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________________ ( ले० -श्रीयुत पं० उदयलालजी काशलीवाल । ) स्वर्गीय पं० भागचन्दजीने एक भजनमें अनेक देवोंका स्वरूप बतलाकर कहा है: श्रीअरहंत परम वैरागी - दूषनलेश प्रवेश न जिनमें । भागचन्द्र' इनको स्वरूप यह, अब कहो पूज्यपनो है किनमें ॥ पंडित भागचन्दजीने उक्त भजनमें देव विषयकी चर्चा करके सत्यार्थदेवपना अरहंत भगवानमें ठहराया है । वह इसलिए कि उनमें किसी प्रकारका दोष नहीं है। वे वीतराग हैं । और और देवोंसरीखा उपासकोंके हृदय में सरागभाव मोहभाव पैदा करनेका उनमें कोई चिह्न नहीं है । तब यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि जैनधर्मकी मंशा प्रतिमा-पूजनसे पूजकोंके हृदयमें वीतरागता या शान्ति पैदा करना है यदि उसकी यह मंशा न होती तो उसे इस प्रकारकी निष्परिग्रह वीतराग प्रतिमाओंके बनानेकी ज़रूरत न पड़ती । और और लोगोंकी तरह वह भी ' भूषणवस्त्र-शस्त्रादि इसके पहले कि हम इस विषयपर विचार युक्त' प्रतिमाओं की स्थापना कर लेता । इस करें, यह बतला देना बहुत आवश्यक सम- बातसे कोई इंकार नहीं कर सकता कि झते हैं कि प्रतिमा-पूजनसे जैनधर्मकी क्या जैसा पदार्थ सामने होता है, या जैसेका मंशा है और क्यों इस विषयको उसने ध्यान आराधन किया जाता है हृदयमें उसी .. महत्त्व दिया । तरहका प्रतिबिंब पड़कर परिणाम भी फिर उसी तरहके होते हैं । उदाहरण के लिए कल्पना कीजिए कि हमारी आँखोंके सामने एक . सुन्दर स्त्रीका चित्र है । उसे देख हृदयमें भी कुछ न कुछ विकार उत्पन्न हो जायँगे - हमारे परिणामों की गति बदलना स्वाभाविक है । उसीतरह यदि हम किसी योगी-महात्मा के दर्शन करते हों, तो हमारे भावोंमें शान्ति होती जान पड़ेगी । भावोंका यह परिवर्तन प्रायः सामनेकी वस्तुको देखकर हुआ करता है । पर यह स्मरण रखना चाहिए कि यह बात उन्हीं लोगोंके लिए है जो निरालम्ब ध् नहीं कर सकते । या यों कह लीजिए कि स्वतंत्ररूपसे आत्मस्मरण करनेकी जिन्हें योग्यता प्राप्त नहीं है । मोक्षमार्गके दो भेद हैं - एक निश्चय और दूसरा व्यवहार । पहले मार्गके उपासक योगी-माहात्मा होते हैं । उनकी आत्मशक्तियाँ इतनी विकाशको प्राप्त हो जाती हैं उनका मन इतना स्थिर हो जाता है कि वे स्वतंत्ररूपसे आत्मध्यान 1 । ८ अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य है या नहीं ? Jain Education International • For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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