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WHAARRIAMARRITAMAADHAN
जनहितैषी
प्रत्येक मनुष्यको, मैत्री भावना, करुणा इस गुणसे-इस भावनासे-भावना भानेवाले भावना, प्रमोद भावना और माध्यस्थ्य मनुष्यमें भी उन गुणोंका अंश प्रविष्ट होता भावना सेवन करनेकी विधिसे परिचय है और वह भी वैसा ही बन जाता है । होना चाहिए और तदनुसार आचरण भी अधम जनोंकी नीच प्रवृत्ति देखकर माध्यस्थ्य करना चाहिए । समान गुण और समान विचार भावना भाना चाहिए । इसका यह अभिप्राय रखनेवाले मनुष्योंके साथ मैत्री भावना, है कि न उनकी प्रवृत्तियोंसे प्रमुदित होना अज्ञानी और दुखीकी तरफ़ करुणा भावना, चाहिए और न द्वेष ही करना चाहिए। सम्प्रति अपनेसे विशेष ज्ञान-गुण-शक्ति आदि धा- इस भावनाका बहुत ही बुरा अर्थ किया रियोंमें प्रमोद भावना और अधम मनुष्योंकी जाता है । निन्दा या स्तुतिके सिवा जैसे तरफ माध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिए। संसारमें अन्य कोई तत्त्व जीवित ही न हो,
समान गुण और विचारके धारकोंसे मित्रता इस भाँतिसे लोग धर्मके बहाने यह कहकर रखनेसे पारस्परिक विचार विशेष विकसित चुप होते दिखाई देते हैं कि जनसंहारक होते हैं और दोनोंकी आत्मिक शक्तियाँ वृद्धिको प्रवृत्तियोंके आचरण करनेवालोंके प्रति क्षमा प्राप्त होती रहती हैं।
दिखाकर 'माध्यस्थ्य ' भावनाका चिन्तवन
करना चाहिए । इस समझने लोगोंको बहुत दुखी और अज्ञानियोंके प्रति करुणा
त करुणा- हानि पहुँचाई है । यदि ऐसी नपुंसकता ही भाव रखनेसे उनके दुःख और अज्ञान नष्ट धर्म है, तो फिर करुणाभावना बतानेकी करनेमें प्रवृत्त होनेकी प्रेरणा होती है । अन्तमें क्या आवश्यकता थी ? अपराधी या पापी परिणाम यह होता है कि न्यूनाधिक रूपसे भी एक मनष्य है-आत्मा है । उसको उन दुखियोंके दुःख और अज्ञानियोंके अनिष्ट आचरणों में प्रवृत्त देखकर उसपर बन्धु अज्ञान मिटने लग जाते हैं, उनकी आत्मिक आत्माकी भाँति करुणा करना चाहिए, जिससे उत्क्रान्तिका मार्ग भी साफ़ हो जाता है उसका अन्तरात्मा सीधे मार्गपर आ जावे। यदि
और इस भावना और सहायताको करने- सर्वथा उत्तम पथका पथिक नहीं बने तो भी वाला मनुष्य भी उन्नत होता है। वह मार्गकी भीषण भयङ्करतासे तो बहुत कुछ
विशेष ज्ञान-गुण-शक्ति आदिके धारण- बच सकता है । मान लो कि यदि ऐसा न करनेवालोंसे ईर्ष्या न कर उनकी उत्क्रान्तिको भी हुआ तो भी उससे होनेवाली हानिसे अन्य देख, प्रमोद-उल्लास-संतोषका अनुभव करना मनुष्योंको बचानेका प्रयत्न करना भी 'करुणा'
और उसकी अधिकाधिक उन्नतिकी इच्छा का ही विषय है । इस प्रकारसे कृत कर्तव्यके करना साधारण बात नहीं है। अतिशय द्वारा उस ही समय यदि मनुष्यको,चाहे वह काउदार हृदयके बिना यह नहीं हो सकती। ल्पनिक हो या वास्तविक, कष्ट पहुंचे तो उसके
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