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________________ बादशाहकी दुलहिन। लेखक, श्रीयुत कुँवर कन्हैयाजू। (१) किरणोंकी छायामें निस्तब्ध भावसे श्रवण करते सिन्धके बादशाह अहमदशाहने रजत-सरो- हुए बादशाहके हृदयपर इस गीतका बड़ा प्रभाव वरके किनारे एक शीत-महल बनवाया था। पड़ा । उसने पूछा, यह “ महताबरुख परी पैकर गर्मीके दिनोंमें राजधानी छोडकर वह बहुधा किसी ख़याली दुनियाकी चीज़ है, या दर असयहीं रहा करता था। वह एक सुन्दर और लमें कहीं है ? " कविने उत्तर दिया, “ हूजर, सुदृढ शरीरका युवा पुरुष था। जिस प्रकार वह इस समय मौजूद है और कुमारी वह युद्धकुशल और साहसी था उसी प्रकार है। मैंने राजपूत सरदार पर्वतसिंहकी कन्या काव्य, कलाकौशल आदि सद्गुणोंका प्रेमी और लालाकी प्रशंसामें यह गीत गाया है।" सहायक भी था। " अगर वह दर असलमें तुम्हारे बयानके एक दिन वह अपने कुछ चने हुए साथियोंके मुआफ़िक दिलफिसा है, तो उसे मैं अपनी सहित एक सुन्दर किश्ती में सवार होकर जल- दुलाहन बनाऊँगा, नहीं तो इस तारीफ़का इनाम क्रीड़ा कर रहा था । स्वच्छ चाँदनी सरोवरके यह होगा कि तुम्हारा सिर कलम किया जायगा।" स्वच्छ जलको और भी स्वच्छ बना रही थी। यह कहकर बादशाह गहरे विचारोंमें डूब गया। हर भरे वृक्षोंसे परिपूर्ण टाप-जिनके पास होकर थोड़ी ही देरमें किश्ती किनारे पर लगा दी गई। वह किश्ती जा रही थी-बड़े ही सहावने मालम दूसरे दिन सबेरे ही बादशाहने अपनी सभाहोते थे । मधुर संगीत कानोंमें अमतकी के सलाहकार ब्राह्मणको बुलाया और उससे वर्षा कर रहा था । किश्तीमें बैठे हुए मस- पर्वतसिंहकी लड़कीके विषयमें पूछताछ की। लमान कलावतोंने पहले बादशाहकी वीरता और ब्राह्मण देवताने और भी नमक मिर्च लगाकर उदारताके गीत गाये और फिर बहिश्तकी हर लालाके सौन्दर्यका वर्णन कर दिया जिससे कविके और परियोंका वर्णन करते हुए गुलाब और संगीत पर मानों मुहर लग गई । लालाकी बुलबुलोंपर जाकर अपना गाना समाप्त किया। प्राप्तिका ध्यान जो अभीतक अन्तरके निभृत कउनके बाद एक हिन्द कविने उच्च स्वरसे एक क्षमें छुपा हुआ था अब बाहर आ गया। राजपूतकुमारीकी प्रशंसाका गीत गाया । गीत- बादशाहने ब्राह्मणको आज्ञा दी कि “तुम इसी का संक्षेप यह था कि वह राजकन्या मगशाव- समय पर्वतसिंहके यहाँ जाओ और कहो कि कके समान भोलीभाली और मनोहारिणी है बादशाह तुम्हारी बेटी लालाको अपनी दुलहिन और सती सीताके समान आद्वितीय सुन्दरी, बनाना चाहते हैं।" बुद्धिमती और लज्जाशीला है । गीतके प्रत्येक किन्तु बादशाह अपनी इच्छापूर्तिके पदमें हृदयको हिलादेनेवाली सरसता और मार्गको जितना निष्कण्टक और सुगम समझता मधुरिमा भरी हुई थी ।उस सुमधुर शीतल चन्द्र- था उतना वह वास्तवमें था नहीं । पर्वतसिंह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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