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________________ भावना और सामायिकका रहस्य । अनुवादक, श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा। suz दान, शील और तपके संबंधमें हमने कर सकता है। भावनाका राज्य स्थूल पृथ्वीविचार किया, और यह भी देखा कि जीव- पर नहीं; किन्तु सूक्ष्म पृथ्वीपर-मानसिक जगनके साथमें इनका कितना गाढा संबंध है। तमें है, जहाँ मनुष्यको-पथिकको-एकाकी इन तीनों तत्त्वोंको प्रत्येक मनुष्य बहुत सर- निस्सहाय होकर विचरना पड़ता है और लतासे समझ सकता है और आचरणमें भी इसही हेतुसे यह पथ दुर्गम जान पड़ता है। ला सकता है। इनका पालन न करनेवाली यह पथ चाहे विकट हो या सरल; परन्तु व्यक्ति नीरोग निदोष और पवित्र नहीं बन इसमें कुछ सन्देह नहीं है कि यह मार्ग सकती और न समाजके लिए उपयोगी ही बड़ा ही आनन्ददायक है और आत्माकोबन सकती है। इतना ही नहीं बल्कि भावी जो कि मन और बुद्धिसे परे हैजीवनमें सुखी होनेकी आशा भी उसे छोड़ पानेकी अन्तिम सीढ़ी है। · भावना' देनी पड़ती है। परन्तु इन तीनोंसे भी विशेष तत्त्व कैसा गहन और विशाल है, महत्त्वके एक तत्त्वका हमें और विचार करना इसका बहुत कुछ अनुमान, सामान्यतया है कि जिसका प्रत्येक मनुष्यके अन्दर होना इसके जो अर्थ होते हैं उनसे किया जा कठिन है। यह तत्त्व भावना है। यह मन सकता है । ध्यान, मनन, चिन्तवन, शोधन, और बुद्धिसे संबंध रखता है। इसके रहस्यको सूक्ष्मगवेषण, पूर्व स्मरण, प्रत्यक्षज्ञान समझनेके लिए मानसशास्त्र (Psychology) ( hool ( Perception or cognition ) 311 के अभ्यासकी और तीव्र कल्पनाशक्ति- १ - इसके अर्थ हैं । ऐसे अनेक कार्योंके करनेवाले की आवश्यकता है, और आगे बढ़नेपर उच्च - तत्त्वका विवेचन थोड़े कर जाना असम्भव र मनोबलकी भी ज़रूरत पड़ती है । इसी लिए । - है और इस Science तथा Metaphysics इस भावनाके विस्तृत क्षेत्रमें बहुत ही विषयमें अल्पज्ञोंका दम मारना भी अनु : के समान गहन विषयसे संबंध रखनेवाले भाग्यवान् पुरुष क्रीड़ा कर सकते हैं। दान, चित है। इस लिए यहाँ केवल इस विषयकी शील और तप, इन तीनोंको पालन कर चुकने- गहनता- जिसको. जैनियोंका अधिकांश पाला मनुष्य-इस भव या परभवमें इस भाग नहीं जानता-कुछ अंशोंमें, बताई है। मंजिलके मार्ग पर बहुत कुछ चल चुक- अब इस भावनाकी अंगभूत धार्मिक क्रियानेवाला मनुष्य--'भावना' के क्षेत्रमें प्रवेश- ओंके संबंधमें कुछ कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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