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________________ MAITHILIM जैनहितैषीTimitm PAHIRTHIO (प्रश्न) क्या तेरे प्यारे श्रुतमनिके समान इन्द्र अर्थात्-जिनके शरीरको छकर जानेवाली नहीं है ? ( उत्तर ) नहीं, वह तो गोत्रभिद् हवा भी रोगको शान्ति कर देती है क्योंकि (पर्वतोंका हनन करनेवाला) है। ( प्रश्न) एक बार बल्लाल नरेशके शरीरमें जो रोग उठा क्या कुबेर भी उसके सदृश नहीं है ? (उत्तर) था, वह इसी तरह शान्त हो गया था-उनको नहीं, वह तो किन्नर ( कुत्सित नर ) है । (प्रश्न) बतलाइए कि दवाईसे क्या लाभ होगा ? तो फिर शेष (धरणेन्द्र ) कहाँ गया ? वह तो अभिप्राय यह कि जिनका शरीर ही दवाईरूप था, उसके सदृश होगा ? ( उत्तर ) नहीं, वह तो उन्हींको जब रोग हो गया है, तब और दवाई द्विजिह्व ( दो जीभोंवाला या चुगल ) है । क्या काम देगी ?॥३०॥ मुनिमहाराजने बुद्धिबलसे (प्रश्न ) और महादेव ? ( उत्तर ) वह तो विचार किया कि अब समाधिमरण करना ही पशुपति है।" श्रेयस्कर है, अर्थात् यही सबसे बड़ी ओषधि अब इसका काव्यतीर्थका किया हआ. गोल- है और तब समाधिपूर्वक उन्होंने अपने रोगादि माल, वेदभाषामें लिखा हआ भावार्थ भी पढ- आपत्तियोंके स्थान शरीरको छोड़कर विभवलीजिए:-“हे कामिनि! त कौन है ? क्या श्रतः शाली देवशरीरको प्राप्त किया। अर्थात् चारुमुनिकी कीर्ति त इधर आ रही है ? क्या त कीर्ति स्वामीका स्वर्गवास हो गया। . इन्ट है. नहीं यह तो गोत्रभिद् है । कुबेर तो ३०३ पद्यमें जिन बल्लालनरेशका उल्लेख नहीं है ? किन्तु यह किन्नर नहीं मालूम पड़ता है, वे विष्णुवर्धन राजाके भाई थे। कर्नाटक है। ब्रह्मन् ! मैं अपने ऐसे किसी विद्वान् मुनिको कविचरितसे मालूम होता है कि वे चारुकीर्ति चारों तरफ़ खोज रहा हूँ।" लीजिए, अन्ततक पण्डिताचार्यके समकालीन थे। पहुँचते पहुँचते द्विवेदीजीकी कृपासे वह कामिनि " पुरुष बन गई और अपने सदृश मुनिको अब इन पयोंकी हरनाथी या काव्यतीर्थी टीका ढूँढ़ने लगी । धन्य अनुवादकजी ! और धन्य देखिए:-" जिनके शरीरके सम्पर्क मात्र हीसे वा सम्पादकजी !! ___ सब किसीके रोगोंको शान्ति हो जाती थी। लोग श्रीचारुकीर्ति मुनि जब बीमार हुए और क कहा करते थे कि बल्लालराजकी कृपासे रोग इस कारण उन्होंने समाधिमरण करनेका निश्चय " छूटा है, दवासे क्या ? मुनिने समाधिपूर्वक किया, उस समयका वर्णन करते हुए कवि अनेक आपदका स्थान इस विनश्वर शरीरको छोड़कर दिव्य शरीरको पाया।" इससे बढ़कर कहता है: अनुवाद और कौन कर सकता है ? कवि मुनिकी एषां शरीराश्रयतोऽपि वातो कृपासे रोग छूटना बतला रहा है; पर अनुवादक रुजः प्रशान्ति विततान तेषाम् । राजाकी कृपासे रोग छुड़ा रहे हैं। दोनों पद्योंका बल्लालराजोत्थितरोगशान्तिरासीरिकलैतत्किमु भेषजेन ॥ ३० अनुवाद आपने तीन वाक्योंमें किया है, पर क्या मुनिर्मनीषाबलतो विचारितं मजाल जो एक वाक्य दूसरे वाक्यसे ज़रा भी समाधिभेदं समवाप्य सत्तमः। सम्बन्ध रखता हो ! द्विवेदीजीका प्रत्येक वाक्य विहाय देहं विविधापदां पदं वर्णाश्रम धर्मका पालन करता हुआ नजर विवेश दिव्यं वपुरिद्धवैभवम् ॥ ३१ आता है !! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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