह अहमदशाहने रजत-सरो- हुए बादशाहके हृदयपर इस गीतका बड़ा प्रभाव वरके किनारे एक शीत-महल बनवाया था। पड़ा । उसने पूछा, यह “ महताबरुख परी पैकर गर्मीके दिनोंमें राजधानी छोडकर वह बहुधा किसी ख़याली दुनियाकी चीज़ है, या दर असयहीं रहा करता था। वह एक सुन्दर और लमें कहीं है ? " कविने उत्तर दिया, “ हूजर, सुदृढ शरीरका युवा पुरुष था। जिस प्रकार वह इस समय मौजूद है और कुमारी वह युद्धकुशल और साहसी था उसी प्रकार है। मैंने राजपूत सरदार पर्वतसिंहकी कन्या काव्य, कलाकौशल आदि सद्गुणोंका प्रेमी और लालाकी प्रशंसामें यह गीत गाया है।" सहायक भी था। " अगर वह दर असलमें तुम्हारे बयानके एक दिन वह अपने कुछ चने हुए साथियोंके मुआफ़िक दिलफिसा है, तो उसे मैं अपनी सहित एक सुन्दर किश्ती में सवार होकर जल- दुलाहन बनाऊँगा, नहीं तो इस तारीफ़का इनाम क्रीड़ा कर रहा था । स्वच्छ चाँदनी सरोवरके यह होगा कि तुम्हारा सिर कलम किया जायगा।" स्वच्छ जलको और भी स्वच्छ बना रही थी। यह कहकर बादशाह गहरे विचारोंमें डूब गया। हर भरे वृक्षोंसे परिपूर्ण टाप-जिनके पास होकर थोड़ी ही देरमें किश्ती किनारे पर लगा दी गई। वह किश्ती जा रही थी-बड़े ही सहावने मालम दूसरे दिन सबेरे ही बादशाहने अपनी सभाहोते थे । मधुर संगीत कानोंमें अमतकी के सलाहकार ब्राह्मणको बुलाया और उससे वर्षा कर रहा था । किश्तीमें बैठे हुए मस- पर्वतसिंहकी लड़कीके विषयमें पूछताछ की। लमान कलावतोंने पहले बादशाहकी वीरता और ब्राह्मण देवताने और भी नमक मिर्च लगाकर उदारताके गीत गाये और फिर बहिश्तकी हर लालाके सौन्दर्यका वर्णन कर दिया जिससे कविके और परियोंका वर्णन करते हुए गुलाब और संगीत पर मानों मुहर लग गई । लालाकी बुलबुलोंपर जाकर अपना गाना समाप्त किया। प्राप्तिका ध्यान जो अभीतक अन्तरके निभृत कउनके बाद एक हिन्द कविने उच्च स्वरसे एक क्षमें छुपा हुआ था अब बाहर आ गया। राजपूतकुमारीकी प्रशंसाका गीत गाया । गीत- बादशाहने ब्राह्मणको आज्ञा दी कि “तुम इसी का संक्षेप यह था कि वह राजकन्या मगशाव- समय पर्वतसिंहके यहाँ जाओ और कहो कि कके समान भोलीभाली और मनोहारिणी है बादशाह तुम्हारी बेटी लालाको अपनी दुलहिन और सती सीताके समान आद्वितीय सुन्दरी, बनाना चाहते हैं।" बुद्धिमती और लज्जाशीला है । गीतके प्रत्येक किन्तु बादशाह अपनी इच्छापूर्तिके पदमें हृदयको हिलादेनेवाली सरसता और मार्गको जितना निष्कण्टक और सुगम समझता मधुरिमा भरी हुई थी ।उस सुमधुर शीतल चन्द्र- था उतना वह वास्तवमें था नहीं । पर्वतसिंह For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ जैनहितैषी - राजपूतोंके समान नहीं था जिन्होंने अपनी कन्यायें बादशाहको या उसके सरदारोंको ब्याहकर अपना सौभाग्य समझा था । वह सच्चा राजपूत था । उसे अपने पूर्वजोंका अभिमान था और इस कारण वह अपने कुलकी मर्यादाको बनाये रखना अपना कर्त्तव्य समझता था । उसे राजपूतोंका मुसलमानोंके साथ विवाहबन्धनमें बँधना बहुत ही खटकता था । वह इस कार्य से बहुत घृणा करता था। अपने धर्मकी रक्षाके आगे शाही ताज और तख्तसे सत्कार पानेके लोभको वह तुच्छ समझता था । पर्वतसिंह जैसा वीर था वैसा ही समझदार भी था । इस समय अपनी रक्षाका प्रबन्ध ठीक न होनेके कारण उसने बादशाहसे कहला भेजा कि मैं अपनी लड़कीको ब्याह देनेके लिए तैयार हूँ ।. बादशाहने सुना कि पर्वतसिंह अहोरके पहाड़ी किले में चला गया है और वहाँ गुप्तरूप - से तैयारियाँ कर रहा है। उसके स्वजनसम्बन्धी और मैमार राजपूत आ आकर उससे मिल रहे हैं । अहमदशाहने दश हज़ार सेना तैयार की और निश्चय किया कि या तो इस सेनासे राजपूतों का सर्वनाश कर देंगे या इसे ही बारात बनाकर नई दुलहिनको ले आयँगे । निदान अहमदशाह बड़ी शान के साथ अपनी वीर बारातको लिये हुए अहोरके किलेके पास जा पहुँचा । वह एक बहुमूल्य साजोंसे सजे हुए हाथी पर बैठा था । शाहने ज्योंही किले के भीतर जानेके लिए अपने हाथीको बढ़ाया त्योंही एक बाण किलेसे सनसनाता हुआ आया और उसके ताजकी कलगीमें आ लगा । बाण थोथा था और उसके सिरे पर एक कागजका पुरजा बँधा हुआ था जिसमें यह लिखा था - " जिस धनुर्धरके हस्तकौशल ने इस बाणको तुम्हारे ताज तक पहुँचाया है वह तुम्हारे उस कुत्सित मस्तकको बाक बातमें छेद सकता है जिसमें लालाको लेने की लालसा उत्पन्न हुई है । अब भी सचेत हो जाओ । " इसी समय किसीने वह बहुमूल्य पोशाक - जो बादशाह के यहाँसे नई दुलहिन के लिए आई थी - चिथड़े चिथड़े करके बादशाह हाथीके आगे फेंक दी । गरज यह कि तुमुल युद्धकी सूचना हो गई । मुसलमान सेनाने समझा कि अब शीघ्र ही किलेसे आग बरसेगी और हमारी रक्षा होना कठिन है; परन्तु यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि वहाँ बहुत देर तक खड़े रहनेपर भी कहीं से एक भी वाण उन तक न आया और न कोई बन्दूककी आवाज़ नई अहोरके किलेमें तीन हज़ार राजपूत थे । बादशाहके खजानेसे जो कुछ धन रत्न आदि सौगातकी तौर पर पर्वतसिंहको मिला था, वह सब उसने किले की दुरुस्ती, रसदके इन्तज़ाम और अच्छे अच्छे हथियारोंके खरीदने में खर्च किया था । उसकी प्रतिज्ञा थी कि चाहे जो हो, अपनी लालांको विधर्मीके हाथ न जाने दूँगा और अन्त तक इस किलेकी सहायतासे अपनी रक्षा करूँगा । ( ३ ) मुसलमान लोग नसैनियाँ लगा-लगाकर किलेकी दीवारोंपर चढ़ने लगे । चढ़ते समय जब उनके काममें कोई रुकावट न डाली गई, तब तो उनका हौसला बढ़ गया; परन्तु थोड़ी ही देरमें उन्हें विश्वास हो गया कि किलेके भीतर प्रवेश करमा ज़रा टेढ़ी खीर है । राजपूत लोग ऊपर ताक लगाये हुए खड़े थे; उन्होंने बड़े बड़े लट्ठोंसे सारी नसैनियोंको खिसका दिया For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARATHIBABA0 00198418LATIONAL _बादशाहकी दुलहिन । Timittinnitunnilimfii जिससे नसैनीपर चढ़े हुए मुसलमान लुढ़क उसमें कूदने लगीं और सबेरा होते होते उस लुढ़ककर खाईमें जा गिरे । किलमें पैठनेके किलेमें एक भी स्त्री जीती न बची ! लिए अनेक यत्न करनेपर भी जब मुसलमानोंको सफलता न हुई, तब उन्होंने स्थायी स्त्रियोंकी ओरसे निश्चिन्त होकर अब घेरा. डाल देनेका निश्चय कर लिया। इसके राजपूत-वीरोंने अपने बलिदानकी तैयारी की। सिवाय पर्वतसिंहको ठिकाने लानेका और कोई सबेरा होनेके पहले ही तीन हजार राजपूत केसउपाय भी न था। रिया वस्त्र पहने हुए किलेके भीतरी फाटक पर धीरे धीरे तीन महीने बीत गये। अब राजपूतों- एकत्रित हो गये। वहाँ उन्होंने एक दूसरेके को रसदकी कमी मालम होने लगी । बाहरसे गले लगकर हमेशाके लिए बिदा माँग ली और किसी प्रकारकी सहायता पानेकी भी आशा किलेका फाटक खोल दिया । इस वीर अभिन थी। अब पर्वतसिंहको चिन्ताने सताया। नयके प्रधान नायक पर्वतसिंह, और उसके युवउसने अपने साथियों समेत दृढ प्रण किया था राज कुमार रामसिंहके पीछे पीछे सारे राजपूत कि मर मिटना पर आत्मसमर्पण न करना । एक तन एक मन होकर शत्रुदलपर इस प्रकारसे राजपूतोंको अपने प्राण देना कोई कठिन काम टूट पड़े जैसे भेड़ोंके झुंडपर भूखा भेड़िया न था; पर उन्हें चिन्ता यह थी कि हमारे पीछे टूटता है । हमारी स्त्रियों और बेटियोंकी क्या दुर्दशा होगी। मुसलमान-सेनाने अपने बचावके लिए खाई __ और कोई उपाय न देखकर उन्होंने अपने खोद रक्खी थी और उसीकी मिट्टी धलि-कोट चिर-प्रचलित जौहर व्रतकी उद्यापना करनेका बना रक्खे थे । राजपूतदल कोटरक्षकोंको ही निश्चय किया। सारी स्त्रियाँ प्रसन्नतापर्वक मारता-काटता हुआ सारी रुकावटोंको पार अनिमें जलजाने के लिए तैयार हो गईई करके शत्रुओंके मध्य में जा घुसा । पास ही बाटस्त्रियोंने यह इच्छा की कि हम अपने पति-पिता शाहका खेमा था जिस पर नीला निशान फहरा पुत्रोंके साथ हथियार बाँधकर लड़ें और उनकी " रहा था। राजपूत यवनसेनाको चीरते हुए शाही. यथासाध्य रक्षा करें; परन्तु पर्वतसिंहकी स्त्रीने खेमेकी ओर बढ़ने लगे। मुसलमानोंने उनको जो सबकी शिरोमाण थी, उन्हें ऐसा करनेसे . रोकनेकी बहुत चेष्टा की; परन्तु वह निष्फल हुई। रोका और कहा-नहीं यह मार्ग स्त्रियोंके लिए। उनके भयंकर वेगको रोकना असंभव हो गया। निरापद नहीं है । चलो, हम सब चिताका बादशाह आपत्तिको बिलकुल समीप आई देखआलिङ्गन करें और अपने पति पुत्रोंके पहुँचने कर उठ खड़ा हुआ और शीघ्र हथियार बाँधकर के पहले ही स्वर्गमें जा पहुंचे। हाथी पर सवार हो गया । जो मुसलमान सिपाही राजपूतोंके असह्य आक्रमणसे घबड़ाकर तितर .. रातको एक बड़ी भारी चिता तैयार की गई। वितर हो गये थे उन्हें एकत्र करके वह मुकादेरकी ढेर लकड़ियाँ एकही करके उनमें मनों घी बिलेके लिए तैयार हो गया। राजपूतोंका हमला और राल डाल दी गई । इसके बाद उसमें आग अचानक हुआ था, इस कारण मुसलमान दलमें लगाई गई जो देखते देखते आसमानसे बातें करने खलबली मच गई थी। जबतक मुसलमान सिलगी । राजपूत वीरांगनायें एक एक करके पाही तैयार होकर मोरचेबन्दी पर हुए तब For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषीiumini तक राजपूत इतने बढ़ गये कि बादशाहके प्राण उन्हें सफलता न होती थी। जब तलवारोंने सख गये । उसे घड़ी घड़ी पर यही भास होता काम न दिया, तब एक वाण छोड़ा गया और था कि अब मरा या पकड़ा गया। उसके सैनिक उसने पर्वतसिंहके विशाल शरीरको धराशायी मिमकर हाथीके सामने हो गये और एक एक कर दिया ! पिताके गिरते ही पुत्रने मुकुट, करके मारे गये ! राजपूत प्राणपणसे आगे बढ़ . छत्र आदि राजचिह्न धारण कर लिये । यह रहे थे, इसलिए वे थोड़े ही समयमें बादशाहके हाथीके सामने आ पहुँचे । उनके वाणों देख बरलीखाँ नामका मुसलमान सरदार और बरछोंसे हाथीकी पीठ चलनी बन उसके मुकाबिलेपर आ पहुँचा । बरलीखाँके चुकी थी और वह पलायोन्मुख हो रहा था एक कठिन प्रहारसे रामसिंहकी तलवार ट कि पर्वतसिंहके साहसी पुत्र रामसिंहने नीचे गई, तो भी वह लड़ता रहा और उसी टूटी पैठकर हाथीके तंगकी रस्सी अपनी कटारसे तलवारसे लड़ते हुए वरलीखाँके तीन साथियोंको काट दी ! रस्सीके कटते ही हौदा ओंधा हो मारकर उसने वीरगति प्राप्त की। गया और बादशाह जमीन सूंघने लगा । इसी ____ मुट्ठीभर राजपूत आखिर कहाँतक लड़ सकते समय रामसिंह अपने दो तीन साथियों सहित थे ? उन सबने अपनी मर्यादाकी रक्षाके लिए उस पर झपटा; परंतु उसका वार खाली गया; एक एक करके प्राण दे दिये। युद्धका अन्त क्योंकि अहमदशाह तब तक संभल गया था- हो गया। आकाशमें उड़ती हुई धूलि चिरउसने उस बारको अपनी ढालपर झेल लिया। निद्रामें सोते हुए सात आठ हजार शॉपर पर उसकी रक्षाके लिए मुसलमान सिपाही भा बैठकर शान्त हई ! . चारों ओरसे सिमट आये थे। लड़ाई धीरे धीरे भयंकररूप धारण करने लगी । राजपूतोंकी निर्दय बादशाहने बड़ी उत्सुकतासे अहोरके संख्या कम होने लगी और शत्रुओंकी बढ़ने किले के भीतर प्रवेश किया; परन्तु उसने वहाँ लगी । राजपूत चारों ओरसे घेर लिये गये और क्या देखा ! निर्जन स्मशान ! शवदाहकी दुर्गउन पर प्रबल हमले होने लगे । राजपूतोंको न्धिसे वायुमण्डल व्याप्त हो रहा था और अब जीतकी आशा न रही। जितने शत्र मारे- चितामें अब भी अग्नि दहक रही थी। राजपूजा सकें उतने मार लो; बस अब यही उनका तकि जौहरव्रतका वर्णन उसने पहले कईवार उपस्थित कर्तव्य हो गया। उनका एक एक सुना था, इसलिए उसे यह समझनेमें विलम्ब न दल छूटता था और शत्रुसेनामें घुसता हुआ लगा कि यहाँ भी उसी व्रतका उद्यापन किया मारता काटता हुआ अन्तमें शान्त हो जाता था। गया है। इससे उसे बड़ी निराशा हुई । उसका ...वीर पर्वतसिंहके मस्तकपर अब भी राजचिह्न पाषाणहृदय भी इस नारीहत्यासे द्रवित हो शोभा दे रहे थे और वह अब भी अपने गया । कुछ समयके लिए उसे ऐसा मालूम साथियोंको घमासान युद्धके लिए उत्तेजित हुआ कि मैंने यह कार्य अच्छा नहीं किया। . करता हुआ शत्रुओंकी संख्या कम कर रहा वह मन-ही-मन कहता थाथा । मुसलमान उसे मारने या जीता पकड़ “न खुदा ही मिला न विसाले सनम्, , लेने के लिए जीजानसे चेष्टा कर रहे थे; परन्तु .. न इधरके हुए न उधरके हुए।" , For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ winAMICROmummmmmuTIAL पर बादशाहकी दुलहिन । . घृणायुक्त है । इस समय अहमदशाहने वह परन्तु उसकी यह निराशा शीघ्र ही आशामें पोशाक पहिन रक्खी थी जो लालाकी ओरसे ' परिणत हो गई। थोड़े ही दिनों में उसके पास यह उसे प्राप्त हुई थी और जो बिलकुल देशी संदेश आया कि “ लाला अभी जीती है । उसे ढंगकी थी। पक्के मुसलमान उसके इस कार्य पर्वतसिंहने अपने पडौसके एक जागीरदार राज- पर घृणाकी वर्षा कर रहे थे; परन्तु उस ओर पूतके यहाँ भेज दी थी, इस लिए उसकी रक्षा हो उसका ज़रा भी लक्ष्य न था। गई है। लाला स्वयं बादशाह पर मुग्ध है और वह विवाहविधिको समाप्त करके पुरोहितजीने उसके साथ शादी करनेके लिए तैयार है !" ज्योंही आशीर्वाद दिया, त्योंही लाला अपने अहमदशाहके आनन्दकी सीमा न रही । आ- स्थानसे उठी और अपने पतिका हाथ पकड़कर काशका चाँद उसने पृथ्वी पर ही पा लिया! उसे बरामदेके ऊपरके उस छज्जेपर लिवा ले रजतसरोवरके किनारेके महलमें ही इस गई जो सरावरके ठीक किनारे पर था और विवाहका होना निश्चित हुआ । यह विवाह । नायब विद जहाँसे दूर दूर तककी प्रकृतिकी शोभा दिखलाई राजनीतिकी दृष्टिसे बडे महत्त्वका था। क्योंकि देती थी। उसने कहा-“मालिक मेरे, आइए यही इसमें लाला और बादशाहके बीच ही नहीं: किन्त धूपमें खड़े होकर हम अपनी प्रजाको दर्शन देवें हिन्दू और मुसलमानोंके बीच भी स्नेहका जो इसी लालसासे न जाने कबकी खडी है।" सम्बन्ध होना था। दरबारकी ओरसे घोषणा कर बादशाहने अपनी दुलहिनकी आज्ञाका तत्काल दी गई कि जो राजपूत पहले विरुद्ध रहे हों ही पालन किया। उसने देखा कि चारों ओर, या अब भी विरोधी हों, उन सबको विवाहमें दूर दूर तक, लोगोंका जमाव हो रहा है और वे सम्मिलित होना चाहिए-उनके सब अपराध क्षमा सब टकटकी लगाकर हमारी ही ओर देख रहे कर दिये गये । यह भी प्रकट कर दिया गया हैं । मनुष्यसमूहसे आगे जहाँ तक उसकी कि विवाह हिन्दू-विवाहपद्धतिके अनुसार होगा! नज ; नजर जाती थी कोई मैदान, घाटी, पर्वतं, दर दूर तकके लोग इस अभिनव विवाहो- मासे बाहर हो। इन सब बातोंके साथ ही उसने __ आदि ऐसा स्थान न था जो उसकी शासनसी•त्सवमें आकर सम्मिलित हुए । जहाँ तहाँ यह भी देखा कि जिस लालाके लिए बड़े बड़े मूर्तिमान आनन्द दृष्टिगोचर होने लगा। कष्ट सहे, हज़ारों मनुष्योंका रक्त बहाया, वह आज एक सुन्दर विवाहमंडपके भीतर हम आज दुलहिन बनकर बगलमें खड़ी है । इस लाला और अहमदशाहको पास पास बैठे देखते समय उसका चेहरा आत्माभिमानकी दीप्तिसे हैं। दोनोंका गठजोड़ा हो रहा है । दोनों ही दमक उठा। विवाहके बहुमूल्य आभूषणोंसे सजे हुए हैं। अब बादशाहने अपनी दृष्टिको सब तरफसे लाला अपने चन्द्रविनिन्दित मुखको चटकीली हटाकर अपनी दुलहिनकी ओर डाला । चुनरीसे ढके हुए निश्चिन्त भावसे बैठी है। उसे आश्चर्य हुआ कि मशरण दुलउसकी ओर लांगोंकी तरह तरहकी दृष्टियाँ पड़ हिनें जिस संकोचकी दृष्टिसे अपने पति रही हैं। कोई दृष्टि कातुक्या है, कोई आन- योंकी ओर देखती हैं उस संकोचका लालाकी न्दपूर्ण है, कोई विषादमय है और कोई घोर दृष्टिने सर्वथा अभाव है । वह एक अनोखे ढंगसे For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AH M INAINITIAOM जैनहितैषी H inition शाहकी ओर देखती हुई व्यंग्यपूर्वक बोली- रसे पसीना निकला, त्योंही वस्त्रोंमें लगे हुए. " मालिक मेरे, इस उपस्थित आनन्दको भोग तीब्र विषने अपना असर डालना शुरू कर लीजिए, नहीं तो यह घड़ी जाती है। सांसा- दिया । वह विकल होकर इधर उधर दौड़ने रिक सुखोंकी सर्वोच्च सीमा पर पहुंचना ही लगा और पोशाकको फाडफाड़कर फेंकनेका मानों ईश्वरीय दण्डका पात्र होना है। हम लोग यत्न करने लगा। वह चिल्लाना चाहता था; जो इस समय सब तरहसे सुखी और स्वस्थ हैं. परन्तु उसके कण्ठमेंसे आवाज़ न निकलती आश्चर्य नहीं जो एक दिन भरमें-नहीं-नहीं थी। अन्तमें उसका शरीर शिथिल हो गया घड़ी भरमें ही इस संसारसे उठ जायें ।" और जब तक लोगोंने उसकी इस दशाका अहमदशाह नई दुलहिनकी प्राप्तिके आनन्दमें कारण मालूम किया, तब तक वह इस संसारसे ऐसा मस्त हो रहा था कि उसने लालाके इन ही बिदा हो गया ! व्यंग्यपूर्ण वाक्योंको ज़रा भी न समझा । वह - लालाने अहमदशाहके निर्जीव शरीरको एक मुस्कराता हुआ बोला-" ऐसा क्यों ?" नीचे सरोवरके किनारे खड़े हुए सर्वसाधा .. बार घृणाकी दृष्टि से देखा, फिर राजमहलके रणजन और पास ही बरामदेमें खड़े हुए मु सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़कर उसने अपने साहब लोग इस अभिनव जोडेकी छवि निहार पिताके प्यारे अहोर किलेकी ओर देखा, और रहे थे। उनकी रत्नजटित-पोशाकपर पड़ती इसके बाद उसने माता-पिता-भाई-बन्धुओंकी हुई सूर्यकी किरणें एक अपूर्व शोभाको जन्म मृत्युका ध्यान किया । अन्तमें उसके मुखमण्डदे रही थीं । सबके देखते देखते बाद- लपर एक विकट हास्यकी छाया दीख पड़ी शाहके चेहरे पर घबड़ाहट नजर आने और उसने वहींसे सरोवरमें कूदकर प्राण लगी । धूपके कारण ज्योंही उसके शरी- दे दिये ! , सुखशान्तिवर्द्धक नियम । (लेखक, बाबू दयाचन्दजी गोयलीय बी. ए.) १. हमको प्रति दिन आपत्तियाँ सहने और पग ८. अपनेसे बड़ोंसे आदरके साथ पेश आओ और पग पर निराश होनेके लिए तैयार रहना चाहिए। छोटोंसे प्रेमके साथ व्यवहार करो। २.संसारमें कोई भी मनष्य पूर्ण नहीं है. अतएव ९. नौकरोंके साथ धीरे और प्रेमके साथ बोलो। बहुत अधिककी लालसा मत करो। १० किसीके अवगुण एकान्तमें देखो. लोगोंके . ३. प्रत्येक मनुष्यके स्वभावको देखो कि जिससे सामने उसकी प्रशंसा ही करो। तुम उनको अच्छी तरह समझ सको। ११. प्रशंसा जब हो सके, तब करो; परन्तु निन्दा ४. यदि किसीपर दुःख या आपत्ति आजाय तो उसी समय करो जब उसकी अत्यन्त आवश्यकता हो। उसके साथ सहानुभूति प्रगट करो, और यदि किसीकी १२. मुलायम जबाबसे प्रायः क्रोध जातारहता है। उन्नति या बढ़ती होती हो, तो उसे देखकर हर्षित होओ। . १३. यदि वास्तवमें किसीने अपराध किया हो ५. यदि तुम्हें क्रोध आरहा हो, तो मौन धारण और तुम उसपर क्रोध करते हो, तो उस समय याद करो। क्रोधावस्थामें बोलना ठीक नहीं है। करो कि तुमने भी कभी कोई अपराध किया होगा। ६. दूसरोंको प्रसन्न करनेके लिए शक्ति भर १४. हर्षमें पहले दूसरोका ख्याल रक्सो । उयोग करो। १५. दूसरोंकी प्रतिष्ठाका ख्याल रक्खो। ५. जीवनको निःसार मत समझो, किंतु हर्ष और १६ जब हो सके दूसरों के विषयमें अच्छे विचार भानन्द्रकी दृष्टिसे देखो। रक्खो । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनोंकी वर्तमान दशाका चित्र। एक सच्चे नाटकका अभिनय। [ लेखक, श्रीयुक्त बाडीलाल मोतीलाल शाह ] रविवारका सन्ध्यासमय है । अभी अभी डकर तुम्हें फिर एकवार सूचना देने आया हूँ। छहका घंटा बजा है । मैं एक स्वानुभवी तत्त्व- क्या तुम नहीं जानने कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत्? ज्ञानीके ग्रन्थको लेटे लेटे बाँच रहा था । जीवन-नाटकके अभिनयका आनन्द कैसे अनुभव मैं उठकर बैठ गया और डाक्टरको कुरसीपर किया जाय, इस विषयमें उक्त तत्त्वज्ञानीके , - बैठनेके लिए कहकर बोला-"भाई, तुम ज़रा विचार पढ़कर मेरे मुँहसे एकाएक निकल पड़ा साचा, ता मालूम हु। सोचो, तो मालूम हो कि यह सनक भी एक -"शाबास मित्र, शाबास !" अमूल्य चीज़ है । बाँचने और सोचने विचार नेसे यदि मनुष्य सनकी पागल या मृत हो मेरे इन शब्दोंके निकलनेके साथ ही किसीने जाता हो, तो भी मैं कहूँगा कि बाँचने और कहा-"शाबास सनकीजी, शाबास !" देखता विचारनेकी यह बहुत ही थोड़ी कीमत है । यदि हूँ तो मेरे मित्र डाक्टर रामलाल सामने इससे भी अधिक कीमत देना पड़ती हो तो खड़े हैं। चार नजरें होते ही वे बोले-"इस सन- भी ये रत्न खरीदनेके योग्य हैं । तुम्हारी इस कको अब छोड़ दो, तो अच्छा हो। अपने लिए सनक-पागलपन और मौतसे डरनेवाली दुनिया नहीं तो मेरे जैसे स्नेहियोंके लिए ही-कमसे कम तो जीवित रहनेपर भी मुरदोंकेसे दिन पूरे ४-६ महीनेको तो यह पागलपन छोड किया करती है और सदा रोती हुई शकल दो। यदि न छोड़ोगे तो मैं कहे देता हूँ कि तुम्हें बनाये रहती है; मानों मौतके मुँहमें ही निवास - - पागलखानेसे या मरघटसे आमंत्रण आये बिना करती हो ! पर मेरी दशा देखो; मुझे इस विचा न रहेगा। महीनों बीत गये, तुम बीमार हो। रसागरमें डुबकी लगानेसे एक प्रकारका नया मैं कह कहकर थक गया कि बीमारीका कारण जीवन मिलता है और इस कारण चाहे जितना कोई रोग नहीं, किन्तु यह सनक ही है, तो भी बीमार रहनेपर भी मैं नई शक्ति और आनतुमने इसे छोड़कर शामको टहलनेके लिए जानेका न्दका अनुभव किया करता हूँ । 'अति सर्वत्र आरंभ न किया । बाँचने और सोच विचार कर- वर्जयेत् ' यह बोधवचन उन लोगोंके लिए नेका आनन्द तुमसे नहीं छूटता और यही है जो अपने आपको बोध नहीं दे सकते हैं । कारण है जो तुम्हें यह बीमारी नहीं छोड़ती। हम जैसे सनकियोंको तो दूसरोंके ग्रथित किये शरीरकी ओरसे इतने ला-परवा रहना, इससे हुए नीतिसूत्रोंकी धज्जियाँ उड़ानेमें और सच्चे सूत्र बढ़कर मूर्खता और क्या हो सकती है ? मैंने बनानेमें ही आनन्द आता है और इसी कारण आज सुना कि तुम्हारी तबीयत बहुत ख़राब हमें कोई भी वचन डरावना नहीं मालूम होता। . हो रही है, इस कारण और सब कामोंका छो- जो 'अति' दूसरोंके लिए भयस्थान है, वह For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaummmmmmmmmmm जैनहितैषी हमारे लिए आनन्दस्थान है बल्कि हमें तो मार्ग नहीं है ! जिस चीज़से सुख होता है. 'अल्प में उलटी तुच्छता मालूम होती है-उससे उसे ( उस चीज़के प्रति घृणा होनेके कारण एक प्रकारकी अरुचि उत्पन्न होती है और–” नहीं किन्तु चीज़ चाहे जितनी सुखदायक और " और मैं भी आज तुम्हें अरुचि उत्पन्न सुन्दर हो तो भी एक विचारकके लिए उसकी करानेका निश्चय करके आया हूँ।" डाक्टरने दासता स्वीकार कर लेना अपमानजनक है, बात काटकर कहा और मेरे हाथसे पुस्तकको केवल इसी ख़यालसे) छोड़ देना-यह जय-यह छीनकर टेबिलपर फेंक दिया । “मैं आज तुम्हें आनन्द यह बलप्राप्ति ही तो प्रार्थनीय है।" तुम्हारे थोथे और हवाई ख़यालोंमेंसे खींचकर बाहर बुद्धिकी यह सम्मति पाकर मैंने तत्काल ही घसीट ले जानेका विचार करके आया हूँ। निश्चय कर लिया और कपड़े पहनकर कहा, . आज मुझे दिखला देना है कि तमारी खयाली 'चलो चलें।" दुनियाकी अपेक्षा हमारी यह जीती-जागती साँची इसके बाद हम दोनों घरसे चल दिये। दुनिया कितनी अधिक आनन्दजनक है । मेरा मैदानमें पहुँचकर पहले हमने 'टग आफ वार' विचार है कि आज कुछ खेलतमाशे दिखला- ( रस्सा खींचनेका तमाशा ) देखा; परन्तु उससे कर तुम्हारा जी बहला लाऊँ । खुली हुई हवामें मेरा ज़रा भी मनोरंजन न हुआ । वहाँसे फिरनेसे और जीती जागती दुनियाके मनो- हम सीनेमेटोग्राफमें गये जिसमें हमने जलते रंजक दृश्य देखनेसे तुम्हारे मस्तकको विश्राम हुए महल देखे, उनमें एक वीरपुरुषको देखा । मिलेगा और शरीरको भी लाभ होगा । चलो, जिसने अपनी जानपर खेलकर एक पूरे देर मत करो; कपड़े पहन कर मेरे साथ हो कुटुम्बको बचा लिया, पुराने खंडहर देखे जाओ। यदि तुम इंकार करोगे तो मुझे बहुत और एक विनोदपूर्ण फिल्ममें एक भेड़के पीछे, दुःख होगा।" चलती हुई भेड़ोंकी सेनाको कुएमें पड़ते देखा । मैंने सोचा, एक ओर तो मुझे तत्त्वज्ञानके यहाँसे उठकर हम · महाभारत ' नाटक देखवाचन-मननके इस आनन्दको गँवानका दुःख नेके लिए गये। उस समय द्रौपदीके शरीर भोगना पड़ेगा और दूसरी ओर, अपने प्रेमी परसे वस्त्र खींचा जा रहा था । बलवान् पाँचों मित्रकी बात नहीं मानता हूँ तो उसे दुःख पाण्डव, ऋषिगण, और राजसभाके सारे सभ्य.. होगा, इन दोमेंसे मुझे कौनसा मार्ग ग्रहण चित्र लिखेसे हो रहे थे । उनमेंसे कोई भी मनुष्य : करना चाहिए ! बुद्धिने सम्मति दी कि “ तुझे उस पतिव्रताकी रक्षा करनेके लिए तैयार न: दुःख होता है इस कारण अथवा दूसरेको जो होता था । यह देखकर मेरे मित्रको उन सबसे दुःख होता है उसकी सहानुभूतिसे, किसी कार्यको बड़ी घृणा हुई । श्रीकृष्णकी कृपाका—किसी. करनेके लिए तैयार होना, ये दोनों ही निर्बलतायें अलौकिक शक्तिका-कर्मके अदृश्य हाथोंका हैं । तेरा आशय केवल बल प्राप्ति करनेका होना सहारा पाकर यद्यपि वह बिलकुल वस्त्रहीन.. चाहिए, सुख दुःखका नहीं । तब, इस समय तुझे न हो सकी, अन्यायी दुःशासनको इस कार्यमें. पुस्तक पढ़नेमें जो सुख हो रहा है उस सुखको सफलता प्राप्त न हुई तथापि उसे दासी बनानेमें भी यदि तू जीत ले-उसकी भी दासता छोड़नेके तो वह सफलमनोरथ हो गया । यह सब होने लिए कमर कसले, तो क्या यह बलप्राप्तिका पर भी जब उन हज़ारों पुरुषोंमेंसे कोई भी.. For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHOOMImm BRD जैनोंकी वर्तमान दशा। Cum m ififtrintinue उसे मुक्त करनेके लिए उद्यत न हुआ तब मैं थे और स्वयं हँसते थे; परन्तु स्वयं तुम्हारे समाबोला-" डाक्टर साहब, बहुत हुआ, चलिए जमें जो ‘टग-आफ-वार' हो रहा है उसे देखअब मुझसे यहाँ बैठा नहीं जाता। पतियोंकी, नेकी इच्छा तुम्हें क्यों नहीं होती ? जैनतीर्थोंको दरबारियोंकी और ऋषियोंकी इस प्रकारकी मालिकीकी रस्सीसे लपेट कर श्वेताम्बर और निर्बलता और उनकी इस प्रकारकी नीतिकी दिगम्बर भाई खींच रहे हैं और इस खींचतानमें व्याख्या मुझे सहन नहीं होती । इस दृश्यसे अपनी सारी शक्तियोंका और सारे द्रव्य-बलका मेरे मनुष्यत्वसम्बन्धी विचारोंकी हत्या होती उत्सर्ग कर रहे हैं, यह सब क्या तुम्हें दिखलाई नहीं है । यहाँ जुआ खेलनेमें अनीति नहीं समझने- देता ? इस खींचतानमें-धींगामस्तीमें कितनोंकी वाले, विस्तृत राजपाटको-जो किसी एक मनु- पगड़ियाँ गिर पड़ती हैं, कितने ही हारकर सिर ध्यकी नहीं किन्तु सारी प्रजाकी चीज है- धुनते हैं और कितने ही जीतके नशेमें चूर होजुएके दाव पर लगा देनेवाले और जीवित मनु- कर नाचते कूदते हैं। तीर्थोकी दुर्दशाका यह ष्यको-मनुष्य ही नहीं, अपनी एकनिष्ठ अर्धा- हास्यकरुणमिश्र-नाटक क्या तुम्हारे चित्त पर गनाको भी धन या महलके समान दावपर लगा कुछ भी प्रभाव नहीं डालता है ? दया और देनेवाले मनुष्य, भरी सभामें और अपनी क्षमा, सरलता और उदारताको धर्मका अंग आँखोंके सामने, अपनी स्त्रीको-राजरानीको समझनेवाले धर्मात्मा भाई अपने मनुष्य बन्धुवस्त्रहीन होते देख चुप बैठे रहते हैं और अपने ऑपर-नहीं नहीं अपने सगे भाइयोंपरमनमें यह आभिमान करते हैं कि हम अपने भावहिंसाकी-कपटकी-केशकी-निन्दाकी चोटें वचनका पालन कर रहे हैं, यह सब मुझसे चलाकर प्रसन्न होते हैं, यह फार्स क्या 'टग आफ नहीं देखा जाता । मित्र, चलो, मुझे अब वार' की खींचातानीकी अपेक्षा कम दर्शनीय है ? निद्राकी आवश्यकता है कि जिससे मेरी यह मित्र. इन दयाधर्मकी-शान्तिधर्मकी-क्षमा धर्मकी. मानसिक व्यथा कुछ कम हो जाय ।" धर्ममर्तियोंकी ओर ज़रा अच्छी तरह तो अधूरे नाटकको छोड़कर हम चल दिये निहारो । यदि मेरे जैसे आन्तर-चक्षु तुम्हार और अपने अपने घर जाकर सो गये। सोते ही भी होते, तो इनके कुरूप, बीभत्स, वामन शरीर मुझे स्वप्न आया और उसमें मैंने देखा कि मैं देखकर तुमसे हँसे विना न रहा जाता। मुझे इनके अपने पूर्वोक्त मित्रके ही साथ विचरण कर बद्धि-शरीरकी विकृति देखकर भी बड़ी हँसी आती रहा हूँ। है । जिस धनशक्ति और समयको धर्म और मेरा स्वम विचित्र था। स्वमकी जागृतदशामें संघकी उन्नतिके कामोंमें लगाना चाहिए उसे मैंने अपने मित्रसे कहा-" डाक्टर, रुपये ये लोग अदालतों, आफिसरों और वकीलोंके खर्च करके नाटक-तमाशे देखनेमें तो तुम तृप्त करनेमें खर्च करते हैं ! इन लोगोंने अपनी लोगोंको आनन्द आता है; परन्तु तुम्हारे चारों वणिकबुद्धिके अभिमानमें मस्त होकर एक आर और तुम्हारे अन्तरमें जो सच्चे नाटक खेले कहावत चला रक्खी है कि 'बणिक बिना जा रहे हैं उन्हें देखनेका तुम्हें ज़रा भी शौक रावणका राज्य चला गया ।' परतु इनकी बुद्धि नहीं। तुम मुझे 'टग-आफ-वार ' (रस्सा कितनी है इसका पता एक इसी बातसे खींचनेका खेल) दिखला करके हँसाना चाहते लग जाता है कि इनसे अपने आपसी घरू झगड़े For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ammmmmmumments जनहितैषी भी नहीं मिटाते बनते ! डाक्टर साहब, यदि हुए दिल, तुमपर उस कल्पित नाटककी द्रौपयह तीर्थक्षेत्रोंको दोनों ओरसे खींचनेवाला दीके बराबर भी प्रभाव नहीं डाल सकते रस्सा बहुत समय तक इसी तरह तना रहा, हैं ? अरे भाइयो! तुम्हारे यदि आँखें हैं, तो अन्तमें इन तीर्थोंकी-इनकी पवित्रताकी- तो उनका उपयोग इस नाटकके देखनेमें इनके पूजनेके उद्देश्योंकी क्या दशा होगी? पर करो और यदि उनमें कुछ पानी बचाहुआ है अब इस तमाशेको जाने दो और यह दूसरी तो उसे इस सच्चे नाटकमें धधकती हुई अग्निपर ओरका करुणारसप्रधान नाटक देखो। बहने दो । इसी प्रकार यदि तुम्हारे हृदय वर्त "महाभारत-नाटकमें द्रौपदीके चीरका खींच- मान हो तो उसे इस अग्निमें झंपापातपूर्वक ना देखकर तुम और तुम्हारे साथी सैकड़ों सुवर्णके सदृश शुद्ध होकर निकलने दो और दर्शक आँखोंसे आँसू बहा रहे थे और गहरी यदि तुम्हारे मस्तिष्कमें केवल भूसा ही न भरा उसाँसें लेते थे । यह सब मिथ्या नाटक हो तो उसे इस आगके बुझानेका कोई अच्छा है; वास्तविक घटना नहीं है, यह जानकर भी उपाय सोचनेमें लगा दो !" उक्त दृश्यको सत्य मानकर तुम सबका हृदय मेरे मुँहसे अन्तिम वाक्य पूरा न निकल पाया सहानुभूतिसे भर आया था; पर तुम्हारी आँखोंके था कि इतनमें एक भयंकर कोलाहल सुनाई आगे तुम्हारे समाजकी सैकड़ों विधवाओं, सध- दिया । ऐसा मालुम होता था कि उस कोलाहलमें वाओं और बालिकाओंपर जो अन्याय अत्याचार हज़ारों कोमल आवाजें शामिल हो रही हैं। होते हैं, उन्हें देखकर मालूम नहीं तुम्हारी मैंने अपने जीवनमें ऐसी चिल्लाहट पहले कभी सहानुभूति कहाँ चली जाती है। आज तुम्हारे नहीं सुनी थी।मैं अपने मित्रको बहुत ही निडर यहाँ न जाने कितनी अपक्व कन्यायें बलपू- समझता था । रोगियोंके अंग उपांगोंको काटनेर्वक पत्नी और मातायें बनाई जाती हैं और में उसे ज़रा भी भय न मालूम होता था। परन्तु इसतरह उनका सारा जीवन रूक्ष, नीरस, कष्ट- इस कोलाहलको सुनकर वह बहुत ही डरा और मय और भाररूप बना दिया जाता है । न इच्छा न रहते भी चिल्ला उठा-" बचाओ! जाने कितनी बालविधवायें और प्रौढ विधवायें बचाओ ! " उदरपोषणके फेरमें पड़कर पशुओंके समान ___एक अदृश्य आवाज़से भी डरनेवाला और जीवन व्यतीत करती हैं और उनमेंसे , अनिश्चित भयसे भी बचनेकी इच्छा करनेवाला न जाने कितनी जानबूझकर और बिना , मनुष्य औरोंकी सहायता पानेके लिए तो तड़जाने, अनीतिके फंदेमें फँस जाती हैं। - फता है-व्याकुल होता है, परन्तु औरोंके भयंक्या तुमने कभी इन दुःखोंके देखनेकी और र कर दुःखके लिए उसके हृदयमें ज़रा भी स्थान उनके मूलकारणोंपर गंभीरतापूर्वक विचार कर-. नहीं होता-औरोंको बचानेकी उसे इच्छा ही नेकी तथा उनके प्राकृतिक उपचार ढूँढ़नेकी नहीं होती ! हाय ! हाय ! मनुष्य कैसा आत्मचिन्ता की है ? क्या तुमने उनके एकान्तमें पड़ते , वंचक है! हुए आँसुओंके देखने और गहरी उसाँसे सुननेकी कभी आवश्यकता समझी है ? क्या उनके विधवाओंके समूहकी भयंकर चीखकी फटते हुए हृदय और दुःखकी दाहसे दहकते प्रतिध्वनि जड़ आकाशने तो गुंजा दी; परन्तु For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHARAANIMAITHAMARELATIONAMAHARARIALITARTER जैनोंकी वर्तमान दशा।। ५७ मनुष्यके हृदयपर उसका कुछ भी परिणाम न सकते हैं, रोजाको ज़रा भी नहीं। इसी तरह हुआ ! ओ परमार्थकी पोशाकमें छुपे हुए स्त्री भी भोज्य और प्रजारूप है, अतः उसके स्वार्थी कीड़े ! आत्मवंचकता छोड़ और लिए भोक्ता पुरुष ही कानून बनायगा; परन्तु अपने हृदयको चीरकर देख । कोई बाल- स्वयं पुरुष उन कानूनोंसे मुक्त रहेगा ! तेरा विधवा-जिसने अपने पतिका मुँह भी अच्छी हृदय स्पष्टतः यही कहेगा; परन्तु इसका अर्थ तरह नहीं देखा है-मजबूर होकर फिरसे ब्याह केवल यही है कि तेरी समझमें स्त्री जड़ है करना चाहती है और इस तरह अपने निर्वाह चैतन्य नहीं ! तो अब तू ही बतला दे कि और रक्षणका एक विश्वासपात्र साधन खोज अधर्मी कौन है ? स्त्रीको हृदयसे जड़ समझलेना चाहती है, पर हे मनुष्य ! तू उसमें रुका- नेवाला तू, या अपने जीवन निर्वाहके लिएवटें डालनेको तैयार होता है और इसमें अध- अपनी रक्षाके लिए-फिरसे ब्याह करनेके लिए र्मका ' हौआ ' दिखलाकर डराता है । क्या लाचार होनेवाली बालविधवा ? जो बालिका तूने कभी इसका गहरा और वास्तविक 'पत्नी' बननेका अर्थ ही नहीं समझती थी, कारण जाननेका प्रयत्न किया है ? तूने उसे ज़बर्दस्ती पत्नी बनाकर-ऐसे पथिककी स्रीको चेतन नहीं, पर जड़ भोज्य पदार्थ जो कि शीघ्र ही स्मशानके नजदीक पहुँचनेमान रक्खा है और इस कारण तेरा भोगा वाला है-विधवापनेकी खाईमें धकेलनेवाला हुआ पदार्थ फिरसे किसी दूसरेके भोगनेमें आ तू या तेरे ही समान व्यक्तियोंसे बने हुए जायगा, इस ख़यालसे तुझे ईर्षा उत्पन्न समाजको छोड़कर और कौन है ? क्या होती है । परन्तु इस ईर्षाके भावको छुपा- कोई बालिका अपने पितामहकी उमरके बूढ़े कर तू धर्मके सुन्दर, मनोमोहक बहानेको खूसटकी पत्नी बननेकी इच्छा कर सकती है ? आगे खड़ा कर देता है और कहता है,-"एक क्या कभी तूने या तेरे समाजने उसकी इच्छा जीवनमें दो पति! महान अधर्म! महान् अनर्थ ! जाननेकी चिन्ता की है ? क्या ऐसी घटनायें घोर कलियुग !" परन्तु रे ईर्षा के खिलौने ! यह आये दिन नहीं हुआ करती हैं जिनमें कन्याके तो कह कि अपनी स्त्रीके मरनेके पीछे दूसरी, साफ़ इन्कार करनेपर भी वह ज़बर्दस्ती किसी तीसरी, चौथी और पाँचवीं स्त्री ब्याहते समय बूढ़े या अयोग्यके साथ व्याह दी जाती है ? तेरा वह धर्म कहाँ भाग जाता है ? यह अधर्मका और ऐसी दशामें उसका वैधव्य उस बेचारीका शैतान उस समय तुझसे तोबा तोबा क्यों दोष है या समाजका ! तू समाजके दोषपर नहीं कराता ? तू अपने स्वार्थी हृदयसे तो उस बेचारीको-बिना मारे मरी हुई गायकोपूछ । वह कहेगा कि तू भोक्ता है भोज्य नहीं, दण्ड देनेके लिए तैयार होता है, क्या यही राजा है प्रजा नहीं, चेतन है जड़ नहीं । और तेरा पुरुषत्व है, मनुष्यत्व है और धर्मकी व्याख्या भोज्यका अस्तित्व भोक्ताके लिए है, प्रजाका है? धर्मका 'ओ-ना-मा' न जानने पर भी धर्मकी अस्तित्व राजाके लिए है, जडका अस्तित्व शेखी मारनेवाले ओ ईर्षाके पुतले ! पहले यह चेतनके लिए है। वह यह भी कहेगा कि प्रजाको तो बतला कि तेरा धर्म ब्याहकी भी आज्ञा नहीं किन्तु राजाको कानून बनानेका अधि- कहाँ देता है ? जब जैनधर्म, आत्माके कार है और वे कानून प्रजाको ही बाधक हो उद्धारके लिए जितनी प्रवृत्तियाँ की जाती For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GAR ILALILIARRIALMANMITAL जैनहितैषी हैं उनके सिवाय दूसरी किसी भी प्रवृत्तिको मानसिक शक्तिओंको विकसित करनेके लिए पवित्र नहीं मानता है, तब ब्याह तो जैनधर्मकी उचित उपायोंकी योजना कर दे, जिससे वे दृष्टिसे पवित्र हो ही कैसे सकता है ? यदि धीरे धीरे अच्छे और सब तरहकी सुविधाओंवाधर्महीसे प्रेम है तो अखण्ड ब्रह्मचर्य धार- ले मकानोंमें रहनेकी इच्छा करने लगें और ण करो। ब्याह धार्मिक नहीं किन्तु व्या- अपनी इस इच्छाको पूर्ण करनमें समर्थ बनें। वहारिक सम्बन्ध है। भगवान् तीर्थकरोंने ब्रह्म- विवाह आदि व्यावहारिक क्रियाओंके विषयमें चर्य पालनका आदेश किया है न कि ब्याह भी ऐसा ही समझना चाहिए। धर्मदृष्टिसे विवाह, करनेका । विवाहपद्धति और विवाहके नियमों- इष्ट नहीं है; परन्तु सारे ही मनुष्योंमें ऐसी की योजना भी उन्होंने नहीं की है। आत्माका शक्ति नहीं हो सकती कि वे सिंहके समान एकाकी आनन्द ब्रह्मचर्यपालनमें, एकान्तवासमें और और आत्मसन्तुष्ट रहकर विचरण कर सकें, इस शिशिकाओं और पहाडोंमें एकाकी विचरण खयालसे समाजको 'विवाह' इष्ट मानना पडा। करते हुए आत्मचिन्तवन करनेमें है। जो इस पहले कहा जा चुका है कि विवाह ‘धर्म, एकाकी सिंहवृत्तिको धारण करनेमें, असमर्थ हैं नहीं, 'व्यवहार ' है और कोई भी व्यवहार और जिन्हें संगी सहचारीकी आवश्यकता है स्थिर या निश्चित नहीं हो सकता । इसीसे व्यवहारशास्त्र उनके लिए रचे गये हैं । व्यवहार- जुदे जुदे देशों और और जुदे जुदे समयोंके. शास्त्र-जिन मनुष्योंके लिए-जिस समयके लिए विवाहसम्बन्धी कानून जुदे जुदे रहे हैं । एक -जिस भूमिके लिए आवश्यक होते हैं, उनकी समय ऐसा था कि जब भाई बहिन एक साथ प्रकृतियों योग्यताओं और आवश्यकताओंकी जन्म लेते थे और योग्य वय प्राप्त होने पर परओर दृष्टि रखके रचे जाते हैं। सारे देशों स्परमें विवाह कर लेते थे। ऐसा भी एक समय और सारे स्वभावोंके लिए एक सा व्यवहार- था जब एक स्त्रीके अनेक पति होते थे। एक शास्त्र नहीं हो सकता, अर्थात् उन्नतिक्रमकी पतिकी हज़ारों स्त्रियोंकी कथाओंसे तो हमारे जुदी जुदी सीढ़ियोंपर खड़े हुए जीवोंके लिए शास्त्र भरे हुए हैं । हिन्दू धर्मके पुराणोंसे एक एकहीसे कानून उपयोगी नहीं हो सकते । मह- ऐसे समयका भी पता चलता है जब राजाके लका रहना चाहे जितना अच्छा हो, पर जीते जी राजमाहिषी इच्छित पुत्रकी प्राप्तिके झोपड़ोंमें रहनेवालोंके लिए यह कानून नहीं लिए किसी ऋषिके आश्रममें कुछ कालके लिए बनाया जा सकता कि तुम अपने झोपड़ोंको " भेज दी जाती थी ! परन्तु इन सब रूढ़ियोंमें तोड़ डालो और विना विलम्बके महल ब - तात्कालिक स्त्रीपुरुषोंको कोई अनौचित्य, अनीति या अधर्म नहीं मालूम होता था । इसका कारण नाओ; नहीं तो तुम्हें दण्ड दिया जायगा। यही है कि स्त्रीपुरुषका सम्बन्ध-ब्याह__ कानून बनानेवालेका लोगोंको इस बातके धर्मका अंग नहीं है र धर्मका अंग नहीं किन्तु व्यवहारका अंग है लिए मजबूर करना तो उचित है कि तुम अपने और व्यवहारकी सृष्टि समाज स्वयं करता है, झोपडे स्वच्छ रक्खो और उनके आसपास इसलिए उसे उसमें भयंकरता, बीभत्सता या किसी तरहकी गंदगी न रहने दो जिससे कि अनौचित्य नहीं जान पड़ता। पड़ोसियोंको कुछ हानि पहुँचे । उसका यह भी समाज अपनी परिस्थितियों, आवश्यकताओं कर्तव्य है कि झोपड़ेवालोंकी आर्थिक और और खासियतोंके अनुकूल ' व्यवहार ' बनाता. For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CATLAIMIMIMARILAAMANA RTHAMABARDATION जैनोंकी वर्तमान दशा। THFTTHfilmfinitititition ५२ है और ज्योंही कोई नई परिस्थिति उत्पन्न हो जाती इन खासियतों पर जुल्मी हथोड़ा मारनेसे कुछ है त्योंही पूर्वके व्यवहारको तोड़ देता है या भी लाभ नहीं होता। मर्यादित अंकुश और बदल देता है । जो समाज बनाने और तोड़नेकी मार्गसूचन करते रहनेसे ही ये खासियतें उच्च शक्ति रखता है उसीको जीता जागता समाज बनाई जा सकती हैं । समाजको इस नियमकी कहना चाहिए और वही उन्नतिपथका पथिक सत्यता समझ लेनी चाहिए और इसीके अनुसार बना रह सकता है । 'बनाना' और ' तोड़ना' अपने व्यवहार शास्त्रमें अखण्ड ब्रह्मचर्य, एक ही ये दो क्रियायें आरोग्य और उत्क्रान्तिकी निशा- बारका ब्याह और पुनर्विवाह इन तीनोंको नियाँ हैं । जो समाज तोड़ नहीं सकता वह यथोचित स्थान देना चाहिए । समाजके नियम बना भी नहीं सकता। ऐसे होने चाहिए जिनसे सब तरहके योग्य ___ वास्तवमें अखण्ड ब्रह्मचर्य ही इष्ट है। यही अयोग्य- समर्थ असमर्थ-संयमी और इन्द्रि .. धर्म है और यही मनुष्यका लक्ष्यबिन्दु होना यासक्त जीवोंका निर्वाह होता जाय चाहिए । परन्तु जैसे भूमिके भीतर गड़े खोदकर और वे धीरे धीरे आगे बढ़ते चले जायें । रहनेवाले मनुष्य झोपड़ोंमें रहनेके लिए लाचार ब्रह्मचर्य पालन करनेका सबसे ऊँचा व्रत तमाम नहीं किये जा सकते और झोपड़ोंमें रहनेवाले व्यक्तियोंके लिए अनिवार्य-अवश्य पालनीय महलोंमें रहनेके लिए मजबूर नहीं किये जा नहीं ठहराया जा सकता; और यदि ठहरासकते, उसी प्रकार वासनाओं और आवश्यकता- ना ही हो, तो पहले उस व्रतको पोषण करनेओंवाले संसारी मनुष्य अखण्ड ब्रह्मचर्य पालनेके वाला वातावरण उत्पन्न कर देनेका प्रयत्न लिए मजबूर नहीं किये जा सकते । यद्यपि करना चाहिए । “स्त्रीको पुनर्विवाह करना ही ब्याह करना समाजकी दृष्टिमें कोई अधर्म न चाहिए' यदि यह उच्च श्रेणीका नियम और अपराध नहीं है, तो भी बहुतसे उच्च श्रेणी- प्रचलित करना हो, तो समाजको दो बातोंकी के मनुष्य ब्याहके या वासनाओंके कुएमें तैयारी कर रखना चाहिए । एक तो स्त्रीको पति पड़ना पसन्द नहीं करते; वे अपनी बुद्धि और ऐसा सुयोग्य मिलना चाहिए कि जिससे उसके आत्माके भीतर ही अपने इच्छित आनन्दकी मरनेके बाद भी उसके हृदयमें उसका स्मरण प्राप्तिके लिए प्रयास करते हैं। जिन देशोंमें एक जागृत बना रहे और दूसरे पुरुषकी पत्नी पतिके मरने पर दूसरे पतिका कर लेना बुरा बननेका विचार भी उसे बुरा मालूम हो। ऐसा नहीं समझा जाता है उन देशोंमें भी बहुत होनेके लिए यह आवश्यक है कि रोगी, निर्बल, सी स्त्रियाँ पुनर्विवाह करना पसन्द नहीं बुद्धिहीन, अनुभवहीन, दाम्पत्य प्रेमकी पवित्रता करतीं-इससे घृणा करती हैं । यद्यपि ऐसा तथा निस्वार्थताको न समझनेवाले और निर्वाहकी कोई कानून न पहले था और न अब भी है शक्तिसे रहित स्त्री-पुरुष ब्याह ही न कर सकेंकि पतिके मरनेके बाद स्त्रीको मर ही जाना ऐसे अयोग्योंको ब्याह करनेका अधिकार ही चाहिए, तो भी हज़ारों स्त्रियाँ अपनी इच्छासे न रहे । यदि ऐसा हो जाय तो स्त्रीको ब्याहके अपने पतियों के लिए जल मरी हैं और अब भी बाद जो सुख मिलेगा उस सुखका स्मरण उसे जल मरती हैं । मनुष्य हमेशा अपनी खासियतों इतना मीठा लगेगा कि उसे भुला देनेके लिए (Charactristick) के अनुसार ही चलता है। या पुनर्विवाहके लिए वह प्रायः तैयार For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - ही न होगी। दूसरी तैयारी जो समाजको कर रखना चाहिए वह यह है कि विधवाओंको पति के मर जानेसे - पतिकी रक्षा, सहायता - और शिक्षा बन्द हो जाने से - जिन जिन अड़चनों और भयोंके होनेकी संभावना रहती है उनसे बचने के लिए कोई अच्छी और नियमित -व्यवस्था कर दी जाय – उन्हें केवल कुटुम्बि-योंकी दया पर न छोड़ दिया जाय । इस दूसरी तैयारीके विषयमें तीन बातों पर अधिक विचार करने की ज़रूरत है । एक तो इस बातको समाजका प्रत्येक मनुष्य स्वीकार करेगा कि पेटका गढ़हा भरे बिना किसी भी प्राणिका - बड़े बड़े महात्मा का भी नहीं चल • सकता। दूसरे स्त्रियों को हमने उनकी इच्छा जाननेकी परवा किये बिना ब्याहके पींजरे में डालकर, सुन्दर परन्तु स्वतंत्रतापूर्वक उड़नेकी शक्ति रहित पक्षी बना रक्खा है। तीसरे सामान्यतः, पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंमें कामवासना .अधिक होती है । १ - २ पक्षी सुन्दर है, मधुर स्वरसे गाता है, और हमारी इन्द्रियोंको सुख देता है, इस कारण हम उसे पींजरेमें- सोनेके पीजरमें बन्द करके रखते हैं; परन्तु यह क्या हमारा धर्म है ! यदि "पींजरेमें बन्द किये बिना हमारा मन नहीं मानता है तो इतना तो अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि पाँच दस वर्षके बाद अपनी मृत्यु हो प द ह छोड़ दिया जायगा तो "पंखोंके निकम्मे हो जानेसे उड़ नहीं सकेगा और अपना पोषण और रक्षण न कर सकेगा, इस लिए या तो हमें पक्षीको पींजरेमें रखना ही न चाहिए, या जब तक वह जीता रहे तब तक हमें मरना न चाहिए । ( जैसा एक जुगलियोंके समयमें था - जोड़ी -साथ जन्म लेती थी और एक ही साथ मरती थी । ) और यदि मरना - जीना हमारे हाथमें न हो, तो उस निराधारको कोई नया आधार तलाश करनेमें हमें बाधक न बनना चाहिए। यदि पितृगृह या स्वसुरगृहमें यथेष्ट आधार मिलता हो और वे उसे भार समझकर कष्ट न देतें हों तो उदरनिर्वाहकी कठिनाईका प्रश्न हल हो जाता है; परन्तु १०० में प्रायः ८० उदाहरणबड़े बड़े धनियों के घरों में भी-ऐसे मिलते हैं कि वहाँ विधवायें भार ही मानी जाती हैं । उनका सा जीवन नीरस, रूक्ष, और दुःखमय बना रहता है। इस लिए या तो समाजको सारी विधवाओंके लिए आश्रम खोलना चाहिए जहाँ उनकी परवरिश हो और सत्संगति, विद्याव्यासंग आदि के कारण उनका जीवन भाररूप न बनकर सह्य बन सके । या यदि ऐसे आश्रम खोलने के लिए समाज तैयार न हो तो और किसी मतलब से नहीं केवल उदरनिर्वाहके लिए ही, विधवाओंको यदि वे चाहती हों तो - अपना दूसरा सहारा तलाश कर लेनेमें बाधा न डालना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि दूसरा सहारा किस प्रकारका मिल सकता है ? या तो कोई धर्मात्मा अपनी धर्मबहिन मानकर उसका पालन पोषण करे, या कोई स्वार्थी इनमेंसे पहले प्रकारके उदाराशय पुरुषोंकी आत्मा उसे पत्नी बनाकर अपने आश्रयमें रखले । संख्या संसारमें बहुत ही थोड़ी है; आधिक संख्या दूसरे प्रकारों ही लोगों का सहारा विधवाओंको लेना पड़ेगा । यह सच है कि यह मार्ग कोई अच्छा मार्ग नहीं है - प्रेमके उच्च आदर्शसे गिरा हुआ हैपरन्तु किया क्या जाय, और कोई उपाय भी तो नहीं है। ३ ऊपर लिखी हुई नी बातामस तीसरी बात कामवासनाकी है । इसके विषयमें विचार करनेसे मालूम होता है कि कामवासनाका For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LABALIBALITARIAHILAILAEBAREILAIMIRATE जैनोंकी वर्तमान दशा। होना एक प्रकारकी आत्मिक निर्बलता है। रशाही आज्ञाके सिवाय और कुछ नहीं कामवासनाके विरुद्ध युद्ध करने और उसमें है । जिस शत्रुको पुरुषवर्ग भी-जो विजय प्राप्त करने लिए बड़े भारी आन्त- स्त्रियोंकी अपेक्षा अधिक बलवान् , ज्ञानवान्, रिक बलकी और आत्मज्ञानरूपी शस्त्रकी और अनुभवी है-पचास वर्षकी उमर हो जाने आवश्यकता है । जिस तरह राजाका अपने पर भी नहीं जीत सकता है, वही शत्रु, अपरितृप्त शत्रुके विरुद्ध लड़नेके लिए निर्बल और निःशस्त्र अज्ञान, अनुभवहीन स्त्रियों-अबलाओंके द्वारा मनुष्योंका भेजना अन्याय है, उसी प्रकार जीता ही जाना चाहिए, ऐसी आज्ञा देनेवाले काम जैसे प्रबल शत्रुके सामने-जिससे कि बड़े सचमुच ही बहुत बड़े साहसका कार्य करते हैं। बड़े ऋषि मुनि भी हार मान गये हैं-आन्तरिक आश्चर्यकी बात तो यह है कि ये लोग इधर बल और आत्मज्ञानहीन व्याक्तियोंका-चाहे वे तो 'स्त्रियोंको विकारवश होना ही न चाहिएपुरुष हों या स्त्री-लड़नेके मजबूर किया जाना उन्हें सदा ब्रह्मचर्यसे ही रहना चाहिए ' इस भी अस्वभाविक और पागलपन है । जब दो तरहकी अस्वाभाविक आज्ञा जारी करके असमान पक्षोंमें युद्ध होता है तब उसका प्रकृतिपर शासन करनेका दम भरते हैं और परिणाम निर्बल पक्षकी हार ही होती है यह उधर आप स्वयं एकके बाद एक चाहे जितने जाननेपर भी-इस खयालसे कि पराजयसे या ब्याह करते जाते हैं। सन्तान होने पर भी ब्याह हारसे भी बल मिलता है, यदि अशक्त व्यक्तियाँ करते हैं, बूढे हो जाने पर भी ब्याह करते हैं, कामसेनाका सामना करनेके लिए भेजी जाय, एक स्त्रीके होने पर भी दूसग ब्याह करते हैं और तो ऐसी दशामें भेजनेवाले समाजको युद्धके इतनेपर भी तृप्ति नहीं होती है तो छपकर या परिणाम पर अप्रसन्न न होना चाहिए । अर्थात् प्रकटरूपसे एक दो गैर स्त्रियोंसे भी पण्यस्त्रियोंसे वे निर्बल व्यक्तियाँ कामसेनाके प्रबल आक्रमणके भी सम्बन्ध रखते है। स्वयं इनके चरित्रकी सामने कुछ समय तक साहससे लड़ती रहकर यह दशा है तो भी यदि कोई अपरितृप्त यदि अन्तमें हार जायँ-कामसेनाके वश हो बालविधवा फिरसे ब्याह करनेकी इच्छा करती जायें तो इसके लिए हारनेवाली व्यक्तियोंको है, तो ये उसे अधर्मिणी, पापिनी, दुष्टाके अधर्मी, पापी, नीच, व्यभिचारी आदि उपनामोंसे विशेषण लगानेके लिए तैयार रहते हैं ! यह तिरस्कृत या जातिबहिष्कृत आदि दण्डोंसे द- क्या समाजका साधारण अन्याय और अज्ञान ण्डित न करना चाहिए । यदि ऐसी सहिष्णुता है ? हमारा समाज चालीस या पचास वर्षके -ऐसी उदारवृत्ति समाज न रख सके-यथेष्ट पुरुषका पाँचवाँ ब्याह खूब ठाठवाट और आनआत्मबल और ज्ञानशस्त्रके अभावके कारण न्द उत्साहके साथ करता है और इसमें ज़राभी यदि किसी स्त्रीपुरुषका कामसेनासे हार जाना अधर्म, अनीति या अनौचित्य नहीं समझता है, या विषयसेवन करने लगना समाजसे सहन पर उसीकी ही मूर्खतासे बालपनमें विधवा बनी न हो सके, तो उसे चाहिए कि ऐसे स्त्रीपुरुषोंको हुई कोई निराधार स्त्री यदि कामसेनाके सामने कामसेनाके सामने युद्धके लिए जाने और युद्ध करनेमें ज़रा भी आनाकानी करती है विजय करके ही आनेको मजबूर न करे । ऐसा तो उस पर अपने सारे अन्यायी अस्त्र शस्त्रोंको करना प्रकृतिविरुद्ध, अन्याय और नादि- लेकर टूट पड़ता है । मालूम नहीं यह किस प्रका For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२ जैनहितैषी - -रका धर्मसिद्धान्त है । यदि कामवासनाको जीतना - ही धर्म है, तो यह पुरुष और स्त्री दोनोंके लिए 'एक सा पालनीय होना चाहिए | अपने पचास - वर्षकी उमरके पिता, काका या मामा आदिको नई ब्याही हुई १४-१५ वर्षकी बालिकाके साथ हँसते-आनन्द करते देखकर एक बाल`विधवाका ब्रह्मचर्यमें अटल रहना, हम नहीं समझते कि हमारा समाज कितना सहज सझ • झता है ! समाजका कर्तव्य है कि वह इन सब बातों - पर अच्छी तरह विचार करे और ब्याहको धार्मिक नहीं किन्तु व्यावहारिक बन्धन समझ कर ..इसके लिए नये सिरेसे उचित नियमोंका संगठन करे । समाजसंरक्षणके लिए उचित नियमोंके संगउनकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। इसके बिना स्वच्छन्द दुराचार आदि अनिष्टकर दोष दूर नहीं हो सकते । समाजके नियम जुदी जुदी प्रकृतियों, न्यूनाधिक योग्यताओं, और कुदरत के • कानूनों को ध्यान में रखकर बनना चाहिए जिससे छोटे बड़े, धनी निर्धन, पण्डित मूर्ख आदि सबको स्थान मिले और सबकी क्रमशः उत्क्रान्ति होती रहे । नियमसंगठन करते समय निम्न लिखित बातोंपर विशेष ध्यान देना चाहिए: १ अखण्ड ब्रह्मचर्यको श्रेष्ठ पद दिया जाय और यह मूर्खतापूर्ण विचार दूर कर दिया जाय कि पुरुष या स्त्रीके लिए विवाह करना अनिवार्य है - लाजिमी है, और यह प्रचार कर दिया जाय कि यदि वे चाहें तो आजन्म ब्रह्मचारी भी रह सकते हैं । २ ब्याह पुष्ट अवस्थामें किये जायँ जिससे शरीरबल, मनोबल, अनुभव, बुद्धिवैभव आदिका यथेष्ट विकास हो सके और स्त्रीपुरुष दोनों ही अपने विवाहित जीवनको एक वीरयोद्धा के समान बिता सकें तथा विपत्तियों, प्रतिस्पर्द्धाओं, और प्रलोभनोंके आनेपर उनसे सफलतापूर्वक युद्ध कर सकें । ३ योग्य वय और योग्य शक्तियाँ प्राप्त कर चुकनेपर जो पुरुष या स्त्री अविवाहित जीवन व्यतीत करना चाहें वे श्रेष्ठ मनुष्य समझे जावेंउनका खूब सम्मान किया जाय और जो सारी योग्यतायें प्राप्त करके ब्याह करने के लिए तैयार हों, समाजमें उन्हें दूसरे नम्बरका स्थान दिया जाय । ४ योग्यता प्राप्त करनेके बाद जो ब्याहसम्बन्ध होंगे हमारा विश्वास है कि वे चिरस्थायी षोंमेंसे बहुत कम ऐसे निकलेंगे जो एकके मरने पर सुखप्रद होंगे और इस लिए ऐसे सुखी स्त्रीपुरुदूसरा सम्बन्ध करनेके लिए तैयार हों । उनकी इच्छा ही न होगी कि हम दूसरा ब्याह करें। यदि किसीकी ऐसी इच्छा हो तो उसकी गणना ( चाहे वह पुरुष हो या स्त्री ) तीसरे दर्जेमें तियोंके अनुसार ब्याह करने न करनेकी आज्ञा करना चाहिए और समाजको उसकी परिस्थिदेनी चाहिए । ५ जिन कारणोंसे विधवा स्त्रियोंको फिरसे लिए विधवाश्रम खोलने चाहिए। इन आश्रमोंमें ब्याह करनेकी इच्छा होती है, उन्हें मिटाने के विधवाओंका पालन-पोषण भी होगा, आत्मबल और संयमकी शिक्षा भी मिलेगी और पारस्परिक होगा। इन आश्रमोंपर उच्च श्रेणीकी ब्रह्मचारिणसहवास, सहानुभूति और आश्वासनों का भी लाभ की बहुत ही कड़ी-बहुत ही कठोर देखरेख होनी चाहिए और ऐसी शिक्षा देनेका प्रबन्ध होना चाहिए जिससे ये निःस्वार्थ सेविकाओंके समान समाजकी सहायिका बन सकें । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनोंकी वर्तमान दशा । ६ नये नियमों की सृष्टि करनेकी इच्छा रखनेवाले समाजको यह बात स्मरण रखना चाहिए कि ऐसे कोई भी सुधार न कभी हुए हैं और न होंगे जिनसे केवल लाभ ही होता हो, किसी 'प्रकार की परोक्ष हानि बिलकुल ही न होती हो । यदि हम अपनी आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए कोई ' सुधार ' कर रहे हों और उसमें कोई परोक्ष हाज़र आती हो-जो कि बिलकुल स्वाभाविक और अनिवार्य हैतो इससे हमें निराश या हतोत्साह न हो जाना चाहिए | जीवन एक युद्ध है । इस युद्धमें बलवान् पक्ष भी चोट खाये बिना विजय प्राप्त नहीं अतः 1 कर सकता । इन सब बातों पर ध्यान रखकर स्त्रीवर्गको समाका सुखी, बलवान्, पवित्र और उपयोगी अंग बनानेका प्रयत्न करना चाहिए । इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है । जिस समाजका लगभग आधा भाग दुखी, निर्बल, अज्ञान, भाररूप, निरूपयोगी, शाप देनेवाला और उसाँसें लेनेवाला है, कैसे आशा की जा सकती है कि वह समाज कभी व्यवहारमें या धर्ममें ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकेगा ? । ये सारे विचार मेरे मस्तिष्क में केवल पाँच मिनिटके भीतर उत्पन्न हुए थे। जिन विचारोंके लिखने या प्रकट करनेमें घंटों लग जाते हैं, उनके उत्पन्न होनेमें कुछ ही मिनिट लगते हैं मेरे मित्र डाक्टर साहब अभी तक मूर्च्छित ही थे । अब मैंने उनकी आँखोंपर ठंडे जलके छींटे डाल कर उन्हें सचेत किया और उनसे उस दृश्यका वर्णन सुना जो उन्होंने अपनी मूर्च्छि-तावस्थामें अनुभव किया था । उन्होंने देखा था कि हज़ारों बालाओं, माताओं और विधवाओंकी एक पड़ी भारी फौज़ बड़े भारी वेगसे पुरुषोंकी ६३ ओर दौड़ी हुई जा रही है और भयंकर शब्द करती हुई उनपर टूटी पडती है । यहाँ उ दृश्यका पूरा वर्णन करना मैं उचित नहीं समझता । मुझे आशा नहीं कि पाठक उसे मेरे मस्तिष्क के विकारको छोड़कर और कुछ समझेंगे;- यद्यपि मैं उसे एक प्रकारकी भविष्यवाणी समझता हूँ। क्योंकि मुझे प्रकृतिका यह नियम और इतिहासका यह पाठ बिलकुल सच जान पड़ता है कि “जिस समय राजा बहुत ही स्वेच्छाचारी और अत्याचारी हो जाता है उस समय प्रजामें न जाने कहाँसे एक अकल्पित बल आ जाता है । वह बलवा मचा देती है और अपने कंधे परसे राजाकी अमर्यादित सत्ताके जूएँको तोड़-मरोड़ कर फेंक देती है । " मैंने कहा - "डाक्टर साहब, अब उस भयंकर दृश्यको भूल जाओ । संसार दुःखपूर्ण है । इन दुःखों को देखकर स्वयं दुखी होना कोई वीरताका काम नहीं है । बुद्धिशाली दृष्टा वह है जो दुःखोंसे जुदा रहकर उनका अवलोकन करता है और उनमेंसे नवीन ज्ञान और नवीन शक्ति प्राप्त करता हैं । तुम रुपये पैसे खर्च करके कल्पित नाटक और तमाशे देखा करते नाटक जो हम दोनोंने अभी देखे हैं क्या कम हो, पर सच कहो अपने समाज के ये दो सच्चे दर्शनीय और आकर्षक हैं ? चलो, अब मैं तुम्हें उक्त दोनों नाटकोंसे भी अधिक दर्शनीय एक और नाटक दिखलाता हूँ । देखो, उस ओर गणेशजीके बाहन श्रीमान् मूषक महाराज - अपने गहन शास्त्रोंका अध्ययन कर रहे हैं ! [ शेष आगे । ] * जो ** जैनहितैषी के इस नये शरीर के लिए शृङ्गार या मुखपृष्ठ मेरी सम्मतिसे तैयार करवाया गया है उसका भाव समझानेके लिए For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRIMILAIMIMARATHI ६४ जैनहितैषी एक लेखकी आवश्यकता समझी गई और तद्- करता । साथही मैं इस प्रकारकी अस्वाभाविक नुसार यह लेख सम्पादक महाशमकी प्रेर- इच्छा भी नहीं रखता कि मेरे विचारोंको सब णासे लिखा गया । इसके सम्बन्धमें कोई मान ही लेंगे। मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि मैं यह प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मैं किसी मेरे विचारोंको पाठक अच्छी तरहसे सुनें और पंथ या फिरकेका नहीं किन्तु सत्यका अनुयायी समझें मानना न मानना उनकी मर्जी पर है।। हूँ। सुधारकोंकी किसी सभा सुसाइटीका मैं मैं इस प्रकारकी मूर्खतापूर्ण आशा कदापि मेम्बर नहीं। वर्तमानमें जिन्हें लोग सुधारक नहीं रखता कि मेरे या किसीके एक लेख कहते हैं उनका भक्त या अनुगामी भी मैं नहीं मात्रसे समाजसुधार हो जायगा । समाज हूँ । मेरी समझमें इन सुधारकोंकी बुद्धिमें में विचारवातावरण फैले, बुद्धिपूर्वक विचार गहराई और हृदयमें शुद्धभाव बहुत ही कम करनेकी शक्ति बढ़े, सिर्फ यही मेरा लक्ष्य होता है । मैं अपने अनुभवसे अभ्याससे, और बिन्दु है । इस लेखका शेषभाग आगेके अंकमें सदसद्विवेक बुद्धिसे सत्यके जिस अंशको पाता पूरा किया जायगा । तब तक पाठकोंको चाहिए हूँ, अथवा मुझे जो कुछ सत्य मालूम होता है कि वे चित्रका शेष भाग-विशेषकर नीचेका उसे स्पष्ट शब्दोंमें प्रकट कर देता हूँ। मेरे भाग क्या सूचित करता है, इसका अपने स्वतंत्र विचार किसीकी समझमें आवें या न आवे, प्रयत्नसे विचार करें और अपने बुद्धिबलको अच्छे लगे या न लगें, इसकी मैं परवा नहीं बढ़ावें । -लेखक। नये वर्षका निवेदन । इस अंकके साथ जैनहितैषीका नया वर्ष शुरू पाठक प्रसन्न होंगे और वे इसे जैनसमाजके होता है। पूर्व सूचनाके अनुसार इसके आकार- गौरवका कार्य समझकर हमारी यथेष्ट सहायता प्रकारमें बहुत सा परिवर्तन किया गया है। करेंगे । हमको आशा है कि इस वर्ष कुछ आशा है कि पाठकगण इस परिवर्तनको पसन्द अधिक ग्राहक मिल जायेंगे और उनसे हमारा करेंगे और इसे स्थायी बनाये रखनेके लिए काम चल जायगा । यदि हितैषीका ख़र्च ही हमारा हाथ बँटाते रहेंगे। उसके ग्राहकोंसे चल गया, अथवा अधिकसे अधिक सौ दो सौका घाटा भी रह गया (क्यों हितैषीकी ग्राहकसंख्या इतनी कम है कि कि इससे अधिक घाटा उठानेकी हमारी शक्ति उसके भरोसे-ऐसे समयमें जब कि कागज़ नहीं है ) तो यह हमारे संतोषके लिए यथेष्ट स्याही आदिके चार्ज खूब बढ़ रहे हैं-यह परि- है। इतनेहीसे हम इसके वर्तमान आकारको वर्तन हम कदापि नहीं कर सकते यदि हमें स्थायी कर देंगे। यह विश्वास न होता कि इस आकार-प्रकारसे For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TITIATIO mmmmmmmIII नये वर्षका निवेदन । हितैषीकी लेख-संकलन-शैलीमें भी एक आदि धर्मोके परिचय, पाश्चात्य तत्त्वज्ञानियोंके महत्त्वका परिवर्तन किया गया है और इससे विचार, भारतीय इतिहाससम्बन्धी नई नई अब इसका विचार-क्षेत्र बहुत विशाल बन खोजें, साहित्यकी आलोचनायें, मनोरंजक गल्में गया है। अभीतक जैनसमाजके-विशवकर उपन्यास आदि सभी विषयोंका ज्ञान इन लेखोंके दिगम्बर सम्प्रदायके जितने पत्र निकलते हैं द्वारा बढ़ाया जायगा। प्रायः उन सबके विचारोंकी सीमा केवल जैनधर्म, जैनसहित्य और जैनसमाज तक ही परि- ज्ञानविस्तारके साथ साथ हम यह भी चाहते मित है; इस क्षेत्रके बाहर वे शायद ही कभी हैं कि हमारे पाठक स्वतंत्र विचार करना सीखेंकदम बढ़ाते हों। उनकी इस शैलीको हम केवल दूसरोंके ही अनुगामी न बने रहें । इसके बुरा नहीं समझते हैं। कमसे कम किसी समाज- लिए यह आवश्यक है कि जब किसी विषयकी को जगानेके लिए शुरू शुरूमें तो यह शैली चर्चा उठे, कोई आन्दोलन शुरू हो, तब उस अवश्य ही लाभदायक है, परन्तु गत २५ विषयकी अनुकूल और प्रतिकूल दोनों बाजुयें वर्षों में जैनसमाजकी जितनी प्रगति और बौद्धिक पाठकोंके सन्मुख रक्खी जायँ । ऐसा करनेसे उन्नति हुई है, वह हमें इसीमें सन्तुष्ट नहीं रख पाठक प्रत्येक विषयको दोनों दृष्टियोंसे देख सकती--अब वह अपनी परिमित सीमासे बाहर सकेंगे और तब अपना स्वतंत्र विचार स्थिर कर क्या है सो भी जाननेके लिए उत्कण्ठित करती सकेंगे। हम किसी एक पक्षके नहीं किन्तु है । वह कहती है कि केवल घरके भीतरकी 'सत्य' के अनुयायी हैं और मनुष्यमात्रको इसी बातें जान लेनेसे ही घरका पूरा और सुनिश्चित 'सत्य' धर्मका अनुयायी होना चाहिए । संभव ज्ञान नहीं हो सकता—इसके लिए बाहरके है कि एक पदार्थको हमने जिस रूपमें देखा ज्ञानकी भी आवश्यकता है । बाहरके ज्ञानसे है, वह वैसा न हो; क्योंकि हम छद्मस्थ हैं घरकी खूबियाँ और भी अच्छी तरह समझी और हमसे प्रतिकूल विचार रखनेवालेने उसे जा सकती हैं। केवल घरमें ही घुसे रहनेसे वास्तविक रूपमें देखा हो-उसके ज्ञानका उलटा नुकसान होनेका डर रहता है। क्षयोपशम विशेष हो गया हो। ऐसी दशामें संभव है कि बाहरकी ओरसे आँखें बन्द किये क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि हम अपनेसे रहनेवाला मनुष्य बाहरको बिलकुल ही भुला दे विरुद्ध विचारोंको भी प्रकाशित करें और इस और यह समझ बैठे कि बाहर कुछ है ही तरह लोगोंको 'सत्य' की प्राप्तिका मार्ग प्रशस्त नहीं-अथवा बाहर जो कुछ है सभी बुरा है। कर दें ? इसी कर्तव्यके अनुरोधसे जैनहितैषीमें अब हमारा समाज इस योग्य हो चला है कि ऐसे भी लेख प्रकाशित होंगे जिनसे सम्पादक बाहरसे भी ज्ञान सम्पादन करे और उससे सहमत नहीं है अथवा जिनसे वह स्वयं विरुद्ध अपनी भीतरी दशाका सुधार करे । इस ख़या- है-शर्त यह है कि वे अच्छे विचारशील और लसे जैनहितैषीमें जैनजगतसे बाहरके लेख भी निष्पक्ष विद्वानोंके लिखे हुए या प्रकट किये हुए प्रकाशित किये जायेंगे । प्रसिद्ध प्रसिद्ध देशी होना चाहिए । अतः पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे विदेशी स्त्री पुरुषोंके जीवनचरित, वैज्ञानिक जैनहितैषीके किसी लेखको पढ़कर यह विश्वास खोजें, ईसाई, जरथोस्त, बौद्ध, कनफ्यूसिस न कर लें कि उसके विचारोंसे सम्पादक सहमत For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ है; इसी प्रकार यह भी न समझ लें कि वह उनसे विरुद्ध है । विरुद्ध और अविरुद्ध इन दोनों बातोंका ख्याल न रखके पाठकोंके ज्ञानविस्तारके उद्देश्यसे सब लेख प्रकाशित होंगे । यहाँ यदि हम अपने पाठकोंसे सहनशीलता - मतसहिष्णुता रखनेके लिए प्रार्थना करें तो अनुचित न होगा । उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसीके एक लेखसे या एक विचारसे साधारणजनताका कोई विश्वास या विचार बदला नहीं जा सकता है । लेख कोई जर्मन - की प्रलयंकरी तोप नहीं है जो एक ही फायरमें किसी विश्वास के किलेको धाराशायी कर दे | इसके सिवाय जो लोग किसी ऐसे लेखको पढ़ते हैं वे उसके विरुद्ध लेखों और विचारोंको भी तो पढ़ते सुनते रहते हैं । अतः किसी विरुद्धविचारपूर्ण लेखसे उत्तेजित हो जाना, अधीर हो जाना या उसके प्रकाशकको शत्रु समझने लगना कदापि उचित नहीं है । उचित यह है कि ऐसे लेखोंको पढ़कर विचार किया जाय और यदि उनमें दोष मालूम हों तो उनकी विरुद्ध आलोचना लिखी जाय या लिखवाई जाय । * * जैनहितैषी * मनुष्य के जीवन में मुख्य चीज़ उसका चरित्र है | चरित्र से बढ़कर कोई भी बहुमूल्य चीज़ नहीं है । जीवनकी सफलता असफलता एक मात्र चरित्र पर निर्भर है । चरित्रसे ही मनुष्यकी प्रतिष्ठा । धनमें इतनी शक्ति नहीं जितनी चरित्रमें है । चरित्रका प्रभाव अद्भुत है । जैसे सूर्यका प्रकाश छोटे छोटे छेदोंमेंसे होता है वैसे ही छोटी छोटी बातोंसे मनुष्यके चरित्रका अनुमान किया जा सकता है। छोटे छोटे कामोंको अच्छी तरह करनेसे ही चरित्र निर्माण होता है और यह प्रति दिन होता रहता है । चरित्रगठनके इस अंक में दो सुन्दर चित्र प्रकाशित किये जाते हैं। ये हमें 'महावीरजीवनविस्तार' नामक सुलिखित गुजराती पुस्तकके प्रकाशक श्रीयुक्त मेघजी हरिजकी कृपासे प्राप्त हुए हैं । इनमें से एक चित्रका परिचय पाठकोंको श्रीयुक्त पं० गिरिधर शर्माकी ' महावीर और स्वावलम्बन ' नामक कवितासे मिलेगा और दूसरेका भक्तामर स्तोत्रके पन्द्रहवें पयसे । पहला चित्र श्वेताम्बरसम्प्रदायकी एक ऐसी कथाके आधार पर बनाया गया है जो बहुत ही शिक्षाप्रद है। और जिससे तीनों सम्प्रदायके अनुयायी लाभ उठा सकते हैं । हम चाहते हैं कि हितैषी के प्रत्येक अंकमें इस प्रकार के चित्र प्रकाशित हों; परन्तु इस तरह के प्रत्येक चित्रके बनवाने और प्रकाशित करनेमें लगभग ३५-४० रुपये खर्च होते हैं और इतना खर्च - तब किया जा सकता है जब हितैषीकी आर्थिक अवस्था अच्छी हो और उसे सन्तोषयोग्य ग्राहक मिल जायँ । यदि हो सका तो हम आगामी अंकोंमें इस प्रकारके और भी दो चार चित्र प्रकाशित करका प्रयत्न करेंगे। * लिए किसी विशेष कार्य और विशेष समयकी आवश्यकता नहीं । किसी मनुष्यके चरित्रकी सबसे अच्छी पहिचान यह है कि वह दूसरोंके साथ किस तरह व्यव - हार करता है । यदि वह उन्हें आदर और प्रेमी देखता है, उनके साथ यथायोग्य व्यवहार करता है तो समझना चाहिए कि वह अपने चरित्रको 'सुधार रहा है । दूसरेके साथ व्यवहार करनेसे दूसरोंको भी हर्ष होता है और स्वयं अपनेको भी। इसमें कुछ खर्च भी नहीं होता । ( स्माइल्स ) For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्बई में भारत जैन महामण्डल । पाठकों को इस मण्डलका विशेष परिचय देनेकी आवश्यकता नहीं । यह सबसे पहली जैनसंस्था है जो दिगम्बर - श्वेताम्बर और स्थानकवासी इन तीनों सम्प्रदायोंको समान दृष्टिसे देखती है और तीनोंका समानरूपसे हित चाहती है । इसका यह उद्देश्य बहुत ही विशाल है और इस कारण इसके प्रति हमारी पूर्ण सहानुभूति है । हम चाहते हैं कि हमारे उक्त तीनों सम्प्रदायोंमें जो पारस्परिक द्वेष बढ़ रहा है उसको शमन करनेका यश इस मण्डलको मिले, इसके प्रयत्नसे तीनों सम्प्रदाय एक - ताके सूत्रमें बँध जाएँ और जैनजाति अपनी उन्नति करनेमें समर्थ हो । इस मण्डलको स्थापित हुए १६ वर्ष हो चुके । पहले इसका नाम जैनयंगमेन्स एसोसियशन था जो पीछे कई विशेष कारणों से बदल दिया गया और अब यह आल इंडिया जैन एसोसियेशन या भारत जैन महामण्डल के नामसे अभिहित होता है । पहले इसमें दिगम्बरसम्प्रदायके ही नवयुवक शामिल थे और उन्होंने इसे स्थापित किया था; परन्तु अब इसमें तीनों सम्प्रदाय के शिक्षित- विशेष करके अँगरेज़ी पढ़े हुए - योग देने लगे हैं । मन्दगति से - प्रायः नहींके ही बराबर चल रहा है । अँगरेज़ी जैनगजट और जीवदयाविभाग ट्रैक्टोंको छोड़कर और कोई काम ऐसा नहीं है जिससे मण्डलके अस्तित्वका भी पता लग सके । अपनी १६ वर्षकी लम्बी आयुमें हम देखते हैं कि उसने कोई भी उल्लेखयोग्य कार्य नहीं किया है । और तो क्या उसके अधिवेशन भी प्रतिवर्ष नहीं हो सकते हैं । बम्बईका यह अधिवेशन भी कई वर्षोंके बाद हुआ है । शिक्षित कहलानेवालोंकी इतनी बड़ी - 'महा' - नामधारिणी संस्थाकी यह अलसता और अकर्मण्यता देखकर बड़ा खेद होता है और जैनजातिका निराशामय भविष्य और भी गाढ़ अंधकार से व्याप्त दिखलाई देता है | अबकी बार महामण्डलका अधिवेशन देखनेका सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ । बम्बई में कांग्रेस आदि महती सभाओं की धूमधामके कारण मण्डलने अपना अधिवेशन भी इसी मौकेपर कर डालना निश्चय किया । तदनुसार ता० ३० और ३१ दिसंबर को यहाँके एम्पायर थियेटर के सुन्दर भवनमें मण्डल की दो बैठकें हो गई । सभापतिका आसन श्रीयुक्त खुशालदास बी. ए. बी. एस. सी. बैरिस्टर एट-लाने सुशोभित किया था और स्वागतकारिणीके सभापति श्रीयुत मकनजी जूठा बैरिस्टर हुए थे । जैनसमाजमें अँगरेज़ी पढ़े-लिखे लोगोंकी संख्या कम नहीं है । तीनों सम्प्रदायोंमें हम समझते हैं कि ग्रेज्युएट और अंडर ग्रेज्युएटोंकी ही संख्या ५०० के लगभग होगी । मंडल के मेम्बर ही दोसौ से अधिक बतलाये जाते हैं परन्तु हम देखते हैं कि मण्डलका कार्य बहुत ही हम पहले कह चुके हैं कि महामण्डल के प्रति हमारी पूर्ण सहानुभूति है और हम उसकी हृदयसे उन्नति चाहते हैं; परन्तु सहानुभूतिका मतलब यह नहीं है कि हम उसकी प्रशंसा ही कि । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी जायँ । नहीं; सहानुभातिके कारण उसके दोषों- बिलकुल नहीं था बाहरसे प्रतिनिधि भी नहीं की आलोचना करना भी हम अपना कर्तव्य स- बुलाये गये थे, तो भी कानूनके आचार्योंने मझते हैं । अतः इस लेखमें हम मण्डलकी इसे सारे भारतके जैनोंकी कान्फरेंसका रूप दे उन बातोंकी आलोचना करना चाहते हैं जिन दिया, स्वागतकारिणी कमेटी बनाई गई और पर ध्यान देना उसके संचालकोंके लिए बहुत जिनका मण्डलसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं था, आवश्यक है। ऐसे लोगोंकी सब्जैक्टकमेटी बनाई गई। बम्बईमें । वास्तवमें उसमें मण्डलके मेम्बरोंको छोड़कर तीनों सम्प्रदायोंके जैनोंकी टसरे लोगोंको 'बोट' देनेका आधिकार ही न संख्या ३० हज़ारसे भी अधिक समझी जाती , है । इनके सिवाय इस समय कांग्रेस आदिके होना चाहिए था । इस सब्जैक्टकमेटीकी बैठकमें ६. जो तमाशे हुए, शिक्षितोंकी जो लीलायें देखनेमें कारण बाहरसे भी सैकड़ों सज्जन आये हुए थे। ऐसी अवस्थामें मण्डलके अधिवेशनमें ७०० आई वैसी तो शायद ही कहीं दिखलाई दें। ८०० से अधिक आदमियोंकी उपस्थिति न मण्डलके कार्यकर्ताओंने जैनहितेच्छुके सम्पाहोना बतलाता है कि मण्डलकी जनसाधारणमें दक श्रीयुक्त बाडीलालजीको एक पत्र लिखा था। बहुत ही कम प्रसिद्धि है । अपने १६ वर्षके उसमें उन्होंने बम्बईमें अधिवेशन करनेकी इच्छा लम्बे समयमें वह अपनी प्रसिद्धि भी जैसी प्रकट की थी और लिखा था कि जेलमें बिना चाहिए वैसी नहीं कर सका है। उसके उद्देश्य अपराधके कष्ट भोगनेवाले पं० अर्जुनलालजी लोगोंका समझाये नहीं जाते हैं, इस कारण सेठी बी. ए. के विषयमें खास तौरसे इस अधिलोगोंका उसकी ओर प्रेमभाव नहीं है । श्वेता- वेशनमें विचार किया जायगा। श्रीयुक्त बाडीम्बर और स्थानकवासी भाई तो उससे बहुत ही लालजी आजकल ऐसे कामोंसे कुछ उदास कम परिचित हैं। अच्छे अच्छे शिक्षित भी रहते हैं; परन्तु सेठीजीके लिए कुछ उद्योग उसके विषयमें बहुत कम जानकारी रखते हैं। होगा और उन्हें न्याय मिलेगा इस खयालसे हम मानते हैं कि इसमें लोगोंडी टासीनता उन्होंने मण्डलके कार्यमें योग देना स्वीकार अज्ञानता और साम्प्रदायिक द्वेष भी कारण किया। इसके बाद उन्हें सभापतिका चुनाव हैं, तो भी मण्डलके कार्यकर्ता अपने प्रयत्नकी करनेके लिए लिखा गया और उन्होंने सेठीजीके शिथिलताके दोषसे नहीं बच सकते । वे चाहते कार्यकी महत्ता समझकर मि० खुशालदासशातो अपने आधिवेशनमें लोगोंकी संख्या इससे हको इस कार्यके लिए सुयोग्य बतलाया और अधिक एकत्रित कर सकते थे। " मि० शाहके उत्साहपूर्वक स्वीकार करनेपर कार्यकर्ताओंको स्वीकारता भेज दी । श्रीयुत ___ महामण्डलके इस अधिवेशनके कार्यकर्ता- बाडीलालजीने समझा था कि मि० शाह जैसे ओंमें कानून जाननेवाले वकील बैरिष्टरोंकी संख्या विद्वान हैं वैसे ही विचारक और साहसी भी खूब थी, तो भी इसमें बे-कानूनी कार्रवाइयाँ है; परन्तु उनका यह समझना केवल भ्रम था। इतनी हुई हैं जितनी साधारण लोगोंकी सभा- सब्जैक्टकमेटीमें जब सेठीजीका प्रस्ताव उप ओंमें भी नहीं होती हैं। मण्डलका यह एक स्थित किया गया, तब मि० शाहने स्वयं उसे वार्षिर्क अधिवेशन था-इसमें प्रतिनिधि-तत्त्व पढ़कर सुना दिया और न जाने क्या समझकर For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भारत जैन महामण्डल | कह दिया कि इस प्रस्तावको सभाके समक्ष उपस्थित करनेके लिए कोई तैयार नहीं होता है, इस कारण यह रद किया जाता है । इस पर श्रीयुत बाडीलालजीने कहा - " यह बिलकुल झूठ है । प्रस्ताव उपस्थित करनेके लिए अमुक महाशय - जो कानूनके आचार्य हैं - तैयार हैं, और यह सभापतिको तथा दूसरे अगुओंको मालूम है । फिर मालूम नहीं, यह प्रस्ताव क्यों रद किया जाता हैं । " इस पर सभापतिने और कई बहाने पेश किये; परन्तु जब उन सबका उचितं उत्तर दिया गया, और दूसरा कोई अच्छा बहाना न मिला, तब उन्हें कहना पड़ा कि “ थोड़े ही दिन पहले मुझे थोड़े समय के लिए एक सरकारी नौकरी मिली है, इसलिए मेरे सभापतित्वमें इस प्रस्तावको पास कराके क्या आप मुझ स्वधर्मीको हानि पहुँचाना पसन्द करते हैं?” इस पर बाडीलालजीने कहा कि, "सरकारी नौकरोंको डरनेकी तो इसमें कोई बात नहीं है । मि० अजितप्रसादजी आदि कई सरकारी नौकरोंने इस कार्यमें प्रकटरूपसे योग दिया है, यह सब जानते हैं । इसके सिवाय जब आरा और देह - ली - केस के फैसले हो चुके हैं और उनपरसे जब हमें कानून जाननेवाले विश्वास दिलाते हैं कि सेठीजी पर कोई भी अपराध साबित नहीं हो सकता है, तब, एक जैनकी दृष्टिसे नहीं तो एक मनुष्यकी ही दृष्टिसे और ब्रिटिश राज्यकी कीर्ति बढ़ानेके लिए, ‘ सेठीजीका मुकद्दमा चलाया जाय और अपराध हो तो उन्हें उचित दण्ड दिया जाय, नहीं तो वे छोड़ दिये जायँ' सरकारसे केवल इतनी सी प्रार्थना करनेका प्रस्ताव करना तो कुछ अनुचित नहीं है । और यदि अनुचित ही है, तो इसका विचार पहले ही हो जाना था । सभापति महाशय इस प्रस्तावके पहले हीसे जानकार थे । उन्होंने उसी समय इसे रद ६९ करेनकी सम्मति क्यों न दी, अथवा यही क्यों न कह दिया कि यदि तुम्हें प्रस्ताव पेश करना हो तो दूसरा सभापति ढूँढ़ लो ? बम्बई जैसे जैनोंसे भरे हुए शहरमें यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि मण्डलके सभापति होने के योग्य कोई पुरुष मिलता ही नहीं । यदि इस बातका इशारा पहले ही कर दिया गया होता, तो यह बात इतनी बढ़ती ही नहीं; पर ख़ैर अब भी एक उपाय है जिससे सारी कठिनाईयाँ दूर हो सकती हैं । कलकी बैठक में अन्य सब प्रस्तावोंके पास हो चुकने पर सभापति महाशय सभास्थान छोड़कर चले जावें और हम लोग दूसरे सभापतिको नियत करके सेठजीके प्रस्तावको पास कर डालें । ” यह उपाय सारी कमेटीको पसन्द आ गया; परन्तु सभापति महाशयने इसे नहीं माना, वे उसी समय स्तीफा देनेके लिए तैयार हो गये । उन्होंने सोचा मेरी इस धमकीसे शान्तिप्रिय जैन दब जायँगे और मुझे अपना पद त्याग करना न पड़ेगा । इस पर बड़ा शोरो गुल मचा, निदान श्रीयुत बाडीलालजीने दरख्वास्त पेश की कि इस विषयमें सब लोगों के बोट लिये जायँ । बोट लिये गये जिनमें ३५ मत सेठीजीका प्रस्ताव पेश करनेके अनुकूल और ६ विरुद्ध रहे और तब सभापतिको अपना पद छोड़ देना पड़ा ! इसके बाद जो हुआ वह शायद अशिक्षितों की सभामें होता तो भी निन्दनीय समझा जाता ! बाडीलालजीने अपनी दरख्वास्त वापस नहीं ली, तो भी एक महाशय की प्रार्थनासे जिन्होंने कि सेठजीके अनुकूल बोट दिया था - मि० खुशालदास फिर अपने छोड़े हुए पद पर आ बैठे और उन्होंने सेठीजीके प्रस्तावकी अपनी निर्दय कलमसे हत्या कर डाली ! लोग देखते ही रह गये 1 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी सभापति महाशयका ' व्याख्यान, कहा समय दुम दबाकर भाग जाना, यह क्या साहसी जाता है कि बड़ी स्वतंत्रताके साथ हुआ और सिंहोंका काम है ? शिक्षितोंमें इस प्रकारकी उसे लोगोंने बहुत पसन्द किया । इस व्याख्या- भीरुता और दुर्बलता देखकर बड़ी ही निराशा नमें साधुसम्प्रदायकी निन्दा करते हुए आपने हाता है। कहा कि “जैनसाधु मेरे जूते उठानेके भी मण्डलका आठवाँ प्रस्ताव यह था-"जैनसायोग्य नहीं हैं।" यद्यपि पीछेसे कह दिया हित्य और तत्त्वज्ञानका प्रकाश किया जाय और गया था कि 'कितने ही साधु ऐसे हैं,' तथापि इस विषयमें कुमार देवेन्द्रप्रसादजीने जो प्रशंसयह कथन अज्ञानियोंको शान्त रखनेकी कला- नीय उद्योग किया है उसके लिए उन्हें धन्यवाद के सिवाय और कुछ नहीं था । श्वेताम्बर और दिया जाय ।" सब्जेक्ट कमेटीमें जब उक्त प्रस्थानकवासी सम्प्रदायमें साधुओंकी संख्या बहुत स्ताव उपस्थित हुआ, तब अनावश्यक बतलाकर . है और उनका समाज पर बड़ा प्रभाव है। इसका विरोध किया गया और वह रद कर दिया ऐसे प्रभावशाली और पूज्य समझे जानवाले गया । इसके बाद दो तीन बार फिर भी इसकी समूहके विषयमें इतना खुला प्रहार करना बत- चर्चा उठाई गई, परन्तु फल कुछ न हुआ-कमेटीके लाता है कि सभापति महाशय बड़े स्पष्टवक्ता सामने ही प्रस्तावोंकी सूचीमेंसे उक्त प्रस्ताव अ और साहसी हैं । व्याख्यान सुनकर हमारा भी लग कर दिया गया। इतना होने पर भी दूसरे यही ख़याल हुआ था; परन्तु रातकी सब्जैक्ट- दिन जो छपी हुई प्रस्तावमालिका वितरण की कमेटीमें जब सेठीजीके प्रस्तावकी ऊपर लिखे गई, उसमें उक्त प्रस्ताव मौजूद था और उसके अनुसार हत्या की गई, तब हमारा हृदय कह अनुमोदकोंमें श्रीयुक्त बाडीलालजीका नाम छपा उठा कि क्या इसीको साहस कहते हैं ? जो स्वयं हुआ था! बाडीलालजीने सभामें उपस्थित हो बैरिस्टर हैं, जानते हैं कि सेठीजीके सम्बन्धमें कर कहा-"मुझे बड़े अफसोसके साथ कहना काननके अनुसार प्रार्थना करनेका प्रस्ताव करना पडता है कि यह प्रस्ताव कानूनके विरुद्ध पेश कोई अपराध नहीं है, जो इस प्रस्तावके कर- किया गया है और मझसे पूछे विना ही इसके नेका वचन पहलेहीसे दे चुके थे, सारी सब्जैक्ट अनुमोदकोंमें मेरा नाम दे दिया गया है। यद्यपि कमेटीने जिनसे इस प्रस्तावके लिए आग्रहपूर्वक साहित्यसम्बधी प्रत्येक प्रस्तावका मैं हृदयसे अप्रार्थना की थी, वे केवल इस तुच्छ खयालसे-कि नुमोदक हूँ ; परन्तु कानूनके विरुद्ध कार्य करना कहीं सरकार मुझसे अप्रसन्न न हो जाय-डर गये! मुझे पसन्द नहीं है । शिक्षितोंकी सभामें ये अशिउन्होंने वचन भंग किया, कानून तोड़ा, सब्जै- क्षितोंके समान कार्रवाइयाँ होते देखकर मुझे क्टकमेटीकी इच्छानुसार प्रस्ताव पेश करनेका बड़ा ही दुःख होता है।" हमारी समझमें यह नहीं कर्तव्य भुला दिया और सारे जैनोंकी आशा- आया कि जब साहित्यप्रकाशकोंको उत्तेजन को धूलमें मिला दिया, क्या यह साहसका चिह्न देनेका ही प्रस्ताव करना था तब उसमें केवल है ? बेचारे निरीह निष्कर्मा साधुओंपर तो सोटे- एक ही संस्थाकी या एक ही व्यक्तिकी प्रशंसा की जगह तलवार खींचना और सरकारके क्यों की गई ? क्या देशभरमें और कोई भी सामने उचित प्रार्थना-नम्र निवेदन-और वह संस्था या पुरुष साहित्यकी सेवा करनेवाला नहीं भी हज़ारों जैनोंके साथ मिलकर-करनेके है ? काशीकी यशोविजय ग्रन्थमाला, भाव For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALANATIMILLLLLLLAHABALLIATERIALUIRY 4SE बम्बईम भारतजैन महामण्डल iummTRYIRI UTTRO नगरकी जैनधर्मप्रसारक सभा, बम्बईका देव- यह नाटक देखते हुए बड़े धैर्यके साथ अन्ततक चन्द लालचन्द पुस्तकोद्धार फण्ड, काशीकी बैठे रहे ! उस दिन कई सज्जनोंकी ओरसे जब जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, निर्णयसागर बहुत ही जोर दिया गया तब दूसरे दिनकी प्रेस, आदि संस्थाओंने क्या जैनसाहित्यकी सभामें गुजराती हिन्दीकी कुछ सुनाई हुई । कुछ कम सेवा की है, जो उनका नामोल्लेख भी बम्बईकी पचरंगी प्रजाके सामने माननीय पं० न किया गया और दो चार पुस्तकें छपाने- मदनमोहन मालवीय जैसे अँगरेज़ीके सुवक्ताने वालोंकी प्रशंसा की गई ? हम बाबू देवेन्द्र. तो अभी उस दिन हिन्दीमें व्याख्यान दिया प्रसादजीके उद्योगकी स्वयं प्रशंसा करते हैं जिसमें हिन्दू यूनीवर्सिटीके चन्देके काममें और उनके कार्यको प्रेमकी दृष्टिसे देखते हैं; अच्छी सफलता प्राप्त हुई; परन्तु हमारे जैनशिक्षिपरन्तु नये नये और अल्प कार्यके लिए तो तोंने अपने गुजराती-हिन्दीभाषाभाषी भाइयोंकी खास प्रस्ताव किया जाय और दूसरे बहुत सम- सभामें अँगरेजी भाषामें ही बोलना पसन्द किया ! यसे काम करनेवालोंको भुला दिया जाय, जहाँ स्वभाषा और स्वजातिकी इतनी अवहेलसाथ ही सब्जैक्ट कमेटीकी आँखोंमें धूल डाली ना की जाती है, वहाँ सफलताकी आशा जाय, इसे हम कदापि अच्छा नहीं कह सकते । रखना व्यर्थ है ! हमारे समाजके शिक्षित पुरुषोंकी सभी लीलायें इस लेखको समाप्त करनेके पहले, मण्डलने निराली हैं। वे सेवा तो करना चाहते हैं अपने इस अधिवेशनमें क्या क्या कार्य किये जैन समाजकी-जिसमें हजार पीछे पाँच आदमी उन पर हम एक साधारण नजर डाल जाना भी अँगरेज़ी नहीं समझ सकते हैं-पर काम चाहते हैं। करते हैं सात समुद्र पारकी अँगरेज़ी भाषाके पहला दिन तो सभापतिके व्याख्यानमें और द्वारा ! इस विषयमें वे अपने निजत्वको बिल. मण्डलकी रिपोर्ट सुनानेमें समाप्त हो गया कुल ही भुला बैठे हैं। उन्हें अपनी मातृभाषामें जिसका एक भी शब्द साधारण लोगोंकी समबोलना लज्जाकर प्रतीत होता है और यही झमें न आया । रातका २॥ बजे तकका समय कारण है जो उनके द्वारा कुछ भी उल्लेख सब्जैक्ट कमेटीमें गया और सो भी लाभके योग्य कार्य नहीं होता है । मण्डलकी बदले हानिके व्यापारमें ! दूसरे दिन ४ घंटेमें सब्जैक्टकमेटीका और सभाका कामकाज सब मिलाकर १० प्रस्ताव और व्याख्यान हुए ! अँगरेज़ीमें ही हुआ था । प्रारंभसे ही मेम्बरोंकी राजभक्ति और ब्रिटिश-जयकी प्रार्थना, स्वर्गस्थ ओरसे हिन्दी या गुजरातीमें काम करनेकी जैनोंके विषयमें शोकप्रदर्शन, शिक्षाप्रचारके वारवार प्रार्थना की गई; परन्तु उस पर कुछ लिए विद्वानोंकी एक कान्फरेंस होनेकी सूचना, भी लक्ष्य नहीं दिया गया । पहले दिनकी शिक्षासम्बन्धी और अन्य सरकारी रिपार्टी में बैठकका प्रायः सारा काम काज अँगरेज़ीमें जैनोंका जुदा खाना रखनेकी प्रार्थना, तीनों हुआ जिसे देखकर बड़ा ही अफसोस हुआ। सम्प्रदायोंमें एकता रखनेकी सलाह, कुरीतियाँ उपस्थित ७००-८०० आदमियोंमेंसे अधिकसे दूर करनेकी सलाह, जैनसाहित्यप्रचारकी अधिक१००पुरुष ऐसे होंगे जो अँगरेज़ीको अच्छी सलाह, और सभापतिके प्रति कृतज्ञताप्रकाश । तरह समझते हों, शेष लोग अपने शिक्षितोंका दशवाँ प्रस्ताव कार्यरूप था जिसमें जैनोंकी For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHARYAMAMALAIMILBAUMBAIRLINE - जैनहितैषी संख्या कम होनेके कारणोंपर विचार करनेके हैं, केवल मनुष्योंकी ही संख्या कई अरब है; लिए एक कमेटी बना दी गई। ऐसी अवस्थामें एक सेठीजीका या भारतजैनइतना काम काज करनेके बाद यह सुसभ्य महामण्डलका जीना मरना हर्ष या खेदका विषय नाटक मण्डली अपना खेल समाप्त करके बिदा नहीं बन सकता; परन्तु जब सेठीजीको हो गई / नाटक कम्पनियोंको प्रजाके चरित्रके बचानेका प्रयत्न करना हमारे लिए -- इष्ट ' सुधारने बिगड़नेकी चिन्ता बहुत ही कम होती है-कर्तव्य है-हमारे जीवनमरणका प्रश्न है है, लोगोंका मनोरंजन करनेपर ही वे अधिक तब इसके लिए एक भारतजैनमहामण्डल तो ध्यान रखती हैं / इसी तरह मण्डलके एक्टरोंने क्या सारा जैन समाज ही यदि ख्वार हो जाय भी इक बातकी परवा किये बिना कि समाज- हमें परवा न करना चाहिए और अपने प्रयत्नमें हितकी और समाजकी सहानुभूतिकी रक्षा होती लगे रहना चाहिए / मनुष्योंका-और विशेषतः है या नहीं, अपना छह घंटेका खेल समाप्त उन लोगोंका जो जड़वादी नहीं हैं-लक्ष्य कर डाला ! हमारे यहाँ इस तरहके अल्पसंतोषी बिन्दु लाभ-अलाभ या सुख दुःख नहीं किन्तु लोगोंकी कमी नहीं है जो कहते हैं कि चाहे उच्चाशय, कर्तव्य, प्रगति और आत्मविजय होना जो हुआ पर भारतजैनमहामण्डल ' का चाहिए / अभीतक हम आशा कर रहे थे कि अधिवेशन तो निबनताके साथ हो गया ! यद्यपि हमारी जातिके पुराने ख़यालोंके अगुओंमें परन्त वास्तवमें देखा जाय तो हमारा ध्येय आत्म-तेज नहीं है और उनसे कुछ होने जाने अधिवेशन करना ही नहीं है, काम करना है, वाला नहीं है, परन्तु शिक्षितजनोंका ध्यान और वह नहीं हुआ। सेठीजीके प्रस्तावको रद- तो समाजकी ओर जा रहा है, अतः वे इस करके मण्डलने अपनी अकर्मण्यताको और भी कमीको पूरा कर देंगे, किन्तु आज हमारी वह असह्य बना डाला ! हमारी समझमें हमें किसी आशा निराशामें परिणत हो गई-हमारा स्वप्नव्यक्तिके मरने जीनेकी परवा कम करना चाहिए, भंग हो गया-हम आँखें मलते हुए उठकर देखते परन्तु सिद्धान्त या प्रिन्सिपलकी रक्षाके लिए हैं कि- .. खूब दृढ रहना चाहिए / विश्वमें अनन्त जीव पूर्वकी महत्ता सचमुच ही अदृश्य हो गई है / जैनहितैषी। Dunists न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी // For Personal & Private Use Only