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________________ ६६ है; इसी प्रकार यह भी न समझ लें कि वह उनसे विरुद्ध है । विरुद्ध और अविरुद्ध इन दोनों बातोंका ख्याल न रखके पाठकोंके ज्ञानविस्तारके उद्देश्यसे सब लेख प्रकाशित होंगे । यहाँ यदि हम अपने पाठकोंसे सहनशीलता - मतसहिष्णुता रखनेके लिए प्रार्थना करें तो अनुचित न होगा । उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसीके एक लेखसे या एक विचारसे साधारणजनताका कोई विश्वास या विचार बदला नहीं जा सकता है । लेख कोई जर्मन - की प्रलयंकरी तोप नहीं है जो एक ही फायरमें किसी विश्वास के किलेको धाराशायी कर दे | इसके सिवाय जो लोग किसी ऐसे लेखको पढ़ते हैं वे उसके विरुद्ध लेखों और विचारोंको भी तो पढ़ते सुनते रहते हैं । अतः किसी विरुद्धविचारपूर्ण लेखसे उत्तेजित हो जाना, अधीर हो जाना या उसके प्रकाशकको शत्रु समझने लगना कदापि उचित नहीं है । उचित यह है कि ऐसे लेखोंको पढ़कर विचार किया जाय और यदि उनमें दोष मालूम हों तो उनकी विरुद्ध आलोचना लिखी जाय या लिखवाई जाय । * * Jain Education International जैनहितैषी * मनुष्य के जीवन में मुख्य चीज़ उसका चरित्र है | चरित्र से बढ़कर कोई भी बहुमूल्य चीज़ नहीं है । जीवनकी सफलता असफलता एक मात्र चरित्र पर निर्भर है । चरित्रसे ही मनुष्यकी प्रतिष्ठा । धनमें इतनी शक्ति नहीं जितनी चरित्रमें है । चरित्रका प्रभाव अद्भुत है । जैसे सूर्यका प्रकाश छोटे छोटे छेदोंमेंसे होता है वैसे ही छोटी छोटी बातोंसे मनुष्यके चरित्रका अनुमान किया जा सकता है। छोटे छोटे कामोंको अच्छी तरह करनेसे ही चरित्र निर्माण होता है और यह प्रति दिन होता रहता है । चरित्रगठनके इस अंक में दो सुन्दर चित्र प्रकाशित किये जाते हैं। ये हमें 'महावीरजीवनविस्तार' नामक सुलिखित गुजराती पुस्तकके प्रकाशक श्रीयुक्त मेघजी हरिजकी कृपासे प्राप्त हुए हैं । इनमें से एक चित्रका परिचय पाठकोंको श्रीयुक्त पं० गिरिधर शर्माकी ' महावीर और स्वावलम्बन ' नामक कवितासे मिलेगा और दूसरेका भक्तामर स्तोत्रके पन्द्रहवें पयसे । पहला चित्र श्वेताम्बरसम्प्रदायकी एक ऐसी कथाके आधार पर बनाया गया है जो बहुत ही शिक्षाप्रद है। और जिससे तीनों सम्प्रदायके अनुयायी लाभ उठा सकते हैं । हम चाहते हैं कि हितैषी के प्रत्येक अंकमें इस प्रकार के चित्र प्रकाशित हों; परन्तु इस तरह के प्रत्येक चित्रके बनवाने और प्रकाशित करनेमें लगभग ३५-४० रुपये खर्च होते हैं और इतना खर्च - तब किया जा सकता है जब हितैषीकी आर्थिक अवस्था अच्छी हो और उसे सन्तोषयोग्य ग्राहक मिल जायँ । यदि हो सका तो हम आगामी अंकोंमें इस प्रकारके और भी दो चार चित्र प्रकाशित करका प्रयत्न करेंगे। * लिए किसी विशेष कार्य और विशेष समयकी आवश्यकता नहीं । किसी मनुष्यके चरित्रकी सबसे अच्छी पहिचान यह है कि वह दूसरोंके साथ किस तरह व्यव - हार करता है । यदि वह उन्हें आदर और प्रेमी देखता है, उनके साथ यथायोग्य व्यवहार करता है तो समझना चाहिए कि वह अपने चरित्रको 'सुधार रहा है । दूसरेके साथ व्यवहार करनेसे दूसरोंको भी हर्ष होता है और स्वयं अपनेको भी। इसमें कुछ खर्च भी नहीं होता । ( स्माइल्स ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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