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________________ ammmmmmumments जनहितैषी भी नहीं मिटाते बनते ! डाक्टर साहब, यदि हुए दिल, तुमपर उस कल्पित नाटककी द्रौपयह तीर्थक्षेत्रोंको दोनों ओरसे खींचनेवाला दीके बराबर भी प्रभाव नहीं डाल सकते रस्सा बहुत समय तक इसी तरह तना रहा, हैं ? अरे भाइयो! तुम्हारे यदि आँखें हैं, तो अन्तमें इन तीर्थोंकी-इनकी पवित्रताकी- तो उनका उपयोग इस नाटकके देखनेमें इनके पूजनेके उद्देश्योंकी क्या दशा होगी? पर करो और यदि उनमें कुछ पानी बचाहुआ है अब इस तमाशेको जाने दो और यह दूसरी तो उसे इस सच्चे नाटकमें धधकती हुई अग्निपर ओरका करुणारसप्रधान नाटक देखो। बहने दो । इसी प्रकार यदि तुम्हारे हृदय वर्त "महाभारत-नाटकमें द्रौपदीके चीरका खींच- मान हो तो उसे इस अग्निमें झंपापातपूर्वक ना देखकर तुम और तुम्हारे साथी सैकड़ों सुवर्णके सदृश शुद्ध होकर निकलने दो और दर्शक आँखोंसे आँसू बहा रहे थे और गहरी यदि तुम्हारे मस्तिष्कमें केवल भूसा ही न भरा उसाँसें लेते थे । यह सब मिथ्या नाटक हो तो उसे इस आगके बुझानेका कोई अच्छा है; वास्तविक घटना नहीं है, यह जानकर भी उपाय सोचनेमें लगा दो !" उक्त दृश्यको सत्य मानकर तुम सबका हृदय मेरे मुँहसे अन्तिम वाक्य पूरा न निकल पाया सहानुभूतिसे भर आया था; पर तुम्हारी आँखोंके था कि इतनमें एक भयंकर कोलाहल सुनाई आगे तुम्हारे समाजकी सैकड़ों विधवाओं, सध- दिया । ऐसा मालुम होता था कि उस कोलाहलमें वाओं और बालिकाओंपर जो अन्याय अत्याचार हज़ारों कोमल आवाजें शामिल हो रही हैं। होते हैं, उन्हें देखकर मालूम नहीं तुम्हारी मैंने अपने जीवनमें ऐसी चिल्लाहट पहले कभी सहानुभूति कहाँ चली जाती है। आज तुम्हारे नहीं सुनी थी।मैं अपने मित्रको बहुत ही निडर यहाँ न जाने कितनी अपक्व कन्यायें बलपू- समझता था । रोगियोंके अंग उपांगोंको काटनेर्वक पत्नी और मातायें बनाई जाती हैं और में उसे ज़रा भी भय न मालूम होता था। परन्तु इसतरह उनका सारा जीवन रूक्ष, नीरस, कष्ट- इस कोलाहलको सुनकर वह बहुत ही डरा और मय और भाररूप बना दिया जाता है । न इच्छा न रहते भी चिल्ला उठा-" बचाओ! जाने कितनी बालविधवायें और प्रौढ विधवायें बचाओ ! " उदरपोषणके फेरमें पड़कर पशुओंके समान ___एक अदृश्य आवाज़से भी डरनेवाला और जीवन व्यतीत करती हैं और उनमेंसे , अनिश्चित भयसे भी बचनेकी इच्छा करनेवाला न जाने कितनी जानबूझकर और बिना , मनुष्य औरोंकी सहायता पानेके लिए तो तड़जाने, अनीतिके फंदेमें फँस जाती हैं। - फता है-व्याकुल होता है, परन्तु औरोंके भयंक्या तुमने कभी इन दुःखोंके देखनेकी और र कर दुःखके लिए उसके हृदयमें ज़रा भी स्थान उनके मूलकारणोंपर गंभीरतापूर्वक विचार कर-. नहीं होता-औरोंको बचानेकी उसे इच्छा ही नेकी तथा उनके प्राकृतिक उपचार ढूँढ़नेकी नहीं होती ! हाय ! हाय ! मनुष्य कैसा आत्मचिन्ता की है ? क्या तुमने उनके एकान्तमें पड़ते , वंचक है! हुए आँसुओंके देखने और गहरी उसाँसे सुननेकी कभी आवश्यकता समझी है ? क्या उनके विधवाओंके समूहकी भयंकर चीखकी फटते हुए हृदय और दुःखकी दाहसे दहकते प्रतिध्वनि जड़ आकाशने तो गुंजा दी; परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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