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________________ रखी-संसार। भारतीय समाजोंमें किसी समय स्त्रियोंका अत्याचार ही नहीं समझते । वे इस बातको भी एक विशिष्ट स्थान था और वे बहुत ही माननेके लिए भी तैयार नहीं हैं कि पुरुषआदरणीय समझी जाती थीं । यत्र ना- समाज स्त्रियोंके साथ जो व्यवहार करता है, र्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। जहाँ उसकी अत्याचार संज्ञा भी हो सकती है। स्त्रियोंका आदर होता है वहाँ देव निवास उनकी समझमें वह अत्याचार नहीं, किन्तु करते हैं। इत्यादि वाक्योंसे-जो यहाँके स्वाभाविक तथा धार्मिक व्यवहार है । यही प्राचीन साहित्यमें मिलते हैं-इस बातकी क्यों, जो स्त्रियाँ इन अत्याचारोंकी लक्ष्य हैं, अच्छी तरह पुष्टि होती है। स्त्रीपुरुषकी जिनपर रातदिन ये अत्याचार होते हैं, वे भी अर्द्रागिनी, सहधर्मिणी, सहचारिणी मानी तो इन्हें अत्याचार नहीं कहती हैं और गई है, इससे भी उसके अधिकार और इन्हें खुशीसे सहन करते रहना अपना आदरकी कल्पना हो सकती है। परन्तु अब धर्म समझती हैं ! अभ्यास ऐसी ही वह बात नहीं रही है । इस समय स्त्रीकी चीज़ है । अभ्यास पड़ जानेसे कष्टका भी प्रतिष्ठा पैरोंकी जूती से बढ़कर नहीं है। कष्ट रूपमें अनुभव नहीं होता है । अमेअपने आदरणीय स्थानसे पतित होकर अब रिकाके नीग्रो लोगोंका हृदय सैकड़ों वर्षों की वह. पुरुषोंकी केवल दासी है। पुरुषोंको गुलामीके अभ्याससे ऐसा बन गया था कि अधिकार है कि वे स्त्रियोंपर चाहे जैसे उन्हें वह गुलामी ही अच्छी मालूम होती थी। अत्याचार करते रहें; उनके अत्याचारोंको जिस समय उन्हें स्वाधीनता दी गई उस समय रोकनेका स्त्रियोंको कोई अधिकार नहीं है- वह उन्हें भयावनी और पहलेकी गुलामी उनको सिर्फ यही अधिकार है कि वे उन प्रार्थनीय जान पड़ती थी। यही हाल हमारी अत्याचारोंको चुपचाप सहन करती रहें ! स्त्रियोंका भी है। पुरुषोंकी ओरसे स्त्रियोंपर जो अत्याचार * * * * * . होते हैं वे अब इतने रूढ हो गये हैं, समा- स्त्रियोंके विषयमें जब कभी कोई चर्चा जकी दृष्टिको उनके देखनेका इतना अभ्यास होती है उस समय हम यह भूल जाते हैं हो गया है कि अधिकांश लोग-जिनमें कि स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं । उनके भी हृदय, हजारों पढ़े लिखे भी शामिल हैं-उन्हें बुद्धि, विवेक, सुखदुःखके अनुभव करनेकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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