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________________ KARNATAKALAMITRALIALITIHAR जैनहितैषी १४ कल्पना, प्रार्थना करनेवालेके मन और बुद्धिको पहले वचन और कायासे पाप न करनेकी चन्द्र सूर्य सदृश बनानेमें कारण होती है। प्रतिज्ञा कर सामायिक करे । जब इसका पूर्ण फिर सामायिक अंगीकार की जाती है। अभ्यास हो जावे-सब तरहसे इसका पालन वास्तविक और पूर्ण सामायिक नव कोटि किया जा सके; तब दूसरी प्रतिज्ञा- कायासे होना चाहिए । यानी मन वचन और कायासे और वचनसे अनुमोदन न करनेकी-लेवे । इस कोई पाप करे नहीं, करावे नहीं और करते- भाँतिसे छह प्रतिज्ञायें कर सामायिक किया को अच्छा समझे नहीं । इस प्रकार नवों करे । जब ये छह भली भाँतिसे पाली जा सकें, रीतिओंसे पापोंसे दूर रहनेका व्रत लिया तब मनसे पापकर्म न करने और न करानेकी जाता है और यही सम्पूर्ण सामायिक है। प्रतिज्ञा लेना प्रारम्भ करे। इस तरह जब सामा परन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि यिक आठ प्रकारसे निर्विघ्नतया-सरलतासे होने इससे कम दर्जेकी सामायिक हो ही नहीं लगे, तब नवी कोटि यह है कि किसीको पापसकती। करोड़ रुपयेकी पूँजी रखनेवाला कर्म करते देखकर या जानकर उसको अच्छा मनुष्य करोडका व्यापार कर सकता है और न समझनेकी-अनुमोदन न करनेकी-प्रतिज्ञा दो सौकी पूँजीवाला दो सौका । किन्तु अंगीकार करे । इस तरह करनेसे न कुछ दोसौकी पूँजीवालेको भी व्यापार करनेका कठिनता जान पड़ेगी और न अन्धाधुन्ध उतना ही स्वत्व है जितना कि करोड़की सामायिक करनेका ही रिवाज रह जायगा। पूँजीवालेको । उसे केवल इतना ध्यान रखना शास्त्रानुसार नवकोटि सामायिक पाठके पढ़नेमें चाहिए कि छोटे व्यापारमें छोटी ही प्रतिज्ञायें इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि जितनी करे, और उनको सम्पूर्णतया पालन करे; क्रियायें हम पाल सकें उतनी ही पाठमेंसे अन्यथा उसकी बात हलकी हो जायगी और बोलें-प्रतिज्ञा करें । प्रत्येक मनुष्यके लिए समय पड़ने पर उसे जेलमें भी जाना पड़ेगा। एकही तरहका सामायिक पाठ भी नहीं होना इसी भाँतिसे यदि करोडपति भी करोड़की चाहिए । उक्त कोटिके क्रमके अनुसार प्रतिज्ञा कर उसे पूरी न करेगा तो अपनी साख सामायिक पाठ भी निर्माण होने चाहिएँ । खोकर आखिर उसे भी जेलमें जाना पड़ेगा। यह भी कह देना आवश्यक है कि संस्कृत ऐसी सैकड़ों बातें प्रत्यक्ष देखी जाती हैं। और मागधीके प्रचलित सामायिक पाठ वर्तसामायिकमें भी ऐसा ही समझना चाहिए। मान सर्वसाधारण समाजके लिए सर्वथा निरु जितनी जितनी क्रियायें पाली जा सकें पयोगी हैं। यह सब मानते हैं कि जिस भाषामें उतनीहीको स्वीकार करनेकी प्रतिज्ञा करनी हम विचार करते हैं, जिस भाषाको बोल. चाहिए और उसीके अनुसार पाठ बोलना कर हम अपना सारा व्यवहार चलाते हैं, जो चाहिए। देशकी भाषा है वही भाषा ध्यान, प्रार्थना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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