SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ TALIMALINITIALLAHABAD जैनहितैषी कालीन इतिहासका ध्यानपूर्वक निरीक्षण श्रीमद् यशोविजयोपाध्याय जैसे तार्किकने करनेसे मालूम होता है कि उस समय भी-जिनका अस्तित्व ऐसे समयमें था कि यह हाल न था। उस समयके विद्वान् जब सांप्रदायिक विरोध चरम-शिखर ऊपर गुणानुरागी अधिक होते थे। सांप्रदायिक चढ़ा हुआ था- अपने ग्रन्थोंमें इस आग्रहसे वे इतने लिप्त न थे जितने कि प्रकारके कृतज्ञतासूचक वाक्य लिखकर अर्वाचीन कालमें देखे जाते हैं । संप्रदायान्तर- अपना गुणानुरागत्व स्पष्ट प्रकट किया है । के गुणी पुरुषोंका भी उचित आदर पूर्वके प्रवचनसारके रचयिता परम दिगंबराचार्य विद्वान् किया करते थे। दिगंबर साहित्य- स्वामी कुंदकुंदको, उन्होंने एक जगह का विशेषालोकन न होनेके कारण हम कह महर्षिके महत्त्वदर्शक विशेषणसे उल्लिनहीं सकते कि उसमें ऐसे उदाहरण मिलते खित किया है और अपने कथनकी पुष्टिमें हैं या नहीं; परंतु, श्वेतांबर-साहित्यमें तो प्रवचनसारकी एक गाथाको उद्धृत किया ऐसे माध्यस्थ्यसूचक अनेक दृष्टांत दृष्टि- है । उपाध्यायजीका समय ऐसा विग्रह-पूर्ण गोचर होते हैं । हरिभद्र और हेमचंद्र जैसे था कि उस समयके बहुत से विद्वान् श्वेतांबरशिरोमणि आचार्योंने भी अपने ग्रंथोंमें समान सिद्धांतवालोंको भी-अपने ही अनेक स्थलों पर समुदायके अवांतरभेद-शाखाविशेष-वालों'तथा चोक्तं महात्मना व्यासेन ।' को भी तुच्छ शब्दोंसे स्मरण किया ( अष्टक ४-५.) करते थे; तो फिर दिगंबर जैसे विभिन्न संप्र'तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः।। दायके परम पोषक आचार्यको श्वेतांबर( योगदृष्टिस० १००) समाजका एक महान् नेता, ' महर्षि ' की महती उपाधिसे उल्लिखित करे, यह श्रद्धा'भगवता महाभाष्यकारेणावस्थापितम्। , पतम् ।' सक्त सांप्रदायिकोंकी दृष्टिमें कैसे ठीक ( काव्यानुशासन, अध्या० ३.) अँच सकता था ? उपाध्यायजी इस बातइस प्रकारके बहुमानदर्शक वाक्योंद्वारा को अच्छी तरह जानते थे, अतः उन्होंने वेदव्यास और पतञ्जलि जैसे वैदिकाचार्यों- उस जगह ऐसा मार्मिक उल्लेख कर दिया की भी प्रशंसा की है ! परमाईत महाकवि कि जिससे किसीको ' ननु-नच ' करनेश्रीधनपालने अपनी तिलकमंजरी-आख्या- का मौका ही न मिले । लिखा है कियिकाकी पीठिकामें अनेक वैदिक कवियों- “न चैतद्गाथाकर्तुर्दिगंबरत्वेन महर्षिकी स्तुति की है । आप्तमीमांसाके: रचयिता : त्वाभिधानत्वं न निरवद्यमिति मूढधिया प्तिमामासाकः रचायता शङ्कनीयं, सत्यार्थकथनगुणेन व्यासादीस्वामी समन्तभद्रकी स्तुति के अनेक पद्य नामपि हरिभद्राचार्यैस्तथाभिधानादिति श्वेताम्बर ग्रन्थों में यत्र तत्र मिलते हैं। स्वयं दृष्टव्यम् ।” (योगावतारद्वात्रिंशिका, २०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy