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________________ ASHIRAIMILAIMARATITIOAALAAMRATIOAMIARY भावना और सामायिकका रहस्य। नमस्का की चंचल और रोगी बना लिया है, जिसने यद्वा स्वादको चखने जायगा जिसका वह हर समय तद्वा, व्यर्थ बोल बोलकर जिह्वाको निकम्मी आस्वादन करता रहा है। हम ऐसे चल चित्त'बनलिया है, या यों समझो कि जिसने अपने वाले व्यक्तिको बे-लगाम घोड़ेका सवार कहेंगे । इन तीनों शस्त्रोंपर जंग चढ़ा लिया है, ऐपा यह तो हमने अभ्यन्तर प्रवृत्तिका विचार मनुष्य ( यथाशक्ति आचरित आठ व्रतों किया; किन्तु क्या बाह्य कायोत्सर्गकी क्रिया द्वारा ) उस जंगको साफ किये विना, भी वह ठीक कर रहा है ? कायाको पीडित सामायिक-जिसमें मन वचन और कायकी कर पाषाणवत् बनानेके लिए और सब प्रकारके जागृति अथवा उग्र शक्तिकी आवश्यकता प्रमादोंको दूर करनेके लिए, जो कायोत्सर्ग पड़ती है-करने बैठा है। यह प्रायः लोग किया जाता है, उसके किसी एक आसनको जानते हैं कि सामायिकमें कायोत्सर्ग करना धारण करने पर भी क्या वह मूर्तिवत् बैठ सपड़ता है। उसने भी कायोत्सर्ग किया है। कता है ? विषयसेवन या अन्य निकम्मे कार्यों के यह भी ठीक है कि उसके कायोत्सर्गके बाह्य द्वारा जिसने अपनी शारीरिक स्थितिका नाश कृत्य सब यथाविधि दिखाई देते हैं । वह कर दिया है वह कदापि मूर्तिवत् न बैठ पद्मासन लगाकर बायें हाथकी हथेली पर सकेगा ।क्षणमें पैर दुखने लगेंगे, कमरमें तकदाहिने हाथकी हथेली टेक नासाग्रदृष्टि लगाये लीफ होगी और क्षणमें दम घुटने लगेगा। बैठा है। किन्तु इस समय क्या वास्तवमें कभी खाँसी चलने लगेगी, कभी डकार आवेगी वह चौरासी लक्ष जीवयोनिसे क्षमा करने और कभी छींक होगी । ये सब रुक ही कैसे करानेका ध्यान कर रहा है ? लोकका स्वरूप सकते हैं जब कि वह उनको अपने और तीर्थङ्करोंके प्रकाशकी कल्पना करनेकी अधिकारमें रखनेवाली शक्तिका पहलेहीसे क्या उसमें शक्ति है ? और क्या वह ऐसा नाश कर चुका है ? क्या बच्चा कभी सहही कर भी रहा है ? उससे पूछो तो सही स्रों रुपयोंके व्यापारका कार्य चला सकता है ? कि इस समय वह किसी चन्द्रवदनीका तब स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है मधुर शब्द तो नहीं सुन रहा है ? या तोड़ोंसे भरी हुई तिजोरी तो नहीं देख रहा है ? कि सामायिक करनेका अधिकारी कौन है ? अथवा अपना नये खरीदे हुए घरका दृश्य यह बात मैं मानता हूँ कि मैं कोई बड़ा भारी तो नहीं देख रहा है ? जो ज्ञानी नहीं, न मैं मानस शास्त्रका ही पारगामी अनर्थदण्डविरति व्रतका पालन न कर- हूँ जिससे इसके लिए कोई नियम निर्माण नेसे-उस व्रतको नहीं समझनेसे— चंचल कर दूं। मैं ज्यादासे ज्यादा यह कर सकता और रुग्ण हो रहा है वह चित्त कदापि हूँ कि सर्व साधारणके सामने अपने विचारोंआज्ञानुसार न चलेगा । वह तो उसी को प्रगट कर दूं। मेरे मतानुसार तो अनर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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