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________________ winAMICROmummmmmuTIAL पर बादशाहकी दुलहिन । . घृणायुक्त है । इस समय अहमदशाहने वह परन्तु उसकी यह निराशा शीघ्र ही आशामें पोशाक पहिन रक्खी थी जो लालाकी ओरसे ' परिणत हो गई। थोड़े ही दिनों में उसके पास यह उसे प्राप्त हुई थी और जो बिलकुल देशी संदेश आया कि “ लाला अभी जीती है । उसे ढंगकी थी। पक्के मुसलमान उसके इस कार्य पर्वतसिंहने अपने पडौसके एक जागीरदार राज- पर घृणाकी वर्षा कर रहे थे; परन्तु उस ओर पूतके यहाँ भेज दी थी, इस लिए उसकी रक्षा हो उसका ज़रा भी लक्ष्य न था। गई है। लाला स्वयं बादशाह पर मुग्ध है और वह विवाहविधिको समाप्त करके पुरोहितजीने उसके साथ शादी करनेके लिए तैयार है !" ज्योंही आशीर्वाद दिया, त्योंही लाला अपने अहमदशाहके आनन्दकी सीमा न रही । आ- स्थानसे उठी और अपने पतिका हाथ पकड़कर काशका चाँद उसने पृथ्वी पर ही पा लिया! उसे बरामदेके ऊपरके उस छज्जेपर लिवा ले रजतसरोवरके किनारेके महलमें ही इस गई जो सरावरके ठीक किनारे पर था और विवाहका होना निश्चित हुआ । यह विवाह । नायब विद जहाँसे दूर दूर तककी प्रकृतिकी शोभा दिखलाई राजनीतिकी दृष्टिसे बडे महत्त्वका था। क्योंकि देती थी। उसने कहा-“मालिक मेरे, आइए यही इसमें लाला और बादशाहके बीच ही नहीं: किन्त धूपमें खड़े होकर हम अपनी प्रजाको दर्शन देवें हिन्दू और मुसलमानोंके बीच भी स्नेहका जो इसी लालसासे न जाने कबकी खडी है।" सम्बन्ध होना था। दरबारकी ओरसे घोषणा कर बादशाहने अपनी दुलहिनकी आज्ञाका तत्काल दी गई कि जो राजपूत पहले विरुद्ध रहे हों ही पालन किया। उसने देखा कि चारों ओर, या अब भी विरोधी हों, उन सबको विवाहमें दूर दूर तक, लोगोंका जमाव हो रहा है और वे सम्मिलित होना चाहिए-उनके सब अपराध क्षमा सब टकटकी लगाकर हमारी ही ओर देख रहे कर दिये गये । यह भी प्रकट कर दिया गया हैं । मनुष्यसमूहसे आगे जहाँ तक उसकी कि विवाह हिन्दू-विवाहपद्धतिके अनुसार होगा! नज ; नजर जाती थी कोई मैदान, घाटी, पर्वतं, दर दूर तकके लोग इस अभिनव विवाहो- मासे बाहर हो। इन सब बातोंके साथ ही उसने __ आदि ऐसा स्थान न था जो उसकी शासनसी•त्सवमें आकर सम्मिलित हुए । जहाँ तहाँ यह भी देखा कि जिस लालाके लिए बड़े बड़े मूर्तिमान आनन्द दृष्टिगोचर होने लगा। कष्ट सहे, हज़ारों मनुष्योंका रक्त बहाया, वह आज एक सुन्दर विवाहमंडपके भीतर हम आज दुलहिन बनकर बगलमें खड़ी है । इस लाला और अहमदशाहको पास पास बैठे देखते समय उसका चेहरा आत्माभिमानकी दीप्तिसे हैं। दोनोंका गठजोड़ा हो रहा है । दोनों ही दमक उठा। विवाहके बहुमूल्य आभूषणोंसे सजे हुए हैं। अब बादशाहने अपनी दृष्टिको सब तरफसे लाला अपने चन्द्रविनिन्दित मुखको चटकीली हटाकर अपनी दुलहिनकी ओर डाला । चुनरीसे ढके हुए निश्चिन्त भावसे बैठी है। उसे आश्चर्य हुआ कि मशरण दुलउसकी ओर लांगोंकी तरह तरहकी दृष्टियाँ पड़ हिनें जिस संकोचकी दृष्टिसे अपने पति रही हैं। कोई दृष्टि कातुक्या है, कोई आन- योंकी ओर देखती हैं उस संकोचका लालाकी न्दपूर्ण है, कोई विषादमय है और कोई घोर दृष्टिने सर्वथा अभाव है । वह एक अनोखे ढंगसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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