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जैनोंकी वर्तमान दशा। Cum
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उसे मुक्त करनेके लिए उद्यत न हुआ तब मैं थे और स्वयं हँसते थे; परन्तु स्वयं तुम्हारे समाबोला-" डाक्टर साहब, बहुत हुआ, चलिए जमें जो ‘टग-आफ-वार' हो रहा है उसे देखअब मुझसे यहाँ बैठा नहीं जाता। पतियोंकी, नेकी इच्छा तुम्हें क्यों नहीं होती ? जैनतीर्थोंको दरबारियोंकी और ऋषियोंकी इस प्रकारकी मालिकीकी रस्सीसे लपेट कर श्वेताम्बर और निर्बलता और उनकी इस प्रकारकी नीतिकी दिगम्बर भाई खींच रहे हैं और इस खींचतानमें व्याख्या मुझे सहन नहीं होती । इस दृश्यसे अपनी सारी शक्तियोंका और सारे द्रव्य-बलका मेरे मनुष्यत्वसम्बन्धी विचारोंकी हत्या होती उत्सर्ग कर रहे हैं, यह सब क्या तुम्हें दिखलाई नहीं है । यहाँ जुआ खेलनेमें अनीति नहीं समझने- देता ? इस खींचतानमें-धींगामस्तीमें कितनोंकी वाले, विस्तृत राजपाटको-जो किसी एक मनु- पगड़ियाँ गिर पड़ती हैं, कितने ही हारकर सिर ध्यकी नहीं किन्तु सारी प्रजाकी चीज है- धुनते हैं और कितने ही जीतके नशेमें चूर होजुएके दाव पर लगा देनेवाले और जीवित मनु- कर नाचते कूदते हैं। तीर्थोकी दुर्दशाका यह ष्यको-मनुष्य ही नहीं, अपनी एकनिष्ठ अर्धा- हास्यकरुणमिश्र-नाटक क्या तुम्हारे चित्त पर गनाको भी धन या महलके समान दावपर लगा कुछ भी प्रभाव नहीं डालता है ? दया और देनेवाले मनुष्य, भरी सभामें और अपनी क्षमा, सरलता और उदारताको धर्मका अंग आँखोंके सामने, अपनी स्त्रीको-राजरानीको समझनेवाले धर्मात्मा भाई अपने मनुष्य बन्धुवस्त्रहीन होते देख चुप बैठे रहते हैं और अपने ऑपर-नहीं नहीं अपने सगे भाइयोंपरमनमें यह आभिमान करते हैं कि हम अपने भावहिंसाकी-कपटकी-केशकी-निन्दाकी चोटें वचनका पालन कर रहे हैं, यह सब मुझसे चलाकर प्रसन्न होते हैं, यह फार्स क्या 'टग आफ नहीं देखा जाता । मित्र, चलो, मुझे अब वार' की खींचातानीकी अपेक्षा कम दर्शनीय है ? निद्राकी आवश्यकता है कि जिससे मेरी यह मित्र. इन दयाधर्मकी-शान्तिधर्मकी-क्षमा धर्मकी. मानसिक व्यथा कुछ कम हो जाय ।" धर्ममर्तियोंकी ओर ज़रा अच्छी तरह तो
अधूरे नाटकको छोड़कर हम चल दिये निहारो । यदि मेरे जैसे आन्तर-चक्षु तुम्हार और अपने अपने घर जाकर सो गये। सोते ही भी होते, तो इनके कुरूप, बीभत्स, वामन शरीर मुझे स्वप्न आया और उसमें मैंने देखा कि मैं देखकर तुमसे हँसे विना न रहा जाता। मुझे इनके अपने पूर्वोक्त मित्रके ही साथ विचरण कर बद्धि-शरीरकी विकृति देखकर भी बड़ी हँसी आती रहा हूँ।
है । जिस धनशक्ति और समयको धर्म और मेरा स्वम विचित्र था। स्वमकी जागृतदशामें संघकी उन्नतिके कामोंमें लगाना चाहिए उसे मैंने अपने मित्रसे कहा-" डाक्टर, रुपये ये लोग अदालतों, आफिसरों और वकीलोंके खर्च करके नाटक-तमाशे देखनेमें तो तुम तृप्त करनेमें खर्च करते हैं ! इन लोगोंने अपनी लोगोंको आनन्द आता है; परन्तु तुम्हारे चारों वणिकबुद्धिके अभिमानमें मस्त होकर एक आर और तुम्हारे अन्तरमें जो सच्चे नाटक खेले कहावत चला रक्खी है कि 'बणिक बिना जा रहे हैं उन्हें देखनेका तुम्हें ज़रा भी शौक रावणका राज्य चला गया ।' परतु इनकी बुद्धि नहीं। तुम मुझे 'टग-आफ-वार ' (रस्सा कितनी है इसका पता एक इसी बातसे खींचनेका खेल) दिखला करके हँसाना चाहते लग जाता है कि इनसे अपने आपसी घरू झगड़े
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