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________________ जैनहितैषी - ही न होगी। दूसरी तैयारी जो समाजको कर रखना चाहिए वह यह है कि विधवाओंको पति के मर जानेसे - पतिकी रक्षा, सहायता - और शिक्षा बन्द हो जाने से - जिन जिन अड़चनों और भयोंके होनेकी संभावना रहती है उनसे बचने के लिए कोई अच्छी और नियमित -व्यवस्था कर दी जाय – उन्हें केवल कुटुम्बि-योंकी दया पर न छोड़ दिया जाय । इस दूसरी तैयारीके विषयमें तीन बातों पर अधिक विचार करने की ज़रूरत है । एक तो इस बातको समाजका प्रत्येक मनुष्य स्वीकार करेगा कि पेटका गढ़हा भरे बिना किसी भी प्राणिका - बड़े बड़े महात्मा का भी नहीं चल • सकता। दूसरे स्त्रियों को हमने उनकी इच्छा जाननेकी परवा किये बिना ब्याहके पींजरे में डालकर, सुन्दर परन्तु स्वतंत्रतापूर्वक उड़नेकी शक्ति रहित पक्षी बना रक्खा है। तीसरे सामान्यतः, पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंमें कामवासना .अधिक होती है । १ - २ पक्षी सुन्दर है, मधुर स्वरसे गाता है, और हमारी इन्द्रियोंको सुख देता है, इस कारण हम उसे पींजरेमें- सोनेके पीजरमें बन्द करके रखते हैं; परन्तु यह क्या हमारा धर्म है ! यदि "पींजरेमें बन्द किये बिना हमारा मन नहीं मानता है तो इतना तो अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि पाँच दस वर्षके बाद अपनी मृत्यु हो प द ह छोड़ दिया जायगा तो "पंखोंके निकम्मे हो जानेसे उड़ नहीं सकेगा और अपना पोषण और रक्षण न कर सकेगा, इस लिए या तो हमें पक्षीको पींजरेमें रखना ही न चाहिए, या जब तक वह जीता रहे तब तक हमें मरना न चाहिए । ( जैसा एक जुगलियोंके समयमें था - जोड़ी -साथ जन्म लेती थी और एक ही साथ मरती Jain Education International थी । ) और यदि मरना - जीना हमारे हाथमें न हो, तो उस निराधारको कोई नया आधार तलाश करनेमें हमें बाधक न बनना चाहिए। यदि पितृगृह या स्वसुरगृहमें यथेष्ट आधार मिलता हो और वे उसे भार समझकर कष्ट न देतें हों तो उदरनिर्वाहकी कठिनाईका प्रश्न हल हो जाता है; परन्तु १०० में प्रायः ८० उदाहरणबड़े बड़े धनियों के घरों में भी-ऐसे मिलते हैं कि वहाँ विधवायें भार ही मानी जाती हैं । उनका सा जीवन नीरस, रूक्ष, और दुःखमय बना रहता है। इस लिए या तो समाजको सारी विधवाओंके लिए आश्रम खोलना चाहिए जहाँ उनकी परवरिश हो और सत्संगति, विद्याव्यासंग आदि के कारण उनका जीवन भाररूप न बनकर सह्य बन सके । या यदि ऐसे आश्रम खोलने के लिए समाज तैयार न हो तो और किसी मतलब से नहीं केवल उदरनिर्वाहके लिए ही, विधवाओंको यदि वे चाहती हों तो - अपना दूसरा सहारा तलाश कर लेनेमें बाधा न डालना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि दूसरा सहारा किस प्रकारका मिल सकता है ? या तो कोई धर्मात्मा अपनी धर्मबहिन मानकर उसका पालन पोषण करे, या कोई स्वार्थी इनमेंसे पहले प्रकारके उदाराशय पुरुषोंकी आत्मा उसे पत्नी बनाकर अपने आश्रयमें रखले । संख्या संसारमें बहुत ही थोड़ी है; आधिक संख्या दूसरे प्रकारों ही लोगों का सहारा विधवाओंको लेना पड़ेगा । यह सच है कि यह मार्ग कोई अच्छा मार्ग नहीं है - प्रेमके उच्च आदर्शसे गिरा हुआ हैपरन्तु किया क्या जाय, और कोई उपाय भी तो नहीं है। ३ ऊपर लिखी हुई नी बातामस तीसरी बात कामवासनाकी है । इसके विषयमें विचार करनेसे मालूम होता है कि कामवासनाका For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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