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________________ SHARMAHARATALIANAMINATALAIAI LI ४४ जैनहितैषी शक्ति आदि बातें हैं और वे भी मनुष्यस- नहीं कर सकता है और प्रौढ़ पिता अपनी माजकी एक अग हैं । इन बातोंके भूल जा- जवान बेटीपर अपना हार्दिक प्रेम व्यक्त नहीं नेसे ही पुरुष उन पर अत्याचार करता है कर सकता है। हम किसी वयस्क पुरुषको और उनके प्रकृतिदत्त सत्वोंकी पायमाली किसी स्त्रीके साथ बातचीत करते देखते ही, करनेमें जरा भी नहीं हिचकता। चाहे वह बातचीत कितनी ही अच्छी क्यों _ न हो, तरह तरहकी आशंकायें और कुतर्कहमारे पिछले साहित्यमें स्त्रीनिन्दाकी भर. नायें करने लगते हैं । करें क्यों नहीं, हम मार है । जहाँ देखिए वहाँ स्त्रियोंकी निन्दा।। न्दा स्त्रियोंके संसर्ग आलाप आदि सभीको ही जो संभव है कि उक्त साहित्यके लेखकोंने स्त्री- निन्दनीय समझते हैं। निन्दासे कुछ लाभ सोचा हो और शायद * * * * * किसी अंशमें उससे लाभ हुआ भी हो; परन्तु इस स्त्रीनिन्दाका एक परिणाम यह भी हम उसे नहीं जान सकते; हाँ, हानि हम हुआ है कि पुरुष अपने दोषोंका अनुभव अवश्य अनुभव कर रहे हैं । इस निन्दाने करना भूल गया है । वह यह सोच ही नहीं स्त्रियोंको अपने पूज्य पवित्र और महनीय सकता कि जब कोई स्त्री पतित होती है तब आसनसे बहुत ही नीचे गिरा दिया है और उसमें उस स्त्रीके सिवाय पुरुषका भी कुछ पुरुषसमाज उन्हें आदर श्रद्धा और स्नेहकी दोष होता है या नहीं । यह ठीक है कि दृष्टिसे देखना भूल गया है । उसकी दृष्टिपर अग्निके संसर्गसे घृत पिघलने लगता है, परन्तु इस निन्दाका इतना प्रभाव पड़ चुका है कि इसमें केवल अग्निका स्वभाव ही कारण नहीं अब वह उसमें प्रशंसाके दर्शन ही नहीं कर है, घृतकी दुर्बलता द्भवता भी कारण है। सकता । पवित्रसे पवित्र स्त्रीके सामने आते ही घीकी जगह पत्थर या लोहा हो, तो उसमें पुरुषके हृदयमें 'कामश्चाष्टगुणः स्मृतः- इतना विकार नहीं हो सकता । यदि पुरुष स्त्रीके अठगुणे कामके वेगका स्मरण हो अपनी आँखोंपरसे इस स्त्रीनिन्दाके विकारको आता है और तब उसके लिए उसे विकार- दूर करके देख सके तो उसे मालूम हो कि रहित दृष्टि से देखना असंभव हो जाता है। इस विषयमें स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुष ही अधिक उसकी समझमें स्त्री एक विलासकी सामग्रीके निन्दनीय हैं। भारतके किसी भी समाजका सिवाय और कुछ नहीं है। मानों संसारमें स्त्रीसमुदाय अपने समाजके पुरुषसमुदायकी एक कामवासनापूर्ण पाशविक सम्बन्धके अपेक्षा बीसों गुणा पवित्र और चरित्रवान् सिवाय बहिन भाई, माता पुत्र, सखा सखी है। बुरीसे बुरी स्त्री उतनी दुश्चरित्र नहीं हो आदिके पवित्र सम्बन्ध हो ही नहीं सकते सकती जितना कि एक मनचला पुरुष होता हैं। यही कारण है कि आज हमारे देशका युवा है। सच तो यह है कि सौमें नव्वे स्त्रियोंको अपनी युवती बहिनके पवित्र स्नेहका उपभोग दुश्चरित्रताके मार्ग पर ले जानेवाले पुरुष ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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