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________________ mmmmmmmmm जैनहितैषीTriminimittitititifi दण्डविरमण व्रतके पालक ही शुद्ध सामा- शुद्ध होगा और वे सामायिक करनेके यिक कर सकत हैं। मैं न किसीका सामायिक योग्य बनेंगे । इतना ही करके मत पाठका बोलना बंद करना चाहता हूँ और न ठहरो; किन्तु आजकल अज्ञानतासे लोगोंको जो कोई दो घड़ीके लिए एकान्तमें बैठकर व्रतपालन करना अशक्य और भयंकर आरम्भ समारम्भका परित्याग करता है जान पड़ता है, अतः उनको ज्ञान कराके उसका विरोधी हूँ। मेरा तो केवल इतना इस व्यर्थे खयालको उनके मस्तकमेंसे निकही कहना है कि जिसकी शक्ति और शस्त्र लवाओ, उन्हें व्रतोंका व्यावहारिक स्वरूप परतंत्रताकी बेडीमें जकड़े हुए हैं वह समझाओ और पश्चात् सामायिकके चढ़ते उतआत्मा सामायिकके सदृश क्रियाकारक रते दर्जे बताओ। Active ( न कि निष्क्रिय Passive ) सम' यानी समता-समभाव-चित्तका समव्रतमें कैसे प्रवेश कर सकता है ! जिस तोलपन ( Equilibrium of mind ) बन्दीके हाथ पैर हथकड़ियों और बेड़ियोंसे और 'आय' यानी लाभ । अर्थात् जिससे जकडे हुए हैं वह चाहे तो बन्दी बनाने- आत्माको स्वभावकी प्राप्ति हो उसे सामावालेको मुँहसे गालियाँ दे सकता है; किन्तु यिक कहते हैं । इसको निवृत्ति कहते हैं, तलवार चलानेका कार्य किसी भॉति नहीं तथापि मैं इसकी व्याख्या प्रवृत्तिकी भांति कर सकता। ध्यान, कायोत्सर्ग और सामा करता हूँ। इससे मैं यह बताना चाहता हूँ यिक इन क्रियाओंमें बड़े भारी पुरुषार्थकी . कि सामायिक किसी मुर्दा या निद्रस्थ दशाका आवश्यकता है । ये Active क्रियायें नाम नहीं है, किन्तु शरीर और मनके रोध हैं । अतः जिस आत्माकी शक्ति चारों और विभक्त हो गई है, वह कदापि र करनेकी Acivity क्रिया actionका नाम है। इनको आचरणमें नहीं ला सकता । तथापि स सामायिककी यह व्याख्या मुझे बहुत ही जिनको सामायिक करनेकी इच्छा होती है सुन्दर मालूम होती है:उनसे यह कदापि मत कहो कि ' तुम इसे समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभभाषना। मत करो, किन्तु सामायिक क्रियारूपी बोनी' आरौिद्रपरित्यागः, तद्धि 'सामायिक' व्रतं॥ करनेके पहले, आवश्यक भूमिशुद्धिकी प्राप्तिके सामायिक समताको ( कि जिसमें लिए यथाशक्ति पाँच व्रतोंका अर्थात् हिंसा, झूठ, स्थिति स्थापकता और स्थिरताके गुणोंका कुशील, चोरी और परिग्रहके त्यागका और समावेश होता है ) विकसित करती है, अनर्थदण्डविरमण व्रतका अंगीकार कराओ (और इन गुणोंसे आत्मिक लाभके उपरान्त और छोटेसे लेकर बड़े तक सब कार्योंमें उनका व्यवहारमें भी अकथ्य लाभ होता है), प्राणी आचरण करना सिखाओ । इससे उनका हृदय मात्रमें अपने आपको देखना सिखाती है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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