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________________ mmmmmmmmmmmmmmmm देशहित । (लेखक, श्रीयुत बाबू खूबचन्दजी सोधिया बी. ए. एल. टी. । ) भारतवर्षकी सभ्यता अत्यंत प्राचीन भी है; परंतु क्या इससे यह बात भी प्रमाहै । जिस समय पश्चिमी यूरोपकी सुसभ्य णित नहीं होती है कि व्यक्तिगत, स्वतंत्रता जातियाँ निरी असभ्य और जंगली दशामें उस समय इस देशमें कितनी बढ़ा चढ़ी थी थीं, उससमय भारतमें सभ्यताकी उन्नत- ‘और प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी इच्छानुपताका फहरा रही थी । यद्यपि हम लोगोंको सार अपने विचारों और सिद्धांतोंको कायम उपर्युक्त बातपर पूरा विश्वास था; परंतु हम कर सकता था ? विचारस्वातंत्र्य, और दुनियाके सामने इस बातको प्रमाणित नहीं वचनस्वातंत्र्य, जो कि वर्तमान सभ्यताके पाये कर सकते थे । हर्षका विषय है कि आज- समझे जाते हैं, हमारे देशमें उस समय कलकी वैज्ञानिक खोजोंने इस कमीको पूरा अपनी चरम सीमातक पहुँच चुके थे। कर दिया है। पुरातत्त्वविभागकी खोजों प्रो. रामानन्द चटर्जी ने अपनी 'Indian और हमारे इतिहास और पौराणिक साहि- Shipping' नामक पुस्तकमें नाना प्रमात्यके मथनसे ऐसे ऐसे प्रमाण मिले हैं और णोंसे यह बात भलीभाँति सुबूत की है कि मिल रहे हैं कि जिनके द्वारा इतिहासज्ञोंने नाविक विद्या और समुद्रप्रवासमें हमारे सबत कर दिया है कि सभ्यताके उस जमा- पर्वज भलीभाँति दक्ष थे। बड़े बड़े व्यापारी नेमें, भारतमें ऐसा कोई व्यापार, विज्ञान और · जंगी जहाज बनाना उन्हें और कला नहीं, जिसमें उन्नति न की गई भलीभाँति मालूम था । उक्त प्रोफेहो। हम इस भारी और महत्त्वपूर्ण खोजके सर सा० ने धार्मिक साहित्यमेंसे भी लिए भारत सरकार और यूरोपीय विद्वानोंके कई सबल प्रमाण उक्त कथनकी पुष्टिमें दिये ऋणी हैं। हैं। समुद्रप्रवासके विरोधियोंको उक्त पुस्तक ___ जरा हिंदुस्थानके नाना दर्शन, भिन्न भिन्न अवश्य देखना चाहिए । अध्यापक महाशधर्म और संप्रदायोंकी ओर तो दृष्टि डालो। यने यह भी दिखाया है कि सिर्फ हमारा ये एक दूसरेसे कितने विभिन्न हैं ? भिन्न भिन्न समुद्रीय व्यापार ही बहुत चढा बढ़ा न था; धर्मोंके होनेसे हमारा जातीय बल अवश्य परंतु हमें उपनिवेश बसानेके फायदे भी घट गया है और देशमें आपसी फूट और मालूम थे। जावा, सुमात्रा प्रभृति देशोंमें लड़ाई झगड़ोंके कई कारणोंमेंसे एक यह हिन्दू जातिकी वस्तियोंके भग्नांश आज भी For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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