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भावना और सामायिकका रहस्य ।
इंन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रहका अभ्यास कराती है, शुद्ध और शुभ भावनाओंमें रमण करनेकी आदत डलवाकर सूक्ष्म प्रदेशों में विचरना सिखाती है, वाणी और शरीर के व्यापारमें उपयोग रखकर प्रवृत्ति करना बतलाती है । इसका परिणाम यह होता है कि हम बहुतसे अनावश्यकीय संकटोंसे बच जाते हैं । आगे हम सामायिकके भिन्न भिन्न अंगोंका विचार करेंगे:
इस प्रकार पहले पाठमें समर्थ आत्माओंका स्मरण किया, अपनी कल्पना शक्तिके द्वारा उनका दर्शन किया-पश्चात् दूसरे पाठमें हम उनको भावपूर्वक तीनवार नमस्कार करके, उनके प्रति, सत्कार सन्मान पर्युपासन आदि अनेक प्रकारसे भक्ति तथा बहुमान प्रद
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र्शित करते हैं। इससे उनके उच्च गुणोंमें हम तल्लीन होते हैं और उन गुणोंका अंश खींचते हैं।
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सामायिक में सबसे पहले णमोकार मंत्र पढ़ा जाता है । इस मंत्र संसार के सारे उपकारी मनुष्योंका स्मरण होता है। जड़ देहकी बेड़ीसे छूटे हुए सिद्ध, छूटनेकी स्थितिमें पहुँच चुकनेवाले अरहंत, छूटने के इच्छुक, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु इन सबका स्मरण करनेसे इनकी भव्यमूर्तियाँ अपनी कल्पना शक्तिके सामने आजाती हैं । जब यह ज्ञान होता है कि हमारा आत्मा महान् शक्तिशाली आत्माओंकी छायामें - शरणमें आया है तब हममें बहुत कुछ साहस और शान्ति आती है और ४८ मिनिट तक मनको वशमें रखनेके जिस व्रतमें हम बँधते हैं उस व्रतको बराबर पालनेके लिए हम शक्तिशाली होते हैं।
इन कृत्योंसे अपने हृदय स्थलको जोतकरपोलाकर - बोने योग्य बनाकर अगला कर्म जगतमें उद्योत करनेवाले पुरुषोंकी प्रार्थना' किया जाता है। इसमें सागरसदृश गम्भीर 'सिद्धों' से सिद्धि माँगी जाती है । जैनधर्मकी यह महत्त्वाकाँक्षा विशेष ध्यान देने योग्य है । जैनधर्म किसी परमेश्वरकी चापलूसी करके थोड़ी भूमि या कुछ सोने चाँदी के टुकड़े माँगनेका सिद्धान्त नहीं सिखाता; किन्तु यह तो सबको परमेश्वर बननेकी ही महत्त्वाकाँक्षा करनेकी प्रेरणा करता है । इस धर्मकी प्रार्थना सेवकाईकी या किसी करद राजाकी पदवी प्राप्त करने के लिए नहीं है; किन्तु जिनकी प्रार्थना की जाती है उन महाराजके तुल्य महाराज - परमेश्वरके सदृश परमेश्वर बनने के लिए है । प्रार्थनाके शब्दोंमें उन परमेश्वरोंको1 सिद्धोंको चन्द्रके समान शीतल और उसके साथ ही सूर्य जैसा तेजस्वी प्रकाशमय ज्ञान - मूर्ति वर्णन किया है कि जिनके गुणोंकी
फिर द्वितीय कर्ममें सर्व प्रकारके, एकेन्द्रीसे पंचेन्द्री पर्यन्त जीवोंकी हमारे द्वारा जो हानि हुई है उसके लिए हम अपनी निन्दा करते हैं- क्षमा माँगते हैं, उन्हें ने जो हमें
हानि पहुँचाई है उसे भुलाकर उन्हें क्षमा करते हैं और फिरसे ऐसा न होने की भावना भाते हैं - कल्पना करते हैं ।
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