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________________ AAAAAAHALAKERALHALKATIHATALABER देशहित । नजर आते हैं । अध्यापक प्रफुल्लचन्द्रराय बदले अवगुण मोल लिया । ऐसा क्षुद्र देशामहाशयने प्राचीन भारतके रासायनिक ज्ञान भिमान जिसके कारण हम आलस्यमें मग्न हो और प्रक्रियाओंका इतिहास लिखकर दि- जायें और स्वप्नकी दशाको सत्य समझने खाया है कि इस विषयमें भी हमारा लगे नितान्त अनिष्टकर होगा। देशमें ऐसे ज्ञान , उस समय बहुत चढ़ा लोगोंकी कमी नहीं है जो सिर्फ इसी ऐंठमें बढ़ा था । अंकगणितके मूल तत्त्व, अकड़े फिरते हैं कि किसी समय हम दुनि. संख्यालेखनकी दशमलवप्रणाली—जिसके याके गुरु थे। ये लोग हमेशा निठल्ले रहबिना गणित शास्त्रमें कोई उन्नति होना कर भी सोचते हैं कि हमारा दुख और दारिद्र संभव ही न थी-भारतमें ही प्रचलित थी इन्हीं विचारोंके भरोसे मिट जायगा । भला और यहीसे दूसरे देशोंको गई । हमारा मृत- इन बेचारोंकी मूर्खताका भी कुछ ठिकाना प्राय आयुर्वेद आज भी हमारे पूर्वजोंकी है! इनकी दशा ठीक उसी मनुष्यकी नाई कीर्तिको बढ़ा रहा है । सुश्रुत, चरक आदि है जो शराबके नशेमें मतवाला होकर पासमें ग्रंथोंसे परिचित मनुष्य दावेसे कह सकता लँगोटी न होते हुए भी अपनेको दुनियाका है कि शरीरविच्छेदकिया ( Surgery) में राजा समझता है । भाइयो, स्वप्नकी, दशाको भी हमें खूब अभ्यास था। शिल्प, चित्र- त्यागकर ज़रा वर्तमानको भी देखो। विद्या और यंत्रविद्यामें भी हमारे यहाँ अच्छी उन्नति हो चुकी थी । पुरानी भारी भारी वर्तमानमें हमारी अवस्था बहुत ही खराब तोपें, बँदीकी कटारें और अजंटाकी गफाओं- है। हमारे मानसिक, नैतिक और शारीरिक के चित्र इन सब कलाओंके मृतप्राय नमने बलका अधःपतन हो चुका है । देशमें गरीबी हैं । व्यापारके विषयमें इतना ही कहना बस इतन इतनी बढ़ गई है कि सौमें से ७५ मनुहोगा कि सत्रहवीं सदीके अंत तक स्वतः प्यार । प्योंको दो बार भोजन भी मिलना कठिन है । इंग्लेंड भी हमारे देशसे कपड़ा पाता था। " फिजूल खर्चीने हमारा गला ऐसा फँसाया है ' कि हममें उठनेकी भी ताकत नहीं है। सारांश यह है कि सभ्यताके विषयमें शौकीनी और तड़क भड़क इतनी बढ़ गई भारतवर्ष किसी समय दुनियाका गुरु था। है कि ऋण लेकर भी हमें इनको पूरा करना हमें इस बातका अभिमान अवश्य होना पड़ता है । साहसने हमसे पूर्ण विदा ले ली चाहिए; परंतु क्या सिर्फ इतना होनेसे ही हम है । व्यापारमें नुकसान ही पड़ेगा और देशहितैषी कहे जा सकेंगे? नहीं नहीं, यदि नौकरी सरीखा उत्तम व्यवसाय दूसरा नहीं हमारे देशाभिमानकी ‘इतिश्री' सिर्फ घमंडमें है, इन नीच विचारोंने हमारे हृदयमें अधिही हो गई, तो जानना चाहिए कि हमने गुणके कार कर लिया है। हानिकारक रीति रिवाज़ों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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